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भावार्थ- जो पुरुष जिसका मांस खाता है वह पुरुष उसका भक्षक गिना जाता है, जैसे बिल्ली चूहे को खाती है तो वह बिल्ली मूषकादक मानी जाती है, उसी प्रकार मत्स्य को खानेवाला मत्स्याद गिना जाता है, किन्तु वह मत्स्यादमात्रही कहा जाता हो सो नहीं, किन्तु सर्वमांसभक्षी गिना जाता है । अतएव मत्स्यों का मांस खाना सर्वथा अनुचित है । अपनी जाति की, धर्म की और घर की पवित्रता की रक्षा करनी हो तो मत्स्य का भक्षण सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
विवेचन—मत्स्य खानेवाले को जो सर्वमांसभक्षी माना है वह बहुत ही ठीक है, क्योंकि मत्स्य तो सब पदार्थों को खाता है, अर्थात् समुद्र में या नदी में, जो किसी जीव का मृत शरीर पड़जाता है तो उसको मत्स्यही खाता है और उसके खाने के साथ साथ उसका मल मूत्र भी खाता है, तो फिर जिसने मत्स्य का मांस खाया उसने तो मानों मनुष्य का मल मूत्र भी खालिया । अत एव कल्याणाभिलाषी जीवों को ऐसे कुत्सित आहार का कदापि ग्रहण नहीं करना चाहिए । अब मैं मांसाहार के निषेध करनेवाले कुछ थोड़े से पौराणिक श्लोकों को दिखलाता हूं । महाभारत, शांतिपर्व के २९६ अध्याय पृष्ठ १८८ में राजा जनक ने पराशर ऋषि से प्रश्न किया है कि कौन कर्म श्रेष्ठ है ? यथा
जनक उवाच
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कानि कर्माणि धर्म्याणि लोकेऽस्मिन् द्विजसत्तम ! | न हिंसन्तीह भूतानि क्रियमाणानि सर्वद । " ॥ ३५॥