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________________ “ यस्तु मात्स्यानि मांसानि भक्षयित्वा प्रपद्यते । अष्टादशापराधं च कल्पयामि वसुन्धरे !" ॥ (कलकत्ता गिरिश विद्यारत्न प्रेसमें मुद्रित पत्र ५०८ अ. ११७ श्लो० २१) यस्तु वाराहमांसानि प्रापणेनोपपादयेत् । अपराध त्रयोविशं कल्पयामि वसुन्धरे !" ॥ , ,, . श्लो० २६ " सुरां पीत्वा तु यो मर्त्यः कदाचिदुपसर्पति । अपराध चतुर्विशं कल्पयामि वसुन्धरे !" ॥ , , श्लो० २७ सज्जनगण ! केवल इतनाही नहीं किन्तु प्रत्यक्ष दोषों से भी मांसाहार सर्वथाही त्याग करने योग्य है । देखिये-मांसाहारी के शरीर से सदैव दुर्गन्धि निकला करती है और उसका पसीना भी दुर्गन्धित रहता है । यद्यपि जीवोंका यह स्वभाव है कि जिस काम को वे किया करते हैं वह उन्हें अच्छाही मालूम होता है तो भी उनको विचार करना चाहिये कि जैसे, जिसको माँस का व्यसन पड़जाता है तो वह उसे अच्छाही समझता है इतनाही नहीं बल्कि दूसरों के सामने प्रशंसा भी करता है, एवं मद्य को पीनेवाला मद्य पीने के समय औषधि की तरह पीता है, वैसे ही मांस खानेवाले से यदि पूछाजाय तो उसके बरतन ( जिसमें कि उसने मांस पकाया है ) और उसके हाथ ( जिससे उसने मांस खाया है ) बहुत मुश्किल से साफ होते हैं; तथा मत्स्यादि मांस
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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