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________________ (८५) अत एव हे वीरवर ! विचार की बात है कि यह सब वचन मांसभक्षी राक्षसों ने किसी के द्वारा बनवाकर तन्त्र शास्त्र में रख दिये हैं। ___ अब उपर्युक्त उदाहरणों से आप के अन्तःकरण में यह विचार तो ठीक ही बैठ गया होगा कि हिंसा, परस्त्रीगमन तथा मांसभक्षण करने से कभी धर्म नहीं हो सकता, तथापि अगर कोई यह कहे कि हां हिंसादि करने से भी धर्म होता है, तो उसको रोकने के लिये नीचे का श्लोक अवश्यही समर्थ हो सकता है। "धर्मश्चत् परदारसङ्गकरणाद् धर्मः सुरासेवनात् । संपुष्टिः पशुमत्स्यमांसनिकराहाराच्च हे वीर ! ते। हत्या प्राणिचयस्य चेत् तव भवेत् स्वर्गापवर्गाप्तये - कोऽसत्कर्मत या तदा परिचितः स्यान्नेति जानीमहे ॥१॥ भावार्थ-हे हिंसादि कर्मों में वीर ! यदि तुमको परस्त्रीगमन, मद्यसेवन से धर्म हो, पशु तथा मत्स्योंके आहार करने से शरीर की पुष्टि होती हो और प्राणिगण को मारने से स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होती हो, तो फिर कुकर्मी पुरुष कौन कहा जा सकता है ? यह मैं नहीं कह सकता। अर्थात् उक्त कर्मों को करनेवाले ही पापी और नरकादि के क्लेशों को भागने वाले होते हैं । इसी प्रकार मैथिलों का व्यवहार देखकर किसी कवि ने अवतारों की संख्या में जो भगवान् ने नृसिंहावतार धारण किया है उसकी भी उत्प्रेक्षा की है कि
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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