Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान युवाचार्य श्री मधुकर मुनि विपाकसूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पारीमाष्ट युक्त) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 11 [परमश्रद्धय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में प्रायोजित ] पंचम गणधर भगवत्सुधर्म-स्वामि-प्रणीत ग्यारहवाँ अंग विपाकश्रत . [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त ] सन्निधि // उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्रीव्रजलालजी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक - युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक पं. रोशनलाल जैन सम्पादक 0 शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक ] श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर, राजस्थान Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 11 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्रीकन्हैयालालजी 'कमल' श्रोदेवेन्द्र मुनि शास्त्री श्रीरतन मुनि पण्डित श्रीशोभाचन्द्रजी भारिल्ल प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' [] सम्प्रेरक मुनि श्रीविनयकुमार 'भीम' श्रीमहेन्द्रमनि 'दिनकर' 0 प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाणसंवत 2508 विक्रम सं. 2036, ई. सन् 1982 0 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशनसमिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर–३०५६०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ // मूल्य : 25) रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhara Sudharma Swami Compiled Eleventh Anga VIVAGA-SUYAMA (Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity Up-pravartaka Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar Translator Pt. Roshanlal Jain Editor Shobhachandra Bharill Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar ( Raj. ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jiragam Granthmala Publication No, il Board of Editors Anuyoga-pravartaka Munisri Kanhaiyalali 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill Managing Fditor Srichand Surana 'Saras' O Promotor Munisri Vinayakumar Bhima Sri Mahendramuni 'Dinakar' Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2508 Vikram Samvat 2039, June 1982 Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305901 Printer Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer--305001 5 Price : Rs. 25/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंमे जिनशासन के उद्योत में अनुपम योगदान दिया, लगातार साठ वर्षों तक संयम-जीवन यापन किया, राजस्थान, गुजरात, कच्छ, काठियावाड, मालवा, मेवाड़, उत्तरप्रदेश, दिल्ली और जम्मू कसे सुदूरवर्ती प्रदेशों में परिभमण करके और भीषण व्यथाएँ समभावपूर्वक सहन करके भी धर्म की अपूर्व ज्योति प्रज्वलित की, ___जो ज्ञान और चारित्र को समन्वित मूर्ति थे. जिनकी मधुर एवं प्रभावपूर्व वाणी में अद्भुत मोज और तेज था, उन महान मनीषी प्राचार्यप्रवर श्रीरघुनाथजी महाराज को स्मृति में सविनय सादर समर्पित / —मधुकर मुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय विपाकसूत्र पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए अतीव सन्तोष एवं प्रमोद का अनुभव हो रहा है। जिस स्वरामय गति से आगम-प्रकाशन का कार्य सम्पन्न हो रहा है, वह यदि शासनदेव के अनुग्रह से, विना किसी विध्न-बाधा के चालू रहा तो समिति अल्प काल में ही सम्पूर्ण बत्तीसी पागम-प्रेमी धर्मनिष्ठ सज्जनों के हाथों में पहुंचा देगी। सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, द्वितीय श्रतस्कन्ध, स्थानांग, समवायांग और प्रस्तुत विपाकश्रुत स्वल्प काल के अन्तर से मुद्रित हो चुके हैं। हर्ष का विषय है कि विशालकाय श्रीव्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र का मुद्रण चाल हो चुका है। आशा है इसका प्रथम भाग शीघ्र पाठकों तक पहुँच सकेगा। नन्दीसूत्र का मुद्रण पूर्ण हो चुका है। उसके प्रारंभ का प्रस्तावना आदि का तथा अन्तिम भाग परिशिष्ट का मुद्रण भी होने ही वाला है / वह भी जल्दी ही तैयार हो जाएगा। औपपातिक सूत्र का मुद्रण भी चल रहा है। राजप्रश्नीयसूत्र और प्रश्नव्याकरणसूत्र संशोधनाधीन हैं / इसी प्रकार प्रागे का क्रम भी चालू रह सके, ऐसी व्यवस्था की जा रही है / विपाकसूत्र का अनुवाद जैन समाज के प्रौढ विद्वान पं. रोशनलालजी जैन ने किया है / किन्तु अपने अस्वास्थ्य के कारण उन्होंने उसे अन्तिम रूप देने में अपनी असमर्थता प्रकट की / अतएव ग्रन्थमाला के सम्पादक म. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने शेष कार्य सम्पन्न किया है। विपाकसूत्र का कर्मसिद्धान्त के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होने के कारण विश्रुत विद्वान् एवं समर्थ लेखक श्रद्धय श्री देवेन्द्रमुनिजी म. शास्त्री ने इसकी प्रस्तावना में कर्मसिद्धान्त का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है / आशा है स्वाध्यायशील पाठक उससे लाभान्वित होंगे। प्रस्तुत आगम के प्रकाशन में उदारहृदय श्रीमान् बादलचंदजी सा. चोरड़िया का महत्त्वपूर्ण सहकार प्राप्त हुया / समिति उसके लिए अतीव आभारी है। श्रमणसंघ के यूवाचार्य आगम-निष्णात पण्डितप्रवर मुनि श्री मधुकरजी म सा. आगमों के मुद्रित होने से पूर्व निरीक्षण परीक्षण करने में अपना जो बहुमूल्य समय दे रहे हैं, हमारा पथप्रदर्शन कर रहे हैं, उसके लिए हार्दिक आभार प्रकट करने के लिए हमारे पास उपयुक्त शब्द नहीं हैं। उदारचेता आगमप्रेमी अर्थ सहायकों के सहयोग से ही यह पावन अनुष्ठान अग्रसर हो रहा है / वैदिक यंत्रालय, अजमेर के प्रबन्धक श्री सतीशचन्द्रजी शुक्ल तथा जिनसे प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग प्राप्त हो रहा है, उनके भी हम आभारी हैं। जतनराज महेता महामंत्री रतनचंद मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष चांदमल विनायकिया मंत्री Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमान् सेठ एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास [जीवन-परिचय] राजस्थान के मारवाड़ प्रदेश में नागौर जिले में एक छोटा सा गांव, नोखा चांदावतों का है / यह धनिकों की बस्ती है / यहीं आपका जन्म वि. संवत् 1976 भाद्रपद कृष्णा 5 को धर्मनिष्ठ सुधावक स्व. श्री सिमरथमलजी सा. चोरडिया के यहाँ हुआ। आपकी मातुश्री का नाम श्रीमती गटुबाई था। वे सरलता, दयालुता, एवं निश्छलता की मूर्ति एवं धर्मपरायणा थीं। उनके सभी गुण आप में विद्यमान हैं। आपका प्रारंभिक शिक्षण राजस्थान में ही हुया / उसके बाद आप व्यवसाय हेतु आगरा पधार गये। आपके अग्रज श्री एस. रतनचन्दजी सा. चोरड़िया सुज्ञ श्रावक हैं / आपके अनुज श्री एस. सायरचन्दजी सा. एवं सबसे छोटे भाई स्व. श्री एस. रिखबचन्दजी सा. चोरडिया का वर्तमान में व्यवसाय केन्द्र मद्रास ही है। आप सभी भाई यहाँ फाइनेन्स के व्यवसाय में संलग्न हैं। आपकी बड़ी बहन पतासीबाई भी भद्र प्रकृति की महिला हैं / __आप सरलमना, गंभीर एवं धार्मिक प्रकृति के हैं। आपकी ही तरह अापकी धर्मपत्नी श्रीमती सुगनकंवरबाई भी धर्मभावना से अनुप्राणित हैं। अपने विवेकयत परुषार्थ एवं प्रामाणिकता की बदौलत प्रापने फाइनेन्स के व्यवसाय में अच्छी सफलता प्राप्त की और खब द्रव्योपार्जन किया. और उससे अनेक सामाजिक एवं धार्मिक संस्थाओं तथा संस्थानों को सहायता प्रदान की है। आप वर्तमान में अनेक संस्थाओं से सम्बन्धित हैं--- उपाध्यक्ष-श्री वर्द्धमान सेवा समिति, नोखा (राजस्थान) संरक्षक -श्री जैन मेडीकल रिलीफ सोसायटी श्री एस. एस. जैन एज्युकेशनल सोसायटी श्री एस. एस. जैन जनसेवा समिति श्री अखिल भारतीय भ. महावीर अहिंसा प्रचार संघ सदस्य ---- श्री दक्षिण भारत स्वाध्याय संघ, मद्रास श्री आगम प्रकाशन समिति के भी पाप महास्तम्भ सदस्य हैं तथा प्रस्तुत आगम के प्रकाशन में आपने विशिष्ट सहयोग प्रदान किया है। पारमार्थिक कार्यों के लिये आपने एस. बादलचन्द चोरडिया ट्रस्ट भी बनाया है / सामाजिक, धार्मिक एवं जनहित के कार्यों में भी पाप यथाशक्ति अपने द्रव्य का सदुपयोग करते रहते हैं / परम्परा से ही आपके परिवार की स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. सा के प्रति प्रगाढ श्रद्धाभक्ति रही है / आपकी पूज्य उपप्रवर्तक स्वामीजी श्री ब्रजलालजी म. सा. एवं बहुश्रुत युवाचार्य पं. र. मुनि श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' के प्रति अटूट श्रद्धा है। आपकी धर्मभावना दिनोंदिन वृद्धिंगत हो ऐसी मंगल कामना है। 00 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि वचन विश्व के जिन दार्शनिकों-दृष्टानों/चिन्तकों, ने "आत्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या प्रात्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ प्रात्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है। प्रात्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन अाज अागम/पिटक/वेद/उपनिषद् प्रादि विभिन्न नामों से विश्रुत है। जैन दर्शन की यह धारणा है कि प्रात्मा के विकारों-राग द्वष प्रादि को, साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णत: निरस्त हो जाते हैं तो प्रात्मा की शक्तिया ज्ञान/सुख/वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित-उद्भासित हो जाती हैं। शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ/प्राप्त-पुरुष की वाणी; वचन/कथन/प्ररूपणा--"अागमके नाम से अभिहित होती है / आगम अर्थात् तत्त्वज्ञान, प्रात्म-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र/आप्तवचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवन पद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्म प्रवर्तक/अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "पागम" या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिन-वचनरूप सुमनों की मुक्त वष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "प्रागम" का रूप धारण करती है। वही प्रागम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए आत्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत है। "पागम" को प्राचीनतम भाषा में "गणिपिटक" कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्रद्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग/ग्राचारांग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनेक भदोपभेद विकसित हुए हैं। इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्ष के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है। द्वादशांगी में भी बारहवां अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे / इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुआ तथा इसी अोर सबकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब प्रागमों/शास्त्रों को स्मृति के अाधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए पागम ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया और इसीलिए श्रुति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक प्रागमों का ज्ञान स्मृति/श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा। पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य ; गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे पागमज्ञान लुप्त होता चला गया। महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र रह गया / मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ चिन्तन की तत्परता एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु / तभी महान् श्रुतपारगामी देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ने विद्वान् श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते मागम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्वसम्मति से पागमों को लिपि-बद्ध किया गया / Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनवाणी को पुस्तकारूढ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुतः प्राज की समग्र ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हपा / संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा प्रात्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष पश्चात् प्राचीन नगरी वलभी (सौराष्ट्र) में प्राचार्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुना। वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था / अाज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था / पुस्तकारूढ होने के बाद प्रागमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु काल-दोष, श्रमण-संधों के प्रान्तरिक मतभेद, स्मृति दुर्बलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी अाक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान-भण्डारों का विध्वंस आदि अनेकानेक कारणों से प्रागम ज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं दिलुप्त होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गूढार्थ का ज्ञान, छिन्नविच्छिन्न होते चले गए। परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो आगम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ वाले नहीं होते, उनका सम्यक अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते / इस प्रकार अनेक कारणों से आगम की पावन धारा संकुचित होती गयी। विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। आगमों के शूद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चाल हुअा। किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये / साम्प्रदायिक-विद्वेष, सैद्धांतिक विग्रह, तथा लिपिकारों का प्रत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उसके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गया। प्रागम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई। धीरे-धीरे विद्वत्-प्रयासों से प्रागमों की प्राचीन चूणियां, नियुक्तियाँ, टीकार्य आदि प्रकाश में आई और उनके आधार पर प्रागमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हुआ। इसमें प्रागम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासु जनों को सुविधा हुई / फलतः प्रागमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मेरा अनुभव है, आज पहले से कहीं अधिक प्रागम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति बढ़ी है, जनता में प्रागमों में प्रति आकर्षण व रुचि जागत हो रही है। इस रुचि-जागरण में अनेक विदेशी प्रागमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जैनेतर विद्वानों की प्रागम-श्रुत-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। आगम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है। इस महनीयश्रत-सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों, पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नींव की ईंट की तरह प्राज भले ही प्रदश्य हों, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं, स्पष्ट व पर्याप्त उल्लेखों के अभाव में हम अधिक विस्तत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्ट-ग्रागम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहूँगा। आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलक ऋषिजी महाराज ने जैन आगमों---३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर अद्भुत कार्य किया। उनकी दृढ लगनशीलता, साहस एवं आगम ज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है। वे 32 ही प्रागम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे आगमपठन बहत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हया। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज का संकल्प मैं जब प्रातःस्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. के सान्निध्य में आगमों का अध्ययनअनुशीलन करता था तब पागमोदय समिति द्वारा प्रकाशित प्राचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकात्रों से युक्त कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के प्राधार पर मैं अध्ययन-वाचन करता था। गुरुदेवश्री ने कई बार अनुभव कियायद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी है, अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्रायः शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूलपाठों में व वृत्ति में कहीं-कहीं प्रशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिये दुरूह तो हैं ही। चुकि गुरुदेवश्री स्वयं प्रागमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें पागमों के अनेक गढ़ार्थ गुरु-गम से प्राप्त थे। उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क-प्रवण थी, अतः थे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्य ज्ञानवाले श्रमण-श्रमणी एवं जिज्ञासुजन लाभ उठा सकें। उनके मन की यह तड़प कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थितियों के कारण उनका यह स्वप्न-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बनकर अवश्य रह गया। इसी अन्तराल में प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य जैनधर्म दिवाकर प्राचार्य श्री आत्माराम जी म०, विद्वद्रत्न श्री घासीलालजी म० ग्रादि मनीषी मुनिवरों ने भागमों की हिन्दी, संस्कृत, गुजराती आदि में सुन्दर विस्तृत टीकायें लिखकर या अपने तत्त्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक माम्नाय के विद्वान् श्रमण परमश्रुतसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगम सम्पादन की दिशा में बहुत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था / विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा। किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तदपि प्रागमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी आदि के तत्त्वावधान में आगम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य प्राज भी चल रहा है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय में प्राचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में प्रागम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो ग्रागम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखकर विद्वानों को प्रसन्नता है। यद्यपि उनके पाठनिर्णय में काफी मतभेद की गुंजाइश है। तथापि उनके श्रम का महत्त्व है। मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. “कमल" आगमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। उनके द्वारा सम्यादित कुछ आगमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है। आगम साहित्य के वयोवृद्ध विद्वान् पं० श्री बेचरदासजी दोशी, विश्रुत-मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष आगमों के आधनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं। यह प्रसन्नता का विषय है। इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात् मेरे मन में एक संकल्प उठा। अाज प्रायः सभी विद्वानों की कार्यशैली काफी भिन्नता लिये हुए है। कहीं पागमों का मूल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं पागमों की विशाल व्याख्यायें की जा रही हैं। एक पाठक के लिये दुर्बोध है तो दूसरी जटिल / सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक आगमज्ञान प्राप्त हो सके, एतदर्थ मध्यम मार्ग का अनुसरण आवश्यक है। प्रागमों का एक ऐसा संस्करण होना चाहिये जो सरल हो, सुबोध हो, संक्षिप्त और प्रामाणिक हो / मेरे स्वर्गीय गुरुदेव ऐसा ही प्रागम-संस्करण चाहते थे। इसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 5-6 वर्ष पूर्व इस विषय की चर्चा प्रारम्भ की Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी , सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान् महावीर कैवल्यदिवस को यह दृढ निश्चय घोषित कर दिया और आगमबत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी। इस साहसिक निर्णय में गुरुभ्राता शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. की प्रेरणा प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है। साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सदगृहस्थों का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हुया है, जिनका नामोल्लेख किये बिना मन सन्तुष्ट नहीं होगा। आगम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. “कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्र मुनिजी म० शास्त्री, प्राचार्य श्री आत्मारामजी म. के प्रशिष्य भण्डारी श्री पदमचन्दजी म० एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वद्रत्न श्री ज्ञानमुनिजी म०; स्व० विदुषी महासती श्री उज्ज्वल कुवरजी म० की सुशिष्याएं महासती दिव्यप्रभाजी, एम. ए.,पी-एच. डी.; महासती मुक्तिप्रभाजी तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुवरजी म. 'अर्चना', विश्रुत विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया, सुख्यात विद्वान् पं० श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, स्व. पं० श्री हीरालालजी शास्त्री, डा. छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा "सरस" प्रादि मनीषियों का सहयोग प्रागमसम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है। इन सभी के प्रति मन आदर व कृतज्ञ भावना से अभिभूत है। इसी के साथ सेवा-सहयोग की दृष्टि से सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार एवं महेन्द्र मुनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानकुवरजी, महासती श्री झणकारकुंवरजी का सेवाभाव सदा प्रेरणा देता रहा है। इस प्रसंग पर इस कार्य के प्रेरणा-स्रोत स्व० श्रावक चिमनसिंहजी लोढ़ा, स्व. श्री पुखराजजी सिसोदिया का स्मरण भी सहजरूप में हो पाता है जिनके अथक प्रेरणा-प्रयत्नों से पागम समिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है। दो वर्ष के अल्पकाल में ही दस आगम ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब 15-20 आगमों का अनुवाद-सम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियो को गहरी लगन का द्योतक है। मुझे सुदृढ विश्वास है कि परम श्रद्धेय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज आदि तपोपूत पार के शुभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंघ के भाग्यशाली नेता राष्ट्र-संत प्राचार्य श्री आनन्दऋषिजी म. प्रादि मुनिजनों के सद्भाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। इसी शुभाशा के साथ,. -~-मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ Xxxww 700 र विषयसूची प्रथम श्रुतस्कन्ध : दुःखविपाक विषय पृष्ठ विषय प्रथम अध्ययनः मृगापुत्र अभग्नसेन का वर्तमानभव सारः संक्षेप 3 अभग्नसेन का भविष्य उत्क्षेप-चम्पानगरी अध्ययन: शकट सुधर्मा स्वामी का आगमन जम्बू स्वामी की जिज्ञासा आर्य जम्बू की जिज्ञासा सुधर्मा स्वामी का समाधान सुधर्मा स्वामी का समाधान शकट के पूर्वभव का वृत्तान्त जन्मान्ध मृगापुत्र शकट का वर्तमान भव मृगापुत्र के विषय में गौतम की जिज्ञासा शकट का भविष्य मृगापुत्रविषयक प्रश्न भगवान् द्वारा समाधान पंचम अध्ययन : बृहस्पतिदत्त इक्काई का अत्याचार प्रस्तावना इक्काई को भयंकर रोग पूर्वभव इक्काई की मृत्यु वर्तमान भव मृगापुत्र का जन्म भविष्य मृगापुत्र का भविष्य षष्ठ अध्ययन : नन्दिवर्द्धन द्वितीय अध्ययन : उज्झितक प्रस्तावना उत्क्षेप गौतम स्वामी का प्रश्न उज्झितक-परिचय 27 भगवान् का उत्तर–नन्दिषेण का पूर्व भव उज्झितक की दुर्दशा 27 जेलर का घोर अत्याचार पूर्वभव-विवरण: भीम कूटग्राह 30 पितृवध का दुःसंकल्प उज्झितक का भविष्य षड्यंत्र विफल : घोर कदर्थना नन्दिषेण का भविष्य तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन उत्क्षेप 41 सप्तम अध्ययन : उम्बरदत्त चोरपल्ली प्रस्तावना चोरसेनापति विजय 41 उम्बरदत्त का वर्तमान भव अभग्नसेन 42 पूर्वभव सम्बन्धी पृच्छा अभग्नसेन का पूर्वभव 44 पूर्वभव-वर्णन अभग्नसेन का निन्नयभव 44 उम्बरदत्त का भ .... 6M 20 23 Mmmm 1 [9] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठ अष्टम अध्ययन : शौरिकदत्त विषय पूर्वभव देवदत्ता का भविष्य 106 प्रस्तावना शौरिकदत्त का वर्तमानभव पूर्वभव-कथा शौरिकदत्त का भविष्य नवम अध्ययन : देवदत्ता उत्क्षेप वर्तमान भव दशम अध्ययन : अंज प्रस्तावना पूर्वभव वर्तमान भव भविष्यत् वृत्तान्त 111 111 129 الله عبد الله द्वितीय श्रुतस्कन्ध : सुखविपाक सार : संक्षेप 114 द्वितीय अध्ययन : भद्रनन्दी प्रथम अध्ययन : सुबाहुकुमार तृतीय अध्ययन : सुजातकुमार प्रस्तावना 116 चतुर्थ अध्ययन : सुवासवकुमार सुबाहका जन्म : गहस्थजीवन 117 पचम अध्ययन : जिनदास सुबाहु का धर्मश्रवण षष्ठ अध्ययन : धनपति गृहस्थधर्म-स्वीकार 118 सप्तम अध्ययन : महाबल गौतम की सुबाहुविषयक जिज्ञासा 119 अष्टम अध्ययन : भद्रनन्दी भगवान् द्वारा समाधान 120 नवम अध्ययन : महाचन्द्र सुपात्र-दान 122 दशम अध्ययन : वरदत्त सुबाहु की प्रव्रज्या 126 परिशिष्ट सुबाहु का भविष्य 127 अनध्याय الله الله لده ل ل 137 ل ل 150 [10] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना विपाकश्रुत : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन साहित्य प्रागम और प्रागमेतर-इन दो भागों में विभक्त है। साहित्य का प्राचीनतम विभाग आगम कहलाता है / केवलज्ञान केवलदर्शन होने के पश्चात् भगवान् ने समूचे लोक को देखा, इस विराट् विश्व में अनन्त प्राणी हैं और वे प्राधि, व्याधि और उपाधि से संत्रस्त हैं / विविध दुःखों से आक्रान्त हैं। उनका करुणापूरित हृदय द्रवित हो उठा और जन-जन के कल्याण के लिए अपने मंगलमय प्रवचन प्रदान किये / प्रवचन प्रदान करने के कारण वे तीर्थंकर कहलाये।' वे सत्य के प्रवक्ता थे। उन्होंने अपने प्रवचनों में बन्ध, बन्ध-हेतु, मोक्ष और मोक्ष-हेतु का स्वरूप बतलाया। / भगवान् की वह अद्भुत और अनूठी वाणी पागम कहलाई / उनके प्रधान शिष्य गणधरों ने गथा, अतः आगम के दो विभाग हो गये-सुत्रागम और अर्थागम। ये आगम आचार्यों के लिए निधि रूप थे, अतः इनका नाम गणि-पिटक हुआ। उस गुम्फन के मौलिक-विभाग बारह थे, अतः उसका दूसरा नाम द्वादशांगी हुा / बारह अंगों में विपाक का ग्यारहवाँ स्थान है। आचार्य वीरसेन ने कर्मों के उदय व उदीरणा को विपाक कहा है / 2 प्राचार्य पूज्यपाद और आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है-विशिष्ट या नाना प्रकार के पाक का नाम विपाक है। पूर्वोक्त कषायों को तीव्रता. मन्दता. ग्रादि रूप भावाश्रव के भेद से विशिष्ट पाक का होना "विपाक" है। अथवा द्रव्य. क्षेत्र, काल, भाव और भव रूप निमित्त भेद से उत्पन्न हा वैश्व रूप्य नाना प्रकार का पाक विपाक 1, "तीर्थ" शब्द अपने में अनेक अर्थों को समेटे हुए है। उनमें से एक अर्थ प्रवचन है, अत: प्रवचनकार को तीर्थकर कहा जाता था। बौद्ध साहित्य में इसी अर्थ में छह तीर्थंकरों का उल्लेख है। प्राचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में 'कपिल' प्रादि को तीर्थकर कहा है। प्राचार्य जिनदास मणी महत्तर ने "परं तत्र तीर्थंकरः और वयं तीर्थकरा इति................" लिखा है-देखिए सूत्रकृतांगचूणि (पृ. 47, पृ. 322) / प्रवचन के आधार पर ही श्रमण-श्रमणी श्रावक और श्राविका को भी तीर्थ कहा है। 2. कम्माणमुदयो उदोरणा वा विवागो णाम / -धवला. 1415.6,14 / 10 / 2 3. विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाकः। पूर्वोक्तकषायतीव्रमन्दादिभावास्रवविशेषाद्विशिष्ट : पाको विपाकः / अथवा द्रव्यक्षेत्रकालभवभावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविधः पाको विपाकः / -सर्वार्थसिद्धि 8211398 / 3 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक 8121 / 1 / 583 / 13 [11] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। प्राचार्य हरिभद्र', आचार्य अभयदेव ने वृत्ति में लिखा है कि विपाक का अर्थ है-पुण्य पाप रूप कर्म-फल, उस का प्रतिपादन करने वाला सूत्र विपाकश्रुत है। समवायांग में विपाक का परिचय देते हुए लिखा है कि विपाक सूत्र सुकृत और दुष्कृत कमों के फल-विपाक को बतलाने वाला आगम है / उसमें दुःखविपाक और सुखविपाक ये दो विभाग हैं। नन्दीसूत्र में आचार्य देववाचक ने विपाक का यही परिचय दिया है। स्थानांगसूत्र में विपाक सूत्र का नाम कर्मविपाकदशा दिया है / वृत्तिकार' के अनुसार यह ग्यारहवें अंग विपाक का प्रथम श्रुतस्कन्ध है / समवायांगसूत्र के अनुसार विपाक के दो श्रुतस्कंध हैं, बीस अध्ययन हैं, बीस उद्देशनकाल हैं, बीस समुद्देशनकाल हैं, संख्यात पद, संख्यात अक्षर, परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ नामक छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां, और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं / वर्तमान में जो विपाकसूत्र उपलब्ध है वह 1216 श्लोकपरिमाण है। स्थानाङ्ग में प्रथम श्रु तस्कंध के दस अध्ययनों के नाम आये हैं, पर दूसरे श्रु तस्कंध के अध्ययनों के नाम वहां उपलब्ध नहीं हैं। वृत्तिकार का यह अभिमत है कि दूसरे श्र तस्कन्ध के अध्ययनों की अन्यत्र चर्चा की गई है / 12 प्रथम श्रु तस्कन्ध का नाम 'कर्मविपाकदशा' है।3 स्थानाङ्ग के अनुसार कर्मविपाकदशा के अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं१४ : (1) मृगापुत्र, (2) गोत्रास, (3) अण्ड, (4) शकट, (5) ब्राह्मण, (6) नन्दिषेण, (7) शौरिक, (8) उदुम्बर, (9) सहस्रोद्दाह आभरक, (10) कुमार लिच्छई / उपलब्ध विपाक के प्रथम श्रु तस्कन्ध के अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं (1) मृगापुत्र, (2) उज्झितक, (3) अभग्नसेन, (4) शकट, (5) बृहस्पतिदत्त, (6) नन्दिवर्द्धन, (7) उम्बरदत्त, (8) शौरिकदत्त, (6) देवदत्ता, (10) अंजू / 5. विपचनं विपाकः, शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः, तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्र तं ! -नन्दीहारिभद्रीयावृत्ति प. 105, प्र.-ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्व. संस्था रतलाम, सन् 1928 6. विपाक : पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतमागमो विपाकश्रु तम् / –विपाकसूत्र अभयदेववृत्ति 7. विवागसुए णं सुकड-दुक्कडाण-कम्माणं फल विवागा प्राविति, -समवायांगसूत्र 146, मुनि कन्हैयालाल 8. नन्दीसूत्र प्रागमपरिचय सूत्र 11 9. कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता -स्थानात, स्थान 10, सूत्र 111: 10. कर्मविपाकदशा:, विपाकन ताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्र तस्कन्धः --स्थानाङ्ग वत्ति पत्र 480 11. समवायांग सूत्र 146, पृ. 133, मुनि कन्हैयालाल 'कमल' 12. द्वितीयश्र तस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मक एव, न चासाबिहाभिमतः, उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्वादिति -स्थानात वृत्ति पत्र 480 13. कर्मण:-अशुभस्य बिपाक:-फलं कर्मविपाक: तत्प्रतिपादका दशाध्ययनात्मकत्वादृशाः कर्मविपाकदशा: विपाकश्र ताख्यस्यकादशाङ्गस्य प्रथमश्र तस्कन्धः ---स्थानाङ्ग वृत्ति पत्र 480 14. स्थानाङ्ग 10 / 111 [12] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग में जो नाम आये हैं और वर्तमान में जो नाम उपलब्ध हैं, उनमें अन्तर स्पष्ट है। विपाकसूत्र में अध्ययनों के कई नाम व्यक्तिपरक हैं तो कई नाम वस्तुपरक-यानी घटनापरक हैं। स्थानाङ्ग में जो नाम आये हैं वे केवल व्यक्तिपरक हैं। दो अध्ययनों में क्रम-भेद है। स्थानाङ्ग में जो आठवाँ अध्ययन है वह विपाक का सातवाँ अध्ययन है और जो स्थानाङ्ग का सातवाँ अध्ययन है वह विपाक का आठवां अध्ययन है / _स्थानाङ्ग में दूसरे अध्ययन का नाम पूर्वभव के नाम के आधार पर "गोत्रास" रखा गया है तो प्रस्तुत सूत्र में अगले भव के नाम के आधार पर उज्झितक रखा है। स्थानाङ्ग में तीसरे अध्ययन का अंड नामकरण पूर्वभव के व्यापार के आधार पर किया गया है तो विपाक में अग्रिम भव के नाम के आधार पर 'अभग्नसेन' रखा है। स्थानाङ्ग में नौवें अध्ययन का नाम सहस्रोद्दाह आभरक या सहसोदाह है / सहस्रों व्यक्तियों को एक साथ जला देने के कारण उसका यह नाम दिया गया है जबकि विपाक में प्रस्तुत अध्ययन की मुख्य नायिका देवदत्ता होने के कारण अध्ययन का नाम देवदत्ता रखा गया है। स्थानाङ्ग में दसवें अध्ययन का नाम 'कुमार लिच्छई है। लिच्छवी कुमारों के प्राचार पर यह नाम रखा गया है जबकि विपाक में इसका नाम "अंज" है जो कथानक की मुख्य नायिका है / विज्ञों का यह मानना है कि लिच्छवी का सम्बन्ध लिच्छवी वंश विशेष के साथ होना चाहिए। नन्दीसूत्र और स्थानाङ्गसूत्र में विपाक के द्वितीय श्रु तस्कन्ध सुखविपाक के अध्ययनों के नाम नहीं आये हैं / समवायांग में तो दोनों श्रु तस्कन्धों के अध्ययनों के नाम नहीं हैं। विपाक सूत्र में सुख विपाक के अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं-(१) सुबाहुकुमार, (2) भद्रनन्दी, (3) सुजातकुमार, (4) सुवासवकुमार, (5) जिनदासकुमार, (6) धनपति, (7) महाबलकुमार, (8) भद्रनन्दीकुमार, (9) महाचन्द्रकुमार, (10) और वरदत्तकुमार / समवायांग" के पचपनवें समवाय में उल्लेख है कि कार्तिकी अमावस्या की रात्रि में चरम तीर्थकर महावीर ने पचपन ऐसे अध्ययन, जिनमें पुण्यकर्मफल को प्रदर्शित किया गया है और पचपन ऐसे अध्ययन जिनमें पापकर्मफल व्यक्त किया गया था, धर्मदेशना के रूप में प्रदान कर निर्वाण को प्राप्त किया। इससे प्रश्न होता है कि पचपन अध्ययन वाले कल्याणफलविपाक और पचपन अध्ययन पापफलविपाक वाला आगम प्रस्तुत विपाक आगम ही है या यह पागम उससे भिन्न है ? __ कितने ही चिन्तकों का यह मत है कि प्रस्तुत आगम वही आगम है, उस में पचपन-पचपन अध्ययन थे, पर पैंतालीस-पैतालीस अध्ययन इसमें से विस्मृत हो गये हैं और केवल बीस अध्ययन ही अवशेष रहे हैं। हमारी दृष्टि से चिन्तकों की यह मान्यता चिन्तन मांगती है। यह स्पष्ट है कि समवायांग में कल्याणफलविपाक और पापफलविपाक अध्ययनों के नाम नहीं है और वह जीवन की सान्ध्यवेला में दिया गया अन्तिम उपदेश है। प्रागम साहित्य में जहाँ पर श्रमण और श्रमणियों के अध्ययन का वर्णन है वहाँ पर द्वादशांगी या ग्यारह अंगों के अध्ययन का वर्णन है / यदि विपाक का प्ररूपण भगवान् महावीर ने अन्तिम समय में किया तो भगवान् के शिष्य किस विपाक का अध्ययन 15. समणे भगवं महावीरे अन्तिमराइयंसि पणपन्न प्रज्झयणाई कल्लाणफलविवागाई पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाई वागरित्ता सिद्ध बुद्ध जाब पहीणे -समवायांग समवाय-५५ [13] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते, अत: यह स्पष्ट है कि अन्तिम समय में प्ररूपित कल्याणविपाक पापविपाक के पचपन-पचपन अध्ययन पृथक् हैं / यह विपाक सूत्र नहीं है। / साथ ही यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि समवायांग व नन्दी में विपाक सूत्र की जो परिचय-रेखा प्रस्तुत की गई है जिसमें बीस अध्ययन का उल्लेख है और उसमें जो पदों की संख्या आदि दी गई है उस संख्या से प्रस्तुत वर्तमान आगम की तुलना की जाय तो स्पष्ट है कि उसका बहुत-सा भाग नष्ट हो गया है और उसका आकार अत्यधिक छोटा हो गया है। पर यह स्पष्ट है कि समवायांग के लेखन व देववाचक के नन्दी की रचना करते समय उसका प्राकार वही रहा होगा। उसके पश्चात् उसमें कमी आई होगी। शोधार्थियों के लिए यह विषय अन्वेषणीय है। कर्म-सिद्धान्त जैन-दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है। उस सिद्धान्त का प्रस्तुत आगम में दार्शनिक गहन व गंभीर विश्लेषण न कर उदाहरणों के माध्यम से विषय को प्रतिपादित किया गया है। सांसारिक जीव जो विविध प्रकार के कर्मों का बंध करते हैं उन्हें विपाक की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया गया है—शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप, अथवा कुशल और अकुशल / इन दो भेदों का उल्लेख जैनदर्शन,१६ बौद्धदर्शन,१७ सांख्यदर्शन,१८ योगदर्शन,१६ न्यायदर्शन,२० वैशेषिकदर्शन,२१ और उपनिषद् 22 आदि में हुआ है। जिस कर्म के फल को प्राणी अनुकूल अनुभव करता है वह पुण्य है और जिसे प्रतिकूल अनुभव करता है वह पाप है। पुण्य के शुभ फल की तो सभी इच्छा करते हैं किन्तु पाप के फल की कोई इच्छा नहीं करता। फिर भी उसके विपाक से बचा नहीं जा सकता। जीव ने जो कर्म बाँधा है उसे इस जन्म में या आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है / कृतकर्मों का फल भोगे विना प्रात्मा का छुटकारा नहीं हो सकता। प्रस्तुत आगम में पाप और पुण्य को गुरुग्रन्थियों को उदाहरणों के द्वारा सरल रूप से उद्घाटित किया गया है। जिन जीवों ने पूर्वभव में विविध पापकृत्य किये हैं उन्हें आगामी जीवन में दारुण वेदनाएं प्राप्त हुईं। दुःख विपाक में उन्हीं पापकृत्य करने वाले जीवों का वर्णन है / जिन्होंने पूर्व भव में सुकृत किये थे उन्हें भविष्य में सुख उपलब्ध हुआ। 16. तत्त्वार्थसूत्र 6.3.4 17. विशुद्धिमग्गो 1788 18. सांख्यकारिका 44 19. (क) योगसूत्र 2014 (ख) योगभाष्य 2012 20. न्यायमंजरी पृ. 472 21. प्रशस्तपाद पृ. 