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________________ ( ८३ ) भावार्थ- कोई कहता है कि रोहित मत्स्य हमको अत्यन्त प्रिय है, और मनर नामक मत्स्य तो मेरे गुरु को प्रिय है; तथा हिल्सी जाति का मत्स्य घृत और अमृत के समान है, और वाचाजाति के मत्स्य का स्वाद कहने में नहीं आसकता । देखिये ऐसे कल्पित श्लोकों क बनाकर मांसाहारी लोग बिचारे धर्मतत्त्व के अनजान पुरुषों को भी परिभ्रष्ट करते हैं । इस पूर्वोक्त श्लोक को बङ्गदेश के मनुष्य प्रायः कहा करते हैं । और ' केचिद् वदन्त्यमृतमस्ति पुरे सुराणाम्' इत्यादि श्लोक तो प्रायः मैथिल कहते हैं । बङ्गदेशनिवासियों में कितनेही मनुष्यों के मत्स्यभक्षण आदि कुत्सित व्यवहार को देखकर अन्य कवियों ने कवितारूपसे बङ्गवासियों का हास्य किया है कि " स्थाने सिंहसमा रणे मृगसमाः स्थानान्तरे जम्बुका आहारे बककाकशुकरसमाइलागोपमा मैथुने । रूपे मर्कटवत् पिशाचवदना क्रूराः सदा निर्दया बङ्गीया यदि मनुषा हर ! हर ! त्रेताः पुनः कीदृशाः ॥ १ ॥ भावार्थ - अपने स्थान में सिंह की भांति स्थिति करनेवाले, रंण में मृग ( हरिण ) की तरह भागनेवाले, दूसरे के स्थान में शृंगाल जैसे, बगले, काक और शूकर की तरह अभक्ष्य आहार करने वाले, विषय सेवनमें बकरे जैसे, बन्दर के सदृश रूपवाले, पिशाच जैसे मुखवाले अर्थात् भयंकर तथा क्रूर स्वभाव वाले और दया करके रहित ऐसे मांस भक्षणादि कुत्सित व्यवहार करने वाले बङ्गवासी लोगों को अगर मनुष्य कहें तो भला
SR No.002390
Book TitleAhimsa Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaydharmsuri
PublisherYashovijay Jain Granthmala
Publication Year1923
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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