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(२)
नाही लेखक का मुख्य उद्देश्य है और उसमें भी सर्वदर्शनवालों की अत्यन्त प्रिया दयादेवी का ही अपनी बुद्धि के अनुसार वर्णन करने की इच्छा है। उसीको आक्षेपरहित पूर्ण करने के लिए लेखक की प्रवृत्ति है। दश का स्वरूप- लोकव्यवहारद्वारा, अनुभवद्वारा और श द्वारा लिखा जायगा; जिसमें प्रथम लोकव्यवहारसे यदि विचार करें तो मालूम होता है कि जगत् के समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में दया का अवश्य ही संशार है; अर्थात दुर्बल जीव पर यदि कोई बलवान जीन मार्ग में आक्रमण करता हो तो अन्य पुरुष, बलवन से दर्बल को बचाने के लिए अवश्यही प्रयत्न करेगा, जैसे कि यदि किमी को चोर रास्ते में लूटता हो और वह चिल्लाता हो तो उसकी चिल्लाहट सुनतेही लोग इकट्ठे होकर चोर के पकड़ने की कोशिश अवश्यही करेंगे, वैसेही कोई कैसाही क्यों न तुच्छ जीव हो, उसको यदि बलवान् जीव मारता होगा तो उसके छुडाने का प्रयत्न लोग अवश्य करेंगे, अर्थात् छोटे पक्षी को बड़ा पक्षी, बडे पक्षी की बाज़, बाज़ को दिल्ली, बिल्ली को कुत्ता,
और कुत्तेको कुत्तामार (डोम ) मारता होगा तो उसके छुड़ाने का प्रयत्न, देख लेवाला अवश्य ही करेगा । इसीसे कृष्णजी ( जिनको हिन्दू लोग भगवान् मानते हैं ) की भी कपटनीति को देखकर लोग एक बार उनके भी कृत्यों की निन्दा करने में संकोच नहीं करते हैं । अर्थात् भारतयुद्ध के समय चक्रव्यूह (चक्रावा) के बीच में जो अभिमन्यु से कृष्ण ने कपट किया था उसको सुनकर आजभी समस्त भक्तजन उनकी भी निन्दा करने की