6371643 22. बृहदारण्यक 3 / 2 / 13 [14] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद का महत्व भारतीय तत्त्वचिन्तक महर्षियों ने कर्मवाद पर गहराई से अनुचिन्तन किया है। न्याय, सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मोमांसक, बौद्ध और जैन सभी दार्शनिकों ने कर्मवाद के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। केवल दर्शन ही नहीं अपितु धर्म, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान और कला आदि पर कर्मवाद की प्रतिच्छाया स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती है। विश्व के विशाल मंच पर सर्वत्र विषमता, विविधता, विचित्रता का एकच्छत्र साम्राज्य देखकर प्रबुद्ध विचारकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त की गवेषणा की। भारतीय जन-जन के मन को यह धारणा है कि प्राणीमात्र को सुख और दुःख की जो उपलब्धि होती है वह स्वयं के किये गये कर्म का हो प्रतिफल है। कर्म से बंधा हुआ जीव अनादिकाल से नाना गतियों व योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। जन्म और मृत्यु का मूल कर्म है और कर्म ही दुःख का सर्जक है / जो जैसा करता है वैसा ही फल को प्राप्त होता है। किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि एक प्राणी अन्य प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी का कम स्वसंबद्ध होता है, पर-सम्बद्ध नहीं। यह सत्य है कि सभी भारतीय दार्शनिकों ने कर्मवाद की संस्थापना में योगदान दिया किन्तु जैन परम्परा में कर्मवाद का जैसा सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध है वैसा अन्यत्र नहीं। वैदिक और बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी विचार इतना अल्प है कि उसमें कर्म विषयक कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, जब कि जैन साहित्य में कर्म सम्बन्धी अनेक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। कर्मवाद पर जैन परम्परा में अत्यन्त सूक्ष्म, सुव्यवस्थित और बहुत ही विस्तृत विवेचन किया गया है / यह साधिकार कहा जा सकता है कि कर्म सम्बन्धी साहित्य का जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है और वह साहित्य 'कर्मशास्त्र' या 'कर्मग्रन्थ' के नाम से विश्रुत है / स्वतन्त्र कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त भी आगम व प्रागमेतर जैनग्रन्थों में यत्र-तत्र कर्म के सम्बन्ध में चर्चाएं उपलब्ध हैं। कर्म सम्बन्धी साहित्य भगवान् महावीर से लेकर आज तक कर्मशास्त्र का जो संकलन-आकलन हुआ है वह बाह्य रूप से तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है-पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र और प्राकरणिक कर्मशास्त्र / 24 जैन इतिहास की दृष्टि से चौदह पूर्वो में से आठवाँ पूर्व, जिसे 'कर्मप्रवाद' कहा जाता है, उसमें कर्मविषयक वर्णन था / इसके अतिरिक्त दूसरे पूर्व के एक विभाग का नाम 'कर्मप्राभूत' था और पांचवें पूर्व के एक विभाग का नाम 'कषायप्राभृत था। इनमें भी कर्म सम्बन्धी ही चर्चाएं थीं। आज वे अनपलब्ध हैं किन्तु पूर्व साहित्य में से उदधत कर्मशास्त्र आज भी दोनों ही जैन परम्परामों में उपलब्ध है। सम्प्रदाय भेद होने से नामों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। दिगम्बर परम्परा में 'महाकर्मप्रकृति प्राभूत' (षट्खण्डागम) और कषायप्राभूत ये दो ग्रन्थ पूर्व से उद्धृत माने जाते हैं / श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार कर्मप्रकृति, शतक, पंचसंग्रह और सप्ततिका ये चार ग्रन्थ पूर्वोद्धत माने जाते हैं। 23. कर्मग्रन्थ, भाग 1 प्रस्तावना, पृ. 15-16 पं. सुखलालजी [ 15 ] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकरणिक कर्मशास्त्र में कर्म सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ पाते हैं, जिनका मूल आधार पूर्वोद्धृत कर्म साहित्य रहा है / प्राकरणिक कर्मग्रन्थों का लेखन विक्रम की आठवीं नवीं शती से लेकर सोलहवीं सत्तरहवीं शती तक हुअा है / अाधुनिक विज्ञों ने कर्मविषयक साहित्य का जो सृजन किया है वह मुख्य रूप से कर्मग्रन्थों के विवेचन के रूप में है / भाषा की दृष्टि से कर्म साहित्य को प्राकृत, संस्कृत और प्रादेशिक भाषाओं में विभक्त कर सकते हैं। पूर्वात्मक व पूर्वोद्धृत कर्मग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। प्राकरणिक कर्म साहित्य का विशेष अंश प्राकृत में ही है। मूल ग्रन्थों के अतिरिक्त उन पर लिखी गईं वृत्तियाँ और टिप्पणियाँ भी प्राकृत में हैं। बाद में कुछ कर्मग्रन्थ संस्कृत में भी लिखे गये किन्तु मुख्य रूप से संस्कृत भाषा में उस पर वत्तियाँ ही लिखी गई हैं। संस्कृत में लिखे हये मूल कर्मग्रन्थ, प्राकरणिक कर्मशास्त्र में आते हैं। प्रादेशिक भाषाओं में लिखा हुमा कर्म साहित्य कन्नड़, गुजराती और हिन्दी में है। इनमें मौलिक अंश बहुत ही कम है, अनुवाद और विवेचन ही मुख्य है। कन्नड़ और हिन्दी में दिगम्बर साहित्य अधिक लिखा गया है और गुजराती में श्वेताम्बर साहित्य / विस्तारभय से उन सभी ग्रन्थों का परिचय देना यहाँ सम्भव नहीं है / संक्षेप में उपलब्ध दिगम्बरीय कर्म साहित्य का प्रमाण लगभग पांच लाख श्लोक है। और श्वेताम्बरीय कर्म साहित्य का ग्रन्थमान लगभग दो लाख श्लोक हैं / श्वेताम्बरीय कर्म-साहित्य का प्राचीनतम स्वतन्त्र ग्रन्थ शिवशर्म सूरिकृत कर्मप्रकृति है / उसमें 475 गाथाएं हैं / इसमें आचार्य ने कर्म सम्बन्धी बन्धनकरण, संक्रमणकरण, उद्वर्तनाकरण, अपवर्तनाकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरण इन पाठ करणों (करण का अर्थ है आत्मा का परिणाम विशेष) एवं उदय और सत्ता इन दो अवस्थाओं का वर्णन किया है। इस पर एक चूर्णि भी लिखी गई थी। प्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि और उपाध्याय यशोविजय जी ने संस्कृत भाषा में इस पर टीका लिखी है। आचार्य शिवशम को एक अन्य रचना 'शतक' है। इस पर भी मलयगिरि ने टीका लिखी है / पार्श्व ऋषि के शिष्य चन्द्रर्षि महत्तर ने पंचसंग्रह की रचना की और उस पर स्वोपज्ञवत्ति भी लिखी। इसके पूर्व भी दिगम्बर परम्परा में प्राकृत पंचसंग्रह उपलब्ध था किन्तु उसकी कर्म विषयक कितनी ही मान्यताएं आगम-साहित्य से मेल नहीं खातो थी, इसलिए चन्द्रर्षि महत्तर ने नवीन पंच-संग्रह की रचना कर उसमें आगम मान्यताएं गुफित की। आचार्य मलयगिरि ने उस पर भी संस्कृत टीका लिखी है। जैन परम्परा के प्राचीन आचार्यों ने प्राचीन कर्मग्रन्थ भी लिखे थे। जिनके नाम इस प्रकार हैं-कर्म-विपाक, कर्म-स्तवः बंध-स्वामित्व, सप्ततिका और शतक / इन पर उनका स्वयं का स्वोपज्ञ विवरण है। प्राचीन कर्मग्रन्थों को आधार बना कर देवेन्द्रसूरि ने नवीन पांच कर्म ग्रन्थ बनाये / इस प्रकार जैन परम्परा में कर्मविषयक साहित्य पर्याप्त उर्वर स्थिति में है। मध्य युग के आचार्यों ने इन पर बालावबोध भी लिखे हैं, जिन्हें प्राचीन भाषा में टब्बा कहा जाता है / जैन दर्शन का मन्तव्य कर्मवाद के समर्थक दार्शनिक चिन्तकों ने काल वाद, स्वभाववाद, नियतिवाद, यदृच्छावाद, भूतवाद, पुरुषवाद, आदि मान्यताओं का सुन्दर समन्वय करते हुये इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया [ 16 ] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। विश्व-वैचित्र्य का मुख्य कारण कर्म है और काल प्रादि उसके सहकारी कारण हैं। कर्म को प्रधान कारण मानने से जन-जन के मन में आत्मविश्वास और प्रात्मबल पैदा होता है और साथ ही पुरुषार्थ का पोषण होता है। सुख दुःख का प्रधान कारण अन्यत्र न ढूढ कर अपने आप में ढूढना बुद्धिमत्ता है / आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने लिखा है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पाँच कारणों में से किसी एक को हो कारण माना जाए और शेष कारणों की उपेक्षा की जाए, यह मिथ्यात्व है। कार्यनिष्पत्ति में काल आदि सभी कारणों का समन्वय किया जाय२४ यह सम्यक्त्व है / इसीका समर्थन प्राचार्य हरिभद्र ने भी किया है / 25 दैव, कर्म, भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में अनेकान्त दृष्टि रखनी चाहिए। प्राचार्य समन्तभद्र ने लिखा है-बुद्धिपूर्वक कर्म न करने पर भी इष्ट या अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होना दैवाधीन है। बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है / कहीं पर देव प्रधान होता है तो कहीं पर पुरुषार्थ / 26 देव और पुरुषार्थ के सही समन्वय से ही अर्थसिद्धि होती है। जैन दर्शन में जड़ और चेतन पदार्थों के नियामक के रूप में ईश्वर या पुरुष की सत्ता नहीं मानी गई है। उसका मन्तव्य है कि ईश्वर या ब्रह्म को जगत् की उत्पत्ति, स्थिति व संहार का कारण या नियामक मानना निरर्थक है। कर्म आदि कारणों से ही प्राणियों के जन्म, जरा और मरण प्रादि की सिद्धि की जा सकती है। अतएव कर्ममूलक विश्व व्यवस्था मानना तर्कसंगत है / कर्म अपने नैसगिक स्वभाव से अपने-आप फल प्रदान करने में समर्थ होता है। कर्मवाद की ऐतिहासिक समीक्षा ऐतिहासिक दष्टि से कर्मवाद पर चिन्तन करने के लिए हमें सर्वप्रथम वेदकालीन कर्म सम्बन्धी विचारों पर ध्यान देना होगा। उपलब्ध साहित्य में वेद सबसे प्राचीन हैं। वैदिक युग के महषियों को कर्म-सम्बन्धी ज्ञात था या नहीं ? इस पर विज्ञों के दो मत हैं। कितने हो विज्ञों का यह मत है कि वेदों-संहिता ग्रन्थों में कर्मवाद का वर्णन नहीं पाया है तो कितने ही विद्वान् कहते हैं कि वेदों के रचयिता ऋषिगण कर्मवाद के ज्ञाता थे। जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों में कर्मवाद की चर्चा नहीं है, उनका कहना है कि वैदिक काल के ऋषियों ने प्राणियों में रहे हुए वैविध्य और वैचित्र्य का अनुभव तो गहराई से किया पर उन्होंने उसके मूल की अन्वेषणा अन्तर में न कर बाह्य जगत् में की / किसी ने कमनीय कल्पना के गगन में विहरण करते हुये कहा-कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एक भौतिक तत्त्व है तो दूसरे ऋषि ने अनेक भौतिक तत्त्वों को सृष्टि को उत्पत्ति का कारण माना / तीसरे ऋषि ने प्रजापति ब्रह्मा को हो सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना। इस तरह वैदिक युग का सम्पूर्ण तत्त्वचिन्तन देव और यज्ञ -सन्मतितर्क प्रकरण 3,53 24. कालो सहाव णियई पुवकम्म पुरिसकारणेगंता / मिच्छत्तं तं चेव उ समासपो हंति सम्मत्त // 25. शास्त्रवार्तासमुच्चय 191-192 26. प्राप्तमीमांसा 88-91 [ 17 ] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की परिधि में ही विकसित हुआ। पहले विविध देवों की कल्पना की गई और उसके पश्चात् एक देव की महत्ता स्थापित की गई। जीवन में सुख और वैभव की उपलब्धि हो, शत्रु पराजित हों, अतः देवों की प्रार्थनाएँ की गई और सजीव व निर्जीव पदार्थों की आहुतियाँ दी गई। यज्ञ कर्म का शनैः शनैः विकास हुआ। इस प्रकार यह विचारधारा संहिताकाल से लेकर ब्राह्मणकाल तक क्रमशः विकसित हुई।२७ आरण्यक और उपनिषद् युग में देववाद व यज्ञवाद का महत्त्व कम होने लगा और ऐसे नये विचार सामने आये जिनका संहिताकाल व ब्राह्मणकाल में अभाव था / उपनिषदों से पूर्व के वैदिकसाहित्य में कर्मविषयक चिन्तन का अभाव है पर अारण्यक व उपनिषदकाल में 'अदष्ट' के ' के रूप कर्म का वर्णन मिलता है। यह सत्य है कि कर्म को विश्व वैचित्र्य का कारण मानने में उपनिषदों का भी एकमत नहीं रहा है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रारम्भ में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष को ही विश्व-वैचित्र्य का कारण माना है, कर्म को नहीं। जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों-संहिता-ग्रन्थों में कर्मवाद या कर्म-गति आदि शब्द भले ही न हों किन्तु उनमें कर्मवाद का उल्लेख अवश्य हुआ है। ऋग्वेद संहिता के निम्न मंत्र इस बात के ज्वलंत प्रमाण हैं ----शुभस्पतिः (शुभ कर्मों के रक्षक), धियस्पतिः (सत्य कर्मों के रक्षक), विचर्षणिः तथा विश्व चर्षणिः (शुभ और अशुभ कर्मों के द्रष्टा) 'विश्वस्थ कर्मणो धर्ता (सभी कर्मों के आधार) आदि पद देवों के विशेषणों के रूप में व्यवहृत हुये हैं। कितने ही मंत्रों से स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि शुभ कर्म करने से अमरत्व की उपलब्धि होती है। कर्मों के अनुसार ही जीव अनेक बार संसार में जन्म लेता है और मरता है। वामदेव ने अनेक पूर्वभवों का वर्णन किया पूर्व जन्म के दुष्कृत्यों से ही लोग पाप कर्म में प्रवत्त होते हैं। आदि उल्लेख वेदों के मंत्रों में हैं / पूर्वजन्म के पापकृत्यों से मुक्त होने के लिए ही मानव देवों को अभ्यर्थना करता है। वेदमंत्रों में संचित और प्रारब्ध कर्मों का भी वर्णन है। साथ ही देवयान और पितयान का वर्णन करते हुये कहा गया है कि श्रेष्ठ-कर्म करने वाले लोग देवयान से ब्रह्मलोक को जाते हैं और साधारण कर्म करने वाले पितयान से चन्द्रलोक में जाते हैं। ऋग्वेद में पूर्वजन्म के निकृष्ट कर्मों के भोग के लिए जीव किस प्रकार वृक्ष, लता आदि स्थावर शरीरों में प्रविष्ट होता है, इसका वर्णन है / 'मा को भुजेमान्यजातमेनो' 'मा वा एनो अन्यकृतं भुजेम' आदि मन्त्रों से यह भी ज्ञात होता है कि एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किये गये कर्मों को भी भोग सकता है और उससे बचने के लिए साधक ने इन मन्त्रों में प्रार्थना की है। मुख्य रूप से जो जीव कर्म करता है वही उसके फल का उपभोग भी करता है पर विशिष्ट शक्ति के प्रभाव से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है / 28 उपर्युक्त दोनों मतों का गहराई से अनुचिन्तन करने पर ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है कि वेदों में कर्म सम्बन्धी मान्यताओं का पूर्ण रूप से अभाव तो नहीं है पर देववाद और यज्ञवाद के प्रभुत्व से 27. (क) आत्ममीमांसा-पृ० 79-80 50 दलसुख मालवणियां (ख) जैन धर्म और दर्शन-पृ० 430, डा. मोहनलाल मेहता 28. (क) भारतीय दर्शन--पृ० 39-41, उमेश मिश्र (ख) जैन धर्म और दर्शन-पृ० 432 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद का विश्लेषण एकदम गौण हो गया है / यह सत्य है कि कर्म क्या है, वे किस प्रकार बंधते हैं और किस प्रकार प्राणी उनसे मुक्त होते हैं, आदि जिज्ञासाओं का समाधान वैदिक संहितामों में नहीं है। वहाँ पर मुख्य रूप से, यज्ञकर्म को ही कर्म माना है और कदम-कदम पर देवों से सहायता के लिए याचना की है। जब यज्ञ और देव की अपेक्षा कर्मवाद का महत्त्व अधिक बढ़ने लगा, तब उसके समर्थकों ने उक्त दोनों वादों का कर्मवाद के साथ समन्वय करने का प्रयास किया और यज्ञ से ही समस्त फलों की प्राप्ति स्वीकार की। इस मन्तव्य का दार्शनिक रूप मीमांसा दर्शन है। यज्ञ विषयक विचारणा के साथ देव विषयक विचारणा का भी विकास हुआ। ब्राह्मणकाल में अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति देव की प्रतिष्ठा हुई / उन्होंने भी कर्म के साथ प्रजापति का समन्वय कर कहा-प्राणी अपने कर्म के अनुसार फल अवश्य प्राप्त करता है परन्तु फल प्राप्ति अपने पाप न होकर प्रजापति के द्वारा होती है। प्रजापति (ईश्वर) जीवों को अपने-अपने कर्म के अनुसार फल प्रदान करता है / वह न्यायाधीश की तरह है। इस विचारधारा का दार्शनिक रूप न्याय वैशेषिक, सेश्वरसांख्य और वेदान्त दर्शन में हया है। यज्ञ आदि अनुष्ठानों को वैदिक परम्परा में कर्म कहा गया है। वे अस्थायी हैं / उसी समय समाप्त हो जाते हैं तो वे किस प्रकार फल प्रदान कर सकते हैं ? इसलिए फल प्रदान करने वाले एक अदृष्ट पदार्थ की कल्पना की गई। उसे मीमांसा दर्शन ने 'अपूर्व' कहा / वैशेषिक दर्शन में 'अदृष्ट' एक गुण माना गया है जिसके धर्म अधर्म रूप ये दो भेद हैं / न्यायदर्शन में धर्म और अधर्म को 'संस्कार' कहा है। अच्छे बुरे कर्मों का प्रात्मा पर संस्कार पड़ता है वह अदृष्ट है / 'अदृष्ट' अात्मा का गुण है। जब तक उसका फल नहीं मिल जाता तब तक वह प्रात्मा के साथ रहता है। उसका फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है / 29 चूकि यदि ईश्वर कर्मफल की व्यवस्था न करे तो कर्म निष्फल हो जाएं। सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार कहते हैं / 30 श्रेष्ठ और कनिष्ठ प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है। उस प्रकृतिगत संस्कार से ही कर्मों के फल प्राप्त होते हैं। इस प्रकार वैदिक परम्परा में कर्मवाद का विकास हुआ है। बौद्ध दर्शन में कर्म बौद्ध और जैन ये दोनों कर्म-प्रधान श्रमण-संस्कृति की धाराएं हैं / बौद्ध-परम्परा ने भी कर्म की अदृष्ट शक्ति पर चिन्तन किया है। उसका अभिमत है कि जीवों में जो विचित्रता दृष्टिगोचर होती है वह कर्मकृत है।' लोभ (राग) द्वेष और मोह से कर्म की उत्पत्ति होती है / राग-द्वेष और मोहयुक्त होकर प्राणी सत्व, मन, वचन और काय की प्रवृत्तियां करता है और राग-द्वेष और मोह 29. ईश्वरः कारणं पुरुषकर्मफलस्य दर्शनात् / न्यायसूत्र 401 30. अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् / -सांख्यसूत्र श२५ 31. (क) भासितं पेतं महाराज भगवता-कम्मस्सका मागव सत्ता कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबन्धू कम्मपटिसरणा, कम्म सते विभजति यदिदं हीनपणीततायाति / -मिलिन्द प्रश्न 312 (ख) कमंजं लोकवैचित्यं ---प्रभिधर्म कोष 4.1 [ 19] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को उत्पन्न करता है। इस तरह संसार चक्र निरन्तर चलता रहता है / 32 जिस चक्र का न आदि है, न अन्त है किन्तु अनादि हैं / 33 एक बार राजा मिलिन्द ने प्राचार्य नागसेन से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि जीव द्वारा किये गये कर्मों की स्थिति कहाँ है ? समाधान करते हुए प्राचार्य ने कहा-वह दिखलाया नहीं जा सकता कि कर्म कहाँ रहते हैं / 34 विसुद्धिमग्ग में कर्म को अरूपी कहा है।३५ अभिधर्म कोष में उस प्रविज्ञप्ति को रूप कहा है / 36 यह रूप सप्रतिद्य न होकर अप्रतिद्य है / 37 सौत्रान्तिक मत की दृष्टि से कर्म का समावेश अरूप में है, वे अविज्ञप्ति को नहीं मानते हैं / बौद्धों ने कर्म को सूक्ष्म माना है / मन वचन, और काया की जो प्रवृत्ति है वह कर्म कहलाती है पर वह विज्ञप्ति रूप है, प्रत्यक्ष है। यहां पर कर्म का तात्पर्य मात्र प्रत्यक्ष प्रवृत्ति नहीं किन्तु प्रत्यक्ष कर्मजन्य संस्कार है। बौद्ध परिभाषा में इसे वासना और अविज्ञप्ति कहा है। मानसिक क्रियाजन्य संस्कार-कर्म को वासना कहा है और वचन एवं कायजन्य संस्कार-कर्म को अविज्ञप्ति कहा है / 36 विज्ञानवादी बौद्ध कर्म को 'वाचना' शब्द से पुकारते हैं। प्रज्ञाकर का अभिमत है कि जितने भी कार्य हैं वे सभी वासनाजन्य हैं। ईश्वर हो या कर्म (क्रिया) प्रधान प्रकृति हो या अन्य कुछ इन सभी का मूल वासना है। ईश्वर को न्यायाधीश मानकर यदि विश्व की विचित्रता की उपपत्ति की जाए तो भी वासना को माने बिना कार्य नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो ईश्वर प्रधान कर्म इन सभी सरिताओं का प्रवाह वासना समुद्र में मिलकर एक हो जाता है।४° शून्यवादी मत के मन्तव्य के अनुसार अनादि अविद्या का अपर नाम ही वासना है। विलक्षण-वर्णन ___ जैन-साहित्य में कर्मवाद के सम्बन्ध में पर्याप्त विश्लेषण किया गया है। जैन दर्शन में प्रतिपादित कर्म-व्यवस्था का जो वैज्ञानिक रूप है उसका किसी भी भारतीय परम्परा में दर्शन नहीं होता। जैन परम्परा इस दृष्टि से सर्वथा विलक्षण है। आगम साहित्य से लेकर वर्तमान साहित्य में कर्मवाद का विकास किस प्रकार हुआ है, इस पर पूर्व में ही संक्षेप में लिखा जा चुका है। 32. अंगुत्तरनिकाय तिकनिपात सूत्र 36, 1 पृ. 134 33. संयुक्त निकाय 15 / 5 / 6 भाग 2, पृ. 181-182 34. न सक्का महाराज तानि कम्मानि दस्सेतु इध व एध वा तानि कम्मानि तिद्वन्तीति --मिलिन्द प्रश्न 31155. 75 35. विसुद्धिमग 17 / 110 36. अभिधर्म कोष 119 37. देखिए प्रात्ममीमांसा पृ. 106 38. नौमी अरियंटल कोन्फरंस पृ. 620 39. (क) अभिधर्मकोष चतुर्थ परिच्छेद, (ख) प्रमाणवात्तिकालंकार, 75 40. न्यायावतारवार्तिक वृत्ति की टिपणी प. 177-8 में उधत [20] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म का अर्थ कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया है / जो कुछ भी किया जाता है वह कर्म है / सोना, बैठना, खाना, पीना आदि / जीवन व्यवहार में जो कुछ भी कार्य किया जाता वह कर्म कहलाता है। व्याकरणशास्त्र के कर्ता 'पाणिनि' ने कर्म की व्याख्या करते हुए कहा--जो कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट हो वह कर्म है।४१ मीमांसादर्शन ने क्रिया-काण्ड को या यज्ञ आदि अनुष्ठान को कर्म कहा है / वैशेषिकदर्शन में कर्म की परिभाषा इस प्रकार है-जो एक द्रव्य में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो, और जो संयोग या विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे / 42 सांख्य दर्शन में संस्कार के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग मिलता है / 43 गीता में कर्मशीलता को कर्म कहा है।४४ न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण पाकचन प्रसारण, तथा गमनरूप पांच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द व्यवहृत हुआ है। स्मार्त-विद्वान् चार वर्णों और चार पाश्रमों के कर्तव्यों को कर्म की संज्ञा प्रदान करते हैं। पौराणिक लोग-व्रत-नियम आदि धामिक क्रियाओं को कर्मरूप कहते हैं / बौद्ध दर्शन जीवों की विचित्रता के कारण को कर्म कहते हैं जो वासना रूप है / जैन-परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है-भावकर्म और द्रव्यकर्म। राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय भाव कर्मक ता है। कार्मण जाति का पदगल-जडतत्व विशेष, जो कषाय के कारण प्रात्मा के साथ मिल जाता है द्रव्यकर्म कहलाता है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है-आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से क्रिया को कर्म कहते हैं / उस क्रिया के निमित्त से परिणमन विशेषप्राप्त पुद्गल भी कर्म है।४५ कर्म जो पुद्गल का ही एक विशेष रूप है, अात्मा से भिन्न एक विजातीय तत्त्व है / जब तक आत्मा के साथ इस विजातीय तत्त्व कर्म का संयोग है, तभी तक संसार है और उस संयोग के नाश होने पर प्रात्मा मुक्त हो जाता है। विभिन्न परम्परात्रों में कर्म जैन-परम्परा में जिस अर्थ में 'कर्म' शब्द व्यवहृत हुआ है, उस या उससे मिलते-जुलते अर्थ में भारत के विभिन्न दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है / वेदान्तदर्शन में माया, अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग हुआ है / मीमांसादर्शन में अपूर्व शब्द प्रयुक्त हुआ है। बौद्धदर्शन में वासना और अविज्ञप्ति शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है / सांख्यदर्शन में 'प्राशय' शब्द विशेष रूप से मिलता है। न्यायवैशेषिकदर्शन में अदृष्ट संस्कार और धर्माधर्म शब्द विशेष रूप में प्रचलित हैं / दैव, भाग्य, पुण्य, पाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी दर्शनों में हुआ है / भारतीय दर्शनों में एक चार्वाकदर्शन ही ऐसा दर्शन है जिसका कर्मवाद में विश्वास नहीं है। क्योंकि वह आत्मा 41. कतुरीप्सिततमं कर्म / -अष्टाध्यायी 1 / 4 / 79 42. वैशेषिकदर्शनभाष्य -1 / 17 पृ. 35 43. सांख्यतत्त्वकौमुदी 67 44. योगः कर्मसु कौशलम् 45. प्रवचनसार टीका 2025 [21] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं मानता है। इसलिए कर्म और उसके द्वारा होने वाले पुनर्भव, परलोक आदि को भी वह नहीं मानता है / 46 न्यायदर्शन के अभिमतानुसार राग, द्वेष और मोह इन तीन दोषों से प्रेरणा संप्राप्त कर जीवों में मन, वचन और काय को प्रवृत्तियाँ होती हैं और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है / ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं / 40 वैशेषिकदर्शन में चौबीस गुण माने गये हैं उनमें एक अदृष्ट भी है। यह गुण संस्कार से पृथक है और धर्म-अधर्म ये दोनों उसके भेद हैं / 48 इस तरह न्यायदर्शन में धर्म, अधर्म का समावेश संस्कार में किया गया है। उन्हीं धर्म-अधर्म को वैशेषिकदर्शन में अदष्ट के अन्तर्गत लिया गया है। राग प्रादि दोषों से संस्कार होता है, संस्कार से जन्म, जन्म से राग आदि दोष और उन दोषों से पुन: संस्कार उत्पन्न होते हैं / इस तरह जीवों की संसार परम्परा बीजांकुरवत् अनादि है। सांख्य-योगदर्शन अभिमतानुसार अविद्या अस्मिता, राग, द्वष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों से क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है / प्रस्तुत क्लिष्टवृत्ति से धर्माधर्म रूपी संस्कार पैदा होता है। संस्कार को इस वर्णन में बीजांकुरवत् अनादि माना है / मीमांसादर्शन का अभिमत है कि मानव द्वारा किया जाने वाला यज्ञ आदि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करता है और वह अपूर्व ही सभी कर्मों का फल देता है / दूसरे शब्दों में कहें तो वेद द्वारा प्ररूपित कर्म से उत्पन्न होने वाली योग्यता या शक्ति का नाम अपूर्व है / वहाँ पर अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य को अपूर्व नहीं कहा है / वेदान्तदर्शन का मन्तव्य है कि अनादि अविद्या या माया ही विश्ववैचित्र्य का कारण है।' ईश्वर स्वयं मायाजन्य है / वह कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है इसलिए फलप्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है / 52 बौद्धदर्शन का अभिमत है कि मनोजन्य संस्कार वासना है और वचन और कायजन्य संस्कार अविज्ञप्ति है / लोभ द्वेष और मोह से कर्मों की उत्पत्ति होती है / लोभ, द्वेष और मोह से भी प्राणी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ करता है और उससे पुनः लोभ, द्वेष और मोह पैदा करता है इस तरह अनादि काल से यह संसार चक्र चल रहा है / 53 46. (क) जैनधर्म और दर्शन प्र. 443 (ख) कर्मविपाक के हिन्दी अनुवाद को प्रस्तावना, पं. सुख लालजी पृ. 23 47. न्यायभाष्य 16122 आदि 46. प्रशस्तपादभाष्य पृ. ४७----(चौखम्बा संस्कृत सिरीज, बनारस 1930 49. योगदर्शन भाष्य 115 आदि 50. (क) शाबरभाष्य 2 / 115 (ख) तंत्रवार्तिक 21115 आदि 51. शांकर भाष्य 2114 52. शांकर भाष्य 312138.41 53. (क) अंगुसरनिकाय 3 / 33 / 1 (ख) संयुक्तनिकाय 15 // 5 // 6 [22] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप अन्य दर्शनकार कर्म को जहाँ संस्कार या वासना रूप मानते हैं वहाँ जैन दर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि जिस वस्तु का जो गुण होता है वह उसका विधातक नहीं होता। आत्मा का गुण उसके लिए आवरण, पारतन्त्र्य और दु:ख का हेतु नहीं हो सकता। कर्म आत्मा के प्रावरण, पारतन्त्र्य और दुःखों का कारण है, गुणों का विघातक है, अत: वह आत्मा का गुण नहीं हो सकता। ___ बेड़ी से मानव बंधता है, मदिरापान से पागल होता है और क्लोरोफार्म से बेभान / ये सभी पोद्गलिक वस्तुएं हैं / ठीक इसी तरह कर्म के संयोग से आत्मा की भी ये दशाएं होती हैं, अतः कर्म भी पौद्गलिक है / बेड़ी आदि का बंधन बाहरी है, अल्प सामर्थ्य वाला है किन्तु कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए हैं, अधिक सामर्थ्य वाले सूक्ष्म स्कन्ध हैं, एतदर्थ ही बेड़ी आदि की अपेक्षा कर्म-परमाणुओं का जीवात्मा पर बहुत गहरा और आन्तरिक प्रभाव पड़ता है / जो पुद्गल-परमाणु कर्म रूप में परिणत होते हैं उन्हें कर्मवर्गणा कहते हैं और जो शरीररूप में परिणत होते हैं उन्हें नोकर्म-वर्गणा कहते हैं / लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। शरीर पौद्गलिक है, उसका कारण कर्म है, अतः वह भी पौद्गलिक है / पौद्गलिक कार्य का समवायी कारण पौद्गलिक है। मिट्टी आदि भौतिक है और उससे निर्मित होने वाला पदार्थ भी भौतिक ही होगा। अनुकूल आहार आदि से सुख की अनुभूति होती है और शस्त्रादि के प्रहार से दुःखानुभूति होती है / आहार और शस्त्र जैसे पौद्गलिक हैं वैसे ही सुख-दुःख के प्रदाता कम भी पौद्गलिक हैं। बंध की दृष्टि से जीव और पुद्गल दोनों एकमेक हैं पर लक्षण की दृष्टि से दोनों पृथक्पृथक् हैं / जीव अमूर्त व चेतना युक्त है जबकि पुद्गल मूर्त और अचेतन है। इन्द्रियों के विषय-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये मूर्त हैं और उनका उपयोग करने वाली इन्द्रियां भी मूर्त हैं। उनसे उत्पन्न होने वाला सुख दुःख भी मूर्त है, अतः उनके कारणभूत कर्म भी मूर्त हैं / 54 मूर्त ही मूर्त से बंधता है। अमूर्त जीव मूर्त कर्मों को अवकाश देता है / वह उन कर्मों से अवकाश रूप हो जाता है / 55 _जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं रहा है। उसके मन्तव्यानुसार वह आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है। जीव अपने मन वचन और काय की प्रवृत्तियों से कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म सम्बद्ध हो / जीव के साथ 54. जम्हा कम्मरस फलं विसयं फासेहिं भुजदे णिययं / जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि"॥ 55. पंचास्तिकाय 142 —पंचास्तिकाय 141 [ 23 ] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन, काय की प्रवृत्ति हो / इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चल रही है / कर्म और प्रवृत्ति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुगों के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म कहा है और राग-द्वेषादिरूप प्रवत्तियों को भावकर्म कहा है।५६ इस तरह कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हए-द्रव्यकर्म और भावकम / द्रव्यकम के होने में भावकर्म और भावकम के होने में द्रव्यकर्म कारण है। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, इसी प्रकार द्रव्यकर्म से भावकम और भावकर्म से द्रव्यकर्म का सिलसिला भी अनादि है।५७ / / कर्म के कर्तृत्व और भोक्तुत्व पर चिन्तन करते समय संसारी श्रात्मा और मुक्त आत्मा का अन्तर स्मरण रखना चाहिए। कम के कर्तृत्व और भोक्तत्व का सम्बन्ध संसारी प्रात्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं। संसारी आत्मा कर्मों से बंधा है। उसमें चैतन्य और जड़त्व का मिश्रण है / मुक्त आत्मा कर्मों से रहित होता है, उसमें विशुद्ध चैतन्य ही होता है / बद्ध प्रात्मा की मानसिक वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण जो पुद्गल-परमाणु आकृष्ट होकर परस्पर एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं, नीरक्षीरवत् एक हो जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं / इस तरह कर्म भी जड़ और चेतन का मिश्रण है। प्रश्न हो सकता है कि संसारी आत्मा भी जड़ और चेतन का मिश्रण है और कर्म में भी वही बात है। तब दोनों में अन्तर क्या है ? उत्तर है कि संसारी आत्मा का चेतन अंश जीव कहलाता है और जड़ अंश कर्म कहलाता है। ये चेतन और जड़ अंश इस प्रकार के नहीं है जिनका संसार-अवस्था में अलग-अलग रूप से अनुभव किया जा सके / इनका पृथक्करण मुक्तावस्था में ही होता है / संसारी आत्मा सदैव कर्म युक्त ही होता है / जब वह कर्म से मुक्त हो जाता है तब वह मुक्त प्रात्मा कहलाता है। कर्म जब आत्मा से पृथक हो जाता है तब वह कर्म नहीं पूदगल कहलाता है / आत्मा से सम्बद्ध पुद्गल द्रव्यकर्म है और द्रव्यकर्म युक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकम है। गहराई से चिन्तन करने पर प्रात्मा और पुद्गल के तीन रूप होते हैं-(१) शुद्ध आत्मा-जो मुक्तावस्था में है / (2) शुद्ध पुद्गल (3) आत्मा और पुद्गल का सम्मिश्रण-जो संसारी आत्मा में है। कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का सम्बन्ध प्रात्मा और पुद्गल की सम्मिश्रण-अवस्था में है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध सहज जिज्ञासा हो सकती है कि अमूर्त आत्मा मूर्त कर्म के साथ किस प्रकार सम्बद्ध हो सकता है ? समाधान है कि प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है। अनादिकाल से वह कर्मों से बंधा हुया और विकारी है। कर्म बद्ध आत्माएँ कथंचित् मूर्त होती हैं। दूसरों शब्दों में कहें तो स्वरूप से अमूर्त होने पर भी संसार-दशा में मूर्त होती है / जो आत्मा पूर्ण रूप से कम मुक्त हो जाता है उसको कभी भी कर्म का बंधन नहीं होता। अतः आत्मा और कर्म का सम्बन्ध मूर्त का मूर्त के साथ होने वाला सबंध है। दोनों का अनादिकालीन सम्बन्ध चला आ रहा है / 56. कर्मप्रकृति-नेमिचन्दाचार्य विरचित 6 57. देखिए धर्म और दर्शन, पृ. 42 देवेन्द्रमुनि शास्त्री [ 24 ] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम पूर्व में बता चुके हैं कि मूर्त मादक द्रव्यों का असर अमूर्त ज्ञान पर होता है वैसे ही विकारी अमूर्त आत्मा पर मूर्त कम -पुद्गलों का प्रभाव होता है / कर्म कौन बाँधता है ? अकर्म के कर्म का बंधन नहीं होता। जो जीव पहले से ही कर्मों से बंधा है वही जीव नये कर्मों को बाँधता है।८ मोहकर्म का उदय होने पर जीव राग-द्वेष में परिणत होता है और वह अशुभ कर्मों का बंध करता है।५३ मोहरहित जो वीतराग जीव हैं वे योग के कारण शुभ कर्म का बंधन करते हैं / 60 नूतन बंधन का कारण पहले का बंधन नहीं हो तो मुक्त जीव हैं, जिनके कर्म बँधे हुए नहीं हैं वे भी कर्म से बिना बंधे नहीं रह सकते। इस दष्टि से यह पूर्ण सत्य है कि बंधा हा ही बंधता है, अबंधा हुअा नहीं बंधता है। गौतम-भगवन् ! दुःखी जीव दुःख से स्पष्ट होता है या अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है ? भगवन्---गौतम ! दुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट होता है अदुःखी जीव दुःख से स्पृष्ट नहीं होता। दुःख का स्पर्श पर्यादान (ग्रहण) उदीरणा वेदना और निर्जरा दुःखी जीव करता है, अदुःखो जीव नहीं करता।६१ गौतम ने पूछा-भगवन् ! कर्म कौन बाँधता है ? संयत, असंयत अथवा संयतासंयत ? भगवान् ने कहा-गौतम! असंयत, संयतासंयत और संयत ये सभी कर्म बांधते हैं / तात्पर्य यह है कि जो सकर्म आत्मा है वे ही कर्म बाँधती हैं उन्हीं पर कर्म का प्रभाव होता है। कर्म बंध के कारण जीव के साथ कर्म का अनादि सम्बन्ध है किन्तु कर्म किन कारणों से बंधते हैं, यह एक सहज जिज्ञासा है / गौतम ने प्रश्न किया-भगवन् ! जीव कर्मबंध कैसे करता है ? भगवान् ने उत्तर दिया-गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से, दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनमोह का उदय होता है / दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है और मिथ्यात्व के उदय से जीव आठ प्रकार के कर्मों को बांधता है।६२ 58. प्रज्ञापना २३॥श२९२ 59. भगवती 9 60. भगवती 9 61. भगवती 715266 62. प्रज्ञापना 23111289 [25] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानाङ्ग६३ समवायाङ्ग 4 में तथा उमास्वाति ने कर्मबंध के पांच कारण बताये हैं(१) मिथ्यात्व, (2) अविरति, (3) प्रमाद, (4) कषाय और योग / 55 / संक्षेप दृष्टि से कर्म बंध के दो कारण हैं-कषाय और योग / 66 कर्म बंध के चार भेद हैं-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश / 7 इनमें प्रकृति और प्रदेश का बंध योग से होता है एवं स्थिति व अनुभाग का बंध कषाय से होता है।६८ संक्षेप में कहा जाय तो कषाय ही कर्मबंध का मुख्य हेतु है।६६ कषाय के अभाव में साम्परायिक कर्म का बंध नहीं होता। दसवें गुणस्थान तक दोनों कारण रहते हैं अतः वहाँ तक साम्परायिक बंध होता है। कषाय और योग से होने वाला बंध साम्परायिक बंध कहलाता है और वीतराग के योग के निमित्त से जो गमनागमन आदि क्रियाओं से कर्म बंध होता है वह ईर्यापथिक बंध कहलाता है / 70 ईर्यापथ कर्म की स्थिति उत्तराध्ययन७१ प्रज्ञापना७२ में दो समय की मानी है, और दिगम्बर ग्रन्थों में एवं पं० सुखलाल जी 3 ने सिर्फ एक समय की मानी है। योग होने पर भी अगर कषायाभाव हो तो उपाजित कर्म की स्थिति या रस का बंध नहीं होता। स्थिति और रस दोनों के बंध का कारण कषाय ही है। विस्तार से कषाय के चार भेद हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ / 74 स्थानाङ्ग और प्रज्ञापना में कर्मबंध के ये चार कारण बताये हैं / संक्षेप में कषाय के दो भेद हैं--राग और द्वेष / 75 राग और द्वेष में भी उन चारों का समन्वय हो जाता है। राग में माया और लोभ-तथा द्वेष में क्रोध और -- - - 63. स्थानाङ्ग 418 64. समवायाङ्ग 5 समवाय 65. तत्वार्थ सूत्र 8.1 66. समवायाङ्ग 2 67. तत्त्वार्थ सूत्र 8 / 4 68. (क) स्थानाङ्ग 4 स्थान (ख) पंचम कर्मग्रन्थ गा० 96 69. तत्त्वार्थसूत्र 82 70. तत्त्वार्थसूत्र 65 71. उत्तराध्ययन अ० 21 पृ०७१ 72. प्रज्ञापना 23 / 13 पृ० 137 73. (क) समयट्ठिदिगो बंधो.............."गोम्मटसार कर्मकांड (ख) तत्त्वार्थसूत्र पं० सुखलाल जी, पृ० 217 74. (क) सूत्रकृताङ्ग 626 (ख) स्थानाङ्ग 4 / 1 / 251 (म) प्रज्ञापना २३॥श२९० 75. उत्तराध्ययन 3217 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मान का समावेश होता है / 76 राग और द्वेष के द्वारा हो अष्टविध कर्मों का बंधन होता है अतः राग-द्वेष को ही भाव-कर्म माना है। राग-द्वेष का मूल मोह ही है। आचार्य हरिभद्र ने लिखा है-जिस मनुष्य के शरीर पर तेल चुपड़ा हुआ हो उसका शरीर उड़ने वाली धूल से लिप्त हो जाता है / वैसे ही राग द्वेष के भाव से प्राक्लिन्न हुए आत्मा पर कर्म-रज का बंध हो जाता है / स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्यात्व को जो कर्म-बंधन का कारण कहा है, उसमें भी राग-द्वेष ही प्रमुख हैं। राग-द्वेष की तीव्रता से ही ज्ञान विपरीत होता है। इसके अतिरिक्त जहाँ मिथ्यात्व होता है वहाँ अन्य कारण स्वतः होते ही हैं। अत: शब्द-भेद होने पर भी सभी का सार एक ही है। केवल संक्षेप-विस्तार के विवक्षाभेद से उक्त कथन समझना चाहिए। जैनदर्शन की तरह बौद्ध-दर्शन ने भी कर्म बंधन का कारण मिथ्या ज्ञान और मोह माना है।