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(२११) और मांसभक्षी होता है; और अम्लपित्त को दूषित करता हुआ कुष्ठरोग उत्पन्न करता है ।
भिन्न भिन्न दर्शनकारों के भिन्न भिन्न आशय के द्वारा भिन्न भिन्न रीति से माने हुए आत्मतत्त्व के भिन्नता के कारण हिंसाशब्द में जब तक विवाद दृष्टि गोचर होता है तब तक अहिंसाधर्म की सिद्धि होनी अशक्य है । अतएव तत्संबन्ध में अब थोडा लिखकर इस निबन्ध को समाप्त करना चाहता हूँ। कितने ही दर्शनकार आत्मा और शरीर को एकान्त रीति से भेद मानते हैं। उनके अभिप्रायानुसार शरीर के छेदन, भेदन दशा में हिंसा नहीं मानना चाहिये; क्योंकि आत्सा शरीर से एकान्ततः भिन्न है । और एकान्त देहात्मा को अभिन्न मानने वाले महात्माओं के सिद्धान्तानुसार तो परलोकभाव और हिंसा भी नहीं सिद्ध होसकती है, क्योंकि देह के नाश में देही आत्मा का भी नाश होगा, तब आत्मा घट पट की तरह अनित्य हुआ, तो फिर जैसे घट पट के नाश से कोई हिंसा नहीं मानता, वैसेही अनित्य आत्मा के नाश से न तो हिंसा होगी और न कोई परलोकगामी होगा, और जब परलोकगामी कोई नहीं होगा तो परलोक का ही अभाव सिद्ध होगा। अतएव कथञ्चित् शरीर से भिन्नाभिन्नता से ही जीव की स्थिति अङ्गीकार करनी चाहिये; याने किसी प्रकार से तो आत्मा शरीर से भिन्न है और किसी प्रकार से अभिन्न है ऐसा युक्तियुक्त माना जाय तब जो शरीर नाश के समय पीडा उत्पन्न होती है उसे हिंसा कहते हैं; और शरीर नाश होने से आत्मा पदार्थ दूसरी गति