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है यह स्पष्ट किये विना बनता नहीं है; इसलिये जो मांस को उत्तम मानते हैं वे पुरुष दिखलाये जाते हैंअर्थात् घायल पुरुष, क्षीण, संतापी, विषयासक्त और मार्गादि परिश्रम से थके हुए पुरुष ही मांस की अपेक्षा से अधिक अच्छा पदार्थ अपनी समझ से कुछ भी नहीं समझते हैं और केवल मांसाहारसे ही शरीर की पुष्टि मागते हैं, इसलिये उनकी समझ से मांस से अच्छा कोई दूसरा भक्ष्य नहीं है । किन्तु धर्मात्मा पुरुष तो मांसाहार को कदापि स्वीकार नही करते । हे कौरवनन्दन! मांसाहार त्याग करने से मनुष्यों को जो गुण होते हैं उनका दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है । जो पुरुष दूसरे के मांस से अपने मांस की वृद्धि करना चाहता है उस निर्दय पुरुष से दूसरा पुरुष हजार कुकर्म करनेवाला भी अच्छा ही है, क्योंकि संसार में प्राण से बढ़कर कोई भी दूसरा वस्तु प्रियतर नहीं है, अतएव हे पुरुषश्रेष्ठ ! अपने आत्मा पर जैसा तुम प्रेमभाव रखते हो वैसाही दूसरे के प्राणोंपर भी करो । तथा वीर्य से ही मांस की उत्पत्ति होती है यह बात भी सभी को संमत है क्योंकि इसमें किसी को कुछभी संदेह नहीं है, अतएव उसके खाने में बहुत दोष ह और त्याग करने में बहुत पुण्य है । हे युधिष्ठिर ! सब प्राणियों में दया करनेवाले पुरुष को कभी भय नहीं होता, और दयावान् पुरुष को और तपस्वीजनों को ही यह लोक और परलोक दोनों अच्छे होते हैं; इसलिये हमलोग अहिंसा को ही परम धर्म मानते हैं । जो पुरुष दया में तत्पर होकर सब प्राणियों को अभयदान देता है वही पुरुष सब भूतों से