८० न्यायदर्शन का भी यही मन्तव्य है कि मिथ्याज्ञान ही मोह है / प्रस्तुत मोह केवल तत्त्वज्ञान की अनुत्पत्ति रूप नहीं है किन्तु शरीर, इन्द्रिय, मन, वेदना बुद्धि ये अनात्मा होने पर भी इनमें मैं ही हूँ ऐसा ज्ञान मिथ्याज्ञान और मोह है। यही कर्मबंधन का कारण है।८१ वैशेषिकदर्शन भी प्रकृत कथन का समर्थन करता है / 82 सांख्यदर्शन भी बंध का कारण विपर्यास मानता है और विपर्यास ही 76. (क) स्थानाङ्ग 23 (ख) प्रज्ञापना 23 (ग) प्रवचनसार गा० 95 77. प्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति प्राचार्य नमि 78. (क) उत्तराध्ययन 3217 (ख) स्थानाङ्ग 22 (ग) समयसार गाथा 94 / 96 / 109 / 177 (घ) प्रवचनसार 1184188 79. आवश्यक टीका 80. (क) सुत्तनिपात 3 // 12 // 33 (ख) विसुद्धिमम्ग 17 / 302 (ग) मज्झिम निकाय महातण्हासंखयसुत्त 38 81. (क) न्यायभाष्य 4 / 2 / 1 (ख) न्यायसूत्र 102 (ग) न्याय सूत्र 41103 (घ) न्यायमूत्र 4.116 82. (क) प्रशस्तपाद पृ० 538 विपर्यय निरूपण (ख) प्रशस्त पाद भाष्य संसारापवर्ग प्रकरण 83. सांख्यकारिका 44-47-48 [27] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्या ज्ञान है / 4 योगदर्शन क्लेश को बंध का कारण मानता है और क्लेश का कारण अविद्या है / 5 उपनिषद्६ भगवद्गीता और ब्रह्म सूत्र में भी अविद्या को ही बंध का कारण माना है। इस प्रकार जैन दर्शन और अन्य दर्शनों में कर्मबंध के कारणों में शब्दभेद और प्रक्रियाभेद होने पर भी मूल भावनात्रों में खास भेद नहीं है / निश्चयनय और व्यवहारनय निश्चय और व्यवहार दृष्टि से भी जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त का विवेचन किया गया है / जो पर-निमित्त के बिना वस्तु के असली तात्त्विक स्वरूप का कथन करता है वह निश्चयनय है और जो परनिमित्त की अपेक्षा से वस्तु का कथन करता है वह व्यवहारनय है। प्रश्न है कि निश्चय और व्यवहार की प्रस्तुत परिभाषा के अनुसार क्या कर्म के कर्तृत्व व भोक्तृत्व आदि का निरूपण हो सकता है ? परनिमित्त के अभाव में वस्तु के वास्तविक स्वरूप के कथन का अर्थ है शुद्ध वस्तु के स्वरूप का कथन / इस अर्थ की दृष्टि से निश्चयनय शुद्ध-आत्मा और शुद्ध-पुद्गल का ही कथन कर सकता पदगल-मिश्रित प्रात्मा का या प्रात्म-मिश्रित पूदगल का नहीं। अतः कर्म के कर्तत्वभोक्तत्व आदि का कथन निश्चयनय से किस प्रकार सम्भव है ? 88 चूकि कर्म का सम्बन्ध सांसारिक आत्मा से है। व्यवहारनय परनिमित्त की अपेक्षा से वस्तु का निरूपण करता है अतः कर्मयुक्त प्रात्मा का कथन व्यवहारनय से ही हो सकता है। निश्चयनय पदार्थ के शुद्ध स्वरूप का अर्थात् जो वस्तु स्वभाव से अपने आप में जैसी है वैसी ही प्रतिपादन करता है और व्यवहारनय संसारी आत्मा जो कर्म से युक्त है उसका प्रतिपादन करता है। इस तरह निश्चय और व्यवहारनय में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है। दोनों की विषय वस्तु भिन्न-भिन्न है उनका क्षेत्र पृथक्-पृथक है / निश्चयनय से कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व आदि का निरूपण नहीं हो सकता। वह मुक्त आत्मा और पुद्गल आदि शुद्ध अजीव का ही प्रतिपादन कर सकता है। कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व कितने ही चिन्तकों ने निश्चय और व्यवहारनय की मर्यादा को विस्मृत करके निश्चयनय से कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का निरूपण किया है जिससे कर्म सिद्धान्त में अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो गईं ! इन समस्याओं का कारण है संसारी जीव और मुक्त जीव के भेद का विस्मरण और साथ ही कभी-कभी कर्म और पुद्गल का अन्तर भी भुला दिया जाता है। उन चिन्तकों का मन्तव्य है कि जीव न तो कर्मों का कर्ता है और न भोक्ता ही है कि दव्य कर्म पौद्गलिक हैं, पुद्गल के विकार हैं, इसलिए पर हैं / उनका कर्ता चेतन जीव किस प्रकार हो सकता है ? चेतन का कर्म चेतनरूप होता है और अचेतन का कर्म अचेतनरूप / यदि चेतन का कर्म भी अचेतनरूप होने लगेगा तो चेतन 84. ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानम् -मराठ वृत्ति 44 85. योगदर्शन 21314 86. कठोपनिषद् 1 / 2 / 5 87. भगद्गीता 5 // 156 88. पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना पृ० 11 [28] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अचेतन का भेद नष्ट होकर महान् संकर दोष उपस्थित होगा। इसलिए प्रत्येक द्रव्य स्व-भाव का कर्ता है पर-भाव का कर्ता नहीं। प्रस्तुत कथन में संसारी जीव को द्रव्य कर्मों का कर्ता व भोक्ता इसलिए नहीं माना गया कि कर्म पौद्गलिक हैं / यह किस प्रकार सम्भव है कि चेतन जीव अचेतन कर्म को उत्पन्न करे ? इस हेतु में जो ससारी अशुद्ध आत्मा है उनको शुद्ध चैतन्य मान लिया गया है और कर्म को शुद्ध पुद्गल / किन्तु सत्य तथ्य यह है कि न संसारी जीव शुद्ध चैतन्य है और न कर्म शुद्ध पुद्गल ही हैं। संसारी जीव चेतन और अचेतन द्रव्यों का मिला-जुला रूप है, इसी तरह कर्म भी पुदगल का शुद्ध रू अपितु एक विकृत अवस्था है जो संसारी जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति से निर्मित हुई है और उससे संबद्ध है। जीव और पुद्गल दोनों अपनी-अपनी स्वाभाविक अवस्था में हो तो कर्म की उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं हो सकता। संसारी जीव स्वभाव में स्थित नहीं है किन्तु उसकी स्व और पर-भाव की मिश्रित अवस्था है, इसलिये उसे केवल स्व-भाव का कर्ता किस प्रकार कह सकते हैं ? जब हम यह कहते हैं कि जीव कर्मों का कर्ता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि जीव पुद्गल का निर्माण करता है। पुद्गल तो पहले से ही विद्यमान हैं। उसका निर्माण जीव नहीं करता, जीव तो अपने सन्निकट में स्थित पूदगल परमाणुओं को अपनी प्रवृत्तियों से प्राकृष्ट कर अपने में मिलाकर नीरक्षीवत् एक कर देता है / यही द्रव्य कर्मों का कर्तृत्व कहलाता है। ऐसी स्थिति में यह कहना एकान्ततः युक्त नहीं है कि जीव द्रव्य कर्मों का कर्ता नहीं है। यदि जीव द्रव्य कर्मों का कर्ता नहीं है तो फिर उसका कर्ता कौन है ? पुद्गल अपने आप कर्म रूप में परिणत नहीं होता, जीव ही उसे कर्म रूप में परिणत करता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि द्रव्य कर्मों के कर्तृत्व के अभाव में भाव कर्मों का कर्तृत्व किस प्रकार सम्भव हो सकता है! द्रव्य कर्म ही तो भाव कर्म को उत्पन्न करते हैं। सिद्ध द्रव्य कर्मों से मुक्त हैं इसलिए भावकों से भी मक्त हैं। जब यह सिद्ध हो जाता है कि जीव पुद्गल-परमाणुओं को कर्म के रूप में परिणत करता है तो वह कर्म फल का भोक्ता भी सिद्ध हो जाता है। च कि जो कर्मों से बद्ध होता है वही उनका फल भी भोगता है। इस तरह संसारी जीव कर्मों का कर्ता और उनके फल का भोक्ता है किन्तु मुक्त जीव न तो कर्मों का कर्ता है और न कर्मों का भोक्ता ही है। जो विचारक जीव को कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं मानते हैं, वे एक उदाहरण देते हैं। जैसे एक युवक, जिसका रूप अत्यन्त सुन्दर है, कार्यवश कहीं पर जा रहा है, उसके दिव्य व भव्य रूप को निहार कर एक तरुणी उस पर मुग्ध हो जाय और उसके पीछे-पीछे चलने लगे तो उस युवक का उसमें क्या कर्तृत्व है ? की तो वह युवती है। युवक तो उसमें केवल निमित्त कारण है। इसी प्रकार यदि पुद्गल जीव की ओर आकर्षित होकर कर्म के रूप में परिवर्तित होता है तो उसमें जीव का क्या कर्तृत्व है। कर्ता तो पुद्गल स्वयं है / जीव उसमें केवल निमित्त कारण है। यही बात कर्मों के भोक्तृत्व के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं। यदि यही बात है तो आत्मा न कर्ता सिद्ध होगा, न भोक्ता, न बद्ध होगा, न मुक्त, न राग-द्वेषादि भावों से युक्त सिद्ध होगा और न उनसे 89. पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना पृ० 11-12 90. पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना पृ. 12 [29] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित ही / परन्तु सत्य तथ्य यह नहीं है / जैसे किसी रूपवान् पर युवती मुग्ध होकर उसके पीछे हो जाती है वैसे जड़ पुद्गल चेतन आत्मा के पीछे नहीं लगते / पुद्गल अपने आप आकर्षित होकर प्रात्मा को पकड़ने के लिए नहीं दौड़ता / जीव जब सक्रिय होता है तभी पुद्गल-परमाणु उसकी ओर प्राकृष्ट होते हैं। अपने को उसमें मिलाकर उसके साथ एकमेक हो जाते हैं, और समय पर फल प्रदान कर उससे पुनः पृथक् हो जाते हैं / इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के लिए जीव पूर्णरूप से उतरदायी है / जीव की क्रिया से ही पुद्गल परमाणु उसकी ओर खिचते हैं, सम्बद्ध होते हैं और उचित फल प्रदान करते हैं / यह कार्य न अकेला जीव ही कर सकता है और न अकेला पुद्गल ही कर सकता है / दोनों के सम्मिलित और पारस्परिक प्रभाव से ही यह सब कुछ होता है / कर्म के कर्तृत्व में जीव की इस प्रकार की निमित्तता नहीं है कि जीब सांख्यपुरुष की भांति निष्क्रिय अवस्था में निर्लिप्त भाव से विद्यमान रहता हो और पुद्गल अपने आप कर्म के रूप में परिणत हो जाते हों / जीव और पुद्गल के परस्पर मिलने से ही कम की उत्पत्ति होती है / एकान्त रूप से जीव को चेतन और कर्म को जड़ नहीं कह सकते / जीव भी कर्म-पुद्गल के संसर्ग के कारण कथंचित् जड़ है और कर्म भी चैतन्य के संसर्ग के कारण कथंचित् चेतन हैं / जब जीव और कर्म एक-दूसरे से पूर्णरूप से पृथक् हो जाते हैं, उनमें किसी प्रकार का संपर्क नहीं रहता है तब वे अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाते हैं अर्थात् जीव एकान्त रूप से चेतन हो जाता है और कर्म एकान्त रूप से जड़ / संसारी जीव और द्रव्यकर्म रूप पुद्गल के मिलने पर उसके प्रभाव से ही जीव में राग-द्वषादि . भावकर्म की उत्पत्ति संभव है। प्रश्न है कि यदि जीव अपने शुद्ध स्वभाव का कर्ता है और पुद्गल भी अपने शुद्ध स्वभाव का कर्ता है तो राग-द्वेष आदि भावों का कर्ता कौन है ? राग-द्वेष आदि भाव न जीव के शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं और न पुद्गल के ही शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं अतः उसका कर्ता किसे मानें ! उत्तर है-चेतन अात्मा और अचेतन द्रव्यकर्म के मिश्रित रूप को ही इन अशुद्ध-वैभाविक भावों का कर्ता मान सकते हैं / राग-द्वेषादि भाव चेतन और अचेतन द्रव्यों के सम्मिश्रण से पैदा होते हैं वैसे ही मन, वचन और काय आदि भी / कर्मों की विभिन्नता और विविधता से ही यह सारा वैचित्र्य है। निश्चयदृष्टि से कर्म का कर्तृत्व और भोक्तत्व मानने वाले चिन्तक कहते हैं--प्रात्मा अपने स्वाभाविक भाव ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का और वैभाविक भाव राग, द्वेष आदि का कर्ता है परन्तु उसके निमित्त से जो पुद्गल-परमाणुओं में कर्मरूप परिणमन होता है उसका वह कर्ता नहीं है। जैसे घड़े का कर्ता मिट्टी हैं, कुभार नहीं। लोक-भाषा में कुभार को घड़े का बनाने वाला कहते हैं पर इसका सार इतना ही है कि घट-पर्याय में कुभार निमित्त है / वस्तुत: घट मृत्तिका का एक भाव है इसलिए उसका कर्ता भी मिट्टी ही है।' किन्तु प्रस्तुत उदाहरण उपयुक्त नहीं है / आत्मा और कर्म का सम्बन्ध घड़े और कुभार के समान नहीं है / घड़ा और कुभार दोनों परस्पर एकमेक नहीं होते किन्तु आत्मा और कम नीरक्षीरवत् एकमेक हो जाते हैं। इसलिए कर्म और आत्मा का परिणमन घड़ा और कुभार के 91. पंचम कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना, पृ. 13 [ 30 ] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणमन से पृथक प्रकार का है। कर्म-परमाणुओं और आत्म-प्रदेशों का परिणमन जड़ और चेतन का मिश्रित परिणमन होता है जिनमें अनिवार्य रूप से एक दूसरे से प्रभावित होते हैं किन्तु घड़े और कुभार के सम्बन्ध में यह बात नहीं है / आत्मा कर्मों का केवल निमित्त ही नहीं किन्तु कर्ता और भोक्ता भी है / आत्मा के वैभाविक भावों के कारण पुद्गल-परमाणु उसकी ओर आकर्षित होते हैं / इसलिये वह उनके आकर्षण का निमित्त है / वे परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होकर कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं, इसलिए आत्मा कर्मों का कर्ता है / वैभाविक भावों के रूप में आत्मा को उनका फल भोगना पड़ता है, इसलिए वह कर्मों का भोक्ता भी है। कर्म की मर्यादा जैन-कर्म-सिद्धान्त का यह स्पष्ट अभिमत है कि कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के शरीर, मन और मात्मा से है / व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा की सुनिश्चित सीमा है और वह उसी सीमा में सीमित है। इसी प्रकार कर्म भी उसी सीमा में अपना कार्य करता है / यदि कर्म की सीमा न मानें तो आकाश के समान वह भी सर्वव्यापक हो जायेगा / सत्य तथ्य यह है कि प्रात्मा का स्वदेहपरिमाणत्व भी कर्म के ही कारण है / कर्म के कारण आत्मा देह में प्राबद्ध है तो फिर कम उसे छोड़ कर अन्यत्र कहाँ जा सकता है ? संसारी आत्मा हमेशा किसी न किसी शरीर से बद्ध रहता है और सम्बद्ध कर्म पिण्ड भी उसी शरीर की सीमाओं में सीमित रहता है। प्रश्न है--शरीर की सीमाओं में सीमित कर्म अपनी सीमाओं का परित्याग कर फल दे सकता है ? या व्यक्ति के तन-मन से भिन्न पदार्थों की उत्पत्ति, प्राप्ति व्यय आदि के लिये उत्तरदायी हो सकता है ? जिस क्रिया या घटना-विशेष से किसी व्यक्ति का प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है उसके लिये भी क्या उस व्यक्ति के कर्म को कारण मान सकते हैं ? उत्तर है-जैन-कर्म-साहित्य में कर्म के मुख्य आठ प्रकार बताये हैं। उसमें एक भी प्रकार ऐसा नहीं है, जिसका सम्बन्ध प्रात्मा और शरीर से पथक किसी अन्य पदार्थ से हो / ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म आत्मा के मूलगुण, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का धात करते हैं और वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र कर्म शरीर की विभिन्न अवस्थाओं का निर्माण करते हैं। इस तरह आठों कर्मों का साक्षात् सम्बन्ध प्रात्मा और शरीर के साथ है, अन्य पदार्थों और घटनाओं के साथ नहीं है / परम्परा से प्रात्मा, शरीर-आदि के अतिरिक्त पदार्थों और घटनाओं से भी कर्मों का सम्बन्ध हो सकता है, यदि इस प्रकार सिद्ध हो सके तो। कर्मों का सीधा सम्बन्ध आत्मा और शरीर से है तब प्रश्न उद्बुद्ध होता है कि धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति को पुण्यजन्य किस कारण से माना जाता है ? उत्तर में निवेदन है कि धन-परिजन आदि से सुख आदि की अनुभूति हो तो शुभ कर्मोदय की निमित्तता के कारण बाह्य पदार्थों को भी उपचार से पुण्यजन्य मान सकते हैं / वस्तुतः पुण्य का कार्य सुख आदि की अनुभूति है, धन आदि की उपलब्धि नहीं / धन आदि के अभाव में भी सुख आदि का अनुभव होता है तो उसे पुण्य या शुभ कर्मों का फल समझना चाहिये / यह सत्य है कि बाह्य पदार्थों के निमित्त बिना भी सुख आदि की अनुभूति हो सकती है / इसी तरह दुःख आदि भी हो सकता है / सुख-दुःख आदि जितनी भी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुभूति होती है उसका [31] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल कारण बाह्य नहीं आन्तरिक है। कर्म का सम्बन्ध आन्तरिक कारण से है, बाह्य पदार्थों से नहीं। बाह्य पदार्थों की उत्पत्ति, विनाश और प्राप्ति अपने-अपने कारणों से होती है / हमारे कर्म हमारे तक ही सीमित रहते हैं, सर्वव्यापक नहीं हैं। वे हमारे शरीर और आत्मा से भिन्न अति दूर पदार्थों को किस प्रकार उत्पन्न कर सकते हैं, आकर्षित कर सकते हैं, हम तक पहुंचा सकते हैं, न्यून और अधिक कर सकते हैं, विनष्ट कर सकते हैं, सुरक्षित कर सकते हैं ? ये सभी कार्य अन्य कारणों से होते हैं / सुख-दुःख आदि की अनुभूति में निमित्त, सहायक या उत्तेजक होने के कारण उपचार व परम्परा से बाह्य वस्तुओं को पुण्य-पाप का परिणाम मान लेते हैं। जीव की विविध अवस्थाएं कमजन्य हैं / शरीर, इन्द्रियां, श्वासोच्छवास, मन-वचन आदि जीव की विविध अवस्थाएं कम के कारण हैं। किन्तु पत्नी या पति की प्राप्ति, पुत्र-पुत्री की प्राप्ति, संयोग-वियोग, हानि-लाभ, सुकाल और दुष्काल, प्रकृति-प्रकोप, राज-प्रकोप आदि का कारण उनका अपना होता है। यह ठीक है कि कुछ कार्यों व घटनाओं में हमारा यतकिचित् निमित्त हो सकता है किन्त उनका मूल स्रोत उन्हीं के अन्दर है, हमारे में नहीं। हम प्रिय जन, स्वजन आदि के मिलने को पुण्य कर्म मानते हैं और उनके वियोग को पापफल कहते हैं परन्तु यह मान्यता जैनदर्शन की नहीं है / पिता के पुण्य के उदय से पुत्र पैदा नहीं होता, और पिता के पाप के उदय से पुत्र की मृत्यु नहीं होती। पूत्र के पैदा होने और मरने में उसका अपने कर्मों का उदय है किन्तु पिता का पुण्योदय और पापोदय साक्षात् कारण नहीं है / हाँ, यह सत्य है कि पुत्र पैदा होने के पश्चात् वह जीवित रहता है तो मोहनीय कर्म के कारण पिता को प्रसन्नता हो सकती है और उसके मरने पर दुःख हो सकता है। इस प्रसन्नता और दुःख का कारण पिता का पुण्योदय और पापोदय है और उसका निमित्त पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु है। इस तरह पिता के पुण्योदय और पापोदय से पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु नहीं होती किन्तु पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु पिता के पुण्योदय और पापोदय का निमित्त हो सकती है। इसी तरह अन्यान्य घटनाओं के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। व्यक्ति का कर्मोदय, कर्म क्षय, कर्मोपशम आदि की अपनी एक सीमा है और वह सीमा है उसका शरीर, मन, वचन आदि / उस सीमा को लांघ कर कर्मोदय नहीं होता / सारांश यह है कि अपने से पृथक् सम्पूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश उनके अपने कारणों से होते हैं, हमारे कर्म के उदय के कारण से नहीं। उदय उदय का अर्थ काल-मर्यादा का परिवर्तन है। बंधे हुए कर्म-पुद्गल अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं तब उनके निषेक २-कर्म-पुद्गलों को एक काल में उदय होने योग्य रचनाविशेष प्रकट होने लगते हैं वह उदय है / दो प्रकार से कर्म का उदय होता है (1) प्राप्त-काल कर्म का उदय / (2) अप्राप्त-काल कर्म का उदय / कर्म का बंध होते ही उसमें उसी समय विपाक-प्रदान का आरंभ नहीं हो जाता / वह निश्चित अवधि के पश्चात् विपाक देता है। वह बीच की अवधि 'अबाधाकाल' कहलाती है। उस 92. कर्म-निषेको नाम-दलिकस्य अनुभवनाथं रचना-विशेषः -भगवती 6 / 3 / 236 वृत्ति [32] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय कर्म का अवस्थान-मात्र होता है / अबाधा का अर्थ अन्तर है / बंध और उदय के अन्तर का जो काल है, वह अबाधाकाल है। 3 ___ लम्बे काल और तीव्र अनुभाग वाले कर्म तप आदि साधना के द्वारा विफल बना कर स्वल्प समय में भोग लिए जाते हैं / अात्मा शोघ्र निर्मल हो जाती है। यदि स्वाभाविक रूप से ही कर्म उदय में पाएँ तो अाकस्मिक घटनाओं की सम्भावना एवं तप आदि साधना की प्रयोजकता ही नष्ट हो जाती है, परन्तु अपवर्तना से कर्म की उदीरणा या अप्राप्तकाल उदय होता है / अत: आकस्मिक घटनाओं से कर्म-सिद्धान्त के प्रति सन्देह उत्पन्न नहीं हो सकता / तप आदि साधना की सफलता का भी यही मुख्य कारण है। ___ कर्म का परिपाक और उदय सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी। अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी। किसी बाह्य कारण के अभाव में भी क्रोध-वेदनीय-पुद्गलों के तीव्र विपाक से अपने आप क्रोध आ गया-यह उनका निर्हेतुक उदय है / 4 इसी तरह हास्य' भय, वेद, और कषाय के पुद्गलों का भी उदय होता है / 6 स्वतः उदय में प्राने वाले कर्म के हेतु गतिहेतुक उदय-नरक गति में असाता का तीव्र उदय होता है। इसे गतिहेतुक विपाक कहते हैं। स्थितिहेतुक उदय-मोहकर्म की उत्कृष्टतम स्थिति में मिथ्यात्व मोह का तीव्र उदय होता है। यह स्थितिहेतुक विपाक-उदय है / भवहेतुक उदय-दर्शनावरण (जिसके उदय से नींद आती है) यह सभी संसारी जीवों में होता है तथापि मनुष्य और तिर्यंच दोनों को ही नींद आती है देव, नारक को नहीं। यह भव-हेतुक विपाक उदय है। गति, स्थिति और भव के कारण से कितने ही कर्मों का स्वतः विपाक-उदय हो जाता है। दूसरों द्वारा उदय में प्राने वाले कर्म के हेतु पुद्गलहेतुक उदय-किसी ने पत्थर फेंका, घाव हो गया, असाता का उदय हो पाया। यह दूसरों के द्वारा किया हुआ प्रसात-वेदनीय का पुद्गल-हेतुक विपाक-उदय है / किसी ने अपशब्द कहा, क्रोध आ गया। यह क्रोध-वेदनीय-पुद्गलों का सहेतुक विपाकउदय है। पुद्गल-परिणाम के द्वारा होने वाला उदय-बढ़िया भोजन किया किन्तु न पचने से अजीर्ण हो गया। उससे रोग उत्पन्न हुए / यह असात-वेदनीय का विपाक-उदय है / 93. बाधा-कर्मण उदयः, न बाधा अबाधा-कर्मणो बंधस्योदयस्य चान्तरम् / भगवती 6 / 3 / 236 94. स्थानाङ्ग 4 / 76 वृत्तिः पत्र 182 95. स्थानाङ्ग 96. स्थानाङ्ग 4 / 75-79 [33] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदिरा आदि नशीली वस्तु का उपयोग किया, उन्माद छा गया। यह ज्ञानावरण का विपाकउदय हुआ। यह पुद्गल-परिणमन-हेतुक-विपाक-उदय है / इस तरह विविध हेतुओं से कर्मों का विपाक-उदय होता है / 7 यदि ये हेतु प्राप्त नहीं होते तो कमों का विपाक रूप में उदय नहीं होता। उदय का दूसरा प्रकार है प्रदेशोदय / इसमें कर्म-फल का स्पष्ट अनुभव नहीं होता है / यह कर्मवेदन की अस्पष्टानुभूति वाली दशा है / जो कर्म-बंध होता है वह अवश्य ही भोगा जाता है। गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की भगवन् ! किये हुए पाप-कर्म भोगे बिना नहीं छूटते, क्या ? भगवान् ने समाधान करते हुए कहा-हाँ गौतम ! यह सत्य है। गौतम ने पुनः प्रश्न किया-कैसे, भगवन् ? भगवान् ने उत्तर दिया—गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाये हैं-(१) प्रदेश-कर्म और (2) अनुभाग-कर्म / जो प्रदेश-कर्म हैं वे अवश्य ही भोगे जाते हैं तथा जो अनुभाग कर्म हैं वे अनुभाग (विपाक) रूप में कुछ भोगे जाते हैं, कुछ नहीं भोगे जाते / पुरुषार्थ से भाग्य में परिवर्तन हो सकता है। वर्तमान में हम जो पुरुषार्थ करते हैं उसका फल अवश्य ही प्राप्त होता है। भूतकाल को दृष्टि से उसका महत्त्व है भी और नहीं भी है। वर्तमान में किया गया पुरुषार्थ यदि भूतकाल में किये गये पुरुषार्थ से दुर्बल है तो वह भूतकाल के किये गये पुरुषार्थ पर नहीं छा सकता। यदि वर्तमान में किया गया पुरुषार्थ भूतकाल के पुरुषार्थ से प्रबल है तो वह भूतकाल के पुरुषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है। कर्म की केवल बंध और उदय ये दो ही अवस्थाएँ होती तो बद्ध कर्म में परिवर्तन को अवकाश नहीं होता किन्तु अन्य अवस्थाएँ भी हैं (1) अपवर्तना-इससे कम-स्थिति का अल्पीकरण [स्थितिधात और रस का मन्दीकरण (रसघात)] होता है। (2) उद्वर्तना से कम-स्थिति का दीर्धीकरण और रस का तीव्रीकरण होता है। (3) उदीरणा से दीर्घकाल के पश्चात् उदय में आने वाले कर्म शीघ्र-तत्काल उदय में आ जाते हैं। (4) एक कम शुभ होता है और उसका विषाक भी शुभ होता है। एक कर्म शुभ होता है, उसका विपाक अशुभ होता है। एक कम अशुभ होता है उसका विपाक शुभ होता है, एक कर्म अशुभ ता है और उसका विपाक भी अशुभ होता है / जो कर्म शुभ रूप में बंधता है, शुभ रूप में ही उदय में आता है, वह शुभ है और शुभ विपाक वाला है। जो कर्म शुभ रूप में बंधता है, अशुभ रूप में उदय में आता है वह शुभ और अशुभ विपाक वाला है। जो कर्म अशुभ रूप में बंधता है, शुभ रूप 97. प्रज्ञापना 23611293 98, भगवती 1414. वृत्ति [34] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में उदय में जाता है वह अशुभ और शुभ विपाक वाला है। और जो कर्म अशुभ रूप में बंधता है, अशुभ रूप में ही उदय में आता है वह अशुभ और अशुभ विपाक वाला है। कर्म के उदय में जो यह अन्तर है उसका मूल कारण सक्रमण (बद्ध कर्म में प्रात्मा द्वारा अन्यथाकरण) कर देना है। प्रात्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन ___ संक्रमण की स्थिति को छोड़ कर सामान्य रूप से जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल उसे प्राप्त होता है / शुभ कर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है / / कर्म की मुख्यत: दो अवस्थाएँ हैं-बन्ध (ग्रहण) और उदय (फल) / कर्म को बांधने में जीव स्वतन्त्र है किन्तु उसके फल को भोगने में वह स्वतन्त्र नहीं। जिस प्रकार कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है; वह चढ़ने में स्वतन्त्र है अपनी इच्छानुसार चढ़ सकता है; किन्तु असावधानीवश गिर जाय तो वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है / 100 वह इच्छा से गिरना नहीं चाहता है तथापि गिर जाता है, वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है। इसी प्रकार व्यक्ति भंग पीने में स्वतन्त्र है किन्तु उसका परिणाम भोगने में परतन्त्र है / उसकी इच्छा न होते हुए भी भंग अपना चमत्कार दिखाएगो हो / उसको इच्छा का फिर कोई मूल्य नहीं। उक्त कथन का यह अर्थ नहीं कि बद्ध कर्मों के विपाक में प्रात्मा कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता / जैसे भंग के नशे की विरोधी वस्तु का सेवन किया जाय तो भंग का नशा नहीं चढ़ता, या नाममात्र का ही चढ़ता है, उसी प्रकार प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म के विपाक को मन्द भी किया जा सकता है और नष्ट भो किया जा सकता है / उस अवस्था में कर्म प्रदेशों से उदित होकर ही निर्जीर्ण हो जाते हैं / उसको कालिक मर्यादा (स्थितिकाल) को कम करके शीघ्र उदय में भी लाया जा सकता है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जीव के काल आदि लब्धियों को अनुकूलता होती है तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों की बहुलता होती है तब जीव उससे दब जाता है। इसलिए कहीं पर जीव कर्म के अधीन है और कहीं कर्म जीव के अधीन है। कर्म के दो प्रकार हैं(१) निकाचित-जिनका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता। (2) अनिकाचित-जिनका विपाक अन्यथा भी हो सकता है / दूसरे शब्दों में (1) निरुपक्रम--इसका कोई प्रतिकार नहीं होता इसका उदय अन्यथा नहीं हो सकता / (2) सोपक्रम-यह उपचार-साध्य होता है। जीव निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा से कर्म के अधीन ही होता है। दलिक की दृष्टि से दोनों बातें हैं-जब तक जीव उस कर्म को नष्ट करने का प्रयास नहीं करता तब तक वह उस कम के 99. सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति / दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिणफला भवन्ति // -दशाशु तस्कन्ध 6 100. कम्म चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मिउ, परवसा होन्ति / स्वखं दुरुहइ सबसो, विगलसपरवसो पडइ तत्तो।। -विशेषावश्यक भाष्य 113 [35] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधीन ही होता है और जब जीव प्रबल पुरुषार्थ के साथ मनोबल और शरीर-बल आदि सामग्री के सहयोग से सत प्रयास करता है तब कर्म उसके अधीन होता है। जैसे-उदयकाल से पहले कर्म को उदय में लाकर नष्ट कर देना, उसकी स्थिति और रस को मन्द कर देना / पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और फल-शक्ति नष्ट कर उन्हें बहुत ही शीघ्र नष्ट करने के लिए तपस्या की जाती है। पातञ्जल योगभाष्य में भी अदृष्टजन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियां निरूपित की गई हैं। उनमें एक गति यह है-कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं / 10 // इसे जैन-पारिभाषिक शब्दों में प्रदेशोदय कहा है। उदीरणा गौतम ने भगवान से प्रश्न किया-भगवन् ! जीव उदीर्ण कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है ? अथवा अनुदीर्ण कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है ? उत्तर मिला-जीव अनुदीर्ण पर उदीरणा-योग्य कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है। (1) उदीर्ण कम-पुद्गलों की पुनः उदीरणा की जाय तो उस उदीरणा की कहीं पर भी परिसमाप्ति नहीं हो सकती। अतः उदीर्ण की उदीरणा नहीं होती। (2) जिन कर्म-पूदगलों की उदीरणा वर्तमान में नहीं पर सूदूर भविष्य में होने वाली है या जिसकी उदीरणा०२ नहीं होने वाली है, उन अनुदीर्ण-कर्म-पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं हो सकती है। (3) जो कर्म-पुद्गल उदय में आ चुके हैं (उदयानन्तर पश्चात्-कृत) वे शक्तिहीन हो गये हैं, उनकी भी उदीरणा नहीं होती। (4) जो कर्म-पुद्गल वर्तमान में उदीरणा-योग्य (अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा-योग्य) हैं उन्हीं की उदीरणा होती है। उदीरणा का कारण कम जब स्वाभाविक रूप से उदय में आते हैं तब नवीन पुरुषार्थ की अावश्यकता नहीं होती / अबाधा स्थिति पूर्ण होते ही कर्म-पुद्गल स्वत: उदय में आ जाते हैं। स्थिति-क्षय से पूर्व उदीरणा द्वारा उदय में लाये जा सकते हैं। एतदर्थ इसमें विशेष प्रयत्न या पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है / 03 __इसमें भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय है। पुरुषार्थ से कर्म में भी परिवर्तन हो सकता है, यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट हैं। कर्म की उदीरणा 'करण' से होती है। करण का अर्थ 'योग' है। योग के तीन प्रकार हैं-- मन, वचन और काय। 101. कृतस्याऽविपक्वस्य नाशः अदत्तफलस्य कस्यचित पापकर्मणः प्रायश्चित्तादिना नाश इत्येका गतिरित्यर्थः। -पातंजलयोग 2113 भाष्य 102. भगवती 113335 103. भगवती 113135 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्थान, बल, वीर्य प्रादि इन्हीं के प्रकार हैं। योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का है। मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय रहित योग शुभ है और इनसे सहित योग अशुभ है / सत् प्रवृत्ति शुभ योग है और असत् प्रवृत्ति अशुभ योग है। सत् प्रवृत्ति और असत् प्रवृत्ति दोनों से उदीरणा होती है।०४ वेदना गौतम ने भगवान् से पूछा-भगवन् ! अन्य यूथिकों का यह अभिमत है कि सभी जीव एवंभूत वेदना (जिस प्रकार कर्म बांधा है उसी प्रकार) भोगते हैं क्या यह कथन उचित है ? भगवन् ने कहा-गौतम ! अन्य यूथिकों का प्रस्तुत एकान्त कथन मिथ्या है / मेरा यह अभिमत है कि कितने ही जीव एवंभूत-वेदना भोगते हैं और कितने ही जीव अन-एवंभूत-वेदना भी भोगते हैं। गौतम ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! यह कैसे ? भगवान् ने कहा-गौतम ! जो जीव किये हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं वे एवंभूत-वेदना भोगते हैं और जो जीव किये हुए कर्मों से अन्यथा वेदना भोगते हैं वे अन-एवंभूतबेदना भोगते हैं। निर्जरा आत्मा और कर्माण वर्गणा के परमाणु, ये दोनों पृथक् हैं। जब तक पृथक् रहते हैं तब तक प्रात्मा, आत्मा है और परमाणु-परमाणु है। जब दोनों का संयोग होता है तब परमाणु 'कर्म' कहलाते हैं। कर्म-प्रायोग्य-परमाणु जब-प्रात्मा से चिपकते हैं तब वे कर्म कहलाते हैं। उस पर अपना प्रभाव डालने के पश्चात् वे अकर्म हो जाते हैं। अकर्म होते ही वे प्रात्मा से अलग हो जाते हैं / इस अलगाव का नाम निर्जरा है। कितने ही फल टहनी पर पककर टूटते हैं तो कितने ही फल प्रयत्न से पकाये जाते हैं / दोनों ही फल पकते हैं किन्तु दोनों के पकने की प्रक्रिया पृथक्-पृथक् है / जो सहज रूप से पकता है उसके पकने का समय लम्बा होता है और जो प्रयत्न से पकाया जाता है उसके पकने का समय कम होता है / कर्म का परिपाक ठीक इसी प्रकार होता है / निश्चित काल-मर्यादा से जो कर्म-परिपाक होता है वह निर्जरा विपाकी-निर्जरा कहलाती है। इसके लिए किसी भी प्रकार का नवीन प्रयत्न नहीं करना पड़ता इसलिए यह निर्जरस न धर्म है और न अधर्म है। निश्चित काल-मर्यादा से पूर्व शुभ-योग के द्वारा कर्म का परिपाक होकर निर्जरा होती है वह अविपाकी निर्जरा कहलाती है / यह निर्जरा सहेतुक है / इसका हेतु शुभ-प्रयास है, अतः धर्म है। प्रात्मा पहले या कर्म ? आत्मा पहले है या कर्म पहले है ? दोनों में पहले कौन है और पीछे कौन है ? यह एक प्रश्न है। 104. भगवती 1 / 335 [ 37] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर है---प्रात्मा और कर्म दोनों अनादि हैं। कर्मसन्तति का आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बन्ध है / प्रतिपल-प्रतिक्षण जीव नूतन कर्म बांधता रहता है। ऐसा कोई भी क्षण नहीं, जिस समय सांसारिक जीव कर्म नहीं बांधता हो। इस दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध सादि भी कहा जा सकता है पर कर्म-सन्तति की अपेक्षा प्रात्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है।०५ अनादि का अन्त कैसे ? प्रश्न है-जब प्रात्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है तब उसका अन्त कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो अनादि होता है उसका नाश नहीं होता। उत्तर है-अनादि का अन्त नहीं होता, यह सामुदायिक नियम है, जो जाति से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति विशेष पर यह नियम लाग नहीं भी होता / स्वर्ण और मिट्टी का सम्बन्ध अनादि है तथापि वे पृथक्-पृथक् होते हैं। वैसे ही आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध का अन्त होता है / 106 यह भी स्मरण रखना चाहिए कि व्यक्ति रूप से कोई भी कर्म अनादि नहीं है। किसी एक कर्मविशेष का अनादि काल से आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं है। पूर्वबद्ध कर्म स्थिति पूर्ण होने पर कर्म आत्मा से पृथक हो जाते हैं। नवीन कर्म का बन्धन होता रहता है। इस प्रकार प्रवाह रूप से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि काल से है१०७ न कि व्यक्तिशः / अत: अनादिकालीन कर्मों का अन्त होता है / संवर के द्वारा नये कर्मों का प्रवाह रुकता है और तप द्वारा संचित कर्म नष्ट होते हैं। तब आत्मा मुक्त बन जाता है / 106 आत्मा बलवान या कर्म आत्मा और कम इन दोनों में अधिक शक्ति-सम्पन्न कौन है ? क्या आत्मा बलवान् है या कर्म बलवान् हैं ? . समाधान है-आत्मा भी बलवान् है और कर्म भी बलवान हैं। आत्मा में अनन्त शक्ति है तो कर्म में भी अनन्त शक्ति है / कभी जीव काल आदि लब्धियों को अनुकूलता होने पर कर्मों को पछाड़ देता है और कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है / 106 बहिर्दष्टि से कर्म बलवान् प्रतीत होते हैं पर अन्तर्दृष्टि से आत्मा ही बलवान् है क्योंकि कर्म का कर्ता अात्मा है / वह मकड़ी की तरह स्वयं कर्मों का जाल फैला कर उनमें उलझता है। यदि वह चाहे तो कर्मों को काट भी सकता है। कर्म चाहे कितने भी शक्तिशाली हों पर आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। 105. परमात्मप्रकाश 1159 / 60 106. द्वयोरप्यनादिसम्बन्धः कनकोपल-सन्निभः / 107. (क) पंचाध्यायी 2 / 45, पं. राजमल (ख) लोकप्रकाश 424 (ग) स्थानाङ्ग 11417 टीका 108. उत्तराध्ययन 2045 109. गणधरवाद 2-25 [38] Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकिक दृष्टि से पत्थर कठोर है और पानी मुलायम है किन्तु मुलायम पानी पत्थर के भी टुकड़े-टुकड़े कर देता है। कठोर चट्टानों में भी छेद कर देता है। वैसे ही आत्मा की शक्ति कर्म से अधिक है। वीर हनुमान को जब तक स्व-स्वरूप का परिज्ञान नहीं हुआ तब तक वह नाग-पाश में बंधा रहा, रावण की ठोकरें खाता रहा, अपमान के जहरीले धूट पीता रहा, किन्तु ज्यों ही उस स्वरूप का ज्ञान हुआ, त्यों ही नाग-पाश को तोड़कर मुक्त हो गया। आत्मा को भी जब तक अपनी विराट् शक्ति का ज्ञान नहीं होता तब तक वह भी कर्मों को अपने से अधिक शक्तिमान् समझकर उनसे दबा रहता है, ज्ञान होने पर उनसे मुक्त हो जाता है / ईश्वर और कर्मवाद जैनदर्शन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जीव स्वयं जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है / '1* न्यायदर्शन' 11 की तरह वह कर्म फल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता। कर्मफल का नियमन करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। कर्म-परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होता है / '12 जिससे वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, प्रति उदय के अनुकूल सामग्री से विपाक-प्रदर्शन में समर्थ होकर प्रात्मा के संस्कारों को मलिन करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है। पीयुष और विष, पथ्य और अपथ्य भोजन में कुछ भी ज्ञान नहीं होता तथापि प्रात्मा का संयोग पाकर वे अपनी-अपनी प्रकृति के अनुकूल विपाक उत्पन्न करते हैं। वह बिना किसी प्रेरणा अथवा विना ज्ञान के अपना कार्य करते ही हैं। अपना प्रभाव डालते ही हैं / 13 कालोदायी अनगार ने भगवान् श्री महावीर से प्रश्न किया-भगवन् ! क्या जीवों के किये गये पाप कर्मों का परिपाक पापकारी होता है / भगवान ने उत्तर दिया-कालोदायी ! हाँ, होता है। कालोदायी ने पुन: जिज्ञासा व्यक्त की-भगवन् ! किस प्रकार होता है ? भगवान् ने रूपक की भाषा में समाधान करते हुए कहा-कालोदायी! जिस प्रकार कोई पुरुष मनोज्ञ, सम्यक् प्रकार से पका हुआ शुद्ध अष्टादश व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है / वह भोजन आपातभद्र--खाते समय अच्छा होता है किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों उसमें विकृति उत्पन्न होती है / वह परिणामभद्र नहीं होता। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि अठारह प्रकार के पापकर्म आपातभद्र और परिणाम-अभद्र होते हैं / कालोदायी, इसी प्रकार पापकर्म पाप-विपाक वाले होते हैं। 110. उत्तराध्ययन सूत्र 20137 111. (क) न्यायदर्शन सूत्र 411 (ख) गोतमसूत्र प्र. 4 / प्रा. 1, मू. 21 112. भगवती 710 113. भगवती 7.10 [ 39] Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालोदायी ने निवेदन किया-भगवन् ! क्या जीवों के किये हुए कल्याण-कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है ? भगवान् ने कहा-हाँ होता है / कालोदायी ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! कैसे होता है ? भगवान ने कहा—कालोदायी ! प्रणातिपातविरति यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से विरति आपातभद्र प्रतीत नहीं होती, पर परिणामभद्र होती है / इसी प्रकार हे कालोदायी ! कल्याणकम भी कल्याणविपाक वाले होते हैं। जैसे गणित करने वाली मशोन जड़ होने पर भी अंक गिनने में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म भी जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करता। उसके लिए ईश्वर को नियंता मानने की आवश्यकता नहीं है। आखिर ईश्वर वही फल प्रदान करेगा जैसे जीव के कर्म होंगे, कर्म के विपरीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा। इस प्रकार एक ओर ईश्वर को सर्वशक्तिमान् मानना और दूसरी ओर उसे अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना वस्तुतः ईश्वर का उपहास है। इससे यह भी सिद्ध है कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक है और ईश्वर भी उसके अधीन ही कार्य करता है। दूसरी दृष्टि से कर्म में भी कुछ करने-धरने की शक्ति नहीं माननी होगी, क्योंकि वह ईश्वर के सहारे ही अपना फल दे सकता है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के अधीन हो जाएंगे। इससे तो यही तर्कसंगत है कि कर्म को ही अपना फल देने वाला स्वीकार किया जाय। इससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी अक्षुण्ण रहेगा और कम वाद के सिद्धान्त में भी किसी प्रकार की बाधा समुपस्थित नहीं होगी। जैन संस्कृति की चिन्तनधारा प्रस्तुत कथन का ही समर्थन करती है। कर्म का संविभाग नहीं वैदिकदर्शन का यह मन्तव्य है कि आत्मा सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथ की कठपुतली है। उसमें स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है / स्वर्ग और नरक में भेजने वाला, सुख और दुःख को देने वाला ईश्वर है / ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव स्वर्ग और नरक में जाता है।१४ ___ जैन-दर्शन के कर्म सिद्धान्त ने प्रस्तुत कथन का खण्डन करते हुए कहा है-ईश्वर किसी का उत्थान और पतन करने वाला नहीं है। वह तो वीतराग है। प्रात्मा ही अपना उत्थान और पतन करता है / जब आत्मा स्वभाव-दशा में रमण करता है तब उत्थान करता है और जब विभाव-दशा में रमण करता है तब उसका पतन होता है। विभावदशा में रमण करने वाला प्रात्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है और स्वभाव-दशा में रमण करने वाला प्रात्मा कामधेनु और नन्दन वन है / 15 यह आत्मा सुख और दुःख का कर्ता भोक्ता स्वयं ही है। शुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और अशुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है / "" 114. महाभारत वनपर्व भ. 3, श्लोक 28 115. उत्तराध्ययन 20136 116. उत्तराध्ययन 20137 [40] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख और दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है। जैसा खात्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा / 17 वैदिकदर्शन और बौद्ध दर्शन की तरह वह कर्म फल के संविभाग में विश्वास नहीं करता / विश्वास ही नहीं अपितु उस विचारधारा का खण्डन भी करता है / 18 एक व्यक्ति का कम दूसरे व्यक्ति में विभक्त नहीं किया जा सकता। यदि विभाग को स्वीकार किया जायेगा तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है ? पाप-पुण्य करेगा कोई और भोगेगा कोई और / अतः यह सिद्धान्त युक्ति-युक्त नहीं है। कर्म का कार्य कर्म का मुख्य कार्य है-प्रात्मा को संसार में आबद्ध रखना / जब तक कम-बंध की परम्परा का प्रवाह प्रवहमान रहता है तब तक यात्मा मुक्त नहीं बन सकता। यह कर्म का सामान्य कार्य है / विशेष रूप से देखा जाय तो भिन्न-भिन्न कर्मों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। जितने कर्म हैं उतने ही कार्य हैं। पाठ कर्म जैन कर्मशास्त्र की दृष्टि से कर्म की पाठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम ये हैं-(१) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) अायु, (6) नाम, (7) गोत्र (8) और अन्तराय / '2 इन पाठ कर्म-प्रकृतियों के भी दो अवान्तर भेद हैं। इनमें चार घाती हैं और चार प्रघाती हैं / (1) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) मोहनीय, (4) अन्तराय ये चार घाती हैं।" (1) वेदनीय, (2) आयु, (3) नाम, (4) गोत्र-ये अघाती हैं / 122 जो कम प्रात्मा से बंधकर उसके स्वरूप का या उसके स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं वे घाती कम हैं। इनकी अनुभाग-शक्ति का सीधा असर प्रात्मा के ज्ञान प्रादि गुणों पर होता है / इनसे गुणविकास अवरुद्ध होता है। जैसे बादल सूर्य के चमचमाते प्रकाश को प्राच्छादित कर देता है। उसकी रश्मियों को बाहर नहीं आने देता वैसे ही घाती कर्म श्रात्मा के मुख्य गुण (1) अनन्तज्ञान, (2) अनन्तदर्शन, (3) अनन्तसुख, (4) और अनन्त वीर्य गुणों को प्रकट नहीं होने देता। ज्ञानदर्शनावरणीय कम आत्मा में अनन्त ज्ञान-दर्शन शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकते हैं। मोहनीय कम आत्मा के सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् चारित्र गुण का अवरोध करता है जिससे प्रात्मा को अनन्त सुख 117. उत्तराध्ययन 4 / 4 118. प्रात्ममीमांसा-पं. दलसुख मालवणिया पृ. 131 119. द्वात्रिशिका, प्राचार्य अमितगति 30-31 120. (क) उत्तराध्ययन 33 / 2-3 (ख) स्थानाङ्ग 8 // 3 // 576 (ग) प्रज्ञापना 2331 (घ) भगवती 5 / 9 / पृ. 453 121. (क) पंचाध्यायी 2 / 998 (ख) गोमटसार-कर्मकाण्ड 9 122. पंचाध्यायी 1999 [ 41] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्त नहीं होता। अन्तराय कम आत्मा की अनन्तवीर्य शक्ति आदि का प्रतिघात करता है जिससे आत्मा अपनी अनन्त विराट् शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इस प्रकार घाती-कर्म आत्मा के विभिन्न गुणों का घात करते हैं। जो कर्म आत्मा के निजगुण का घात नहीं कर केवल प्रात्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात करता है वह अघाती कम है। अघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है। इनकी अनुभाग शक्ति जीव के गुणों पर सीधा असर नहीं करती। अघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौद्गलिक द्रव्यों से सम्बन्ध जड़ता है, जिससे आत्मा "अमूर्तोऽपि मूर्त इव" रहती है। उसे शरीर के कारागृह में बद्ध रहना पड़ता है। जो जीव के गुण (1) अव्याबाध सुख, (2) अटल अवगाह व (3) अमूर्तिकत्व और (4) अगुरुलघुभाव को प्रकट नहीं होने देता। वेदनीय कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को अाच्छादित करता है। आयुष्यकम आत्मा की अटल अवगाहना, शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता / नाम कम आत्मा की अरूपी अवस्था को आवृत किये रहता है। गोत्र कम आत्मा के अगुरुलघुभाव को रोकता है। इस प्रकार अघाती कम अपना प्रभाव दिखाते हैं। जब घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं तब आत्मा केवलज्ञान केवलदर्शन का धारक अरिहन्त बन जाता है और जब अधाती कर्म नष्ट हो जाते हैं तब विदेह सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो जाता है। आठों कर्मों की अवान्तर अनेक उत्तर प्रकृतियाँ हैं। विस्तार भय से हम उन सभी का यहाँ पर निरूपण नहीं कर रहे हैं / कर्मफल की तीव्रता-मन्दता कर्म फल की तीव्रता और मन्दता का मूल आधार तन्निमित्तक कषायों की तीव्रता और मन्दता है / कषायों की तीव्रता जिस प्राणी में जितनी अधिक होगी उतना ही अशुभ कर्म प्रबल होगा और कषायों की मन्दता जिस प्राणी में जितनी अधिक होगी उसके पुण्य कम उतने ही प्रबल होंगे। कों के प्रदेशः विभाजन प्राणी मानसिक वाचिक और कायिक क्रियाओं द्वारा जिन कर्मप्रदेशों का संग्रह करता है वे प्रदेश नाना रूपों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं / आठ कर्मों में आयु कर्म को सबसे कम हिस्सा प्राप्त होता है / नाम और गोत्र दोनों का हिस्सा बराबर होता है / उससे कुछ अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मों को प्राप्त होता है। इन तीनों का हिस्सा समान रहता है। उससे अधिक भाग मोहनीय कर्म को मिलता है / सबसे अधिक भाग वेदनीय कम को मिलता है। इन प्रदेशों का पुनः उत्तर-प्रकृतियों में विभाजन होता है। प्रत्येक प्रकार के बंधे हुए कर्म के प्रदेशों की न्यूनता व अधिकता का यही मूल आधार है / कर्मबन्ध लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ कर्म वर्गणा के पुद्गल न हों। प्राणी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति करता है और कषाय के उत्ताप से उत्तप्त होता है / अत: वह कर्म योग्य-पुद्गलों को सर्व दिशाओं से ग्रहण करता है / प्रागमों में स्पष्ट निर्देश है कि एकेन्द्रिय जीव व्याघात न होने पर छहों दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं, व्याघात होने पर कभी तीन कभी चार और कभी पांच [ 42 ] Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिशात्रों से ग्रहण करते हैं किन्तु शेष जीव नियम से सर्व-दिशाओं से ग्रहण करते हैं / '23 किन्तु क्षेत्र के सम्बन्ध में यह मर्यादा है कि जिस क्षेत्र में वह स्थित है उसी क्षेत्र में स्थित कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है / अन्यत्र स्थित पुद्गलों को नहीं 124 / यह भी विस्मरण नहीं होना चाहिए कि जितनी योगों की चंचलता में तरतमता होगी उसी के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करेगा / योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो परमाणुओं की संख्या भी कम होगी / आगमिक भाषा में इसे ही प्रदेश-बंध कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। उन प्रदेशों में -एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कम-प्रदेशों का बन्ध होना प्रदेश-बन्ध है / अर्थात् जीव के प्रदेशों और कम-पुद्गला के प्रदेशों का परस्पर बद्ध हो जाना प्रदेश-बन्ध है। 125 गणधर गौतम ने महावीर से पूछा-भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य-एक दूसरे से बद्ध, एक दूसरे से स्पृष्ट,एक-दूसरे में अवगाढ, एक दूसरे में स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और एक दूसरे में एकमेक होकर रहते हैं ? उत्तर में महावीर ने कहा-हे गौतम ! हाँ रहते हैं / हे भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? हे गौतम ! जैसे एक ह्रद हो, जल से पूर्ण, जल से किनारे तक भरा हुआ, जल से लबालब, जल से उपर उठा हुआ, और भरे हुए घड़े की तरह स्थित / अब यदि कोई पुरुष उस हद में एक बड़ी, सौ छेदों वालों नाव छोड़े तो हे गौतम ! वह नाव उन आस्रव-द्वारों-छिद्रों द्वारा भरती-भरती जल से पूर्ण, ऊपर तक भरी हुई, बढते हुए जल से ढंकी हुई होकर, भरे घड़े की तरह होगी या नहीं ? हाँ भगवन् ! होगी। हे गौतम / इसी हेतु से मैं कहता हूँ कि जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट अवगाढ और प्रतिबद्ध हैं और परस्पर एकमेक होकर रहते हैं / 126 यही आत्म-प्रदेशों और कर्म-पुद्गलों का सम्बन्ध प्रदेशबंध है। प्रकृतिबन्ध योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किये गये कर्म-परमाणु ज्ञान को प्रावृत करना, दर्शन को आच्छन्न करना, सुख, दुःख का अनुभव कराना आदि विभिन्न प्रकृतियों के रूप में परिणत होते हैं। 123. उत्तराध्ययन 32018 (ख) भगवती 174, 124. विशेषावश्यक भाष्य गा. 1941, पृ. 117 125. (क) भगवती 1 / 4 / 40 वृत्ति (ख) नवतत्त्व प्रकरण गा. 71 की वृत्ति (ग) सप्ततत्त्वप्रकरण अ. 4, देवानन्दसूरिकृत 126. भगवती 126 [ 43 ] Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के साथ बद्ध होने से पूर्व कामण वर्गणा के जो पुद्गल एक रूप थे, बद्ध होने के साथ ही उनमें नाना प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं / इसे पागम की भाषा में प्रकृतिबन्ध कहते हैं / प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ये दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं / 127 केवल योगों की प्रवृत्ति से जो बंध होता है वह सूखी दीवार पर हवा के झोंके के साथ आने वाली रेती के समान है / ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में कषायाभाव के कारण कर्म का बंधन इसी प्रकार का होता है / कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्म बन्ध निर्बल, अस्थाई और नाम मात्र का होता है, इससे संसार नहीं बढ़ता। योगों के साथ कषाय की जो प्रवृत्ति होती है उससे अमुक समय तक प्रात्मा से पृथक् न होने की कालिक मर्यादा पुद्गलों में निर्मित होती है / यह काल मर्यादा ही आगम की भाषा में स्थिति-बंध है / दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के द्वारा ग्रहण की गई ज्ञानावरण आदि कर्म-पुद्गलों की राशि कितने काल तक प्रात्म-प्रदेशों में रहेगी, उसकी मर्यादा स्थिति-बंध है / 127 अनुभाग-बन्ध जीव के द्वारा ग्रहण की हुई शुभाशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तीव्र, मन्द आदि विपाक अनुभागबंध है / उदय में आने पर कर्म का अनुभव तीव्र या मन्द कैसा होगा, यह प्रकृति आदि की तरह कर्मबंध में समय ही नियत हो जाता है / इसे अनुभागबंध कहते हैं / 126 उदय में आने पर कर्म अपनी मूलप्रकृति के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं / ज्ञानावरणीय कम अपने अनुभाव-फल देने की शक्ति के अनुसार ज्ञान का पाच्छादन करता है। दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को आवृत करता है। इसी प्रकार अन्यकर्म भी अपनी प्रकृति के अनुसार तीन या मन्द फल प्रदान करते हैं। उनकी मूल प्रकृति में उलट-फेर नहीं होता। पर उत्तर-प्रकृतियों के सम्बन्ध में यह नियम पूर्णतः लागू नहीं होता / एक कर्म की उत्तरप्रकृति उसी कर्म की अन्य उत्तर-प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो सकती है। जैसे मतिज्ञानावरण कर्म, श्रुतज्ञानावरण कर्म के रूप में परिणत हो जाता है / फिर उसका फल भी श्रुतज्ञानावरण के रूप में ही होता है / किन्तु उत्तर-प्रकृतियों में भी कितनी ही प्रकृतियाँ ऐसी हैं जो सजातीय होने पर भी परस्पर संक्रमण नहीं करती, जैसे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय / आयुकर्म की उत्तर-प्रकृतियों में भी संक्रमण नहीं होता / जैसे-नारक अायुष्य तियंच आयुष्य के रूप में या अन्य आयुष्य के रूप में नहीं बदल सकता। इसी प्रकार अन्य आयुष्य भी।३. 127. (क) पंचम कर्मग्रन्थ गाथा 96 (ख) स्थानाङ्ग 14.96 की टीका 128. स्थिति: कालावधारणम् 129. भगवती 114140 वृत्ति (ख) तत्त्वार्थसूत्र 8 / 22 130. तत्त्वार्थसूत्र 8 / 22, भाष्य, (ख) विशेषावश्यक भाष्य गा.१९३८ [44 ] Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति-संक्रमण की तरह बंधकालीन रस में भी परिवर्तन हो सकता है। मन्दरस वाला कर्म बाद में तीव्ररस वाले कर्म के रूप में बदल सकता है और तीव्ररस, मन्दरस के रूप में हो सकता है / अतः जीव एवंभूत तथा अन-एवंभूत वेदना वेदते हैं / इस विषय में स्थानाङ्ग की चतुभंगी का उल्लेख पहले किया जा चुका है / 132 जिज्ञासा हो सकती है कि इसका मूल कारण क्या है ? जैन कर्म साहित्य समाधान करता है कि कर्म की विभिन्न अवस्थाएं हैं / मुख्य रूप से उन्हें ग्यारह भेदों में विभक्त कर सकते हैं / 1 33 (1) बन्ध, (2) सत्ता (3) उद्वर्तन-उत्कर्ष, (4) अपवर्तन-अपकर्ष, (5) संक्रमण (6) उदय (7) उदीरणा (8) उपशमन, (6) निधत्ति (10) निकाचित और (11) अबाधाकाल / (1) बंध-आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध होना, क्षीर-नीरवत् एकमेक हो जाना बंध है / 134 बंध के चार प्रकारों का वर्णन हम कर चुके हैं। (2) सत्ता-आबद्ध-कर्म अपना फल प्रदान कर जब तक आत्मा से पृथक् नहीं हो जाते तब तक बे आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं। इसे जैन दार्शनिकों ने सत्ता कहा है। (3) उद्वर्तन-उत्कर्ष--प्रात्मा के साथ प्राबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग-बंध तत्कालीन परिणामों में प्रवहमान कषाय की तीव्र एवं मन्दधारा के अनुरूप होता है। उसके पश्चात को स्थिति-विशेष अथवा भाव-विशेष के कारण उस स्थिति एवं रस में वृद्धि होना उद्वर्तनउत्कर्ष है। (4) अपवर्तन-अपकर्ष पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को कालान्तर में न्यून कर देना अपवर्तन-अपकर्ष है / इस प्रकार उद्वर्तन-उत्कर्ष से विपरीत अपवर्तन-अपकर्ष है। सारांश यह है कि संसार को घटाने-बढ़ाने का प्राधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर विशेष प्राधृत है। (5) संक्रमण--एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्मपरमाणुओं की स्थिति आदि के रूप में परिवर्तित हो जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं / इस प्रकार के परिवर्तन के लिए कुछ निश्चित मर्यादाएं हैं जिनका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। संक्रमण के चार प्रकार हैं--(१) प्रकृति-संक्रमण (2) स्थिति-संक्रमण (3) अनुभाव-संक्रमण (4) प्रदेश-संक्रमण / 135 (6) उदय-कर्म का फलदान उदय है। यदि कर्म अपना फल देकर निर्जीर्ण हो तो वह फलोदय है और फल दिये विना ही उदय में आकर नष्ट हो जाय तो प्रदेशोदय है। 131. भगवती 55 132. स्थानाङ्ग 414 / 312, (ख) तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय 4 / 232-233 133. द्रव्यसंग्रह टीका गा. 33 134. (क) तत्त्वार्थसूत्र 114 सर्वार्थ सिद्धि (ब) उत्तराध्ययन 28124 नेमिचन्द्रीय टीका 135. स्थानाङ्ग 4 / 216 [ 45] Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (7) उदीरणा-नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है। जैसे समय के पूर्व ही प्रयत्न से आम आदि फल पकाये जाते हैं वैसे ही साधना से प्राबद्ध कर्म का नियत समय से पूर्व भोग कर क्षय किया जा सकता है / सामान्यत: यह नियम है कि जिस कम का उदय होता है उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है। (8) उपशमन-कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशम है / अर्थात् कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं, किन्तु उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण की संभावना हो वह उपशमन है। जैसे अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना जिससे वह अपना कार्य न कर सके। किन्तु जैसे आवरण के हटते ही अंगारे जलाने लगते हैं वैसे ही उपशम भाव के दूर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देना प्रारम्भ कर देते हैं। (6) निधत्ति-जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण न हो सके किन्तु उद्वर्तन-अपवर्तन की संभावना हो वह नित्ति 136 है / यह भी चार प्रकार का है / 137 (1) प्रकृति-निधत्त (1) स्थितिनिधत्त (3) अनुभाव-निधत्त (4) प्रदेश-निधत्त / (10) निकाचित-जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो वह निकाचित है / अर्थात् आत्मा ने जिस रूप में कर्म बांधा है प्रायः उसी रूप में भोगे बिना उसकी निर्जरा नहीं होती / वह भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप में चार प्रकार का है। (11) अबाधाकाल-कर्म बंधने के पश्चात् अमुक समय तक फल न देने की अवस्था का नाम अबाध-अवस्था है / अबाधाकाल को जानने का प्रकार यह है कि जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की है उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधा काल होता है / जैसे ज्ञानावरणीय की स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है तो अबाधाकाल तीस सौ (तीन हजार) वर्ष का है। भगवती में अष्ट कर्म प्रकृतियों का अबाधाकाल बताया है और प्रज्ञापना:४० में उनकी उत्तर-प्रकृतियों का भी अबाधाकाल उल्लिखित है, विशेष जिज्ञासुओं को मूलग्रन्थ देखने चाहिए। जैन कर्म साहित्य में कर्मों की इन अवस्थानों एवं प्रक्रिया का जैसा विश्लेषण है वैसा अन्य दार्शनिकों के साहित्य में दृग्गोचर नहीं होता। हाँ, योगदर्शन में नियत-विपाकी अनियत विपाकी, और आवायगमन के रूप में कर्म की त्रिविध दशा का उल्लेख किया है। नियतविपाकी कर्म का अर्थ है-जो नियत समय पर अपना फल देकर ही नष्ट होता है। अनियत विपाकी कर्म का अर्थ है जो कर्म विना फल दिये ही आत्मा से पृथक हो जाते हैं और प्रावायगमन का अर्थ है एक कर्म 136. कर्मप्रकृति गा 2 137. स्थानाङ्ग 4 / 296 138. स्थानाङ्ग 2 / 296 139. भगवती // 3 140. प्रज्ञापना 23 / 2 / 21-29 [ 46] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का दूसरे में मिल जाना / योगदर्शन की इन त्रिविध अवस्थाओं की तुलना क्रमश: निकाचित, प्रदेशोदय, और संक्रमण के साथ की जाती है / कर्म और पुनर्जन्म पुनर्जन्म का अर्थ है-वर्तमान जीवन के पश्चात् का परलोक जीवन / परलोक जीवन किस जीव का कैसा होता है इसका मुख्य आधार उसका पूर्वकृत कर्म है / जीव अपने ही प्रमाद से भिन्नभिन्न जन्मान्तर करते हैं / 141 पुनर्जन्म कर्म-संगी जीवों के होता है / 142 अतीत कर्मों का फल हमारा वर्तमान जीवन है और वर्तमान कर्मों का फल हमारा भावी जीवन है। कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य सम्बन्ध है। __ आयुष्य-कर्म के पुद्गल-परमाणु जीव में देव, नारक आदि अवस्थाओं में गति की शक्ति उत्पन्न करते हैं / 143 इसी से जीव नए जन्म-स्थान में (अमुक अायु में) जो उत्पन्न होता है। भगवान महावीर ने कहा-क्रोध, मान, माया, और लोभ-ये पुनर्जन्म के मूल को पोषण करने वाले हैं / 144 गीता में कहा गया है-जैसे फटे हुए कपड़े को छोड़कर मनुष्य नया कपड़ा पहनता है वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर प्राणी मृत्यु के पश्चात् नये शरीर को धारण करता है।४५ यह आवर्तन प्रवृत्ति से होता है। 146 तथागत बुद्ध ने अपने पैर में चुभने वाले तीक्ष्ण काँटे को पूर्वजन्म में किये हुए प्राणी-वध का विपाक कहा है / 147 ___नवजात शिशु के हर्ष, भय, शोक आदि होते हैं / उसका मूल कारण पूर्वजन्म की स्मृति है / 148 जन्म लेते ही बच्चा मां का स्तन-पान करने लगता है, यह पूर्वजन्म में किये हुए आहार के अभ्यास से ही होता है / 146 जैसे एक युवक का शरीर बालक-शरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है वैसे ही बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद में होने वाली अवस्था है / 190 नवोत्पन्न शिशु में जो सुख-दुःख का अनुभव होता है वह भी पूर्व अनुभवयुक्त होता है। जीवन के प्रति मोह और मृत्यु के प्रति भय है, वह भी पूर्वबद्ध संस्कारों का परिणाम है / यदि पहले के जन्म में उसका अनुभव नहीं होता तो सद्योजात प्राणी में ऐसी वत्तियां प्राप्त नहीं हो सकती थीं। इस प्रकार अनेक युक्तियाँ देकर भारतीय चिन्तकों ने पुनर्जन्म सिद्ध किया है। 141. प्राचारांग 1216 142. भगवती 215 143. स्थानाङ्ग 940 144. दशर्वकालिक 8 / 39 145. श्रीमद् भगवद् गीता 2022 146. श्रीमद् भगवद् गीता 2 / 26 147. इत एकनवतिकल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः / तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः // 148. न्यायसूत्र 3 / 1112 149. न्यायसूत्र 3 / 1 / 12 150. विशेषावश्यक भाष्य [47] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म की सत्ता स्वीकार करने पर उसके फल रूप परलोक या पुनर्जन्म की सत्ता भी स्वीकार करनी पड़ती है। जिन कर्मों का फल वर्तमान भव में प्राप्त नहीं होता उन कर्मों के भोग के लिए पुनर्जन्म मानना आवश्यक है। पुनर्जन्म और पूर्वभव न माना जायेगा तो कृतकर्म का निर्हेतुक विनाश और अकृत कर्म का भोग मानना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में कर्म-व्यवस्था दुषित हो जायेगी / इन दोषों के परिहार हेतु ही कर्मवादियों ने पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार की है। भारत के सभी दार्शनिकों ने ही नहीं अपितु पाश्चात्य विचारकों ने भी पुनर्जन्म के सम्बन्ध में विचार अभिव्यक्त किये हैं। उनका संक्षिप्त सारांश इस प्रकार है यूनान के महान् तत्त्ववेत्ता प्लेटों ने दर्शन की व्याख्या की है और उसका केन्द्र बिन्दु पुनर्जन्म को माना है। ___प्लेटो के जाने माने हए शिष्य अरस्तू पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने के लिए इतने अाग्रहशील थे कि उन्होंने अपने समकालीन दार्शनिकों को आह्वान करते हुए कहा कि हमें इस मत का कदापि आदर नहीं करना चाहिए कि हम मानव हैं, तथा अपने विचार मृत्युलोक तक ही सीमित न रखें, अपितु अपने देवी अंश को जागृत कर अमरत्व को प्राप्त करें। लूथर के अभिमतानुसार भावी जीवन के निषेध करने का अर्थ है स्वयं के ईश्वरत्व का तथा उच्चतर नैतिक जीवन का निषेध और स्वैराचार का स्वीकार / फ्रांसीसी धर्म-प्रचारक मोसिलां तथा ईसाई संत पाल के अनुसार-देह के साथ ही प्रात्मा का नाश मानने का अर्थ होता है कि विवेकपूर्ण जीवन का अन्त और विकारमय जीवन के लिए द्वार मुक्त करना। च विचारक रेनन का अभिमत है कि भावी जीवन में विश्वास न करना नैतिक और आध्यात्मिक पतन का कारण है। मैकटेगार्ट की दृष्टि से आत्मा में अमरत्व की साधक युक्तियों से हमारे भावी जीवन के साथ हो पूर्वजन्म की सिद्धि होती है। सर हेनरी जोन्स लिखते हैं-कि अमरत्व के निषेध का अर्थ होता है पूर्ण नास्तिकता। श्री प्रिंगल पैटिसन ने अपने अमरत्व-विचार नामक ग्रन्थ में लिखा है-"यह कहना अतिशयोक्ति पूर्ण न होगा कि मृत्यु विषयक चिन्तन ने ही मनुष्य को सच्चे अर्थ में मनुष्य बनाया है।" इन स्वल्प अवतरणों से भी यह स्पष्ट है कि विश्व के सभी मूर्धन्य मनीषियों ने आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। विपाक सूत्र के प्रत्येक अध्ययन में पुनर्जन्म की चर्चा है / जो व्यक्ति दुःख से कराह रहा है और जो सुख के सागर पर तैर रहा है, उन सभी के सम्बन्ध में यह जिज्ञासा व्यक्त की गई है कि यह इस प्रकार कैसे है ? भगवान् उस का पूर्व भव सुनाकर जिज्ञासु को ऐसा समाधान देते हैं कि वह उसका रहस्य स्वयं समझ जाता है / अन्याय, अत्याचार, वेश्यागमन, प्रजापीडन, रिश्वत, हिंसा, नरमेध यज्ञ, मांस-भक्षण आदि ऐसे दुष्कृत्य हैं जिनके कारण विविध प्रकार की यातनाएं भोगने का उल्लेख है / सुखविपाक में सुपात्र-दान का प्रतिफल सुख बताया गया है। [48 ] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या साहित्य विपाक सूत्र का विषय अत्यधिक सरल और सुगम होने से इस पर न नियुक्ति का निर्माण किया गया, न भाष्य लिखा गया और न चूर्णियाँ ही रची गई / सर्व प्रथम प्राचार्य अभयदेव ने इस पर संस्कृत भाषा में टीका का निर्माण किया। प्रारम्भ में प्राचार्य ने भगवान महावीर को नमस्कार कर विपाक सूत्र पर वृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की और विपाक श्रु त का शब्दार्थ प्रस्तुत किया / वृत्तिकार ने अनेक पारिभाषिक शब्दों के संक्षिप्त और सारपूर्ण अर्थ भी दिये हैं / उदाहरण के रूप में 'रट्ठकूडे' का अर्थ रट्ठकूड, रउड,-राष्ट्रकूट'_'रठ्ठउडेत्ति राष्ट्रकूटो मण्डलोपजीवी राजनियोगिक: किया है। वृत्ति के अन्त में विज्ञों को यह नम्र निवेदन किया है कि वे वृत्ति को परिष्कृत करने का अनुग्रह करें। प्रस्तुत वृत्ति का प्रकाशन सर्वप्रथम सन् 1876 में राय धनपतसिंह जी ने कलकत्ता से किया। उसके पश्चात् सन् 1920 में आगमोदय समिति बम्बई से और मुक्ति कमल जैन मोहनमाला बडौदा से और सन् 1935 में गुर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय गांधीरोड अहमदाबाद से अंग्रेजी अनुवाद व टिप्पण के साथ प्रकाशित हुया है / पी. एल वैद्य ने सन् 1933 में प्रस्तावना के साथ प्रस्तुत प्रागम प्रकाशित किया। जैनधर्म प्रचारक सभा भावनगर से वि सं. 1987 में गुजराती अनुवाद प्रकाशित हुया ! जैनागम प्रकाशक सुमति कार्यालय कोटा से सन् 1935 में और वी. सं 2446 में हैदराबाद से क्रमशः मुनि आनन्दसागरजी व पूज्य अमोलक ऋषिजी ने हिन्दी अनुवाद सहित इस पागम का प्रकाशन करवाया। जैनशास्त्रमाला कार्यालय लुधियाना से वि. सं. 2010 में हिन्दी में प्राचार्य आत्मारामजी म० कृत विस्तृत टीका युक्त संस्करण प्रकाशित हुआ है। टीका में अनेक रहस्य उद्घाटित किये गये हैं / जनशास्त्रोद्धार समिति राजकोट ने सन् 1956 में पूज्य घासीलाल जी म. कृत संस्कृत व्याख्या व हिन्दी-गुजराती अनुवाद के साथ प्रकाशित किया है। इनकी संस्कृत टीका पर प्राचार्य अभयदेव की वृत्ति का स्पष्ट प्रभाव है। जैनसाहित्य-प्रकाशन-समिति अहमदाबाद से सन् 1640 में गोपालदास जीवाभाई पटेल ने गुजराती छायानुवाद प्रकाशित किया है। इस तरह समय समय पर विभिन्न स्थानों से प्रस्तुत आगम के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए है। प्रस्तुत संस्करण आगमों के अभिनव संस्करण की मांग प्रतिपल प्रतिक्षण बढती हुई देख कर श्रमण संघ के युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी ने आगम-बत्तीसी के प्रकाशन के सम्बन्ध में चिन्तन किया और विविध विज्ञों के सहयोग से कार्य प्रारम्भ हुआ। मुझे लिखते हुए परम आह्लाद है कि स्वल्पावधि में आगमों के श्रेष्ठतम संस्करण प्रकाशित हुए हैं। इन संस्करणों की सामान्य पाठकों से लेकर मूर्धन्य मनीषियों तक ने मुक्तकंठ से प्रशंसा की। युवाचार्यश्री की प्रबल प्रेरणा से यह कार्य अत्यन्त द्रुतगति से प्रगति पर है / दनादन आगम प्रकाशित हो रहे हैं। प्रागममाला को लड़ो को कड़ी में विपाक सूत्र प्रकाशित हो रहा है / प्रस्तुत आगम के कुशल सम्पादक हैं -पंडित श्रीरोशनलालजी, जो जैनदर्शन के अच्छे अभ्यासी हैं / वर्षों से श्रमण और श्रमणियों को आगम और दर्शन का अभ्यास करा रहे हैं। प्रस्तुत आगम में उन्होंने विस्तार में न जाकर [ 46] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत हो संक्षेप में विवेचन प्रस्तुत किया / यह विवेचन संक्षेप में होने पर भी सारपूर्ण है। पं. प्रवर कलम कलाधर शोभाचन्द्र जी भारिल्ल को प्रतिभा का चमत्कार भी यत्र तत्र निहारा जा सकता है। ___ मुझे दृढ आत्मविश्वास है कि यह पागम जन-जन को प्रेरणादायी सिद्ध होगा / भौतिक भक्ति के युग में पले-पुसे मानवों को प्राध्यात्मिक चिन्तन प्रदान करेगा। -देवेन्द्रमुनि शास्त्री वागरेचा भवन गढसिवाना दि. 5 / 61982 [50] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ #ii সান্তা সাছাত সানি, ওয়ায (कार्यकारिणी समिति) मद्रास ब्यावर गोहाटी जोधपुर मद्रास अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष महामन्त्री मन्त्री मन्त्री सहमन्त्री कोषाध्यक्ष कोषाध्यक्ष ब्यावर मेड़ता सिटी ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर सदस्य 1. श्रीमान् सेठ मोहनमलजी चोरडिया 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी 3. श्रीमान् कँवरलालजी बैताला 4. श्रीमान् दौलतराजजी पारख 5. श्रीमान रतनचन्दजी चोरडिया 6. श्रीमान् खूबचन्दजी गादिया 7. श्रीमान् जतनराजजी मेहता 8. श्रीमान् चांदमलजी विनायकिया 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा 10. श्रीमान् चाँदमलजी चौपड़ा 11. श्रीमान जौहरीलालजी शीशोदिया 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरड़िया 13. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा 14. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरडिया 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा 17. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा 19. श्रीमान माणकचन्दजी बैताला 20. श्रीमान् भंवरलालजी गोठी 21. श्रीमान् भवरलालजी श्रीश्रीमाल 22. श्रीमान् सुगनचन्दजी चोरडिया 23. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरडिया 24. श्रीमान् खींवराजजी चोरडिया 25. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन 26. श्रीमान् भंवरलालजी मूथा 27. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल सदस्य सदस्य मद्रास नागौर मद्रास बंगलौर ब्यावर इन्दौर सिकन्दराबाद बागलकोट सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य मद्रास सदस्य सदस्य दुर्ग सदस्य मद्रास मद्रास सदस्य मद्रास सदस्य सदस्य सदस्य (परामर्शदाता) भरतपुर जयपुर ब्यावर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं एक्कारसमं अंगं विवागसुयं पञ्चमगणधर-श्रीसुधर्मस्वामिविरचितं एकादशमङ्गम् विपाकश्रुतम् Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाकसूत्र-प्रथम श्र तस्कन्धं सार : संक्षेप विपाकसूत्र अपने अभिधान के अनुसार अशुभ एवं शुभ कर्मों का विपाक-फल प्रदर्शित करने वाला ग्यारहवां अंग-शास्त्र है / समस्त कर्मप्रकृतियाँ मुख्यतः दो भागों में विभक्त की जाती हैं : शुभ और अशुभ / इनमें से अशुभ प्रकृतियाँ पाप-दुःख रूप और शुभ प्रकृतियाँ पुण्य-सातारूप सुख प्रदान करती हैं। इन दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों का फल-विपाक दिखलाने के लिए प्रस्तुत शास्त्र को दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त किया गया है—दुःखविपाक और सुखविपाक / दुःखविपाक में पापकर्मों का और सुखविपाक में पुण्य कर्मों का फल प्रतिपादित किया गया है। जैन साहित्य में कर्मसिद्धान्त का अत्यन्त विस्तारपूर्वक सांगोपांग वर्णन किया गया है। बहुसंख्यक स्वतन्त्र ग्रन्थों की इस मौलिक तथा दुरूह सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिए रचना की गई है / यद्यपि वह सब कर्म-साहित्य जिज्ञासुत्रों के लिए बहुत रस-प्रद है, मगर सबके लिए सुगम-सुबोध नहीं है। इस कमी की पूत्ति के लिए 'विपाकसूत्र' सर्वोत्तम साधन है। इसमें कथाओं के माध्यम से कर्म-बिपाक की प्ररूपणा अत्यन्त सुगम एवं सुबोध शैली में की गई है। इस दृष्टि से विपाकसूत्र का अपना विशिष्ट एवं मौलिक स्थान और महत्त्व है / प्रथम श्रुतस्कन्ध में दस अध्ययन हैं / प्रथम अध्ययन विस्तृत है और शेष अध्ययन अपेक्षाकृत संक्षिप्त हैं। प्रथम अध्ययन में विजय क्षत्रिय-नरेश के पापी पुत्र मृगापुत्र का वर्णन किया गया है / मृगापुत्र पूर्वभवोपार्जित प्रकृष्ट पापकर्म के उदय से जब रानी मगा के गर्भ में आया तो रानी राजा को अप्रिय, अनिष्ट एवं अनगमती हो गई / जन्म हुआ तो जन्म से ही अन्धा, बहिरा, लूला-लंगड़ा और हुण्डकसंस्थानी हुा / उसके शरीर के हाथ, पैर, कान, आँख, नाक आदि अवयवों का अभाव था, मात्र उनके निशान थे। मृगा देवी जन्मते ही उसे घूरे (उकरड़े) पर फिकवा देना चाहती थी, मगर अपने पति के समझाने-बुझाने पर गुप्त रूप से भोयरे (भूगृह) में रख कर उसका पालन-पोषण करने लगी। एकदा भगवान् महावीर के कहने पर गौतम स्वामी को मगापुत्र का पता लगा। वे उसे देखने के लिए गए। जिस भूगह में मृगापुत्र रहता था वह असह्य सड़ांध से व्याप्त था। मृगादेवी उसका भोजन-पानी साथ लेकर गौतम स्वामी के साथ वहाँ गई। अत्यन्त गृद्धिपूर्वक उसने वह आहार ग्रहण किया। उदर में जाते ही भस्मक व्याधि के प्रभाव से वह आहार हजम हो गया और तत्काल मवाद और रुधिर के रूप में बदल गया। उसने उस रुधिर और मवाद का वमन किया और उसे भी चाट गया। यह सब लोमहर्षक वीभत्स एवं दयनीय दशा देखकर कर गौतम स्वामी भ० महावीर की Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध सेवा में लौटे / उसकी दुर्दशा का कारण पूछा। तब भगवान् ने उसके पूर्व जन्म का विवरण इस प्रकार बतलाया भारतवर्ष में शतद्वार-नरेश का प्रतिनिधि विजयवर्द्धमान नामक खेट का शासक 'इक्काई' नामक राष्ट्रकूट (राठौड़) था। यह राष्ट्रकूट अत्यन्त अधर्मी, अधर्मानुयायी, अधर्मनिष्ठ, अधर्मदर्शी, अधर्मप्रज्वलन एवं अधर्माचारी था। आदर्श शामक में जो विशिष्टताएं होनी चाहिए उनमें से एक भी उसमें नहीं थी। इतना ही नहीं, वह प्रत्येक दृष्टि से भ्रष्ट और अधम शासक था। सब तरह से प्रजा का अधिक से अधिक उत्पीडन करने में ही वह अपनी शान मानता था। वह रिश्वतखोर था, ब्याजखाऊ था और निरपराध जनों पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें तंग किया करता था। रात-दिन पाप-कृत्यों में तल्लीन रहता था। तीव्रतर पापकर्मों के आचरण का तात्कालिक फल यह हुआ कि कुछ समय के पश्चात् उसके शरीर में एक साथ सोलह कष्टकारी असाध्य रोग उत्पत्र हो गए। इन रोगों के फलस्वरूप 'हाय-हाय' करता वह चल बसा / अपने पापों के विपाक को भोगने के लिए वह प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुा / नरक की लम्बी आयु भोगने के पश्चात् वह मृगापुत्र के रूप में जन्मा है / मृगापुत्र के अतीत की यह कहानी सुनने के बाद गौतम स्वामी ने उसके भविष्य के विषय में पूछा। भगवान् ने मृगापुत्र का भविष्य बतलाते हुए फर्माया१. वह प्रथम नरक की एक सागरोपम की आयु पूर्ण करके सिंह की पर्याय में जन्म लेगा। इस पर्याय में भी वह अतीव अधर्मी होगा। 2. सिंह-पर्याय का अन्त होने पर वह पुनः प्रथम नरक में जन्मेगा। 3. नरक से निकल कर सरीसृप-रंग कर चलने वाला जन्तु होगा। 4. तत्पश्चात् दूसरे नरक में उत्पन्न होगा। 5. फिर पक्षी-योनियों में जन्म लेगा। 6. पक्षियों में जन्म-मरण करने के पश्चात् तीसरी नरकभूमि में / फिर७. पुन: सिंह पर्याय में / 8. तदन्तर चौथे नरक में। 6. उरगजातीय प्राणियों में / 10. पाँचवें नरक में। 11. स्त्री के रूप में। 12. छठी तमःप्रभा नरकभूमि में / 13. मनुष्यपर्याय में-नर के रूप में / 14. तमस्तमःप्रभा नामक सातवें नरक में / 15. लाखों वार जलचर जीवों की साढे बारह लाख कुलकोटियों में। 16. तत्पश्चात् चतुष्पदों में, उरपरिसों में, भुजपरिसॉं में, खेचरों में, चौ-इन्द्रियों में, ते इन्द्रियों में, दो-इन्द्रियों में, कटुक रस वाले वनस्पति-वृक्षों में, वायुकाय, अप्काय, तेजस्काय तथा पृथ्वीकाय में लाखों-लाखों वार उत्पन्न होकर मृत्यु को प्राप्त करेगा। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार : संक्षेप] 17. इतना दीर्घकालिक भवभ्रमण करने और असीम-अपार वेदनाएँ भोगने के अनन्तर बैल के रूप में जन्मेगा / तत्पश्चात्-~१८. उसे मनुष्यभव की प्राप्ति होगी। मनुष्यभव में संयम की साधना करके वह सिद्धि प्राप्त करेगा। शासन के माध्यम से प्राप्त सत्ता का दुरुपयोग करने वालों, रिश्वतखोरों, प्रजा पर अनुचित कर-भार लादने वालों और इस प्रकार के पापों का आचरण करने वालों के भविष्य का यह एक निर्मल दर्पण है / आज के वातावरण में प्रस्तुत अध्ययन और आगे के अध्ययन भी अत्यन्त उपयोगी और शिक्षाप्रद हैं। प्रथम अध्ययन में प्रदर्शित पाप के दुःखरूप विपाक का ही अगले अध्ययनों में निरूपण किया गया है / घटनामों एवं पापाचार के प्रकार में किंचित् भिन्नता होते हुए भी दुःखविपाक के सभी अध्ययनों का मूल स्वर एक-सा है / विस्तार से जानने के लिए जिज्ञासु-जन मूल शास्त्र का अध्ययन करें। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विपाकसूत्र प्रथम श्र तस्कन्ध : प्रथम अध्ययन उत्क्षे प 1 तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था / वण्णप्रो। पुण्णभद्दे चेइए / वण्णयो। १-उस काल तथा उस समय में चम्पा नाम की एक नगरी थी। चम्पा नगरी का वर्णन औपपातिक सूत्रान्तर्गत नगरी के वर्णन के ही सदृश समझ लेना चाहिये / (उस नगरी के बाहर ईशानकोण में) पूर्णभद्र नामक एक चैत्य-उद्यान था। पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन औपपातिक सूत्र में विस्तारपूर्वक किया गया है, अतः जिज्ञासु को अपनी जिज्ञासापूर्ति वहीं से कर लेना चाहिये। विवेचन-व्यवहार में काल तथा समय, ये दोनों शब्द समानार्थक हैं / फिर सूत्रकार ने इन दोनों शब्दों का पृथक् प्रयोग क्यों किया ? इस शङ्का का प्राचार्य अभयदेव सूरि ने इस तरह समाधान किया है 'अथ कालसमययोः को विशेष: ? उच्यते --सामान्यः वर्तमानावसपिणी चतुर्थारक-लक्षण: कालः, विशिष्टः पुनस्तदेकदेशभूतः समयः / ' सूत्रकार को काल शब्द से सामान्य-वर्तमान अवसर्पिणी काल का चतुर्थ श्रारा अभिप्रेत है और समय शब्द से चौथे आरे के उस भाग का ही ग्रहण करना अभीष्ट है जबकि यह कथा कही जा रही है। ___ तत्त्वज्ञ पुरुष महीना, वर्ष आदि रूप से जिसका कलन-निर्णय करते हैं अथवा 'यह एक पक्ष का है', 'दो महीने का है', इस तरह का कलन (संख्या-गिनती) को काल कहते हैं / अथवा कलाओंसमयों के समूह को काल कहते हैं / निश्चय काल का स्वरूप वर्तना है अर्थात् समस्त द्रव्यों के वर्तन में जो निमित्त कारण होता है वह निश्चय काल है / सुधर्मास्वामी का आगमन 2 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतेवासी अज्जसुहम्मे नाम प्रणगारे जाइसंपन्ने वण्णनो-(कुलसम्पन्ने, बल-रूव-विणय-णाण-दसण-चरित्त-लाघवसम्पन्ने, प्रोयंसी, तेयंसी, वच्चंसी, जयंसी, जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जिइंदिए, जियनिद्दे, जियपरिसहे, जीवियास-मरणमय-विप्पमुक्के, तवप्पहाणे, गुणध्पहाणे एवं करण-चरण-निग्गह-णिच्छय-प्रज्जव-मद्दवलाघव-खंति-गुत्ति-मुत्ति-विज्जा-मंत-बंभ-वय-नय-नियम-सच्च-सोय-णाण-दसण-चरित्ते ओराले घोरे घोरपरिसहे घोरधए घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे) चउद्दसपुवी चउनाणोवगए पंचहि अणगारसहिं सद्धि संपरिबुडे पुन्वाणुपुटिव जाव (चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे) जेणेव चंपानयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन] [7 उवागच्छित्ता प्रहापडिरूवं जाव (उग्गहं उम्गिण्हइ, अहापडिरूवं उगाहं उम्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ। परिसा निग्गया। धम्म सोच्चा निसम्म जामेव दिसि पाउन्भूया तामेब दिसि पडिगया। २-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के शिष्य-जातिसम्पन्न (जिसकी माता में मातजनोचित प्रशस्त गुण विद्यमान हों अथवा जिसका मातपक्ष निर्मल हो) कुल-सम्पन्न-उत्तम पितृपक्ष सहित, बलसम्पन्न-उत्तम प्रकार के संहनन के बल से युक्त, रूपसम्पन्न-देवों की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर रूप वाले, विनयवाले, चार ज्ञान सहित, क्षायिकसमकित से सम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लाघव-सम्पन्न-द्रव्य से अल्प उपधिवाले और भाव से ऋद्धि, रस, व साता इन तीन प्रकार के गौरव (गर्व) से रहित, प्रोजस्वी-मनस्तेजसम्पन्न-वर्धमानपरिणाम वाले, तेजस्वी-शरीर की कान्ति वाले, वर्चस्वी-सौभाग्यादि गणयक्त वचन वाले अथवा वर्चस्वी-प्रभावशाली, यशस्वी-यश:सम्पन्न, क्रोध, मान माया तथा लोभ को जीतने वाले, पांच इन्द्रियों और निद्रा के विजेता, वावीस परिषहों को जीतने वाले, जीने की आशा तथा मत्यु के भय से रहित, तपःप्रधान-उत्कृष्ट तप करने वाले, गुणप्रधानउत्कृष्ट संयम गुणवाले, करणप्रधान-~-पिण्डशुद्धि आदि करणसत्तरीप्रधान, चरणप्रधान- महाव्रतादिक चरणसत्तरीप्रधान, निग्रह-प्रधान-अनाचार में नहीं प्रवर्तित होने वाले, निश्चय-प्रधान-तत्त्व का निश्चय करने में उत्तम, आर्जवप्रधान-माया का निग्रह करने में वरिष्ठ, मार्दव-प्रधान-मान का निग्रह करने में श्रेष्ठ, लाघवप्रधान-क्रिया को करने की कुशलता वाले, क्षान्ति-प्रधान-क्रोध को नियन्त्रण में रखने में कुशल, गुप्तिप्रधान-मनोगुप्ति, वचनगुप्ति व कायगुप्ति का सरलता पूर्वक पालन करने में प्रादर्श, तप्रधान-निर्लोभीपने में श्रेष्ठतम, विद्याप्रधान-देवताधिष्ठित प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं में परम निष्णात, मन्त्रप्रधान-हरिणेगमेषी प्रादि देव-अधिष्ठित विद्याओं से भरपूर अथवा जो साधन-सहित हो-साधने से सिद्धि होती हो वह विद्या और साधनरहित मात्र पाठ करने से जो सिद्ध हो जाते हों वे मन्त्र, इन दोनों में कुशल, ब्रह्म-प्रधान-ब्रह्मचर्य की साधना अथवा सर्वकुशल अनुष्ठानों में कुशल, वेदप्रधान-लौकिक-लौकिकोत्तर आगमों सम्बन्धी कुशलता से सम्पन्न, नयप्रधान-नेगमादि सात नयों के सूक्ष्मता से ज्ञाता, नियमप्रधान-अनेक प्रकार के अभिग्रहों को धारण करने में वरिष्ठ, सत्यप्रधान पणी बोलने में कुशल. दर्शन-प्रधान-चक्षदर्शनादि से अथवा सम्यक्त्व गुण से श्रेष्ठ, चारित्रप्रधान--प्रतिलेखनादि सत्क्रियाओं को करने में जागत, ओराल–उदार, भयानक-उग्र तपश्चर्या करने के कारण समीपवर्ती अल्पसत्त्व वाले मनुष्यों की दृष्टि में भयानक, घोरपरिषह-इन्द्रियों व कषाय नामक शत्रुओं को वशवर्ती करने में निर्दय, घोरव्रत-दूसरों के लिये जिन व्रतों का अनुष्ठान दुष्कर प्रतीत हो, ऐसे विशुद्ध महाव्रतों को पालने वाले, घोर तपस्वो-उग्र तपस्या करने वाले, घोर ब्रह्मचर्यवासी-उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य के धारक, उज्झितशरीर-शरीर के सत्कार-शृङ्गार से रहित, संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य-अनेक योजनप्रमाण रही हुई वस्तुओं को जला सकने की क्षमता वाली विस्तीर्ण तेजोलेश्या को जिन्होंने अपने शरीर में ही समाविष्ट कर लिया है, ऐसी शक्ति से सम्पन्न, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, केवलज्ञान को छोड़कर शेष चार ज्ञान-मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यवज्ञान के धारक, पांच सौ अनगारों (साधुओं) से घिरे हुए सुधर्मा अनगार-मुनि क्रमशः विहार करते हुए अर्थात् अप्रतिबद्ध विहारी होने से विवक्षित ग्राम से अनन्तर के ग्राम में चलते हुए, साधुवृत्ति के अनुसार सुखपूर्वक विहरण करते हुए चम्पानगरी के पूर्णभद्र नामक चैत्य-उद्यान में साधुवृत्ति के अनुरूप [अवग्रह (आश्रय) उपलब्ध कर संयम और तप के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए] विचरने Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध लगे ! धर्मकथा सुनने के लिये जनता (परिषद्) नगर से निकलकर वहाँ पायी। धर्मकथा श्रवण कर और हृदय में अवधारण कर जिस ओर से आयी थी उसी अोर (यथास्थान) चली गई। ३-तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अन्तेवासी अज्जजंबू नामं प्रणगारे सत्तस्सेहे, जहा गोयमसामी तहा, जाव (समचउरंससंठाणसंठिए, बज्जरिसहनारायसंघयणे, कणगपुलर्माणघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, अोराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरोरे, संखित्तविउलतेउलेस्से, चोइसपूवी, चउणाणोवगए, सव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवो महावीरस्स अदूरसामन्ते उडढजाणु अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ। तए णं प्रज्जजंबू नामं प्रणगारे जायसड्डे (जायसंसए, जायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए, उत्पन्न कोउहल्ले, संजायसड्डे संजायसंसए, संजायकोउहल्ले, समुप्यन्नसड्डे समुष्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले, उट्ठाए उ8 इ, उट्ठाए उर्दुत्ता) जेणेव अज्जसुहम्मे अणगारे तेणेव उवागए, तिक्खुतो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता (प्रज्जसुहम्मस्स थेरस्स पच्चासण्णे नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहं पंजलिउडे विणएणं) जाव पज्जुवासइ, पज्जुवासित्ता एवं वयासी। ३-उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी के शिष्य जम्बू स्वामी थे, जो सात हाथ प्रमाण शरीर वाले तथा गौतम स्वामी के समान थे। (श्री गौतम स्वामी का वर्णन भगवती सूत्र में वर्णित है। तदनुसार पालथी मारकर बैठने पर जिनके शरीर की ऊँचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे समचतुरस्र संस्थान वाले हैं, जो वज्रऋषभनाराचसंहनन के (हड्डियों की रचना की दृष्टि से सर्वोत्तम सुदृढ़ व सबल अस्थिबंधन के) धारक हैं, जो सोने की रेखा के समान और पद्म-पराग, (कमल-रज) के समान वर्ण वाले हैं, जो उन (साधारण मनुष्य जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता ऐसे) तप करने वाले हैं, दीप्त तपस्वी (कर्मरूपी वन को भस्म करने में समर्थ तप करने वाले), तप्त-तपस्वी (जिस तप से कर्मों को सन्ताप हो-कर्म नष्ट हो जाएं-ऐसे कठोर तप को करने वाले), महातपस्वी (किसी तरह की आकांक्षा-अभीप्सा रक्खे विना निष्काम भाव से किये जाने वाले महान् तप को करने वाले) हैं, जो उदार हैं, प्रात्म-शत्रुओं को नष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोर तप के अनुष्ठान के कारण तपस्वी पद से अलंकृत हैं, जो शरीर में ममत्व वृत्ति से रहित हैं, जो अनेक योजन-प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तुओं के दहन में समर्थ विस्तीर्ण तेजोलेश्या को-तपोजन्य विशिष्ट लब्धि-विशेष को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो चौदह पूर्वो के ज्ञाता हैं, जो चार ज्ञान के धारक हैं, जिन्हें सम्पूर्ण अक्षरसंयोग का ज्ञान है, जिन्होंने उत्कुटुक आसन लगा रखा है, जो अधोमुख हैं तथा धर्मध्यान रूप कोष्ठक में प्रवेश किये हुए, भगवान् महावीर के पास संयम और तप से प्रात्मा को भावित करते हुए विचरते हैं) ऐसे आचार को धारण करने वाले यावत् ध्यान रूप कोष्ठ को प्राप्त हुए आर्य जम्बू नामक अनगार विराजमान हो रहे हैं / तदन्तर जातश्रद्ध (अर्थात् तत्त्व को जानने की इच्छा में जिनकी प्रवृत्ति हो) जातसंशय (इच्छा में प्रवृत्ति होने का कारण संशय है क्योंकि संशय होने से ही जानने की इच्छा होतो है) जात-कूतहल-(कृतहल-उत्सुकता अर्थात श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न करने पर उनसे अपूर्व वस्तु-तत्त्व की समझ प्राप्त होगी इत्यादि) उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्नकुतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकुतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध, समुत्पन्नसंशय, Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन] 9 समुत्पन्नकुतूहल होकर श्री जम्बूस्वामी उठने को तैयार हुए, तैयार होकर, उठकर खड़े हुए, खड़े होकर जिस स्थान पर प्रार्य सुधर्मा स्वामी विराजमान थे, उसी स्थान पर पधार गये। दाहिनी ओर से बायीं अोर तीन बार अञ्जलिबद्ध हाथ घुमाकर आवर्तनपूर्वक प्रदक्षिणा करने के पश्चात् वन्दना-नमस्कार करके आर्य सुधर्मा स्वामी से न बहुत दूर और न बहुत पास, सुधर्मा स्वामी की सेवा करते हुए विनय पूर्वक इस प्रकार बोले विवेचन–प्रस्तुत पाठ में जातश्रद्ध, उत्पन्नश्रद्ध, संजातश्रद्ध और समुत्पन्नश्रद्ध प्रादि विशेषण प्रयोग किये गये हैं, वे मन में उत्पन्न होने वाली क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। प्रथम तीन अवग्रह रूप, दूसरे तीन ईहारूप और तीसरे तीन अवायरूप और चौथे तीन धारणारूप समझना चाहिए। ४-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव' संपत्तेणं दसमस्स अंगस्स पण्हावागरणस्स अयम? पन्नत्ते, एक्कारसमस णं भंते ! अंगस्स विवागसुयस्स समणेणं जावर संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते? ४-हे भगवन् / यदि मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रश्नव्याकरण नामक ग्यारहवें अङ्ग का यह अर्थ प्रतिपादित किया है तो विपाकश्रुत नामक ग्यारहवें अङ्ग का यावत् मोक्ष को सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? सुधर्मा स्वामी का उत्तर ५---तए णं प्रज्जसुहम्मे अणगारे जंबुप्रणगारं एवं वयासी-"एवं खलु, जंबू ! समणेणं जाव: संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नत्ता; तं जहा - दुहविवागा य सुहविवागा य / " जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नत्ता, तं जहा-दुहविवागा य सुहविवागा य, पढ मस्स णं, भंते ! सुयक्खंधस्स दुहविवागाणं समजेणं जाव' संपत्तेणं कइ अझयणा पन्नत्ता ? ५-तदनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी ने (अपने सुविनीत शिष्य) श्री जम्बू अनगार को इस प्रकार कहा-हे जम्बू (धर्म की आदि करने वाले, तीर्थप्रवर्तक) मोक्षसंलब्ध भगवान् श्रीमहावीर स्वामी ने विपाकश्रु त (जिसमें शुभ-अशुभ कर्मों के सुख-दु:ख रूप विपाक-परिणामों का दृष्टान्तपूर्वक कथन है) नाम के ग्यारहवें अङ्ग के दो श्रुतस्कन्ध प्रतिपादित किये हैं, जैसे कि-दुःखविपाक और सुखविपाक / हे भगवन् ! यदि मोक्ष को उपलब्ध श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत संज्ञक एकादशवें अङ्ग के दुःखविपाक और सुखविपाक नामक दो श्रुतकन्ध कहे हैं, तो हे प्रभो ! दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कितने अध्ययन प्रतिपादित किये हैं ? ६-तए णं प्रज्जसुहम्मे प्रणगारे जंबु एवं वयासी एवं खलु जम्बू ! समणेणं......"प्राइगरेणं तित्थयरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा१-२-३-४-५. यहां 'जाव' शब्द से भगवती, समवायाङ्ग आदि सूत्रों में उल्लिखित तथा नमोत्थु णं पाठ में भगवान् के जितने विशेषण बताए गये हैं, वे समझ लेना चाहिये। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [विपाकसूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध मियापुत्ते य उज्झियए अमग्ग, सगडे बहस्सई नन्दी। उंबर सोरियदत्ते य देवदत्ता य अंजू य // 1 // ६–तत्पश्चात् आर्य सुधर्मास्वामी ने अपने अन्तेवासी श्री जम्बू अनगार को इस प्रकार कहा-- 'हे जम्बू ! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थप्रवर्तक, मोक्ष को उपलब्ध श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुखविपाक के दस अध्ययन फरमाये हैं जैसे कि-- (1) मृगापुत्र (2) उज्झितक (3) अभग्नसेन (4) शकट (5) बृहस्पति (6) नन्दिवर्धन (7) उम्बरदत्त (8) शौरिकदत्त (6) देवदत्ता और (10) अङ्ख् / ७----'जइणं, भंते ! समणेणं आइगरेणं तिस्थयरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता; तं जहा–मियापुत्ते य जाव अंजू य, पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते?' तए णं से सहम्मे जंबु प्रणगारं एवं वयासी–एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं मियग्गामे नाम नयरे होत्था। वण्णो।' तस्स णं भियग्गामस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुर स्थिमे दिसौभाए चंदणपायवे नाम उज्जाणे होत्था सम्बोउय० / वण्णो / तत्थ णं सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, चिराइए जहा पुण्णमद्दे / 7- अहो भगवन ! यदि धर्म की प्रादि करने वाले, तीर्थप्रवर्तक मोक्ष को समुपलब्ध श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुखविपाक के मृगापुत्र से लेकर अजू पर्यन्त दश अध्ययन कहे हैं तो मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने, प्रभो ! दुखविपाक के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? ___ इसके उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने (सुशिष्य) श्री जम्बू अनगार को कहते हैं--हे जम्बू! उस काल उस समय में मृगाग्राम नाम का एक नगर था जिसका वर्णन औपपातिक सूत्र में किये गये नगरवर्णन के ही समान जान लेना चाहिए। उस मृगाग्राम संज्ञक नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशा के मध्यअर्थात् ईशान कोण में सब ऋतुओं में होने वाले फल पुष्प आदि से युक्त चन्दन-पादप नामक एक उपवन था। इसका भी वर्णन औपपातिक सूत्र से समझ लेना चाहिये / उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था जिसका वर्णन पूर्णभद्र यक्षायतन की तरह समझना / जन्मांध मृगापुत्र ५-तत्थ णं मियग्गामें नयरे विजए नाम खत्तिए राया परिवसइ, वण्णो / तस्स णं विजयस्स 1. प्रस्तुत आगम में प्राय: चार स्थानों पर "वण्णो " पद का प्रयोग प्राप्त होता है-प्रथम नगर के साथ, दूसरा उद्यान के साथ, तीसरा विजय राजा और चौथा रानी मगावती के साथ / जैनागमों की अपनी एक पारम्परिक प्रणालिका ही है कि यदि किसी एक आगम में किसी उद्यान, नगर, चैत्य, राजा, रानी, संयमशील साधु का सांगोपांग वर्णन कर दिया हो, प्रसंगवश उस वर्णन को पुनः नहीं दुहराते हुए निर्दिष्ट ग्रागम से उसका वर्णन जान लेने के लिये 'वण्णो ' ऐसा सांकेतिक शब्द निर्दिष्ट किया जाता है / अत: जहाँ कहीं वण्णो शब्द का संकेत हो वहाँ औपपातिक सूत्र में वर्णित नगर, उद्यान, यक्ष, यक्षायतन, राजा व रानी के वर्णन की तरह समझ लेना चाहिये। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन {11 खत्तियस्स मिया नाम देवी होत्था / अहीण .......... / वण्णयो। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए होत्था / जाइ-अन्धे, जाइ-मूए, जाइ-बहिरे, जाइ-पंगुले, हुंडे य वायवे य / नस्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कण्णा वा अच्छी वा णासा वा / केवलं से तेसि अंगोवंगाणं प्रागिई प्रागिइमित्ते / तए णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणो विहरइ / ८-उस मृगापुत्र नामक नगर में विजय नाम का एक क्षत्रिय राजा निवास करता था। उस विजय नामक क्षत्रिय राजा की मृगा नामक रानी थी। उस सर्वांगसुन्दरी रानी का रूप-लावण्य औपपातिक सूत्र में किये गये राजीवर्णन के ही समान जान लेना / उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगा देवी का पात्मज मृगापुत्र नाम का एक बालक था। वह बालक जन्म के समय से ही अन्धा, गूगा, बहरा, लूला, हुण्ड था (उसके शरीर के सभी अवयव बिना ढंग के--बेढब थे) वह वातरोग से पीड़ित था / उसके हाथ, पैर, कान, आँख और नाक भी न थे / इन अंगोपांगों का केवल आकार ही था और वह आकार-चिह्न भी नाम-मात्र का (उचित स्वरूपवाला नहीं) था। वह मृगादेवी गुप्त भूमिगृह (मकान के नीचे के तलघर) में गुप्तरूप से आहारादि के द्वारा उस बालक का पालन-पोषण करती हुई जीवन बिता रही थी। &-तत्थ णं मियग्गामे नयरे एके जाइअन्धे पुरिसे परिवसेइ / से णं एगेणं सचक्खुएणं पुरिसेणं पुरो दण्डएणं पगडिज्जमाणे पगडिज्जमाणे फुट्टहडाहडसीसे मच्छियाचडगरपहकरेणं अनिज्ज. माणमग्गे मियग्गामे नयरे गिहे गिहे कालुणवडियाए वित्ति कप्पेमाणे विहरइ / -उस मृगाग्राम में एक जन्मान्ध पुरुष रहता था / आँखों वाला एक व्यक्ति उसकी लकड़ी पकड़े रहा करता था। उसी की सहायता से वह चला करता था। उसके मस्तक के बाल बिखरे हुए अत्यन्त अस्त-व्यस्त थे / (अत्यन्त मैला-कुचेला होने के कारण) उसके पीछे मक्खियों के झुण्ड के झुण्ड भिनभिनाते रहते थे। ऐसा वह जन्मान्ध पुरुष मृगाग्राम नगर के घर-घर में कारुण्यमय-दैन्यमय भिक्षावृत्ति से अपनी आजीविका चला रहा था। १०-तणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए। जाव परिसा निग्गया। तए णं से विजए खत्तिए इमोसे कहाए लट्ठ समाणे, जहा कूणिए तहा निग्गए जाव पज्जुवासइ / १०-उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर (नगर के बाहर चन्दन-पादप उद्यान में) पधारे। उनके पदार्पण के समाचारों को जानते ही जनता उनके दर्शनार्थ निकली। तदनन्तर विजय नामक क्षत्रिय राजा भी महाराजा कूणिक को तरह भगवान् के शुभागमन के वृत्तान्त को जानकर दर्शनार्थ नगर से चला यावत् समवसरण में जाकर भगवान् की पर्युपासना--- सेवा-भक्ति करने लगा। ११–तए णं से जाइअन्धे पुरिसे तं महया जणसद्द जाव सुणेत्ता तं पुरिसं एवं वयासी"कि णं देवाणुप्पिया ! अज्ज मियम्गामे नयरे इन्दमहे इ वा जाव (खंदमहे इ वा उज्जाण-गिरिजत्ता इ वा जओ णं बहवे उग्गा भोगा एगदिस एगाभिमुहा) निग्गच्छत्ति ?" तए णं से पुरिसे जाइअन्ध Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पुरिसं एवं वयासो-'नो खलु, देवाणुप्पिया! इन्दमहे इ वा जाव निग्गच्छइ / समणे जाव विहरइ / तए णं एए जाव निग्गच्छति / " तए णं से जाइ-अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं क्यासी-'गच्छामो णं देवाणुप्पिया! अम्हे वि समणं भगवं जाव पज्जवासामो।" तए णं जाइअन्धे पुरिसे तेणं पुरोदंडएणं पुरिसेणं पगडिज्जमाणे पगडिज्जमाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उगावए, उवागच्छित्ता तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता चंदइ, नमंसह, बंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जवासइ। तए णं समणे भगवं महावीरे विजयस्स खत्तियस्त तोसे य....."धम्ममाइक्खइ, जाव परिसा पडिगया, विजए वि गए। 11- तदनन्तर वह जन्मान्ध पुरुष नगर के कोलाहलमय वातावरण को जानकर उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला-हे देवानुप्रिय ! क्या आज मृगाग्राम नगर में इन्द्र-महोत्सव है [स्कन्दमहोत्सव है, उद्यान की या पर्वत की यात्रा है, जिसके कारण ये उग्रवंशी तथा भोगवंशी आदि एक ही दिशा में एक ही ओर] नगर के बाहर जा रहे हैं ? (यह सुन) उस पुरुष ने जन्मान्ध से कहा'हे देवानुप्रिय ! आज इस गाम (नगर) में इन्द्रमहोत्सव नहीं है किन्तु (इस मृगा-ग्राम--नगर के बाहर चन्दन-पादप उद्यान में) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे हैं; वहाँ ये सब दर्शनार्थ जा रहे हैं / तब उस जन्मान्ध पुरुष ने कहा-'चलो, हम भी चलें और चलकर भगवान् की पर्युपासना करें। तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह जन्मान्ध पुरुष, जहाँ पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहाँ पर आ गया। वहाँ आकर वह तीन बार दक्षिण ओर से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा (आवर्तन) करता है। प्रदक्षिणा करके वंदन-नमस्कार करता है / वन्दना तथा नमस्कार करके भगवान् की पर्युपासना-सेवा भक्ति में तत्पर हुआ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने विजय राजा तथा नगर-जनता को धर्मोपदेश दिया। यावत् कथा सुनकर विजय राजा तथा परिषद् यथास्थान चले गये। मृगापुत्र के विषय में गौतम की जिज्ञासा 12 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवो महावीरस्स जे? अंतेवासी इन्दभूई नामं अणगारे जाव विहरई / तए णं से भगवं गोयमे तं जाइअन्धपुरिसं पासइ, पासित्ता जायसड्ढे जाव एवं वयासी–'अस्थि णं भंते ! केई पुरिसे जाइअन्धे जाइअन्धास्वे?' हंता अस्थि / "कह णं भंते ! से पुरिसे जाइअन्धे जाइअन्धरूवे ?" 'एवं खलु, गोयमा ! इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए जाइअन्धे जाइग्रन्धरूवे / नत्थि णं तस्स दारगस्स जाव प्रागिइमित्त / तए णं सा मियादेवी जाव पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहर इ !' तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी'इच्छामि गं भंते ! तुन्भेहिं प्रमणुनाए समाणे मियापुत्तं दारगं पासित्तए।' 'प्रहासुहं देवाणुप्पिया !' १२--उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इन्द्र Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन [13 भूति नाम के अनगार भी वहाँ विराजमान थे। भगवान् गौतम स्वामी (इन्द्रभूति अनगार) ने उस जन्मान्ध पूरुष को देखा और देखकर जातश्रद्ध-प्रवत्त हुई श्रद्धा वाले-भगवान गौत म इस प्रकार बोले----'अहो भगवन् ! क्या कोई ऐसा पुरुष भी है कि जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप हो?' भगवान् ने कहा---'हाँ, ऐसा पुरुष है !' 'हे प्रभो ! वह पुरुष कहाँ है जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप हो ?' भगवान् ने कहा-'हे गौतम! इसी मगाग्राम नगर में विजयनरेश का पुत्र और मगादेवी का पात्मज मृगापुत्र नाम का बालक है, जो जन्मतः अन्धा तथा जन्मान्धरूप है। उसके हाथ, पैर, चक्षु आदि अङ्गोपाङ्ग भी नहीं हैं ! मात्र उन अङ्गोपाङ्गों के आकार ही हैं ! उसकी माता मृगादेवी उसका पालन-पोषण सावधानी पूर्वक छिपे-छिपे कर रही है। __ तदनन्तर भगवान् गौतम ने भगवान् महावीर स्वामी के चरणों में चन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उनसे विनती-प्रार्थना की कि-'हे प्रभो ! यदि आपकी अनुज्ञा प्राप्त हो तो मैं मृगा-पुत्र को देखना चाहता हूँ।' इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया-'गौतम ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वैसा करो!' १३-तए णं से भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुनाए समाणे हद्वतुट्ठ समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिमानो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता प्रतुरियं जाव [अचलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरोरियं] सोहेमाणे जेणेव मियग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मियग्गामं नयरं मझमझेणं अणुपविसइ, अणुष्पविसित्ता जेणेव मियादेवीए गिहे तेणेव उवागच्छ। १३---तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा प्राज्ञा प्राप्त कर प्रसन्न व सन्तुष्ट हुए श्रीगौतम स्वामी भगवान के पास से (मगापुत्र को देखने के लिये) निकले। विवेकपूर्वक (जरा भी उतावल किये बिना ईर्यासमिति का यथोचित पालन करते हुए) भगवान् गौतम स्वामी जहाँ मृगाग्राम नगर था वहाँ आये और पाकर मृगाग्राम नगर के मध्यमार्ग से मृगाग्राम नगर में प्रवेश किया / क्रमशः जहाँ मृगादेवी का घर था, गौतम स्वामी वहां पहुँच गये। १४-तए णं सा मियादेवी भगवं गोयम एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्टतुटु जाव एवं वयासी-"संदिसतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पओयणं ?" तए णं से भगवं गोयमे मियादेवि एवं वयासी-"अहं णं देवाणुप्पिए, तव पुत्तं पासिउं हव्वमागए।" तए णं सा मियादेवी मियापुत्तस्स दारगस्स अणुमग्गजायए चत्तारि पुत्ते सन्वालंकारविभूसिए करेइ, करेत्ता भगवो गोयमस्स पाएसु पाडेइ, पाडेत्ता एवं वयासी.."एए णं भंते ! मम पुत्ते, पासह"। १४-तदनन्तर उस मृगदेवी ने भगवान गौतम स्वामी को आते हुए देखा और देखकर हर्षित प्रमुदित हुई इस प्रकार कहने लगी- भगवन् ! आपके पधारने का क्या प्रयोजन है ?' Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] [विपाकसूत्र- प्रथम श्रुतस्कन्ध इसके उत्तर में भगवान् गौतम स्वामी ने कहा --'हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने पाया हूँ !' तब मृगादेवी ने मंगापुत्र के पश्चात् उत्पन्न हुए चार पुत्रों को वस्त्र भूषणादि से अलंकृत किया और अलंकृत करके गौतमस्वामी के चरणों में डाला (नमस्कार कराया) और डाल करके (नमस्कार कराने के पश्चात्) इस प्रकार कहा-'भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं। इन्हें आप देख लीजिए !' १५-तए णं से भगवं गोयमे मियादेवि एवं क्यासी-"नो खलु देवाणप्पिए ! अहं एए तव पुत्ते पासिउं हन्त्रमागए / तत्थ णं जे से तव जे? मियापुत्ते दारए जाइअन्धे जाइअन्धरूवे, जं णं तुम रहस्तियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरसि तं णं अहं पासिउं हव्वमागए।' तए णं सा मियादेवी भगवं गोयम एवं क्यासी—'से के णं गोयमा! से तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा, जेणं तव एसम8 मम ताव रहस्सीकए तुम्भं हव्वमक्खाए, जो णं तुम्भे जाणह ?' / तए णं भगव गोयमे मियादेवि एवं वयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगव महावीरे, तो णं अहं जाणामि / " १५---यह सुनकर भगवान् गौतम मगादेवी से बोले-हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने के लिए यहाँ नहीं पाया हूँ, किन्तु तुम्हारा जो ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र है, जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप है, तथा जिसको तुमने एकान्त भूमिगृह (भोंरे) में गुप्तरूप से सावधानी पूर्वक रक्खा है और छिपे-छिपे खानपान आदि के द्वारा जिसके पालन-पोषण में सावधान रह रही हो, उसी को देखने मैं यहाँ आया हूँ ! यह सुनकर मगादेवी ने गौतम से (आश्चर्यचकित होकर) निवेदन किया कि-हे गौतम ! वे कौन तथारूप ऐसे ज्ञानी व तपस्वी हैं, जिन्होंने मेरे द्वारा एकान्त गुप्त रक्खी यह बात आपको यथार्थरूप में बता दी। जिससे आपने यह गुप्त रहस्य सरलता से जान लिया ? ___ तब भगवान् गौतम स्वामी ने कहा-हे भद्रे ! मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं और प्रभु महावीर स्वामी ने ही मुझे यह रहस्य बताया है / १६-जाव च णं मियादेवी भगवया गोयमेण सद्धि एयमट्ठ संलवइ, तावं च णं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया यावि होत्था / तए णं सा मियादेवी भगवं गोयम एवं वयासो---'तुम्भे णं भन्ते! इहं चेव चिट्ठह जाणं अहं तुभं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि त्ति कटु जेणेव भत्त-पाणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वत्थपरियट्टयं करेइ, करेत्ता कट्टसगडियं गिण्हइ, गिण्हित्ता विउलस्स असण-पाणखाइम-साइमस्स भरेइ, भरित्ता तं कट्ठसगडियं अणुकद्दमाणी अणुकढमाणी जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी----"एह णं तुम्भे भंते ! मम अणुगच्छह, जा गं अहं तुम्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि।" तए णं से भगवं गोयमे मियादेवि पिट्टनो समणुगच्छइ। १६-जिस समय मृगादेवी भगवान् गौतमस्वामी के साथ संलाप-संभाषण-वार्तालाप कर रही थी उसी समय मृगापुत्र दारक के भोजन का समय हो गया / तब मगादेवी ने भगवान् गौतम स्वामी से निवेदन किया---'भगवन् ! आप यहीं ठहरिये, मैं अभी मृगापुत्र बालक को दिखलाती हूँ।' इतना Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन] [15 कहकर वह जहाँ भोजनालय था, वहाँ अाती है और आकर वस्त्र-परिवर्तन करती है। बस्त्र-परिवर्तन कर काष्ठ-शकट---लकड़ी की गाड़ी को- ग्रहण करती है और उसमें योग्य परिमाण में (विपुल मात्रा में) अशन, पान, खादिम व स्वादिम पाहार भरती है। तदनन्तर उस काष्ठ-शकट को खींचती हई जहाँ भगवान् गौतम स्वामी थे वहाँ आती है और भगवान् गौतम स्वामी से निवेदन करती है'प्रभो! आप मेरे पीछे पधारें। मैं आपको मृगापुत्र दारक बताती हूँ।' (यह सुनकर) गौतम स्वामी मृगादेवी के पीछे-पीछे चलने लगे। १७–तए णं सा मियादेवी तं कट्टसगाडयं अणुकद्दमाणी अणुकद्दमाणी जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छइ; उवागच्छित्ता चउप्पुडेणं वत्येणं मुहं बंधेइ / मुहं बंधमाणी भगव गोयम एव वयासी'तुब्भे वि य णं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंधह / ' तए णं से भगव गोयमे मियादेवीए एवं वत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधेइ / __ १७-तत्पश्चात् वह मृगादेवी उस काष्ठ-शकट को खींचती-खींचती जहां भूमिगृह (भोंरा) था वहाँ पर आती है और पाकर चार पड़ वाले वस्त्र से मुह को बांधकर भगवान् गौतम स्वामी से इस प्रकार निवेदन करने लगी--'हे भगवन ! आप भी मुख-वस्त्रिका से मुह को बांध लें।' मृगादेवी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भगवान् गौतमस्वामी ने भी मुख-वस्त्रिका से मुख को बांध लिया। १५---तए णं सा मियादेवी परंमही भूमिधरस्स दुवारं विहाडेइ / तए णं गंधे निग्गच्छइ-से जहानामए अहिमडे इ वा जाव [गोमडे इ वा सुणहमडे इ वा मज्जारमडे इ वा मणुस्समडे इ वा महिसमडे इ वा मूसगमडे इ वा पासमडे इ वा हस्थिमडे इ वा सोहमडे इ वा बग्घमडेइ इ वा विगमडे इ वा दीविगमडे इ वा मयकुहिय-विण-दुरभिवावण्ण-दुभिगंधे किमिजालाउलसंसत्ते प्रसुइ-विलीणविगय-बीभच्छदरिसणिज्जे भवेयारूवे सिया ? नो इण? सम?, एत्तो अणिटुतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुष्णतराए चेव प्रमणामतराए चेव] गन्धे पन्नत्ते ! तए णं से मियापुते दारए तस्स विउलस्स असण-पाण-खाइमसाइमस्स गन्धेणं अभिभूए समाणे तंसि विउलंसि असण-पाण-खाइम-साइमंमि मुच्छिए तं विउलं असण-पाण खाइम-साइमं प्रासएणं पाहारेइ, माहारित्ता खिप्पामेव विद्ध सेइ, तो पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणामेइ तं पिय णं से पयं च सोणियं च पाहारेइ / १८-तत्पश्चात् मृगादेवी ने पराङ मुख होकर (पोछे को मुख करके) जब उस भूमिगृह के दरवाजे को खोला तब उसमें से दुर्गन्ध निकलने लगी ! वह गन्ध मरे हुए सर्प यावत् (गाय, कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य, महिष, मूषिक, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, द्वीपिक आदि का कलेवर सड़ गया हो, गल गया हो, दुर्गधित हो, जिसमें कीडों का समह बिलबिला रहा हो. जो प्रशचि. विकृत और देखने में भी बीभत्स हो, वह दुर्गन्ध ऐसी थी ? नहीं, वह दुर्गन्ध) उससे भी अधिक अनिष्ट (अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनाम) थी ! 1. अशन--रोटी, दाल, शाक, भात, प्रादि सामग्री अशन शब्द से अभिप्रेत है। 2. पानी मात्र का ग्रहण पान शब्द से किया गया है। 3. द्राक्ष, पिस्ता, वादाम ग्रादि मेवे व मिठाई अादि पदार्थ खाद्य हैं। 4. पान, सुपारी, इलायची, लवंग ग्रादि मुखवास योग्य पदार्थ स्वादिम शब्द से इन्ट हैं। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तदनन्तर उस महान् अशन, पान, खादिम, स्वादिम के सुगन्ध से आकृष्ट व मूच्छित हुए उस मृगापुत्र ने उस महान अशन, पान, खादिम, स्वादिम का मुख से आहार किया। शीघ्र ही वह नष्ट हो गया (जठराग्नि द्वारा पचा दिया गया) वह आहार तत्काल पीव (मवाद) व रुधिर के रूप में परिवर्तित हो गया।। मृगापुत्र दारक ने पीव व रुधिर रूप में परिवर्तित उस आहार का वमन कर दिया / वह बालक अपने ही द्वारा वमन किये हुए उस पीव व रुधिर को भी खा गया। मृगापुत्र-विषयक-प्रश्न १६-तए णं भगवनो गोयमस्स तं मियापुत्तं दारगं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए कप्पिए पतिथए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-'अहो णं इमे दारए पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुष्पडिकंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ। न मे दिट्टा नरगा वा नेरइया वा / पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरगपडिरूवयं वेयणं वेयइ।' त्ति कटु मियं देवि प्रापुच्छइ, आपुच्छित्ता मियाए देवीए गिहाम्रो पडिनिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता मियग्गामं नयरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, निम्गच्छित्ता जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता समणं भगव महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वदइ, नमसइ, वदित्ता-नमंसित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु अहं तुम्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे मियग्गामं नयरं मझमझेण अणुप्पविसामि, अणुपविसित्ता जेणेव मियाए देवीए गिहे तेणेव उवागए / तए णं से मियादेवी मम एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठा, तं चेव सव्व जाव पूयं च सोणियं च प्राहारेइ / तए णं इमे अज्झस्थिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-अहो णं इमे दारए पुरा जाव विहरइ। से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के प्रासी ? किनामए वा किंगोत्तए वा ? कवरंसि गामंसि वा नयरंसि वा? किं वा दच्चा कि वा मोच्चा कि वा समायरित्ता केसि वा पुरा जाव विहरई? १६-मृगापुत्र दारक की ऐसी (वीभत्स तथा करुणाजनक) दशा को देखकर भगवान् गौतम स्वामी के मन में ये विकल्प उत्पन्न हुए-अहो! यह बालक पूर्वजन्मों के दुश्चीर्ण (दुष्टता से किए व दुष्प्रतिकान्त (जिन कर्मों को विनष्ट करने का कोई सुगम उपाय ही नहीं है) अशुभ पापकों के पापरूप फल को पा रहा है। नरक व नारकी तो मैंने नहीं देखे, परन्तु यह मृगापुत्र सचमुच नारकीय वेदनाओं का अनुभव करता हुअा (प्रत्यक्ष) प्रतीत हो रहा है। इन्हीं विचारों से आक्रान्त होते हुए भगवान् गौतम ने मृगादेवी से पूछ कर कि अब मैं जा रहा हूं, उसके घर से प्रस्थान किया / मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे; वहाँ पधार गये / पधारकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन तथा नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोले भगवन् ! आपश्री से प्राज्ञा प्राप्त करके मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलता हुआ जहाँ मृगादेवी का घर था वहाँ मैं पहुंचा। मुझे प्राते हुए देखकर मृगादेवी हृष्ट तुष्ट हुई यावत् पीव व शोणित-रक्त का आहार करते हुए मृगा-पुत्र को देखकर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुअा-अहह ! यह बालक पूर्वजन्मोपाजित महापापकर्मों का फल भोगता हुआ वीभत्स जीवन बिता रहा है। भगवन् ! यह पुरुष मृगापुत्र पूर्वभव में कौन था ? किस नाम व गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा नगर का रहने वाला था? क्या देकर, क्या भोगकर, किन-किन कर्मों का आचरण कर और किनकिन पुराने कर्मों के फल को भोगता हा जोवन बिता रहा है ? गए) व Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन ] [ 17 भगवान् द्वारा समाधान २०-गोयमा !' इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी—एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेण तेणं समएणं इह जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे नाम नयरे होत्था रिद्धत्यिमिय....... / वग्णनो' / तत्थ णं सयदुवारे नयरे धणवई नामं राया होत्था / वण्णो / तस्स णं सयदुवारस्स नयरस्स प्रदूरसामन्ते दाहिणपुरस्थिमे दिसोभाए विजयवद्धमाणे नामं खेडे होत्था। रिद्धथमियसमिद्ध / तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचगामसयाई आभोए यावि होत्था। तत्थ पं विजयवद्धमाणे खेडे इक्काई नाम रटुकडे होत्था, अहम्मिए जाव (अधम्माणुए अधम्मि? अधम्मक्खाई अधममपलोई अधम्मपलज्जणे अधम्मसमुदाचारे) दुप्पडियाणंदे / से णं इक्काई रटुकडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पञ्चण्हं गामसयाणं माहेबञ्चं जाव पालेमाणे विहर।। 20- 'हे गौतम / ' इस तरह सम्बोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भगवान् गौतम के प्रति इस प्रकार कहा---'हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में शतद्वार नामक एक समृद्धिशाली नगर था। उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था। उस नगर से कुछ दूरी पर (न अधिक दूर और न अधिक समोप) दक्षिण और पूर्व-दिशा के मध्य-अग्निकोण में विजयवर्द्धमान नामक एक खेट--(नदी व पर्वतों से घिरा हुआ अथवा धूलि के प्राकार से वेष्टित) नगर था जो ऋद्धि-समृद्धि प्रादि से परिपूर्ण था। उस विजयवर्द्धमान खेट का पांच सौ ग्रामों का विस्तार था। उस विजयवर्द्धमान खेट में इक्काई-एकादि नाम का राष्ट्रकट-राजा को ओर से नियुक्त प्रतिनिधि-प्रान्ताधिपति था, जो परम अधार्मिक यावत् (अधर्मानुगामी, अधर्मानिष्ठ, अधर्मभाषी, अधमर्मानुरागी, अधर्माचारी) तथा दुष्प्रत्यानन्दी-परम असन्तोषो, (साधुजनविद्वेषी अथवा पापकृत्यों में ही सदा आनन्द मानने वाला) था। वह एकादि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों का आधिपत्य-शासन और पालन करता हुआ जीवन बिता रहा था। इकाई का अत्याचार २१-तए णं से इक्काई विजयवद्धमाणस्य खेडस्स पंच गामसयाई बहूहि करेहि य भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि य पराभवेहि य दिज्जेहि य भिज्जेहि य कुतेहि य लंछपोसेहि य पासीवणेहि य पंथकोट्टेहि य प्रोवीलेमाणे प्रोवीलेमाणे विहम्मेणाणे विहम्मेमाणे तज्जेमाणे तज्जेमाणे तालेमाणे तालेमाणे निद्धणे करेमाणे करेमाणे विहरइ। तए णं से इक्काई रटकडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राई-सर-तलवर-माडंविय-कोडुवियसेट्ठि-सत्यवाहाणं अन्नोसि च. बहूणं गामेल्लगपुरिसाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य गुज्झेसु यनिच्छएसु य ववहारेसु य सुणमाणे भणइ न 'सुणेमि', असुणमाणे भणइ 'सुमि' एवं पस्समाणे, भासमाणे, गिण्हमाणे, जाणेमाणे' / तए णं से इक्काई रटकूडे एयकम्में एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म कलिकलुसं समज्जिणमाणे विहरइ / २१--तदनन्तर वह एकादि नाम का प्रतिनिधि (प्रान्ताधिपति) विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों को करों-महसूलों से, करों की प्रचुरता से, किसानों को दिये धान्यादि के द्विगुण आदि के 1. औप० सूत्र--१ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [विपाकसूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध ग्रहण करने से, रिश्वत-घूसखोरी से, दमन से, अधिक ब्याज से, हत्यादि के अपराध लगा देने से, धनग्रहण के निमित्त किसी को स्थान आदि का प्रबन्धक बना देने से, चोर आदि व्यक्तियों के पोषण से, ग्रामादि को जलाने से, पथिकों को मार पीट करने से, व्यथित-पीड़ित करता हुआ, धर्म से विमुख करता हुग्रा, कशादि से ताड़ित और सधनों को निर्धन करता हुआ प्रजा पर अधिकार जमा रहा था। तदनन्तर वह राजप्रतिनिधि एकादि विजयवर्द्धमान खेट के राजा-मांडलिक, ईश्वर-युवराज, तलवर-राजा के प्रिय कृपापात्र अथवा राजा की ओर से जिन्हें उच्च सन्मान, पदवी, प्रासन-स्थानविशेष प्राप्त हुआ हो ऐसे नागरिक लोग, माडंबिक (मडंब-जिसके निकट दो दो योजन तक कोई ग्राम न हो उस प्रदेश को मडंब कहते हैं, उसके अधिपति) कौटुम्बिक-बड़े कुटुम्बों के स्वामी, श्रेष्ठी, सार्थनायक तथा अन्य अनेक ग्रामीण पुरुषों के कार्यों में, कारणों में, गुप्त मन्त्रणामों में, निश्चयों और विवादास्पद निर्णयों अथवा व्यावहारिक बातों में सुनता हुया भी कहता था कि "मैंने नहीं सुना" और नहीं सुनता हुअा कहता था कि “मैंने सुना है।" इसी प्रकार देखता हुआ, बोलता हुआ, ग्रहण करता हुआ और जानता हुआ भी वह कहता था कि मैंने देखा नहीं, बोला नहीं, ग्रहण किया नहीं और जाना नहीं। इसी प्रकार के वंचना-प्रधान कर्म करने वाला मायाचारों को ही प्रधान कर्तव्य मानने वाला, प्रजा को पीड़ित करने रूप विज्ञान वाला और मनमानी करने को ही सदाचरण मानने वाला, वह एकादि प्रान्ताधिपति दु:ख के कारणीभूत परम कुलषित पापकर्मों को उपाजित करता हुया जीवन-यापन कर रहा था। इक्काई को भयंकर रोगः २२--तए णं तस्स रटुकडस्स अन्नया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउन्भूया / तं जहा--- सासे कासे जरे दाहे कुच्छिसूले भगंदरे / अरिसे अजीरए दिट्ठी, मुद्धसूले अकारए॥ अच्छिवेयणा कण्ण-वेयणा कंडू उयरे कोढे / तए णं से इक्काई रटकूडे सोलसहि रोगायंकेहिं अभिभूए समाणे कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--"गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! विजयवद्धमाणे खेडे सिंघाडग-तिग-चउक्कचच्चर-महापह-पहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्रोसेमाणा एवं वयह-इह खलु देवाणुप्पिया! इक्काई रटकूडस्स सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाउन्भूया, तं जहा-सासे कासे जरे जाव कोढे / तं जो णं इच्छइ देवाणुप्पिया ! बेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणो वा जाणयपुत्तो वा तेगिच्छी वा तेगिच्छिपत्तो वा इक्काई रट्रकडस्स तेसि सोलसहं रोगायंकाण एगमवि रोगायंक उवसामित्तए तस्स णं इकाई रटुकडे विउलं प्रत्थसंपयाणं दलयइ। दोच्चं पि तच्चं पि उग्घोसेह, उग्धोसित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह" / तए णं ते कोवियपुरिसा जाव पच्चप्पिणति ! २२--उसके बाद किसी समय उसके शरीर में एक साथ ही सोलह प्रकार के रोगातंक (जीवन के लिये अत्यन्त कष्टकर अथवा लगभग असाध्य रोग) उत्पन्न हो गये। जैसे कि-श्वास, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन | [ 19 कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, अर्श, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तक-शूल, अरोचक, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, खुजली, जलोदर, और कुष्टरोग-कोढ़। तदनन्तर उक्त सोलह प्रकार के भयंकर रोगों से खेद को प्राप्त वह एकादि नामक प्रान्ताधिपति सेवकों को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है--"देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विजयवर्द्धमान खेट के श्रगाटक (त्रिकोणमार्ग) त्रिक-त्रिपथ (जहाँ तीन मार्ग मिलते हों) चतुष्क-चतुष्पथ (जहाँ चार मार्ग एकत्रित होते हों) चत्वर (जहाँ चार से अधिक मार्गों का संगम होता हो) महापथराजमार्ग और साधारण मार्ग पर जाकर अत्यन्त ऊँचे स्वरों से इस तरह घोषणा करो-हे देवानप्रियो ! एकादि प्रान्तपति के शरीर में श्वास, कास, ज्वर यावत् कोढ़ नामक 16 भयङ्कर रोगातंक उत्पन्न हुए हैं। यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायक या ज्ञायक-पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक-पुत्र उन सोलह रोगातंकों में से किसी एक भी रोगातंक को उपशान्त करे तो एकादि राष्ट्रकूट उसको बहुत सा धन प्रदान करेगा !' इस प्रकार दो तीन बार उद्घोषणा करके मेरी इस प्राज्ञा के यथार्थ पालन की मुझे सूचना दो।" उन कौटुम्बिक पुरुषों-सेवकों ने आदेशानुसार कार्य सम्पन्न करके उसे सूचना दी। २३-तए णं से विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूव उग्घोसणं सोच्चा निसम्म वहवे वेज्जा य जाव' सत्थकोसहत्थगया सहितो सहितो गिहेहितो पडिनिक्खमन्ति, पडिनिक्खमित्ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मन्झ मज्झेणं जेणेव इक्काई रठ्ठडस्स गिहे तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता इक्काइरट्ठकूडस्स सरीरगं परामुसंति, परामुसित्ता तेसि रोगाणं निदाणं पुच्छति, पुच्छित्ता इक्काइरहकूडस्स बहूहि प्रभंगेहि य उम्बट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणाहि य अवदहणाहि य प्रवण्हाणेहि य प्रणवासणाहिं य वस्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य सिरोवत्थीहि य तप्पणाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि य मूलेहि य फलेहि य बीएहि य सोलियाहि य गुलियाहि य प्रोसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, नो चेव णं संचाएंति उसामित्तए / तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणया य जाणयपुत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। २३-तदनन्तर उस विजयवर्द्धमान खेट में इस प्रकार की उद्घोषणा को सुनकर तथा अवधारण करके अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपुत्र, चिकित्सक, चिकित्सकपुत्र अपने अपने शस्त्रकोष (औजार रखने की पेटी या थैली) को हाथ में लेकर अपने अपने घरों से निकलते हैं और निकलकर विजयवर्द्धमान नामक खेट के मध्यभाग से जाते हुए जहाँ एकादि प्रान्ताधिपति का घर था, वहाँ पर आते हैं / आकर एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का संस्पर्श करते हैं, संस्पर्श करके निदान (रोगों के मूलकारण)की पृच्छा करते हैं और पूछकर के एकादि राष्ट्रकूट के इन सोलह रोगातंकों में से किसी एक रोगातंक को शान्त करने के लिये अनेक प्रकार के अभ्यंगन (मालिश), उद्वर्तन (उवटन-बरणा वगैरह मलने) स्नेहपान (घृतादि स्निग्ध पदार्थों के पान कराने), वमन (उल्टी कराने), विरेचन (जुलाब अथवा अधोद्वार से मल को निकालने), स्वेदन (पसीने), अवदहन (गर्म लोहे के कोश आदि से चर्म पर दागने), 1. देखिए ऊपर का सूत्र 111:122 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [ विपाकसूत्र--प्रथम श्रु तस्कन्ध अवस्नान (चिकनाहट दूर करने के लिए अनेक-विध द्रव्यों से संस्कारित जल से स्नान कराने), अनुवासन (गुदा द्वारा पेट में तैलादि के प्रवेश कराने), निरूह (ओषधियों को डालकर पकाये गए तैल के प्रयोगविरेचन विशेष), वस्तिकर्म (गुदा में बत्ती आदि के प्रक्षेप करने), शिरोवेध (नाड़ी के वेधन करने), तक्षण (क्षुरा, चाकू आदि सामान्य शस्त्रों द्वारा कर्तन-काटना), प्रतक्षण (विशेष रूप से कर्तन-बारीक शस्त्रों से त्वचा विदारण करने) शिरोवस्ति (सिर में चर्म कोश बाँधकर उसमें औषधि-द्रव्य-संस्कृत तैलादि को पूर्ण कराने-भराने) तर्पण (स्निग्ध पदार्थों से शरीर को वृहण-तृप्त करने) पुटपाक-- (अमुक रस का पुट देकर पकाई हुई औषध) छल्ली (छाल) मूलकन्द (मूली, गाजर, पाल आदि जमीकन्द) शिलिका (चिरायता आदि औषध) गुटिका-अनेक द्रव्यों को महीन पीसकर औषध के रस की भावना आदि से बनाई गई गोलिये) औषध (एक द्रव्यनिर्मित दवा) और भेषज्य (अनेक द्रव्यसंयोजित दवा) आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं अर्थात्-इन पूर्वोक्त साधनों का रोगोपशान्ति के लिए उपयोग करते हैं परन्तु उपर्युक्त अनेक प्रकार के प्रयोगात्मक उपचारों से वे इन सोलह रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समर्थ न हो सके ! जब उन वैद्यों व वैद्यपुत्रादि से उन 16 रोगान्तकों में से एक भी रोग का उपशमन न हो सका तब वे वैद्य व वैद्यपुत्रादि श्रान्त (शारीरिक खेद) तान्त (मानसिक खेद) तथा परितान्त (शारीरिक व मानसिक खेद) से खेदित हुए जिधर से पाये थे उधर ही चल दिए। इक्काई को मत्यु :-मृगापुत्र का वर्तमान भव २४--तए णं इक्काई रहकूडे वेज्ज-पडियाइक्खिए परियारगपरिच्चत्ते निविण्णोसहभेसज्जे सोलहरोगायंकेहि अभिभूए समाणे रज्जे य रठे य जाव (कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य) अन्तउरे य मुच्छिए रज्जं च रट्टे च प्रासाएमाणे पत्थेमाणे पोहमाणे अभिलसमाणे अट्टदुहट्टक्सट्टे अड्ढाइजाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / से शं तो प्रणंतरं उबट्टित्ता इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने ! २४-इस प्रकार वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात होकर (अर्थात् इन रोगों का प्रतीकार और उपचार हमसे सम्भव नहीं है, इस तरह कहे जाने पर) सेवकों द्वारा परित्यक्त होकर औषध और भैषज्य से निविण्ण (उदासीन) विरक्त-उपरत, सोलह रोगातंकों से परेशान, राज्य, राष्ट्र-देश, यावत् (कोष, भंडार, बल, वाहन, पुर तथा) अन्तःपुर-रणवास में मूछित-पासक्त एवं राज्य व राष्ट्र का प्रास्वादन प्रार्थना स्पृहा-इच्छा और अभिलाषा करता हुआ वह एकादि प्रान्तपति आर्त-मनोव्यथा से व्यथित, दुखार्त-शारीरिक पीड़ा से पीड़ित और वशार्त-इन्द्रियाधीन होने से परतन्त्र–स्वाधीनता रहित जीवन व्यतीत करके 250 वर्ष की सम्पूर्ण आयु को भोगकर यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथिवी-प्रथम नरक में उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकरूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह एकादि का जीव भवस्थिति संपूर्ण होने पर नरक से निकलते ही इस मगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मगादेवी नाम की रानी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। २५–तए णं तीसे मियादेवीए सरीरे वेयणा पाउम्भूया, उज्जला जाव दुरहियासा / जप्पभिई च णं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कुच्छिसि गम्भत्ताए उववन्ने, तप्पभिई च णं मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा प्रकता प्रप्पिया प्रमणुन्ना अमणामा जाया यावि होत्था / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन ] [21 २५–मगादेवी के उदर में उत्पन्न होने पर मगादेवी के शरीर में उज्ज्वल यावत् ज्वलन्तउत्कट व जाज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई-तीव्रतर वेदना का प्रादुर्भाव हुआ। जिस दिन से मृगापुत्र बालक मृगादेवी के उदर में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ, तबसे लेकर वह मृगादेवी विजय नामक क्षत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, अमनोज्ञ-असुन्दर-मन को न भाने वाली—मन से उतरी हुई, अप्रिय हो गयी। २६-तए णं तीसे मियाए देवीए अन्नया कयाइ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियाए जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झथिए जाव' समपज्जित्या--"एवं खलु अहं विजयस्स खत्तियस्स पुटिव इट्ठा कंता पिया मणण्णा मणामा धेज्जा विसासिया अणुमया प्रासी। जप्पमिइंच णं मम इमे गम्भे च्छिसि गमत्ताए उववन्न, तप्पभिई च णं अहं विजस्स खत्तियस्स अणिटा जाव प्रमणामा जाया यावि होत्था / नेच्छइ णं विजए खत्तिए मम नाम व गोयं वा गिण्हित्तए वा, किमंगपुण दंसणं वा परिभोग वा। तं सेयं खलु ममं एयं गभं बहूहि गभसाडणाहि य पाडणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा मारित्तए वा एवं संपेहेइ, संपेहित्ता बहूणि खाराणि य कडुयाणि य तवराणि य गब्भसाडणाणि य खायमाणी य पोयमाणी य इच्छइ तं गभं साडित्तए-४ नो चेव णं से गम्भे सडइ वा-४ / तए णं सा मियादेवी जाहे नो संचाएइ तं गम्भं साडित्तए वा-४ ताहे संता तंता परिवंता अकामिया असयंवसा तं गम्भं दुहं-दुहेणं परिवहइ / 26-- तदनन्तर किसी काल में मध्यरात्रि के समय कुटुम्बचिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह अध्यवसाय-विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय क्षत्रिय को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और अत्यन्त मनगमती, ध्येय, चिन्तनीय, विश्वसनीय, व सम्माननीय थी परन्तु जबसे मेरी कुक्षि में यह गर्भस्थ जीव गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ तबसे विजय क्षत्रिय को मैं अप्रिय यावत् मन से अग्राह्य हो गई हूँ। इस समय विजय क्षत्रिय मेरे नाम तथा गोत्र को ग्रहण करना-- अरे स्मरण करना भी नहीं चाहते ! तो फिर दर्शन व परिभोग-भोगविलास की तो बात ही क्या है ? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस गर्भ को अनेक प्रकार की शातना (गर्भ को खण्ड-खण्ड कर गिरा देने वाले प्रयोग) पातत। (अखण्ड रूप से गर्भ को गिराने रूप क्रियानों से) ग को द्रवीभूत करके गिराने रूप उपायों से) व मारणा (मारने वाले प्रयोग) से नष्ट कर दूं। इस प्रकार वह शातना, पातना, गालना और मारणा के लिये विचार करती है और विचार करके गर्भपात के लिये गर्भ को गिरा देने वाली क्षारयुक्त (खारी), कड़वी, कसैली, औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ के शातन, पातन, गालन व मारण करने की इच्छा करती है। परन्तु वह गर्भ उपर्युक्त सभी उपायों से भी शातन, पातन, गालन व मारण रूप नाश को प्राप्त नहीं हुआ। तब वह मृगादेवी शरीर से श्रान्त, मन से दु:खित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई इच्छा न रहते हुए भी विवशता के कारण अत्यन्त दु:ख के साथ गर्भ वहन करने लगी। २७–तस्स णं दारगस्स गभगयस्स चेव अट्ट नालीप्रो अभितरप्पवहायो, अट्ट नालीमो बाहिरप्यवहायो, अट्ठ पूयध्यवहाओ, अट्ट सोणियष्यवहानो, दुवे-दुवे कण्णंतरेसु, दुवे दुवे अच्छि-अंतरेसु, 1. देखिए सुत्र 121119 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [विपाकसूत्र–प्रथम श्रु तस्कन्ध दुवे दुवे नक्कतरेसु, दुवे दुवे धमणि-अंतरेसु अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च परिस्सवमाणीयो परिस्सवमाणीयो चेव चिट्ठति / तस्स णं दारगस्स गन्भगयस्स चेव अग्गिए नामं वाही पाउन्भूए / जे णं से दारए प्राहारेइ, से णं खिप्पामेव विद्ध समागच्छइ, पूयत्ताए सोणियत्ता य परिणमइ / तं पि य से पूयं च सोणियं 5 प्राहारेइ / 27-- गर्भगत उस बालक की आठ नाड़ियाँ अन्दर की ओर बह रही थी और पाठ नाड़ियाँ बाहर की ओर बह रही थी। उनमें प्रथम पाठ नाड़ियों से रुधिर बह रहा था। इन सोलह नाड़ियों में से दो नाड़ियाँ कर्ण-विवरों-छिद्रों में, दो-दो नाड़ियाँ नेत्रविवरों में, दो-दो नासिकाविवरों में तथा दो-दो धमनियों (हृदयकोष्ठ के भीतर की नाड़ियों) में बार-बार पीव व लोहू बहा रही थी। गर्भ में ही उस बालक को भस्मक नामक व्याधि उत्पन्न हो गयी थी, जिसके कारण वह बालक जो कुछ खाता, वह शीघ्र ही भस्म हो जाता था, तथा वह तत्काल पीव व शोणित के रूप में परिणत हो जाता था। तदनन्तर वह बालक उस पीव व शोणित को भी खा जाता था। २८-तए णं सा मियादेवी अन्नया कयाइ नवण्हं मासाणं बहुपुष्णाणं दारगं पयाया जाइ. अन्धे जाव [जाइमूए जाइबहिरे, जाइपंगुले हुंडे य वायव्वे / णत्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कण्णा बा अच्छी वा नासा वा। केवलं से तेसि अंगाणं] प्रागिइमेत्ते / तए णं सा मियादेवी तं दारगं हुंडं अन्धरूबं पासइ, पासित्ता भीया तत्था तसिया उब्विगा संजातभया अम्मधाई सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'गच्छह णं देवाणुप्पिया! तुम एयं दारगं एगते उक्कुरुडियाए उज्झाहि / ' तए णं मा अम्मधाई मियादेवीए 'तह' ति एयम पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जेणेव. विजए खत्तिए तेणेव उवागच्छह, उवागच्छिता करयलपरिग्गहियं जाव (सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु) एवं वयासी-‘एवं खलु सामी! मियादेवी नवण्हं मासाणं जाव आगिइमेत्ते ! तए णं सा मियादेवी तं हुंडं अन्धरूवं पासइ, पासित्ता भीया तत्था उविग्गा संजायभया ममं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'गच्छह गं तुभे देवाणुप्पिया! एयं दारगं एगन्ते उक्कुरुडियाए उज्झाहि / ' तं संदिसह णं सामी ! तं दारगं अहं एगन्ते उज्झामि उदाहु मा !" २८--तत्पश्चात् नौ मास परिपूर्ण होने के अनन्तर मृगादेवी ने एक बालक को जन्म दिया जो जन्म से अन्धा और अवयवों की प्राकृति मात्र रखने वाला था। तदनन्तर विकृत, बेहूदे अंगोपांग वाले तथा अन्धरूप उस बालक को मृगादेवी ने देखा और देखकर भय, त्रास, उद्विग्नता और व्याकुलता को प्राप्त हुई / (भयातिरेक से उसका शरीर काँपने लगा) उसने तत्काल धायमाता को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिये! तुम जाओ और इस बालक को ले जाकर एकान्त में किसी कूड़े-कचरे के ढेर (रोडी) पर फेंक आओ। तदनन्तर उस धायमाता ने मृगादेवी के इस कथन को 'बहुत अच्छा' इस प्रकार कहकर स्वीकार किया और स्वीकार करके वह जहाँ विजय नरेश थे वहाँ पर आयी और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगी—'हे स्वामिन ! परे नव मास हो जाने पर मगादेवी ने एक जन्मान्ध यावत् अवयवों की प्राकृति मात्र रखने वाले बालक को जन्म दिया है। उस हुण्ड' बेहूदे अवयववाले, विकृतांग, व जन्मान्ध बालक को देखकर मृगादेवी भयभीत हुई और मुझे बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिये ! तुम जानो और इस बालक को ले जाकर Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन ] [ 23 एकान्त में किसी कूड़े-कचरे के ढेर पर फेंक प्रायो। अतः हे स्वामिन् ! आप ही मुझे बतलाएँ कि मैं उसे एकान्त में ले जाकर फेंक आऊँ या नहीं? २६-तए णं से विजए खत्तिए तीसे अम्मधाईए अंलिए एयम सोच्चा निसम्म तहेव संभंते उट्ठाए उट्ठ इ, उट्ठत्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता मियादेवि एवं वयासो'देवाणुपिया ! तुम्भं पढम गम्भे / तं जइ णं तुम्भे एयं एगते उक्कुरुडियाए उज्झसि, तमो णं तुम्भं पया नो थिरा भविस्सइ। तो णं तुमं एवं दारगं रहस्तियगंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी विहराहि; तो गं तुम्भं पया थिरा भविस्सइ।" तए णं सा मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स 'तह ति एयमट्ठविणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ। २६-उसके बाद वह विजय नरेश उस धायमाता के पास से यह सारा वृत्तान्त सुनकर सम्भ्रान्त-व्याकुल-से होकर जैसे ही बैठे थे (सत्वर) उठकर खड़े हो गये / खड़े होकर जहाँ रानी मगादेवी थी, वहां आये और मगादेवी से इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानप्रिये ! तम्हारा यह प्रथम गर्भ है, यदि तुम इसको (एकान्त स्थान में) कड़े-कचरे के ढेर पर फिकवा दोगी तो तुम्हारी भावी प्रजा -सन्तान स्थिर न रहेगी अर्थात् उसे हानि पहुँचेगी। अतः (फेंकने की अपेक्षा) तुम इस बालक को गुप्त भूमिगृह (भोरे) में रखकर गुप्त रूप से भक्तपानादि के द्वारा इसका पालन-पोषण करो। ऐसा करने से तुम्हारी भावी सन्तति स्थिर रहेगी। तदनन्तर वह मृगादेवी विजय क्षत्रिय के इस कथन को स्वीकृतिसूचक "तथेति" (बहुत अच्छा) ऐसा कहकर विनम्र भाव से स्वीकार करती है और स्वीकार करके उस बालक को गुप्त भूमिगृह में स्थापित कर गुप्तरूप से आहारपानादि के द्वारा पालन-पोषण करती हुई समय व्यतीत करने लगी। ३०-एवं खलु गोयमा! मियापुत्ते दारए पुरापोराराणं जाव' पच्चणुभवमाणे विहरइ ! ३०-भगवान् महावीर स्वामी फरमाते हैं-हे गौतम ! यह मृगापुत्र दारक अपने पूर्वजन्मोपार्जित कर्मों का प्रत्यक्ष रूप से फलानुभव करता हुया इस तरह समय-यापन कर रहा है। मृगापुत्र का भविष्य ३१-मियापुत्ते णं भंते ! दारए इयो कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिइ ? कहि उववजिहिइ ? __ ३१-हे भगवन् ! यह मृगापुत्र नामक दारक यहाँ से मरणावसर पर मृत्यु को पाकर कहाँ जायगा ? और कहाँ पर उत्पन्न होगा? ३२-गोयमा! मियापुत्ते दारए छन्वीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इहेव जम्बुद्दीवे द्वीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले सोहकुलंसि सीहत्ताए पच्चायाहिइ / से णं तत्थ सीहे भविस्सइ अहम्मिए जाव बहुनगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारी साहसिए, सुबहुं पावकम्म समज्जिणइ, समज्जिणित्ता, कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्टि. इएसु जाव (नेरइएसु नेरइयत्ताए) उववज्जिहिइ / 1. सूत्र 111:18 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध से णं तो अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववज्जिहिइ / तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए तिणि सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उवज्जिहिइ / / से णं तनो अणंतरं उच्चट्टित्ता पक्खीसु उववज्जिहिइ / तत्थ वि कालं किच्चा, तच्चाए पुढवीए सत्त सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववज्जिहिति / से णं तो सीहेसु / तयाणंतरं चोत्थीए। उरगो, पंचमीए / इत्थीओ, छट्ठीए / मणुओ, अहे सत्तमीए। तो अणंतरं उव्वट्टित्ता से जाई इमाई जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छ-कच्छमगाह-मगर-सुसुमाराईणं अडतेरस-जाइकुल-कोडिजोणिपमुहसयसहस्साई, तत्थ णं एगमेगंसि जोणिविहाणंसि अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता, तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चायाइस्सइ / से णं तनो अणंतरं उट्टित्ता चउप्पएसु एवं उरपरिसप्पेसु, भुयपरिसप्पेसु, खहयरेसु, चरिदिएसु, तेइंदिएसु, बेइन्दिएसु, वणप्फइए कडुयरुक्खेसु, कडुयदुद्धिएसु, वाउ-तेउ-पाउ-पुढवीसु प्रणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चायाइस्सइ / से णं तमो अणंतरं उव्वट्टित्ता सुपइट्टपुरे नगरे गोणत्ताए पच्चायाहिइ / से णं तस्थ उम्मक्कबालभावे अन्नया कयाइ पढमपाउसंसि गंगाए महानईए खलीणमट्टियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालगए तत्थेव सुपइट्ठपुरे नयरे सेट्टिकुलंसि पुमत्ताए पच्चायाहिस्सइ / से णं तत्थ उम्मक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोवणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म म भवित्ता अगारामो अणगारियं पवहस्सह / से णं तत्थ इरियासमिए जाव (भासासमिए एसणासमिए प्रायाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिए, मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते, गुत्ते गुत्तिदिए गुत्त-) बंभयारी / से णं तत्थ बहूई वासाई सामण्णापरियागं पाउणित्ता पालोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उवज्जिहिइ / से णं तो अणंतरं चयं चइता महाविदेहे वासे जाइं कुलाई भवंति अड्डाई... " जहा दढपइन्ने, सा चेव बत्तव्वया, कलाओ जाव सिज्झिहिइ / ___ एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पन्नत्ते त्ति बेमि। ॥पढमं अज्झयणं समत्तं // 31- (गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान्श्री ने कहा---) हे गौतम ! मृगापुत्र दारक 26 वर्ष के परिपूर्ण आयुष्य को भोगकर मृत्यु का समय आने पर काल करके इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सिंहकुल में सिंह के रूप में उत्पन्न होगा। वह सिंह महाअधर्मी तथा पापकर्म में साहसी बनकर अधिक से अधिक पापरूप कर्म एकत्रित करेगा। वह सिंह मृत्यु का समय आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभापृथ्वी नामक पहली नरकभूमि में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है; --उन नारकियों में उत्पन्न होगा / अन्तररहित--विना व्यवधान के पहली नरक से निकलकर सीधा सरीसृपों (भुजाओं अथवा छाती के बल से चलने वाले तिर्यञ्च प्राणियों) की योनियों में उत्पन्न होगा। वहाँ से काल करके दूसरे नरक में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है, उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर सीधा पक्षी-योनि Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन ] [25 में उत्पन्न होगा / वहाँ से मृत्यु के समय काल करके सात सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले तीसरे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर सिंह की योनि में उत्पन्न होगा। वहाँ वह बड़ा अधर्मी, दूरदूर तक प्रसिद्ध शूर एवं गहरा प्रहार करने वाला होगा। वहाँ से काल करके चौथी नरकभूमि में जन्म लेगा। चौथे नरक से निकलकर सर्प बनेगा। वहाँ से पाँचवें नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर स्त्रीरूप में उत्पन्न होगा / स्त्री पर्याय से काल करके छठे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर पुरुष होगा / वहाँ से काल करके सबसे निकृष्ट सातवीं नरक भूमि में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर जो ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में मच्छ, कच्छप, ग्राह, मगर, सुसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियाँ है—उत्पत्तिस्थान हैं, एवं कुलकोटियों में, जिनकी संख्या साढ़े बारह लाख है, उनके एक एक योनि-विधान-योनि-भेद में लाखों बार उत्पन्न होकर पुनः पुनः उत्पन्न होकर मरता रहेगा। तत्पश्चात् चतुष्पदों में (चौपाये-पशु-योनि में) उरपरिसर्प-छाती के बल चलने वालों में, भुज-परिसर्प-भुजाओं के बल चलने वालों में, खेचर-आकाश में उड़ सकने वाले जीवों में, एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों में तथा वनस्पति कायान्तर्गत कटु-कड़वे वृक्षों में, कटु दुग्धवाली अर्कादि वनस्पतियों में, वायुकाय, तेजस्काय, अप्काय व पृथ्वीकाय में लाखोंलाखों बार जन्म मरण करेगा। तदनन्तर वहाँ से निकलकर सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में वृषभ (बैल) के पर्याय में उत्पन्न होगा। जब वह बाल्यावस्था को त्याग करके युवावस्था में प्रवेश करेगा तब किसी समय, वर्षाऋतु के प्रारम्भ-काल में गंगा नामक महानदी के किनारे पर स्थित मृत्तिका-मिट्टीको खोदता हुआ नदी के किनारे पर गिर जाने से पीड़ित होता हुमा मृत्यु को प्राप्त हो जायगा। मृत्यु को प्राप्त हो जाने के अनन्तर उसी सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठ के घर में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहाँ पर वह बालभाव को परित्याग कर युवावस्था को प्राप्त होने पर तथारूप-साधुजनोचित गुणों को धारण करने वाले स्थविर-वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सुनकर, मनन कर तदनन्तर मुण्डित होकर अगारवृत्ति का परित्याग कर अनगारधर्म को प्राप्त करेगा अर्थात् गृहस्थावस्था को छोड़ कर साधुधर्म को अङ्गीकार करेगा / अनगारधर्म में ईर्यासमिति युक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वह बहुत वर्षों तक यथाविधि श्रामण्य-पर्याय (साधुवृत्ति) का पालन करके आलोचना व प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर कालमास में काल प्राप्त करके सौधर्म नाम के प्रथम देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होगा। तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहाँ से च्यूत होकर (देवशरीर को छोड़कर) महाविदेह क्षेत्र में जो प्राढ्य-सम्पन्न (धनाढय) कुल हैं; उनमें उत्पन्न होगा / वहाँ उसका कलाभ्यास, प्रव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन रूप वक्तव्यता दृढप्रतिज्ञ की भांति ही समझ लेनी चाहिये। सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! इस प्रकार से निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने, जो कि मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं; दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जिस प्रकार मैंने प्रभु से साक्षात् सुना है; उसी प्रकार हे जम्बू ! मैं तुमसे कहता हूँ। // प्रथम अध्ययन समाप्त / / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन उत्क्षेप १-'जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं दुह विवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम पन्नत्ते, दोच्चस्स णं भंते / अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते?' तए णं से सुहम्मे अणगारे जम्बु अणगारं एवं क्यासी जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-हे भगवन् ! यदि मोक्ष-संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादित किया है तो हे भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने, जो यावत् मोक्ष को प्राप्त हुए हैं;-विपाकसूत्र के द्वितीय अध्ययन का क्या अर्थ बताया है ? इसके उत्तर में श्रीसुधर्मा अनगार ने श्रीजम्बू अनगार को इस प्रकार कहा २–एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नामं नयरे होत्था। रिद्धत्थिमियसमिद्ध / तस्स णं बाणियग्गामस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए दुईपलासे नामं उज्जाणे होत्था। तत्थ णं दूईपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था / तत्थ णं वाणियग्गामे मित्ते नामं राया होत्था / वण्णो / तस्स णं मित्तस्स रनो सिरी नामं देवी होत्था / वण्णओ। २-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वाणिजग्राम नामक एक नगर था जो ऋद्धिस्तिमित-समृद्ध (ऋद्ध अर्थात् गगनचुम्बी अनेक बड़े-बड़े ऊँचे महलों वाला तथा अनेकानेक जनों से व्याप्त था तथा स्तिमित–अर्थात् स्वचक्र तथा परचक्र के भय से नितान्त रहित व समृद्ध अर्थात् धनधान्य आदि महाऋद्धियों से सम्पन्न) था। उस वाणिजग्राम के उत्तरपूर्व दिशा के मध्यभागईशानकोण में दूतिपलाश नामक उद्यान था। उस दूतिपलाश संज्ञक उद्यान में सुधर्मा नाम के यक्ष का यक्षायतन था। उस वाणिजग्राम नामक नगर में मित्र नामक राजा था जिसका वर्णन-प्रकरण पूर्ववत् ही जानना। उस मित्र राजा की श्री नाम की पटरानी थी। उसका वर्णन भी पूर्ववत् ही जानना। ३-तत्थ णं वाणियग्गामे कामझया नामं गणिया होत्था। अहीण जाव (पडिपुण्णपाँचदियसरीरा लक्खण-बंजण-गुणोववेया माणुम्माण-प्पमाण-पडिपुण्ण-सुजाय-सव्वंगसुदरंगी ससिसोमाकाराकंत-पियदसणा) सुरूवा, बावत्तरिकलापंडिया, चउसद्वि-गणिया-गुणोववेया एगूगतीसविसेसे रममाणी, एकवीसरइगुणप्पहाणा बत्तीस-पुरिसोवयारकुसला, नवंगसुत्तपडिबोहिया, अट्ठारसदेसीभासाविसारया, सिंगारागारचारुवेसा, गीयरइगन्धब्व-नट्टकुसला संगय-गय-भाणिय-हसिय-विहियविलास-सललिय-संलाव-निउणजुत्तोवयारकुसला सुन्दरत्थण-जहण-क्यण-कर-चरण-नयण-लावण्ण सकलिया ऊसियजझया सहस्सलंभा, विदिण्णछत्त-चामर-वालवीयणीया, कण्णीरहप्पयाया यावि होत्था। बहूणं गणियासहस्साणं पाहेवच्चं जाव (पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं प्राणा-ईसरसेणावच्चं कारेमाणी पालेमाणी) विहरइ / ३-उस वाणिजग्राम नगर में सम्पूर्ण पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाली, लक्षणों, मसा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन | [27 तिलकादि व्यञ्जनों एवं गुणों से परिपूर्ण, प्रमाणोपेत समस्त अंगोपांगों वाली, चन्द्रमा के समान सौम्य प्राकृति से युक्त, कमनीय, सुदर्शन, परम सुन्दरी, 72 कलाओं में कुशल, गणिका के 64 गुणों से युक्त, 26 प्रकार के विशेषों-विषयगुणों में रमण करने वाली, 21 प्रकार के रतिगुणों में प्रधान, कामशास्त्र प्रसिद्ध पुरुष के 32 उपचारों में कुशल, सुप्त नव अंगों से जागृत अर्थात् जिसके नव अंग (दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिह्वा, एक त्वचा और मन) जागे हुए हैं, अठारह देशों की अठारह प्रकार की भाषाओं में प्रवीण, शृंगारप्रधान वेषयुक्त अर्थात् जिसका सुन्दर वेष मानो शृगार का घर ही हो ऐसी, गीत (संगीत-विद्या) रति (कामक्रीडा) गान्धर्व (नृत्ययुक्त गीत नाटय (नृत्यकला) में कुशल मन को आकर्षित करने वाली, उत्तम गति-गमन से युक्त (हास्य बोलचाल, व्यवहार एवं उचित उपचार में कुशल, स्तनादिगत सौन्दर्य से युक्त, गीत, नृत्यादि कलाओं से हजार मुद्रा का लाभ लेने वाली (कमाने वाली, जिसका एक रात्रि का शुल्क सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ थीं), जिसके विलास भवन पर ऊँची ध्वजा फहरा रही थी, जिसको राजा की ओर से पारितोषिक रूप में छत्र, चामर-चवर, बाल व्यजनिका—चवरी या छोटा पंखा कृपापूर्वक प्रदान किये गए थे और जो कीरथ नामक रथविशेष से गमनागमन करने वाली थी; ऐसी काम-ध्वजा नाम की गणिका-वेश्या रहती थी जो हजारों गणिकाओं का स्वामित्व, नेतृत्व करती हुई समय व्यतीत कर रही थी। उज्झितक-परिचय ४-तत्थ णं वाणियग्गामे विजयमिते नाम सत्यवाहे परिवसइ / अड्डे। तस्स णं विजयमित्तस्स सुभद्दा नाम भारिया होत्था। अहीण / ' तस्स णं विजयमित्तस्स पुत्ते सुभद्दाए भारियाए अत्तए उज्झियए नामं दारए होत्था / अहीण जाव' सुरूवे / ४--उस वाणिजग्राम नगर में विजयमित्र नामक एक धनी सार्थवाह-व्यापारीवर्ग का मुखिया निवास करता था। उस विजयमित्र की अन्यून पञ्चेन्द्रिय शरीर से सम्पन्न (सर्वाङ्गसुन्दर) सुभद्रा नाम की भार्या थी। उस विजयमित्र का पुत्र और सुभद्रा का प्रात्मज उज्झितक नामक सर्वाङ्गसम्पन्न और रूपवान् बालक था। ५-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे / परिसा निग्गया। राया जहा कूणिरो तहा निग्गयो / धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया, राया य गो। ५.---उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीरस्वामी वाणिजग्राम नामक नगर में (नगर के बाहर ईशान-कोण में स्थित दूतिपलाश उद्यान में) पधारे / प्रजा उनके दर्शनार्थ नगर से निकली। राजा भी कणिक नरेश को तरह भगवान के दर्शन को गया। भगवान ने की तरह भगवान् के दर्शन को गया / भगवान् ने धर्म का उपदेश दिया। उपदेश को सूनकर जनता तथा राजा दोनों वापिस चले गये। उज्झितक की दुर्दशा ६-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवग्रो महावीरस्स जे? अन्तेवासी इन्दभूई नामं अणगारे जाव' लेस्से छट्ठ-छ?णं जहा पण्णत्तीए पढमाए जाव-(पोरिसोए सज्झायं करेइ, बीयाए 1-2. द्वितीय प्रायन, मूत्र-३. 3. प्र. अ., सूत्र-२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध पोरिसोए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अचवलमतुरिय-मसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ, पडिलेहिता भायण-वत्थाई पडिलेहेइ, पडिले हित्ता भायणाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छ३, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अभYण्णाए समाणे छट्टक्खमणपारणगंसि वाणियग्गामे नयरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए। 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं !' तए णं भयवं गोयमे समणेण भगवया महावीरेण प्रभYण्णाए समाणे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतियायो दुइपलासाप्रो उज्जाणाम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरोरियं सोहेमाणे सोहेमाणे) जेणेव वाणियग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवगच्छित्ता उच्च-नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खा-यरियाए अडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव प्रोगाढे। तत्थ णं बहवे हत्थी पासइ, सन्नद्धबद्धवम्भियगुडिय उप्पोलियकच्छे, उद्दामिय घंटे, नानामणि-रयणविविहगेवेज्जउत्तरकंचुइज्जे, पडिकप्पिए, झय-पडागवरपंचामेल-प्रारूढ-हत्थारोहे, गहियाउहप्पहरणे। अन्ने य तत्थ बहवे प्रासे पासइ, सनद्धबद्धवम्मियगुडिए. प्राविद्धगुडे, प्रोसारियपक्खरे, उत्तरकंचुइय-प्रोचूल मुहचण्डाधर-चामर-थासगपरिमंडियकडिए, प्रारूढासारोहे गहियाउहप्पहरणे / __ अण्णे य तत्थ बहवे पुरिसे पासइ सन्नद्धबद्धवम्मियकवए, उप्पीलियसरासणपट्टिए पिणद्धगेवेज्जे, विमलकरबद्ध-चिघपट्ट, गहियाउहप्पहरणे। तेसि च णं पुरिसाणं मझगयं एगं पुरिसं पासइ अवरोडियबन्धणं उक्कित्तकण्णनासं नेहतुप्पियगत्तं, वज्झ-करकडिजुनियत्थं', कंठेगुणरत्तमल्लदाम, चण्णगुडियगतं, चुण्णयं वज्झपाणपियं तिल-तिलं चेव छिज्जमाणं कागणिमसाई खावियंतं पाव, खक्खरगसएहि हम्ममाण, अणेगनरनारोसंपरिवुडं चच्चरे चच्चरे खंडपडहएणं उग्धोसिज्जमाणं / इमं च णं एयारूव उग्घोसणं पडिसुणेइ-'नो खलु देवाणुपिया ! उज्झियगस्स दारगस्स केइ राया वा रायपुत्तो वा अवरझड; अपणो से सयाई कम्माई अवरज्झति ! ६---उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अनगार, जो कि तेजोलेश्या को संक्षिप्त करके अपने अन्दर धारण किये हुए हैं तथा बेले की तपस्या करते हुए भगवती सूत्र में वर्णित जीवनचर्या चलाने वाले हैं, जैसे कि प्रथम-प्रहर में स्वाध्याय करके, दसरे प्रहर में ध्यान और तीसरे प्रहर में मखवस्त्रिका पात्र प्रादि का प्रतिलेखन धीमी गति से भगवान् महावीर के पास गए / षष्ठ-भक्त के पारण की आज्ञा प्राप्त की। फिर वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच एवं मध्यम कुलों में भिक्षा के लिये ईर्यासमिति पूर्वक चलते हुए जहाँ राजमार्ग-प्रधान मार्ग है वहाँ पर पधारे। वहाँ (राजमार्ग में) उन्होंने अनेक हाथियों को देखा / वे हाथी युद्ध के लिये उद्यत थे, जिन्हें 1. पाठान्तर-बज्झकक्खडियजुयनियत्थं (मोदी). Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन [ 26 कवच पहिनाए हुए थे, जो शरीररक्षक उपकरण (झूल) आदि धारण किये हुए थे, जिनके उदर (पेट) दृढ़ बन्धन से बांधे हुए थे। जिनके झूलों के दोनों तरफ बड़े बड़े घण्टे लटक रहे थे / जो नाना प्रकार के मणियों और रत्नों से जड़े हुए विविध प्रकार के ग्रैवेयक (कण्ठाभूषण) पहने हुए थे तथा जो उत्तर कंचुक नामक तनुत्राणविशेष एवं अन्य कवच आदि सामग्री धारण किये हुए थे। जो ध्वजा पताका तथा पंचविध शिरोभूषण' से विभूषित थे एवं जिन पर प्रायुध व प्रहरणादि लिए हुए महावत बैठे हुए थे अथवा उन हाथियों पर आयुध (वह शस्त्र जो फेंका नहीं जा सकता, जैसे तलवार आदि) और प्रहरण (जो शस्त्र फेंके जा सकते हैं, जैसे तीर आदि) लदे हुए थे। इसी तरह वहाँ अनेक अश्वों को भी देखा, जो युद्ध के लिये उद्यत थे तथा जिन्हें कवच तथा शारीरिक रक्षा के उपकरण पहिनाए हुए थे। जिनके शरीर पर सोने की बनी हुई झूल पड़ी हुई थी तथा जो लटकाए हुए तनुत्राण से युक्त थे। जो वखतर विशेष से युक्त तथा लगाम से अन्वित मुख वाले थे। जो क्रोध से अधरों-होठों को चबा रहे थे। चामर तथा स्थासक (आभूषण-विशेष) से जिनका कटिभाग परिमंडित-विभूषित हो रहा था तथा जिन पर सवारी कर रहे अश्वारोही-घुड़सवार आयुध और प्रहरण ग्रहण किये हुए थे अथवा जिन पर शस्त्रास्त्र लदे हुए थे। ___ इसी तरह वहाँ बहुत से पुरुषों को भी देखा जो दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए लोहमय कुसूलादि से युक्त कवच शरीर पर धारण किये हुए, जिन्होंने शरासन-पट्टिका-धनुष खींचने के समय हाथ की रक्षा के लिये बांधी जाने वाली चमड़े की पट्टी--कसकर बांध रखी थी। जो गले में अवेयक-कण्ठाभरण धारण किये हुए थे। जिनके शरीर पर उत्तम चिह्नपट्टिका-वस्त्रखण्ड-निर्मित चिह्न-निशानी लगी हुई थी तथा जो आयुधों और प्रहरणों (शस्त्रास्त्र) को ग्रहण किये हुए थे। उन पुरुषों के मध्य में भगवान् गौतम ने एक और पुरुष को देखा जिसके हाथों को मोड़कर पृष्ठभाग के साथ रस्सी से बांधा हुआ था। जिसके नाक और कान कटे हुए थे। जिसका शरीर स्निग्ध (चिकना) किया गया था। जिसके कर और कटि-प्रदेश में वध्य पुरुषोचित वस्त्र-युग्म (दो वस्त्र धारण किया हुआ था अथवा बांधे हुए हाथ जिसके कडियुग (हथकड़ियों) पर रक्खे हुए थे अर्थात् जिसके दोनों हाथों में हथकड़ियाँ पड़ी हुई थी, जिसके कण्ठ में कण्ठसूत्र-धागे के समान लाल पुष्पों की माला थी, जो गेरु के चूर्ण से पोता गया था, जो भय से संत्रस्त, तथा प्राणों को धारण किये रखने का आकांक्षी था, जिसको तिल-तिल करके काटा जा रहा था, जिसको शरीर के छोटेछोटे मांस के टुकड़े खिलाए जा रहे थे अथवा जिसके मांस के छोटे-छोटे टुकड़े काकादि पक्षियों के खाने के योग्य किये जा रहे थे। ऐसा वह पापात्मा सैकड़ों पत्थरों या चाबुकों से मारा जा रहा था। जो अनेक स्त्री-पुरुष-समुदाय से घिरा हुआ और प्रत्येक चौराहे आदि पर उद्घोषित किया जा रहा था अर्थात जहाँ चार या इससे अधिक रास्ते मिले हए हों ऐसे स्थानों पर फूटे ढोल से उसके सम्बन्ध में घोषणा सुनाई जा रही थी जो इस प्रकार है हे महानुभावो ! इस उज्झितक बालक का किसी राजा अथवा राजपुत्र ने कोई अपराध नहीं किया अर्थात् इसकी दुर्दशा के लिए अन्य कोई दोषी नहीं है, किन्तु यह इसके अपने ही कर्मों का अपराध है-दोष है, जो इस दुःस्थिति को प्राप्त है ! 1. हाथी के शिर के पांच प्राभूषण बतलाए गए हैं, जैसे कि-तीन ध्वजाएँ और उनके बीच दो पताकाएं। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ७-तए णं से भगवनो गोयमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झथिए चितिए कप्पिए पथिए मणोगए संकरपे समुप्पज्जित्था-'अहो णं इमे पुरिसे जाव नरयपडिरूवियं वेयणं वेएई' त्ति कटु वाणियगामे नयरे उच्च-नीच-मज्झिमकुलाई जाव प्रडमाणे अहापज्जतं सामुदाणियं गिण्हइ, गिहित्ता वाणियगामे नयरे मज्झमझेणं जाव पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एव वयासी- 'एव खलु अहं भंते ! तुम्भेहि अब्भणुन्नाए समाणे वाणियगामं जाव तहेव वेएइ / से गं भंते ! पुरिसे पुस्वभवे के प्रासी ? जाव' पच्चणुभवमाणे विहरइ ? ७-तत्पश्चात् उस पुरुष को देखकर भगवान् गौतम को यह चिन्तन, विचार, मन:संकल्प उत्पन्न हुआ कि-'ग्रहो ! यह पुरुष कैसी नरकतुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है !' ऐसा विचार करके वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच, मध्यम (धनिक, निर्धन तथा मध्यम कोटि के) घरों में भ्रमण करते हुए यथापर्याप्त (आवश्यकतानुसार) भिक्षा लेकर वाणिजग्राम नगर के मध्य में से होते हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आये। उन्हें लाई हुई भिक्षा दिखलाई / तदनन्तर भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उनसे इस प्रकार कहने लगे हे प्रभो। आपकी आज्ञा से मैं भिक्षा के हेतु वाणिजग्राम नगर में गया। वहाँ मैंने एक ऐसे पुरुष को देखा जो साक्षात् नारकीय वेदना का अनुभव कर रहा है। हे भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो यावत् नरक जैसी विषम वेदना भोग रहा है ? पूर्वभव-विवरण ८-एवं खलु गोयमा ! लेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जम्बुद्दीवे दीवे भारते वासे हस्थिणाउरे नामं नयरे होत्था, रिद्धस्थ०२ तत्य णं हस्थिणाउरे नयरे सुणंदे णामं राया होत्था / महया हिमवत०३ महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे / तत्थ णं हस्थिणाउरे नघरे बहुमझदेसभाए महं एगे गोमण्डवे होत्था। अणंगखम्भसयसंनिविद, पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे / तत्थ णं बहवे नगरगोरूवाणं सणाहा य प्रणाहा य नगरगावीमो य नगरवलीवदा य नगरपड्डयाओ य नगरवसभा य पउरतणपाणिया निब्भया निरुब्बिग्गा सुहंसुहेणं परिवसंति / ८-हे गौतम! उस पुरुष के पूर्वभव का वृत्तान्त इस प्रकार है-उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत इस भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नामक एक समृद्ध नगर था। उस नगर का सुनन्द नामक राजा था। वह हिमालय पर्वत के समान महान् था। उस हस्तिनापुर नामक नगर के लगभग मध्यभाग में सैकड़ों स्तम्भों से निर्मित सुन्दर मनोहर, मन को प्रसन्न करने वाली एक विशाल गोशाला थी / वहाँ पर नगर के अनेक सनाथ-जिनका कोई स्वामी हो और अनाथ—जिनका कोई स्वामी न हो, ऐसी नगर की गायें, बैल, नागरिक छोटी गायें-बछड़ियाँ, भैसे, नगर के सांड, जिन्हें प्रचुर मात्रा में घास-पानी मिलता था, भय तथा उपसर्गादि से रहित होकर परम सुखपूर्वक निवास करते थे ! 1. प्रथम अ., सू. 19 2. औषपातिक–१ 3. प्रोपपातिक -14 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन ] [ 31 ६-तत्थ णं हरियणाउरे नयरे भोमे नाम क डग्गाहे होत्या, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे / तस्स णं भीमस्स कूडग्गाहस्स उप्पला नामं भारिया होत्था, अहोणपडिपुण्णचिदियसरीरा।' तए णं सा उष्पला कूडग्गाहिणी अन्नया कयाइ आवन्नसत्ता जाया यावि होत्था / तएणं णं तीसे उप्पलाए कूडग्गाहिणीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेवारूवे दोहले पाउन्भूए--- —उस हस्तिनापुर नगर में भीम नामक एक कुटनाह (धोखे से---कपटपूर्वक जीवों को फंसाने वाला) रहता था। वह स्वभाव से ही अधर्मी व कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। उस भीम कूटग्राह की उत्पला नामक भार्या थी जो अहीन (अन्यून) पंचेन्द्रिय वाली थी। किसी समय वह उत्पला गर्भवती हुई। उस उत्पला नाम की कूटग्राह की पत्नी को पूरे तीन मास के पश्चात् इस प्रकार का दोहद-मनोरथ (जो कि गर्भिणी स्त्रियों को गर्भ के अनुरूप उत्पन्न होता है) उत्पन्न हुमा १०–'धन्नाप्रो णं तानो अम्मयानो [संपुण्णासोपंतानो अम्मयात्रो, कयस्थानो णं तानो अम्मयायो, कयपुण्णासो गं तारो अम्मयानो, कयलक्खणानो णं ताओ अम्मयाओ, कविहवासो गं ताप्रो अम्मयानो, सुलद्ध णं तासि माणुस्सए जम्मजीवियफले जानो णं बहूणं नगरगोरूवाणं सणाहाण य जाव वसहाण य ऊहेहि य थणेहि य वसणेहि य छप्पाहि य ककुहेहि य वहेहि य कण्णेहि य अच्छोहि य नासाहि य जिज्भाहि य श्रोट दिय: हि य कम्बलेहि यसोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य परिसुक्केहि य लावणेहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीहुं च पसन्नं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीप्रो. परिभाएमाणोनो परिभुजेमाणीयो दोहलं विणेति / तं जइ णं अहमवि बहूणं नगर जाव: विणिज्जामि' त्ति कटट तंसि दोहलंसि प्रविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा मोलुग्गा अोलुग्गसरीरा नित्तया दीण-विमण-वयणा पंडुल्लइयमुहा प्रोमंथिय-नयण-वयणकमला जहोइयं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकाराहारं अपरिभुजमाणी करयलमलियन्च कमलमाला प्रोहय जाव (मणसंकप्पा करयलपल्हत्थमुही अट्टज्माणोवगया भूमिगयदिट्ठीया) झियाइ / १०–वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, सुलक्षणा हैं, उनका ऐश्वर्य सफल है, उनका मनुष्यजन्म और जीवन भी सार्थक है, जो अनेक अनाथ या सनाथ नागरिक पशुओं यावत् वृषभों के ऊधस् (वह थैली जिसमें दूध भरा रहता है) स्तन, वृषण-अण्डकोष, पूछ, ककुद् (स्कन्ध का ऊपरी भाग) स्कन्ध, कर्ण, नेत्र, नासिका, जीभ, ओष्ठ (होंठ) कम्बल-सास्ना (गाय के गले का चमड़ा) जो कि शूल्य (शूला-प्रोत), तलित (तले हुए) भृष्ट (भुने हुए), शुष्क (स्वयं सूखे हुए) और लवणसंस्कृत मांस के साथ सुरा, मधु (पुष्पनिष्पन्न मदिरा-विशेष) मेरक (मद्य विशेष जो तालफल से निर्मित होती है) सीधु (एक विशेष प्रकार की मदिरा जो गुड़ व धान के मेल से निष्पन्न होती है) प्रसन्ना (वह मदिरा जो द्राक्षा आदि से बनती है। इन सब मद्यों का सामान्य आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन-वितरण (दूसरों को बाँटती हुई) तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं / काश ! मैं भी अपने दोहद को इसी प्रकार पूर्ण करूं। इस विचार के अनन्तर उस दोहद के पूर्ण न होने से वह उत्पला नामक कटग्राह की पत्नी सूखने लगी, (भोजन न करने से बल रहित होकर) भूखे व्यक्ति के समान दीखने लगी, मांस रहित१. द्वि. अ., सूत्र-३ 2. द्वि. अ., सूत्र-८ 3. द्वि. अ., सूत्र--८ T रूप में Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [विपाकसूत्र---प्रथम श्रु तस्कन्ध अस्थि-शेष हो गयी, रोगिणी व रोगी के समान शिथिल शरीर वाली, निस्तेज-कान्ति रहित, दीन तथा चिन्तातुर मुख वाली हो गयी। उसका बदन फीका तथा पीला पड़ गया, नेत्र तथा मुख-कमल मुर्भा गया, यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माल्य-फूलों की गूथी हुई माला-आभूषण और हार आदि का उपभोग न करने वाली, करतल से मदित कमल को माला की तरह म्लान हुई कर्तव्य व अकर्तव्य के विवेक से रहित चिन्ताग्रस्त रहने लगी। ११-इमं च णं भीमे कडग्गाहे जेणेव उप्पला कडग्गाहिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय० जाव पासइ, एवं वयासी-कि गं तुमे देवाणुप्पिए ! प्रोहय जाव झियासि ?' तए णं सा उप्पला भारिया भीमं कूडग्गाहं एवं वयासी-'एवं खलु, देवाणुप्पिया ! मम तिण्हं मासाणं बहुपडिपुग्णाणं दोहला पाउन्भूया-'धन्ना णं तारो जाओ णं बहूणं गोरूवाणं ऊहेहि य जाव लावणेहि य सुरं च 6 आसाएमाणीयो.४ दोहलं विणेति / ' तए णं अहं देवाणुप्पिया! तसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाव झियामि।' / 11- इतने में भीम नामक कूटग्राह, जहाँ पर उत्पला नाम की कूटग्राहिणी थी, वहाँ पाया और उसने आर्तध्यान ध्याती हुई चिन्ताग्रस्त उत्पला को देखा / देखकर कहने लगा---'देवानुप्रिये ! तुम क्यों इस तरह शोकाकुल, हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान में मग्न हो रही हो? तदनन्तर वह उत्पला भार्या भीम नामक कूटग्राह को इस प्रकार कहने लगी-स्वामिन् ! लगभग तीन मास पूर्ण होने पर मुझे यह दोहद उत्पन्न हुमा कि वे माताएँ धन्य हैं, कि जो चतुष्पाद पशुओं के ऊधस् स्तन आदि के लवण-संस्कृत माँस का अनेक प्रकार की मदिराओं के साथ प्रास्वादन करती हई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। उस दोहद के पूर्ण न होने से निस्तेज व हतोत्साह होकर मैं प्रार्तध्यान में मग्न हूँ। (यहाँ पूर्वोक्त विवरण समझ लेना चाहिये / ) १२-तए णं से मीमे कडग्गाहे उप्पलं भारियं एवं बयासी-'मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! प्रोहयमणसंकप्पा जाब झियाहि अहं णं तहा करिस्सासि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ।' ताहि इटाहि जाव (कंताहि पियाहि मणुण्णाहिं मणामाहि) वहिं समासासेइ / / तए णं से भीमे कूडग्गाहे प्रद्धरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्ध जाव (बद्धवम्मियकवए उप्पीलियसरासणपट्टीए पिणद्धगेवेज्जे विमलवरबद्धचिधपट्ट गहियाउह) पहरणे सयानो गिहारो निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता हस्थिणारं नयरं मझमझेणं जेणेव गोमण्डवे तेणेव उवागए, बहूर्ण नगरगोरुवाणं जाव वसभाण य अप्पेगइयाणं ऊहे छिदइ जाव अपेगइयाणं कंबले छिदइ, अप्पेगइयाणं अन्नमनाइं अंगोवंगाई वियंगेइ, वियंगेत्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उप्पलाए कूडग्गाहिणीए उवणेइ / तए णं सा उप्पला भारिया तेहिं बहूहि गोमंसेहि य सोल्लेहि य सुरं च-५ प्रासाएमाणी-४ तं दोहलविणेइ / तए णं सा उप्पला कडग्गाहिणी संपुण्णदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला संपन्नदोहला तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ / / १२-तदनन्तर उस भीम कटग्राह ने अपनी उत्पला भार्या से कहा-देवानुप्रिये ! तुम चिन्ताग्रस्त वार्तध्यान युक्त न होओ, मैं वह सब कुछ करूंगा जिससे तुम्हारे इस दोहद' की परिपूर्ति हो जायगी / इस प्रकार के इष्ट, प्रिय, कान्त, मनोहर, मनोज्ञ वचनों से उसने उसे समाश्वासन दिया। तत्पश्चात् भीम कुटग्राह आधी रात्रि के समय अकेला ही दृढ कवच पहनकर, धनुष-बाण Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन ] से सज्जित होकर, ग्रं वेयक धारण कर एवं ग्रायुध प्रहरणों को लेकर अपने घर से निकला और हस्तिनापुर नगर के मध्य से होता हुआ जहाँ पर गोमण्डप था वहाँ पर आया, और आकर वह नागरिक पशुयों यावत् वृषभों में से कई एक के ऊधस्, कई एक के सास्ना-कम्बल आदि व कई एक के अन्यान्य अङ्गोपाङ्गों को काटता है और काटकर अपने घर आता है। पाकर अपनी भार्या उत्पला को दे देता है। तदनन्तर वह उत्पला उन अनेक प्रकार के शूल आदि पर पकाये गये गोमांसों के साथ अनेक प्रकार की मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करती हुई अपने दोहद को परिपूर्ण करती है / इस तरह वह परिपूर्ण दोहद वाली, सन्मानित दोहद वाली, विनीत दोहद वाली, व्युच्छिन्न दोहद वाली व सम्पन्न दोहद वाली होकर उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है / १३-तए णं सा उप्पला कूडग्गाहिणी अनया कयाइ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तए णं तेणं दारएणं जायमेत्तेणं चेव महया महया चिच्ची सद्देणं विघुट्ठ विस्सरे प्रारसिए / तए णं तस्स दारगस्स प्रारसिय-सह सोच्चा निसम्म हस्थिणाउरे नयरे बहवे नगरगोरूवा जाव वसभा य भीया तत्था तसिया उबिगा सम्वनो समंता विपलाइत्था। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं नामधेज्ज करेन्ति--'जम्हा णं अम्हं इमेणं दारएणं जायमेत्तेणं चेव महया महया चिच्ची सद्दणं विध? विस्सरे प्रारसिए, तए णं एयस्स दारगस्स प्रारसियसई सोच्चा निसम्म हत्थिमाउरे नयरे बहवे नगरगोरूवा जाव भीया तत्था तसिया उद्विग्गा, सव्वनो समंता विप्पलाइत्था, तम्हा णं होउ अम्हं दारए 'गोतासए' नामेणं / तए णं से गोत्तासए दारए उम्मुक्कबालभावे जाए यावि होत्था / १३-तदनन्तर उस उत्पला नामक कूटग्राहिणी ने किसी समय नव-मास परिपूर्ण हो जाने पर पुत्र को जन्म दिया। जन्म के साथ ही उस बालक ने अत्यन्त कर्णकटु तथा चीत्कारपूर्ण भयंकर आवाज की। उस बालक के कठोर, चीत्कारपर्ण शब्दों को सनकर तथा अवधारण कर हस्तिनापर नगर के बहुत से नागरिक पशु यावत् वृषभ आदि भयभीत व उद्वेग को प्राप्त होकर चारों दिशाओं में भागने लगे। इससे उसके माता-पिता ने इस तरह उसका नाम-संस्करण किया कि जन्म के साथ ही इस बालक ने 'चिच्ची' चीत्कार के द्वारा कर्णकटु स्वर युक्त प्राक्रन्दन किया, इस प्रकार के उस कर्णकटु, चीत्कारपूर्ण आक्रन्दन को सुनकर तथा अवधारण कर हस्तिनापुर के गौ आदि नागरिक पशु भयभीत व उद्विग्न होकर चारों तरफ भागने लगे, अतः इस बालक का नाम गोत्रास (गाय आदि पशुओं को त्रास देने वाला) रक्खा जाता है। तदनन्तर यथासमय उस गोत्रास नामक बालक ने बाल्यावस्था को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश किया। 14-- तए णं से भीमे कूडग्गाहे अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते / तए णं से गोत्तासए दारए बहुएणं मित्त-नाइ-नियग-सयण सम्बन्धि-परियणेणं सद्धि संपरिवुड़े रोयमाणे कन्दमाणे विलवमाणे भीमस्स कूडग्गाहस्स नोहरणं करेइ, करेत्ता बहूहि लोइयमयकिच्चाई करेइ / तए णं से सुनंद राया गोत्तासं दारयं अन्नया कयाइ सयमेव कूडग्गाहत्ताए ठावेइ / तए णं से गोतासे दारए कूडग्गाहे जाए यावि होत्था--अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [विपाकसूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध १४-तत्पश्चात् (गोत्रास के युवक हो जाने पर) भीम कुटग्राह किसी समय कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुआ। तब गोत्रास बालक ने अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से परिवत होकर रुदन, विलपन तथा प्राक्रन्दन करते हुए अपने पिता भीम कूटग्राह का दाहसंस्कार किया। अनेक लौकिक मृतक-क्रियाएँ की। तदनन्तर सुनन्द नामक राजा ने किसी समय स्वयमेव गोत्रास बालक को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया। गोत्रास भी (अपने पिता की ही भांति) महान् अधर्मी व दुष्प्रत्यानन्द (बड़ी कठिनता से प्रसन्न होने वाला) था। १५--तए णं से गोत्तासे दारए कडग्गाहिताए कल्लाकल्लि प्रद्धरत्तियकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्ध बद्धकवए जाव गहिया-उहप्पहरणे सयाओ गिहाप्रो निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव गोमण्डवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं नगरगोरूवाणं सणाहाण य जाव' वियंगेइ, जेणेद सए गिहे तेणेव उवागए। तए णं से गोत्तासे कडग्गाहे तेहिं बहूहि गोमंसेहि य सोल्लेहि य जाव (तलिएहि य मज्जिएहि य परिसुक्केहि य लावणेहि य सुरं च 6 आसाएमाणे विसाएमाणे जाव विहरइ। तए णं से गोत्तासए कूडग्गाहे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं समज्जिणित्ता पंचवाससयाई परमाउयं पालइत्ता अट्टदुहट्टोवगए कालमासे कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसं तिसागरोवमठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / 15- उसके बाद वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन आधी रात्रि के समय सैनिक की तरह तैयार होकर कवच पहिनकर और शस्त्रास्त्रों को धारण कर अपने घर से निकलता / निकलकर गोमण्डप में जाता / वहाँ पर अनेक गौ आदि नागरिक पशुओं के अंङ्गोपाङ्गों को काटकर अपने घर आ जाता / आकर उन गौ आदि पशुओं के शूलपक्व तले, भुने, सूखे और नमकीन मांसों के साथ मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करता हुआ जीवनयापन करता। तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मोंवाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, इस प्रकार की पाप-विद्या को जानने वाला तथा ऐसे क्र र आचरणों वाला नाना प्रकार के पापकर्मों का उपार्जन कर पांच सौ वर्ष का पूरा आयुष्य भोगकर चिन्ता और दुःख से पीड़ित होकर मरणावसर में काल करके उत्कृष्ट तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले दूसरे नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। १६-तए णं विजयमित्तस्स सस्थवाहस्स सुभद्दा नामं मारिया जानिदुया यावि होत्था / जाया जाया दारगा विणिहायमावज्जति / तए णं से गोत्तासे कूडग्गाहे दोच्चाए पुढवीए अणंतरं उध्वट्टित्ता इहेव वाणियगामे नयरे विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दाए मारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उपवन्न / तए णं सा सुभद्दा सस्थवाही प्रनया कयाइ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। १६-विजयमित्र की सुभद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका (जन्म लेते ही मरने वाले बच्चों को जन्म देने वाली) थी। अतएव जन्म लेते ही उसके बालक विनाश को प्राप्त हो जाते (मर जाते) थे / तत्पश्चात् वह गोत्रास कूटनाह का जीव भी दूसरे नरक से निकलकर सीधा इसी वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा नाम की भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुा-गर्भ में 1. द्वि. अ. सूत्र Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन [35 आया। तदनन्तर किसी अन्य समय में नव मास परिपूर्ण होने पर सुभद्रा सार्थवाही ने पुत्र को जन्म दिया। १७–तए णं सा सुभद्रा सत्यवाही तं दारगं जायमेतयं चेव एगते उक्कुरुडियाए उज्झावेइ, उज्झावित्ता दोच्चंपि गिण्हावेइ गिहावित्ता अणुपुत्वेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी संवड्ढेइ। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइवडियं च चन्दसूरपासणियं च जागरियं च महया इड्ढीसक्कारसमुदएणं करेन्ति / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्ते, संपत्ते बारसमे दिवसे इममेयारूवं गोणं गुणनिष्फन्न नामधेज्जं करेन्ति-'जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्तए चेव एगते उक्कुरुडियाए उज्झिए, तम्हा णं होउ अम्हं दारए उज्झिए नामेणं / तए णं से उज्झिए दारए पंचधाईपरिग्गहिए, तं जहा-खीरधाईए मज्जणधाईए मण्डणधाईए कोलावणधाईए अंकधाईए, जहा दढपइन्ने, जाव निव्वाधाए गिरिकन्दरमल्लीणे विव चम्पकपायवे सुहंसुहेणं परिवड्ढइ। १७–तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही उस बालक को जन्मते ही एकान्त में कूड़े-कर्कट के ढेर पर डलवा देती है, और पुनः उठवा लेती है। तत्पश्चात् क्रमश: संरक्षण व संगोपन करती हुई उसका परिवर्द्धन करने लगती है। उसके बाद उस बालक के माता-पिता स्थितिपतित-कुलमर्यादा के अनुसार पुत्रजन्मोचित बधाई बांटने आदि की क्रिया करते हैं। चन्द्र-सूर्य-दर्शन-उत्सव व जागरण महोत्सव भी महान् ऋद्धि एवं सत्कार के साथ करते हैं / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ग्यारहवें दिन के व्यतीत हो जाने पर तथा बारहवां दिन आ जाने पर इस प्रकार का गौण-गुण से सम्बन्धित व गुणनिष्पन्न-गुणानुरूप नामकरण करते हैं क्योंकि हमारा यह बालक एकान्त में उकरड़े-कचरा फेंकने की जगह पर फेंक दिया गया था, अतः हमारा यह बालक 'उज्झितक' नाम से प्रसिद्ध हो। तदनन्तर बह उज्झितक कुमार पांच धायमाताओं की देखरेख में रहने लगा। उन धायमाताओं के नाम ये हैं-क्षीरधात्रीदूध पिलाने वाली, स्नानधात्री-स्नान कराने वाली, मण्डनधात्री---वस्त्राभूषण से अलंकृत करने वाली, क्रीडापनधात्री-क्रीडा कराने वाली, और अङ्कधात्री-गोद में उठाकर खिलाने वाली। इन धायमाताओं के द्वारा दृढ़प्रतिज्ञ की तरह निर्वात-वायु से रहित एवं निर्व्याघात-पाघात से रहित, पर्वतीय कन्दरा में अवस्थित चम्पक वृक्ष की तरह सुखपूर्वक वृद्धि को प्राप्त होने लगा। १८-तए णं से विजयमित्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिछेज्ज च चउन्विहं भंडगं गहाय लवणसमुहं पोयवहणेण उवागए। तए णं से तत्थ लवणसमुद्दे पोयविपत्तीए निव्वुड्डभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुत्ते / तए णं तं विजयमित्तं सत्यवाहं जे जहा बहवे ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सत्यवाहा लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए छूढं निव्वुड्डभउसारं कालधम्मुणा संजुत्तं सुणेन्ति, ते तहा हत्थनिक्खेवं च बाहिरभाण्डसारं च गहाय एगते अवक्कमति ! 1. प्रस्तुत सूत्र में हस्तनिक्षेप ब बाह्यभाण्डसार इन शब्दों का प्रयोग किया गया है, प्राचार्य अभयदेव सरि ने इन पदों की निम्न व्याख्या की है-'हस्तेनिक्षेपो-न्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यस्य तद् हस्तनिक्षेपम्, हस्तनिक्षेपव्यतिरिक्तं च भाण्डसारम। धरोहर को हस्तनिक्षेप कहते हैं अर्थात् किसी की साक्षी के बिना अपने हाथ से दिया गया सारभाण्ड हस्तनिक्षेप है और किसी को साक्षी से लोगों की जानकारी में दिया गया सारभाण्ड बाह्यभाण्डसार के नाम से प्रचलित है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 18 -- इसके बाद विजय मित्र सार्थवाह ने जहाज द्वारा गणिम (गिनती से बेची जाने वाली वस्तु, जैसे नारियल), धरिम (जो तराजू से तोलकर बेची जाय, जैसे घृत, तेल, शर्करा आदि), मेय (मापकर बेचे जाने योग्य पदार्थ जैसे कपड़ा, फीता आदि) और पारिच्छेद्य (जिन वस्तुओं का क्रयविक्रय परीक्षाधीन हो, जैसे हीरा, पन्ना आदि) रूप चार प्रकार की बेचने योग्य वस्तुएँ लेकर लवणसमुद्र में प्रस्थान किया। परन्तु लवण-समुद्र में जहाज के विनष्ट हो जाने से विजयमित्र की उपयुक्त चारों प्रकार की महामूल्य वस्तुएँ जलमग्न हो गयीं और वह स्वयं त्राण रहित (जिसकी कोई रक्षा करने वाला न हो) और अशरण (जिसको कोई आश्रय देने वाला न हो) होकर कालधर्म को प्राप्त हो गया। तदनन्तर ईश्वर, तलवर, माडम्बिक, कौटुम्बिक, इभ्य–धनी, श्रेष्ठी-सेठ तथा सार्थवाहों ने जब लवण समुद्र में जहाज के नष्ट और महामूल्य वाले ऋयाणक के जलमग्न हो जानेपर त्राण और शरण से रहित विजयमित्र की मृत्यु का वृत्तान्त सुना तो वे हस्तनिक्षेप-धरोहर व वाह्य (उसके अतिरिक्त) भाण्डसार को लेकर एकान्त स्थान में (वाणिजग्राम से बाहर ऐसे स्थान पर कि जिसका दूसरों को पता न चल सके) चले गये। १६-तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही विजयमित्तं सत्यवाहं लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए निव्वुडभाण्डसारं कालधम्मुणा संजत्तं सुणेइ, सुणित्ता महया पइसोएणं प्रप्फुन्ना समाणी परसुनियत्ता विवचम्पगलया धस त्ति धरणीयलंसि सव्वंगेण संनिवडिया / तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही महत्तन्तरेण प्रासत्था समाणी बहूहि मित्त जाव (-नाइ-नियग-सजण-संबंधि-परिययेणं) सद्धि परिवडा रोयमाणी कन्दमाणी विलवमाणी विजयमित्त-सत्यवाहस्स लोइयाई मयकिच्चाई करेइ / तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही अन्नया कयाइ लवणसमुद्दोत्तरणं च लच्छिविणासं च पोविणासं च पइमरणं च प्रणचिन्तेमाणी अणुचिन्तेमाणी कालधम्मुणा संजुत्ता। १९—तदनन्तर सुभद्रा सार्थवाही ने जिस समय लवणसमुद्र में जहाज के नष्ट हो जाने के कारण भाण्डसार के जलमग्न हो जाने के साथ विजयमित्र सार्थवाह की मृत्यु के वृत्तान्त को सुना, तब वह पतिवियोगजन्य महान् शोक से ग्रस्त हो गई। कुल्हाड़े से कटी हुई चम्पक वृक्ष की शाखा की तरह धड़ाम से पृथ्वीतल पर गिर पड़ी। तत्पश्चात् वह सुभद्रा-सार्थवाही एक मुहर्त के अनन्तर अर्थात् कुछ समय के पश्चात् आश्वस्त हो अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों तथा परिजनों से घिरी हुई रुदन क्रन्दन विलाप करती हुई विजयमित्र के लौकिक मृतक-क्रियाकर्म करती है / तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही किसी अन्य समय लवणसमुद्र में पति का गमन, लक्ष्मी का विनाश, पोत-जहाज का जलमग्न होना तथा पति की मृत्यु की चिन्ता में निमग्न रहती हुई काल-धर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गयी। १६-तए णं ते नगरगुत्तिया सुभद्द सत्यवाहि कालगयं जाणित्ता उज्झियगं दारगं सयानो गिहालो निच्छुभेन्ति, निच्छुभित्ता तं गिहं अन्नस्स दलयन्ति / तए णं से उझियए दारए सयानो गिहाम्रो निच्छूढे समाणे वाणियगामे नगरे सिंघाडग जाव (तिग-चउक्क-चच्चर-महापह-) पहेसु जूथखलएसु, वेसियाघरेसु पाणागारेसु य सुहंसुहेणं परिवडइ / से उझियए दारए अणहिट्टिए अनिवारए सच्छन्दमई सइरप्पयारे मज्जष्पसंगो चोरजयवेसदारप्पसंगी जाए यावि होत्था। लए णं से उझियए अन्नया कयाइं कामझयाए गणियाए संपलग्गे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन] जाए यावि होत्था / कामज्झयाए गणियाए सद्धि विउलाई उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहर। १६-तदनन्तर नगररक्षक पुरुषों ने सुभद्रा सार्थवाही की मृत्यु के समाचार जानकर उज्झितक कुमार को अपने घर से निकाल दिया और उसके घर को किसी दूसरे को (जो उज्झितक के पिता से रुपये मांगता था, अधिकारी लोगों ने उज्झितक को निकाल कर रुपयों के बदले उसका घर उस उत्तमर्ण को) सौंप दिया। अपने घर से निकाला जाने पर वह उज्झितक कुमार वाणिजग्राम नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ, चत्वर, राजमार्ग एवं सामान्य मार्गों पर, द्यूतगृहों, वेश्यागृहों व मद्यपानगृहों में सुखपूर्वक भटकने लगा। तदनन्तर बेरोकटोक स्वच्छन्दमति एवं निरंकुश बना हुआ वह चौर्यकर्म, द्यूतकर्म, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन में आसक्त हो गया / तत्पश्चात् किसी समय कामध्वजा वेश्या के साथ विपुल, उदारप्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। 20 तए णं तस्स विजयमित्तस्स रनो अन्नया कयाइ सिरीए देवीए जोणिसूले पाउनभए यावि होत्था। नो संचाएइ विजयमित्ले राया सिरोए देवीए सद्धि उरालाई माण्णुस्सगाई भोग-भोगाई भुजमाणे विहरित्तए। तए णं विजयमित्ते राया अन्नया कयाई उज्झियदारयं कामज्झाए गणियाए गिहाम्रो निच्छभावेड, निच्छभावित्ता कामज्झयं गणियं अभितरियं ठावेइ, ठावइत्ता कामझयाए गणिपाए सद्धि उरालाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ / 20- तदनन्तर उस विजयमित्र राजा की श्री नामक देवी को योनिशूल (योनि में होने वाला वेदना-प्रधान रोग) उत्पन्न हो गया / इसलिये विजयमित्र राजा अपनी रानी के साथ उदार-प्रधान मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों को भोगने में समर्थ न रहा। अत: अन्य किसी समय उस राजा ने उज्झितककुमार को कामध्वजा गणिका के स्थान से निकलवा दिया और कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार-प्रधान विषयभोगों का उपभोग करने लगा। २१–तए णं से उज्झियए दारए कामज्झयाए गणियाए गिहाम्रो निच्छुभेमाणे कामज्झयाए गणिपाए मुच्छिए, गिद्ध, गढिए, प्रज्झोववन्ने अन्नत्य कत्थइ सुई च रइं च धिइंच प्रविन्दमाणे तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदभवसाणे तट्टोवउत्ते तयप्पिथकरणे तब्भावणाभाविए कामज्झयाए गणियाए बहणि अन्तराणि य छिड्डाणि य पडिजागरमाणे-पडिजागरमाणे विहरइ। तए णं से उझियए दारए अन्नया कयाइ कामज्झयं गणियं अंतरं लभेइ, लभित्ता कामज्झयाए गणियाए गिह रहसियं अणुप्पविसइ, अणुप्पबिसित्ता. कामज्झयाए गणियाए सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। २१–तदनन्तर कामध्वजा गणिका के घर से निकाले जाने पर कामध्वजा गणिका में मूच्छित (उसके ही ध्यान में मूढ---पागल बना हुआ) गृद्ध (उस वेश्या की ही आकांक्षा---इच्छा रखने वाला) ग्रथित (उसके ही स्नेहजाल में जकड़ा हुआ) और अध्युपपन्न (उस वेश्या की ही चिन्ता में प्रासक्त Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध रहने वाला) वह उज्झितक कुमार अन्यत्र कहीं भी स्मृति--स्मरण, रति—प्रीति व धृति-मानसिक शान्ति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त व मन को लगाए हुए, तद्विषयक परिणामवाला, तद्विषयक अध्यवसाय-योगक्रिया, उसी सम्बन्धी प्रयत्न-विशेष वाला, उसकी ही प्राप्ति के लिए उद्यत, उसी में मन वचन और इन्द्रियों को समर्पित करने वाला, उसी की भावना से भावित होता हुया कामध्वजा वेश्या के अनेक अन्तर (ऐसा अवसर कि जिस समय राजा का आगमन न हो) छिद्र (राज-परिवार का कोई व्यक्ति भी न हो) व विवर (कोई सामान्य पुरुष भी जिस समय न हो) की गवेषणा करता हुआ जीवनयापन कर रहा था। तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किसी अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्तकर गुप्तरूप से उसके घर में प्रवेश करके कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करता हुआ जीवनयापन करने लगा! २२-इमं च णं बलमित्त राया हाए जाव (कयबलिकम्मे कयकोउअमंगल) पायच्छित्ते सवालंकारविमूसिए मणुस्सवागुरापरिक्खित्ते जेणेव कामझयाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ णं उज्झियए दारए कामझयाए गणियाए सद्धि उरालाई भोग-मोगाई जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता प्रासुरुत्ते रुट्ठ, कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियभिडिं निडाले साहटु उझियगं दारगं पुरिसेहि गिण्हावेइ, गेण्हावित्ता अढि-मुट्ठि-जाण-कोप्पर-पहार-संभग्ग-महियगतं करेइ, करेत्ता प्रवप्रोडयबन्धणं करेइ, करेत्ता एएणं विहाणेणं वज्झं माणवेइ / एवं खलु, गोयमा ! उज्झियए दारए पुरापोराणाणं कम्माणं जाव पच्चणभवमाणे विहरइ / २२–इधर किसी समय बलमित्र नरेश, स्नान, बलिकर्म, कौतुक, मंगल (दुष्ट स्वप्नों के फल को विनष्ट करने के लिये) प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं मांगलिक कार्य करके सर्व अलंकारों से अलंकृत हो, मनुष्यों के समूह से घिरा हुआ कामध्वजा वेश्या के घर गया। वहाँ उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देखा / देखते ही वह क्रोध से लाल-पीला हो गया। मस्तक पर त्रिवलिक भृकुटि-तीन रेखाओं वाली भोंह (लोचन-विकारविशेष) चढ़ाकर अपने अनुचरों के द्वारा उज्झितक कुमार को पकड़वाया। पकड़वाकर यष्टि (लकड़ी), मुष्टि (मुक्का), जानु (घुटना), कूर्पर (कोहनी) के प्रहारों से उसके शरीर को चूरचूर और मथित करके अवकोटक बन्धन (जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ भाग में ले जाकर हाथों के साथ बांधा जाय) से बांधा और बाँधकर 'इसी प्रकार से यह बध्य है' (जैसा तुमने देखा है) ऐसी प्राज्ञा दी। हे गौतम ! इस प्रकार वह उज्झितक कुमार पूर्वकृत पापमय कर्मों का फल भोग रहा है / उज्झितक का भविष्य २३--'उझियए णं भंते ! दारए इमो कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ, कहि उववन्जिहिइ ?' गोयमा ! उज्झियए दारगे पणवीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता अज्जेव तिभागावसेसे दिवसे सूलोभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किच्वा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उववज्जिहिइ / For Private & Personal use only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन] से गं तसो प्रणंतरं उम्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयड्ढगिरिपायमूले वाणरकुलंसि वाणरत्ताए उववन्जिहिइ / से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तिरियमोगेसु मुच्छिए, गिद्ध, गढिए, अझोववन्ने, जाए जाए वाणरपेल्लए वहेइ / तं एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे कालमासे कालं किच्चा इहेब जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे इन्दपुरे नयरे गणियाकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिह / तए णं तं दारयं अम्मापियरो जायमेत्तकं वद्ध हिन्ति, नपुंसगकम्मं सिक्खाबेहिति / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो निव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं नामधेज्ज करेहिति, तं जहा-'होउ णं अम्हं इमें दारए पियसेणे नामं नपुसए।' तएणं से पियसेणे नपुसए उम्मुक्कबालभावे जोवणगमणुष्पत्ते विन्नयपरिणयमेत्ते रूवेण य जोव्वणेण य लावण्णण य उक्किट्ठ उक्किट्ठसरीरे भविस्सइ / तएणं से पियसेणे नसए इन्दपुरे नयरे वहवे राईसर-जाव (तलवर-माइंबिय-कोडुबिय-इब्भसेटि-सेणावइ-) पभिइयो बहूहि य विज्जापयोगेहि य मंतचुण्णेहि य हियउड्डावणाहि य निण्हवणेहि य पण्हवणेहि य वसीकरणेहि य ाभियोगिएहि य अभियोगिता उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरिस्सइ। 23-- गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-हे प्रभो ! यह उज्झितक कुमार यहाँ से कालमास में काल करके कहाँ जायगा? और कहाँ उत्पन्न होगा ? भगवान्-गौतम ! उज्झितक कुमार 25 वर्ष की पूर्ण आयु को भोगकर आज ही त्रिभागावशेष दिन में (दिन के चौथे प्रहर में) शूली द्वारा भेद को प्राप्त होकर कालमास में काल करके-मर कर रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारक रूप में उत्पन्न होगा। वहां से निकलकर सीधा इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष के वैताढय पर्वत के पादमूल-तलहटी (पहाड़ के नीचे की भूमि में) वानर कुल में वानर के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ पर बालभाव को त्यागकर युवावस्था को प्राप्त होता हुआ वह पशु सम्बन्धी भोगों में मूच्छित, गृद्ध-ग्रथित भोगों के स्नेहपाश में जकड़ा हुआ और भोगों ही में मन को लगाए रखने वाला होगा / वह उत्पन्न हुए वानरशिशुओं का अवहनन (घात) किया करेगा। ऐसे कुकर्म में तल्लीन हुआ वह काल-मास में काल करके इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत इन्द्रपुर नामक नगर में गणिका के घर में पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। माता-पिता उत्पन्न होते ही उस बालक को वद्धितक (नपुसक) बना देंगे और नपुसक के कार्य सिखलाएंगे / बारह दिन के व्यतीत हो जाने पर उसके माता-पिता उसका 'प्रियसेन' यह नामकरण करेंगे / बाल्यभाव को त्याग कर युवावस्था को प्राप्त तथा विज्ञ-विशेष ज्ञान वाला, एवं बुद्धि प्रादि की परिपक्व अवस्था को उपलब्ध करने वाला वह प्रियसेन नपुसक रूप, यौवन व लावण्य के द्वारा उत्कृष्ट-उत्तम और उत्कृष्ट शरीर वाला होगा। तदनन्तर वह प्रियसेन नपुंसक इन्द्रपुर नगर के राजा, ईश्वर यावत अन्य मनुष्यों को अनेक प्रकार के प्रयोगों से, मन्त्रों से मन्त्रित चूर्ण, भस्म आदि से, हृदय को शून्य कर देने वाले, अदृश्य कर देने वाले, वश में करने वाले, प्रसन्न कर देने वाले और पराधीन कर देने वाले प्रयोगों से वशीभूत करके मनुष्य सम्बन्धी उदार भोगों को भोगता हुअा समययापन करेगा। __२४--तए णं से पियसेणे नसए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म समज्जिणित्ता एकवीसं वाससयं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध पुढवीए नेरइयत्ताए उववज्जिहिइ / तत्तो सरीसवेसु संसारो तहेव जहा पढमे जाव पुढवि० / से णं तो अणंतरं उवट्टित्ता इहेब जम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए महिसत्ताए पच्चायाहिइ / से गं तत्थ अन्नया कयाइ गोहिल्लएहि जीवियाओ ववरोविए समाणे तत्थेव चम्पाए नयरीए सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ / से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुझिहिइ, अणगारे भविस्सइ, सोहम्मे कप्पे, जहा पढमे, जाव अंतं करेहिइ, ति निक्खेवो। इस तरह वह प्रियसेन नपुसक इन पापपूर्ण कामों में ही (अपना कर्तव्य, प्रधान लक्ष्य, विज्ञान एवं सर्वोत्तम आचरण) बनाएगा / इन दुष्प्रवृत्तियों के द्वारा वह बहुत पापकर्मों का उपार्जन करके 121 वर्ष की परम आयु को भोगकर मृत्यु के समय में मृत्यु को प्राप्त होकर इस रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में नारक के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर सरीसृप-छाती के बल से चलने वाले सर्प आदि प्राणियों की योनियों में जन्म लेगा। वहाँ से उसका संसार-भ्रमण प्रथम अध्ययन में धणित मृगापुत्र की तरह होगा यावत् पृथिवीकाय आदि में जन्म लेगा / वहाँ से निकलकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष की चम्पा नामक नगरी में भैंसा (महिष) के रूप में जन्म लेगा। वहाँ गोष्ठिकों-मित्रमण्डली के द्वारा मारे जाने पर उसी नगरी के श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा। वहाँ पर बाल्यावस्था को पार करके यौवन अवस्था को प्राप्त होता हुआ वह तथारूप-विशिष्ट संयमी स्थविरों के पास शंका कांक्षा आदि दोषों से रहित बोधिलाभ को प्राप्तकर अनगार धर्म को ग्रहण करेगा / वहाँ से कालमास में कालकर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा / यावत् मृगापुत्र के समान कर्मों का अन्त करेगा / यहाँ इस अध्ययन का निक्षेप समझ लेना चाहिये / 1. देखिए प्र.अ., सूत्र-३२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन अभग्नसेन उत्क्षेप १–तच्चस्स उक्खेवो। १-तृतीय अध्ययन की प्रस्तावना पूर्ववत् ही जान लेनी चाहिये / २-तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरिमताले नाम नयरे होत्था, रिद्ध०।' तस्स गं पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए एत्थ णं अमोहदंसणे (अमोहदंसी) उज्जाणे / तत्थ णं अमोहदंसिस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था। तत्थ णं पुरिमताले महब्बले नाम राया होत्था / 2- उस काल उस समय में पुरिमताल नामक एक नगर था। वह भवनादि की अधिकता से तथा धन-धान्य आदि से परिपूर्ण था। उस पुरिमताल नगर के ईशान कोण में अमोघदर्शी नामक एक उद्यान था। उस उद्यान में अमोघदर्शी नामक यक्ष का एक यक्षायतन था / पुरिमताल नगर में महाबल नामक राजा राज्य करता था। चोरपल्ली ३–तत्थ णं पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरपुरथिमे दिसीभाए देसप्पंते अडवी संठिया / एत्थ णं सालाडवी नामं चोरपल्ली होत्था / विसम-गिरिकन्दरकोलम्बसंनिविट्ठा वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता छिन्नसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा अभितरपाणीया सुदुल्लभजलपेरंता अणेगखण्डी विदियजणदिन्ननिग्गमप्पवेसा सुबहुयस्स वि कुवियस्स जणस्स दुप्पहंसा यावि होत्था / ३-उस पुरिमताल नगर के ईशान कोण में सीमान्त पर स्थित अटवी में शालाटवी नाम को चोरपल्ली (चोरों के रहने का प्रच्छन्न स्थान) थी जो पर्वतीय भयंकर गुफाओं के प्रान्तभाग-किनारे पर स्थित थी। बांस की जाली की बनी हुई बाड़रूप प्राकार (कोट) से घिरी हुई थी। छिन्न-अपने अवयवों से कटे हुए --पर्वत के ऊँचे-नीचे प्रपात-गर्तरूप खाई वाली थी। उसमें पानी की पर्याप्त सुविधा थी। उसके बाहर दूर-दूर तक पानी अप्राप्य था। उसमें भागने वाले मनुष्यों के मार्गरूप अने गुप्तद्वार थे। जानकार व्यक्ति ही उसमें निर्गम-प्रवेश (आवागमन) कर सकता था। बहुत से मोषव्यावर्तक-चोरों से चुराई वस्तुओं को वापिस लाने के लिये उद्यत मनुष्यों द्वारा भी उसका पराजय नहीं किया जा सकता था। चोरसेनापति विजय ४.-तत्थ णं सालाडवीए चोरपल्लीए विजए नामं चोरसेणावई परिवसइ / अहम्मिए जाव (अहम्मिट्ठ अहम्मक्खाई प्रहम्माणुए अहम्मपलोई अहम्मपलज्जणे अहम्मतीलसमुदायारे अहम्मेण 1. प्रौप. सूत्र-३ Jalil Education International Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] { विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध चेव वित्ति कप्पेमाणे बिहरइ-हण-छिद-भिद-वियत्तए) लोहियपाणी बहुनयरनिग्गयजसे, सूरे, दढप्पहारे, साहसिए, सद्दवेही परिवसइ असिल टिपढममल्ले / से णं तस्थ सालाडवीए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेवच्चं जाव (पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं प्राणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे विहरई। ४–उस शालाटवी चोरपल्ली में विजय नाम का चोर सेनापति रहता था। वह महा अधर्मी था यावत् (अधर्मनिष्ठ, अधर्म की बात करने वाला, अधर्म का अनुयायी, अधर्मदर्शी, अधर्म में अनुराग वाला, अधर्माचारशील, अधर्म से जीवन-यापन करने वाला, मारो, काटो, छेदो, भेदो, ऐसा ही बोलने वाला था) उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे। उसका नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था। वह शूरवीर, दृढप्रहारी, साहसी, शब्दबेधी-(विना देखे मात्र शब्द से लक्ष्य का ज्ञान प्राप्त कर वींधने वाला) तथा तलवार और लाठी का अग्रगण्य-प्रधान योद्धा था। वह सेनापति उस चोरपल्ली में पांच सौ चोरों का स्वामित्व, अग्रेसरत्व, नेतृत्व, बड़प्पन करता हुआ रहता था। ५-तत्थ णं से विजए चोरसेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयाण य संधिच्छेयाण य खंडपट्टाण य अन्नेसि च बहूणं छिन्न-भिन्न-बाहिराहियाणं कुडंगे यावि होत्था। तए णं से विजए चोरसेणावई पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरपुरथिमिल्लं जणवयं बहूहि गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य बन्दिग्गहणेहि य पन्थकोहि य खत्त-खणणेहि य प्रोवीले. माणे, विद्ध सेमाणे, तज्जेमाणे, तालेमाणे नित्थाणे निद्धणे निक्कणे करेमाणे विहरइ महाबलस्स रण्णो अभिक्खणं अभिक्खणं कप्पायं गेहद / ५-तदनन्तर वह विजय नामक चोरसेनापति अनेक चोर, पारदारिक–परस्त्रीलम्पट, ग्रन्थिभेदक - गांठ काटने वाले, सन्धिच्छेदक-सांध लगाने वाले, जुनारी) धूर्त वगैरह लोग (कि जिनके पास पहिनने के लिये वस्त्र-खण्ड भी न हो) तथा अन्य बहुत से छिन्न-हाथ आदि जिनके कटे हुए हैं, भिन्न-नासिका आदि से रहित तथा शिष्टमण्डली से बहिष्कृत व्यक्तियों के लिये कुटङ्क-बांस के वन के समान गोपक या संरक्षक था / वह विजय चोरसेनापति पुरिमताल नगर के ईशान कोणगत जनपद-देश को-अनेक ग्रामों को नष्ट करने से, अनेक नगरों का नाश करने से, गाय आदि पशुओं के अपहरण से, कैदियों को चुराने से, पथिकों को लूटने से, खात-सेंध लगाकर चोरी करने से, पीड़ित करता हुआ, विध्वस्त करता हुआ, जित–तर्जनायुक्त करता हुआ, चाबुक आदि से ताडित करता हुआ, स्थानरहित धनरहित तथा धान्यादि से रहित करता हुआ तथा महाबल राजा के राजदेय कर-महसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करता हुआ समय व्यतीत करता था। अभग्नसेन ६-तस्स णं विजयस्स चोरसेणावइस्स खन्दसिरी नामं भारिया होत्था, अहीण / ' तस्स 1. द्विा. अ., सूत्र-३ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] णं विजयचोरसेणावइस्स पुत्ते खंदसिरोए भारियाए अत्तए अभग्गसणे नामं दारए होत्था, अहोणपडिपुण्णपंचिदियसरीरे विन्नायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते / ६-उस विजय नामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री नाम की परिपूर्ण पांच इन्द्रियों से युक्त सर्वांगसुन्दरी पत्नी थी / उस विजय चोरसेनापति का पुत्र एवं स्कन्दश्री का पात्मज अभग्नसेन नाम का एक बालक था, जो अन्यून--- सम्पूर्ण पांच इन्द्रियों वाला-संगठित शरीर वाला तथा विशेष ज्ञान रखने वाला और बुद्धि की परिपक्वता से युक्त यौवनावस्था को प्राप्त किये हुए था। 7 तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुरिमतालनयरे समोसढे। परिसा निग्गया। राया निग्गयो। धम्मो कहियो / परिसा राया य पडिगयो। ७--उस काल तथा उस समय में पुरिमताल नगर में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे / परिषद्-जनसमूह धर्मदेशना श्रवण करने गये। राजा भी गया। भगवान् ने धर्मोपदेश दिया। धर्मोपदेश सनकर राजा तथा जनता वापिस अपने स्थान को लौट आये। ८-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्त भगवनो महावीरस्स जे? अन्तेवासी गोयमे जाब' रायमगं समोगाढे / तत्थ णं बहवे हत्थी पासइ, बहवे प्रासे, पुरिसे सन्नद्धबद्धकवए। तेसि णं पुरिसाणं मझगयं एगं पुरिसं पासइ अवप्रोडयबंधणं जाव' उम्घोसिज्जमाणं / तए णं तं पुरिसं रायपुरिसा पढमंसि चच्चरंसि निसीयावेन्ति, निसीयावेत्ता अट्ठ चल्लपिउए अग्गो घाएन्ति, घाएत्ता कसपहारेहि तालेमाणा तालेमाणा कलणं कागणिमंसाइं खाति, रुहिरपाणियं च पाएन्ति / तयाणन्तरं च दोच्चंसि चच्चरंसि अट्ट चुल्लमाउयानो अग्गो घाएन्ति, घाएत्ता कसपहाहि तालेमाणा तालेमाणा कलुणं कागणिमंसाई खावेति, रुहिरपाणियं च पाएन्ति / एवं तच्चे चच्चरे अट्टमहापिउए, चउत्थे अट्ट महामाउयानो, पंचमे पुत्ते, छ8 सुण्हायो, सत्तमे जामाउया, अट्ठमे धूयानो, नवमे नत्तुया, दसमे नत्तईयो, एक्कारसमे नत्तयाबई, बारसमे नत्तुइणीप्रो, तेरसमे पिउस्सियपइया, चोइसमे पियुस्सियानो, पन्नरसमे माउस्सियापइया, सोलसमे माउस्सियाणो, सत्तरसमे मामियानो, अट्ठारसमे अवसेसं मित्त-नाइ-नियगसयण-संबंधि-परियणं अग्गयो घाएंति, घाएत्ता कसप्पहारोहिं तालेमाणा तालेमाणा कलुणं कागणिमंसाई खावेंति, रुहिरपाणियं च पाएन्ति ! ८-उस काल एवं उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य श्री गौतम स्वामी राजमार्ग में पधारे / वहाँ उन्होंने बहुत से हाथियों, घोड़ों तथा सैनिकों की तरह शस्त्रों से सुसज्जित और कवच पहिने हुए अनेक पुरुषों को देखा / उन सब पुरुषों के बीच अवकोटक बन्धन' से युक्त उद्घोषित एक पुरुष को भी देखा; जैसा दूसरे अध्ययन में कहा गया है / तदनन्तर राजपुरुष उस पुरुष को चत्वर (चार मार्गों से अधिक मार्ग जहाँ एकत्रित हों) पर बैठाकर उसके प्रागे पाठ लघुपिताओं (चाचाओं) को मारते हैं / तथा कशादि प्रहारों से ताड़ित करते हुए दयनीय स्थिति को प्राप्त हुए उस पुरुष को उसके ही शरीर में से काटे गये मांस के छोटे-छोटे 2. द्वि. अ. सूत्र-६ 1. द्वि. अ., सूत्र-६ 3. द्वि. अ., सूत्र-७ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44] / विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध टुकड़ों को खिलाते हैं और रुधिर का पान कराते हैं / तदनन्तर द्वितीय चत्वर पर उसकी आठ लघुमाताओं को (चाचियों को) उसके समक्ष ताड़ित करते हैं और मांस खिलाते तथा रुधिरपान कराते हैं / इसी तरह तीसरे चत्वर पर पाठ महापिताओं (पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं-ताउओं) को, चौथे चत्वर पर आठ महामाताओं (पिता के ज्येष्ठ भ्राताओं की धर्मपत्नियों-ताइयों) को, पांचवे पर पुत्रों को, छठे पर पुत्रवधुओं को, सातवें पर जामाताओं को, आठवें पर लड़कियों को, नवमें पर नप्तानों (पौत्रों व दोहित्रों) को, दसवें पर लड़के और लड़कियों की लड़कियों (पौत्रियों व दौहित्रियों) को, ग्यारहवें पर नप्तृकापतियों (पौत्रियों व दौहित्रियों के पत्तियों) को, तेरहवें पर पिता की बहिनों के पतियों (फफाओं) को, चौदहवें पर पिता की बहिनों (ग्राओं) को, पन्द्रहवें पर माता की बहिनों के पतियों (मौसानों) को, सोलहवें पर माता की बहिनों को (मौसियों को), सत्रहवें पर मामा की स्त्रियों (मामियों) को, अठारहवें पर शेष मित्र, ज्ञाति, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों को उस पुरुष के आगे मारते हैं तथा चाबुक के प्रहारों से ताड़ित करते हुए वे राजपुरुष करुणाजनक उस पुरुष को उसके शरीर से निकाले हुए मांस के टुकड़े खिलाते और रुधिर का पान कराते हैं। अभग्नसेन का पूर्वभव &-तए णं से भगवं गोयमे तं पुरिसं पासइ पासित्ता इमे एयारूवे जाव समुप्पन्न जाव तहेव निग्गए एवं वयासी—‘एवं खलु महं गं भंते ! तं चेव जाव से णं भन्ते ! पुरिसे पुव्वभवे के पासी' जाव विहरइ।' ६-तदनन्तर भगवान् गौतम के हृदय में उस पुरुष को देखकर यह सङ्कल्प उत्पन्न हुआ यावत पूर्ववत वे नगर से बाहर निकले तथा भगवान के पास आकर निवेदन करने लगे-भगवन ! मैं आपको आज्ञानुसार नगर में गया, वहाँ मैंने एक पुरुष को देखा यावत् भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो इस तरह अपने कर्मों का फल पा रहा है ? अभग्नसेन का निन्नयभव १०–एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे पुरिमताल नाम नयरे होत्था, रिद्धस्थमियसमिद्ध'। तत्थ णं पुरिमताले नयरे उदिए नाम राया होत्या, महया० 2 / तत्थ णं पुरिमताले निन्नए नामं अंडयवाणिए होत्था। अड्ढे जाव' अपरिभूए, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणन्दे / तस्स गं निन्नयस्स बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेपणा कल्लाकल्लिं कुद्दालियानो य पत्थियपिडए य गिण्हंति, गिहित्ता पुरिमतालस्स नगरस्स परिपेरन्तेसु बहवे काइअंडए य घूइअंडए य पारेवइअंडए य टिट्टिभिअंडए य बगि-मयूरो-कुक्कुडिअंडए य अन्नेसि च बहूणं जलयर-थलयरखहयरमाईणं अंडाइं गेहंति, मेण्हेत्ता पत्थियपिडगाई भरेंति, भरेत्ता जेणेव निन्नयए अंडवाणियए तेणामेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता निन्नयस्स अंडवाणियस्स उवणेति / १०-इस प्रकार निश्चय ही हे गौतम ! उस काल तथा उस समय इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप 1. 2. औप. सूत्र-१ औप० सूत्र-१४ 3. औप. सूत्र 141 4. तृतीय अध्ययन-४ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] [ 45 के अन्तर्गत भारतवर्ष में पुरिमताल नामक समृद्धिपूर्ण नगर था / उस पुरिमताल नगर में उदित नाम का राजा राज्य करता था, जो हिमालय पर्वत की तरह महान् था / उस पुरिमताल नगर में निर्णय नाम का एक अण्डों का व्यापारी भी रहता था। वह धनी तथा पराभव को न प्राप्त होने वाला, अधर्मी यावत् (अधर्मानुयायी, अधर्मनिष्ठ, अधर्म की कथा करने वाला, अधर्मदर्शी, अधर्माचारी) एवं परम असन्तोषी था। निर्णयनामक अण्डवणिक के अनेक दत्तभतिभक्तवेतन (रुपये पैसे और भोजन के रूप से वेतन ग्रहण करने वाले) अनेक पुरुष प्रतिदिन कुद्दाल व बांस की पिटारियों को लेकर पुरिमताल नगर के चारों ओर अनेक, कौवी (कौए को मादा) के अण्डों को, घूकी (उल्लू की मादा) के अण्डों को कबूतरी के अण्डों को, बगुली के अण्डों को, मोरनी के अण्डों को, मुर्गी के अण्डों को, तथा अनेक जलचर, स्थलचर, व खेचर आदि जीवों के अण्डों को लेकर पिटारियों में भरते थे और भरकर निर्णय नामक अण्डों के व्यापारी के पास आते थे, आकर उस अण्डव्यापारी को अण्डों से भरी हुई वे पिटारियाँ देते थे। ११--तए णं तस्स निन्नयस्य अंडवाणियस्स बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा बहवे काइ अण्डए जाव' कुक्कुडिमण्डए य अन्नेसि च बहूणं जलयर-थलयर-खहयरमाईणं अण्डयए तवएसु य कवल्लीसु य कंदुएसु य भज्जणएसु य इंगालेसु य तलेंति, भज्जेति, सोल्लेन्ति, तलित्ता भज्जित्ता सोलेत्ता रायमग्गे अंतरावर्णसि अंडयपणिएणं वित्ति कप्पेमाणा विहरंति / अप्पणा यावि णं से निन्नयए अण्डवाणियए तेहिं बहूहि काइअंडएहि य जाव कुक्कुडिअंडएहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीधुच प्रासाएमाणे-४ विहरइ / ११-तदनन्तर वह निर्णय नामक अण्डवर्णक के अनेक वेतनभोगी पुरुष बहुत से कौवी यावत् कुकड़ी के अण्डों तथा अन्य जलचर, स्थलचर एवं खेवर आदि पूर्वोक्त जीवों के अण्डों को तवों पर कड़ाहों पर हाथों में एवं अंगारों में तलते थे, भूनते थे, पकाते थे। तलकर, भूनकर एवं पकाकर राजमार्ग की मध्यवर्ती दुकानों पर अण्डों के व्यापार से आजीविका करते हुए समय व्यतीत करते थे। वह निर्णय नामक अण्डवणिक स्वयं भी अनेक कौवी यावत् कुकड़ी के अण्डों के, जो कि पकाये हुए, तले हुए और भुने हुए थे, साथ ही सुरा, मधु, मेरक, जाति तथा सीधु इन पंचविध मदिराओं का आस्वादन करता हुआ जीवन-यापन कर रहा था। अभग्नसेन का वर्तमान-भव १२-तए णं से निन्नए अंडवाणियए एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं समज्जिणित्ता एगं वाससहस्सं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा तच्चाए पुढवीए उक्कोसेणं सत्तसागरोवमठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / से गं तो अणंतरं उच्चट्टित्ता इहेव सालावडीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरसैणावइस्स खंदसिरीए भारियाए कुछिसि पुत्तत्ताए उववन्ने / १२-तदनन्तर वह निर्णय नामक अण्डवाणिक इस प्रकार के पापकर्मों का करने वाला अत्यधिक पापकर्मों को उपाजित करके एक हजार वर्ष की परम आयुष्य को भोगकर मृत्यु के समय में 2. तृ. अ., सूत्र 10 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध मृत्यु को प्राप्त करके तीसरी पृथ्वी-नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम की स्थितिवाले नारकों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। वह निर्णयनामक अण्डवणिक नरक से निकलकर विजयनामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ / १३–तए णं तीसे खन्दसिरीए भारियाए अन्नया कयाइ तिण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूए। 'धन्नाओ णं तानो अम्मयामो जामो णं बहूहि मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धि संपरिवडा व्हाया कयबलिकामा जाव (कयकोउयमंगल-) पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च मज्जं च प्रासाएमाणी बिसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी विहरति / जिमियभुत्तत्तरागयायो पुरिसनेवत्थिया सन्नद्धबद्धवम्मियकवइया जाव' गहियाउहप्पहरणा भरिएहि फलरहि, निक्किट्ठाहिं असोहि, अंसागरहि तो!ह सजोवेहि धहि, समुक्खित्तेहिं सरेहि, समुल्लासियाहि दामाहि, लंबियाहि य प्रोसारियाहिं उरुघण्टाहिं, छिप्यतूरेणं वज्जमाणेणं महया उक्किटु जाव (सोहनाय-बोल-कलकलरवेणं) समुद्दरवभूयं पिव करेमाणीपो सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वश्रो समंता पालोएमाणीग्रो पालोएमाणीयो हिंडमाणीयो दोहलं विन्ति / तं जइ अहं पि जाव दोहलं विणिज्जामि' ति कट्ट, तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाव सुक्का भुक्खा जाव अज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया झियाइ। १३-किसी अन्य समय लगभग तीन मास परिपूर्ण होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद (संकल्प) उत्पन्न हुआ-वे माताएँ धन्य हैं, जो मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं तथा अन्य महिलाओं से परिवृत होकर स्नान यावत् अनिष्टोत्पादक स्वप्नादि को निष्फल बनाने के लिये प्रायश्चित्त रूप में माङ्गलिक कृत्यों को करके सर्वप्रकार के अलंकारों से अलंकृत हो, बहुत प्रकार के प्रशन, पान, खादिम स्वादिम पदार्थों तथा सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्नादि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचरती हैं, तथा भोजन के पश्चात् जो उचित स्थान पर उपस्थित हई हैं, जिन्होंने पुरुष का वेष पहना हया है और जो दृढ बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच-लोहमय वख्तर को शरीर पर धारण किये हुए हैं, यावत् आयुध और प्रहरणों से युक्त हैं, तथा वाम हस्त में धारण किये हुए फलक-ढालों से, कोश-म्यान से बाहर निकली हुई तलवारों से, कन्धे पर रखे हुए तरकशों से ऊँचे किये हुए पाशोंजालों अथवा शस्त्रविशेषों से, सजीव-प्रत्यंचा युक्त धनुषों से, सम्यक्तया फेंके जाने वाले बाणों से, लटकती व अवसारित चालित जंघा-घण्टियों के द्वारा तथा क्षिप्रतूर्य (शीघ्र बजाया जाने वाला वाजा) बजाने से महान्, उत्कृष्ट-प्रानन्दमय महाध्वनि से समुद्र की आवाज के समान आकाशमण्डल को शब्दायमान करती हुई शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों ओर अवलोकन तथा उसके चारों तरफ भ्रमण करती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं। __ क्या अच्छा हो यदि मैं भी इसी भांति अपने दोहद को पूर्ण करूँ ? ऐसा विचार करने के पश्चात् वह दोहद के पूर्ण न होने से उदास हुई, दुबली पतली और जमीन पर नजर गड़ाए पार्त ध्यान करने लगी। 1. द्वि. अ., सूत्र-६ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] [ 47 १४-तए णं से विजए चोरसेणावई खंदसिरि भारियं श्रोहयमणसंकप्पं जाव पास इ, पासित्ता एवं वयासी-'कि णं तुमं देवाणुप्पिया ! प्रोहयमणसंकप्पा जाव झियासि ?' तए णं सा खंदसिरी विजयचोरसेणावइं एवं वयासी- 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम तिण्हं मासाणं जाव झियामि / ' तए णं से विजए चोरसेणावई खंदसिरीए भारियाए अंतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म खंदसिरिभारियं एवं वयासी-'प्रहासुहं देवाणुप्पिए !' त्ति एयमट्ठ पडिसुणेइ ! १४–तदनन्तर विजय चोरसेनापति ने प्रार्तध्यान करती हुई स्कन्दश्री को देखकर इस प्रकार पूछा-देवाणुप्रिये ! तुम उदास हुई क्यों प्रार्तध्यान कर रही हो ? _स्कन्दश्री ने विजय चोरसेनापति के उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा-देवानुप्रिय ! मुझे गर्भ धारण किये हुए तीन मास हो चुके हैं / मुझे पूर्वोक्त दोहद हुआ, उसकी पूर्ति न होने से कर्तव्यअकर्तव्य-शून्य होकर शोकाकुल एवं प्रार्तध्यान कर रही हूँ। तब विजय चोरसेनापति ने अपनी स्कन्दश्री भार्या का यह कथन सुन और समझ कर स्कन्दश्री भार्या को इस प्रकार कहा- हे सुभगे ! तुम इस दोहद की अपनी इच्छा के अनुकूल पूर्ति कर सकती हो, इसकी चित्ता न करो। 15--- तए णं सा खंदसिरिभारिया विजएणं चोरसेणावइणा अब्भणुन्नाया समाणी हट्ठा तुट्ठा बहूहि मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियण-महिलाहिं जाव अन्नाहि य बहूहिं चोरमहिलाहिं सद्धि संपरिबुडा व्हाया जाब विभूसिया विउल असणं-४ सुरं च-५ प्रासाएमाणी-४ विहरइ / जिमियभुत्तत्तरागया पुरिसनेवत्था सन्नद्धबद्ध 0 जाव आहिंडमाणी दोहल विणेइ / तए णं सा खंदसिरिभारिया संपुण्णदोहला, संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला संपन्नदोहला० तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ / १५-तदनन्तर वह स्कन्दश्री पति के वचनों को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई / हर्षातिरेक से बहुत सहचारियों व चोरमहिलाओं को साथ में लेकर स्नानादि से निवृत्त हो, अलंकारों से अलंकृत होकर विपुल अशन, पान, व सुरा मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करने लगी। इस तरह सबके साथ भोजन करने के पश्चात् उचित स्थान पर एकत्रित होकर पुरुषवेष को धारण कर तथा दृढ बन्धनों से बंधे हुए लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच को शरीर पर धारण करके यावत् भ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है / तत्पश्चात् वह स्कन्दश्री दोहद के सम्पूर्ण होने, सम्मानित होने, विनीत होने, तथा सम्पन्न होने पर अपने उस गर्भ को परमसुखपूर्वक धारण करती हुई रहने लगी। १६–तए णं सा चोरसेणावइणी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तए णं से विजए चोरसेणावई तस्स दारगस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं दसरत्तं ठिइवडियं करेइ / तए णं से विजए चोरसेणावई तस्स दारगस्स एक्कारसमे दिवसे विउलं असणं-४ उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तनाइ० पामतेइ, आमंतित्ता जाव तस्सेव मित्तनाइ० पुरो एवं बयासी--'जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गब्भगयंसि समाणंसि इमें एयारूवे दोहले पाउन्मूए, तम्हा णं होउ अम्हं दारए प्रभग्गसेणे नामेणं।' Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [ विपाकसूत्र--प्रथम श्र तस्कन्ध तए णं से प्रभग्गसेणे कुमारे पंचधाईपरिग्गहिए जाव' परिवडइ / तए णं से अभग्गसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे यावि होत्था। अट्ठदारियायो, जाव अट्टनो दाओ / उप्पि पासाए भुंजमाणे विहरइ। १६–तदन्तर उस चोर सेनापति की पत्नी स्कन्दश्री ने नौमास के परिपूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया। विजय चोरसेनापति ने भी दश दिन पर्यन्त महान् वैभव के साथ स्थिति-पतितकुलक्रमागत उत्सव मनाया। उसके बाद बालक के जन्म के ग्यारहवें दिन विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराया। मित्र, ज्ञाति, स्वजनों आदि को आमन्त्रित किया, जिमाया और उनके सामने इस प्रकार कहा, 'जिस समय यह बालक गर्भ में पाया था, उस समय इसकी माता को एक दाहद उत्पन्न हुअा था (उस दोहद को भग्न नहीं होने दिया) अत: माता को जो दोहद उत्पन्न हुआ वह अभग्न रहा तथा निर्विघ्न सम्पन्न हना। इसलिये इस बालक का 'अभग्नसेन' यह नामकरण किया जाता है।' तदनन्तर वह अभग्नसेन बालक क्षीरधात्री आदि पांच धायमाताओं के द्वारा संभाला जाता हुमा वृद्धि को प्राप्त होने लगा। अनुक्रम से कुमार अभग्नसेन ने बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था में प्रवेश किया। आठ कन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ / विवाह में उसके माता-पिता ने पाठ-पाठ प्रकार की वस्तुएँ प्रीतिदान-दहेज में दी और वह ऊँचे प्रासादों में रहकर मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करने लगा। १७-तए णं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते / तए णं से प्रभग्गसेणे कुमारे पंचहिं चोरसएहि सद्धि संपरिवुडे रोयमाणे, कंदमाणे, विलवमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं नोहरणं करेइ, करेत्ता, बहूई लोइयाई मच्चकिच्चाई करेइ, करेत्ता केणइ कालेणं प्रप्पसोए जाए यावि होत्था। १७–तत्पश्चात् किसी समय वह विजय चोरसेनापति कालधर्म (मरण) को प्राप्त हो गया। उसकी मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन ने पांच सौ चोरों के साथ रोते हुए, आक्रन्दन करते हुए और विलाप करते हुए अत्यन्त ठाठ के साथ एवं सत्कार सम्मान के साथ विजय चोरसेनापति का नीहरणदाहसंस्कार किया। बहुत से लौकिक मृतककृत्य अर्थात् दाहसंस्कार से लेकर पिता के निमित्त किए जाने वाले दान भोजनादि कार्य किए / थोड़े समय के पश्चात् अभग्नसेन शोक रहित हो गया। १८-तए णं ते चोरपंचसयाइं अन्नया कयाइ अभग्गसेणं कुमारं सालाडवीए चोरपल्लीए महया महया इड्डीसक्कारेणं चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति / तए णं से प्रभग्गसेणे कुमारे चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव कप्पायं गिण्हइ / १८-तदनन्तर उन पांच सौ चोरों ने बड़े महोत्सव के साथ अभग्नसेन को शालाटवी नामक चोरपल्ली में चोर सेनापति के पद पर प्रस्थापित किया। सेनापति के पद पर नियुक्त हुया वह 1. द्वि. अ., सूत्र 16 2. तृ.अ., सूत्र-४-५ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] अभग्नसेन, अधामिक, अधर्मनिष्ठ, अधर्मदर्शी एवं अधर्म का आचरण करता हुया यावत् राजदेय करमहसूल को भी ग्रहण करने लगा। १६-तए णं ते जाणवया पुरिसा अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा बहुगामघायावणाहिं ताविया समाणा अन्नमन्नं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी 'एवं खलु, देवाणप्पिया! प्रभग्गसेणे चोरसेणावई पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरिल्लं जणवयं बहूहि गामघाएहिं जाव' निद्धणं करेमाणे विहरई / 'तं सेयं खलु, देवाणुप्पिया ! पुरिमताले नयरे महब्बलस्स रष्णो एयम8 विन्नवित्तए।' तए णं ते जाणवया पुरिसा एयम अन्नमन्नेणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव पुरिमताले नया तेणेव उवागया, जेणेव महाबले राया तेणेव उवागया / महाबलस्स रण्णो तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेति, उवणेत्ता करयलपरिग्गहियं मत्थए अंजलि कटु महाबलं रायं एवं क्यासी ‘एवं खलु सामी ! सालावडीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावई अम्हे बहूहि गामघाएहि य जाव निद्धणे करेमाणे विहरइ। तं इच्छामो णं, सामो! तुझं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुवसग्गा सुहेणं परिवसित्तए' त्ति कुटु पायवडिया पंजलि उडा महाबलं रायं एयमट्ठ विन्नति / १६-तदनन्तर अभग्नसेन नामक चोरसेनापति के द्वारा बहुत ग्रामों के विनाश से सन्तप्त हुए उस देश के लोगों ने एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! चोरसेनापति अभग्नसेन पुरिमताल नगर के उत्तरदिशा के बहुत से ग्रामों का विनाश करके वहाँ के लोगों को धन-धान्यादि से रहित कर रहा है / इसलिये हे देवानुप्रियो ! पुरिमताल नगर के महाबल राजा को इस बात से संसूचित करना अपने लिये श्रेयस्कर है। तदनन्तर देश के एकत्रित सभी जनों ने परस्पर इस बात को स्वीकार कर लिया और जहाँ पर पुरिमताल नगर था एवं जहाँ पर महाबल राजा था, वहाँ महार्थ, महार्घ (बहुमूल्य) महार्ह व राजा के योग्य भेंट लेकर आये और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके महाराज को वह मूल्यवान भेंट अर्पण की। अर्पण करके महाबल राजा से इस प्रकार बोले 'हे स्वामिन् ! इस प्रकार निश्चय ही शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोरसेनापति अभग्नसेन ग्रामघात तथा नगरपात आदि करके यावत् हमें निर्धन बनाता हुग्रा विचरण कर रहा है / हे नाथ ! हम चाहते हैं कि आपकी भुजाओं की छाया से संरक्षित होते हुए निर्भय और उपसर्ग रहित होकर हम सुखपूर्वक निवास करें। इस प्रकार कहकर, पैरों में पड़कर तथा दोनों हाथ जोडकर उन प्रान्तीय परुषों ने महाबल नरेश से इस प्रकार विज्ञप्ति की। २०–तए णं महब्बले राया तेसि जाणवयाणं पुरिसाणं अंतिए एयम? सोच्चा निसम्म प्रासुरत्ते जाव (रुष्टु कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडिं निडाले साहटु दंडं सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! सालावि चोरपल्लिं विलुपाहि, विलुपित्ता प्रभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गिहाहि, गिरिहत्ता ममं उवणेहि।' 1-2. 1/3 सूत्र-५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] [ विपाकसूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध तए णं से दंडे 'तह ति एयम पडिसुणेइ / तए णं से दंडे बहूहि पुरिसेहिं सन्नद्धबद्धवम्मियकवहिं जाव गहियाउह-पहरणेहि सद्धि संपरिवुडे मगइएहि फलएहि जाव छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं महया जाव उक्किट्ठ जाव करेमाणे पुरिमतालं नयरं मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सालाडवो चोरपल्ली तेगेव पहारेत्थ गमणाए / २०–महाबल नरेश उन जनपदवासियों के पास से उक्त वृत्तान्त को सुनकर रुष्ट, कुपित और क्रोध से तमतमा उठे। उसके अनुरूप क्रोध से दांत पीसते हुए भोंहें चढ़ाकर अर्थात् क्रोध की साक्षात् प्रतिमा बनकर कोतवाल को बुलाते हैं और बुलाकर कहते हैं-देवानुप्रिय ! तुम जानो और शालाटवी नामक चोरपल्ली को लूट लो-नष्ट-भ्रष्ट कर दो और उसके चोरसेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो! महाबल राजा की इस आज्ञा को दण्डनायक विनयपूर्वक स्वीकार करता हुआ, दृढ़ बंधनों से बंधे हुए लोहमय कुसूलक आदि से युक्त कवच को धारण कर आयुधों और प्रहरणों से लैस अनेक पुरुषों को साथ में लेकर, हाथों में फलक-ढाल बांधे हुए यावत् क्षिप्रतूर्य के बजाने से महान् उत्कृष्ट महाध्वनि एवं सिंहनाद आदि के द्वारा समुद्र की सी गर्जना करते हुए, आकाश को विदीर्ण करते हुए पुरिम ताल नगर के मध्य से निकल कर शालाटवी चोरपल्ली की ओर जाने का निश्चय करता है। २१.-तए णं तस्स भग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स चारपुरिसा इमीसे कहाए लद्धदा समाणा जेणेव सालाडवी चोरपल्ली, जेणेव प्रभम्गसेणे चोरसेणावई, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव परिग्गहियं मत्थए अंजलि कटु एवं क्यासी–एवं खलु देवाणुपिया ! पुरिमताले नयरे महाबलेण रण्णा महाभडचडगरेणं दण्डे प्राणत्ते-'गच्छह णं तुब्भे, देवाणुप्पिया ! सालाडवि चोरपल्लि विलुपाहि, अभग्गसेणं चोरसेणावई जोवरगाहं गेहाहि, गेण्हित्ता ममं उवणेहि / ' तए णं से दंडे महया भडचडगरेणं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेस्थ गमणाए / २१-तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति के गुप्तचरों को इस वृत्तान्त का पता लगा। वे सालाटवी चोरपल्ली में, जहां अभग्नसेन चोरसेनापति था, आये और दोनों हाथ जोड़कर और मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके अभग्नसेन से इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! पुरिमतालनगर में महाबल राजा ने महान् सुभटों के समुदायों के साथ दण्डनायक-कोतवाल को बुलाकर प्राज्ञा दी है कि----'तुम लोग शीघ्र जाओ, जाकर सालाटवी चोरपल्ली को नष्ट-भ्रष्ट कर दो लट लो और उसके सेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़ लो और पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो।' राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करके कोतवाल योद्धाओं के समूह के साथ सालाटवी चोरपल्ली में आने के लिये रवाना हो चुका है। २२-तए णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई तेसिं चारपुरिसाणं अंतिए एयम सोच्चा णिसम्म पंचचोरसयाई सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी----‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले नयरे महाबले जाव तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तं दंडं सालाडवि चोरपल्लिं असंपत्ते अंतरा चेव पडिसेहित्तए।' तए णं ताई पंचचोरसयाई प्रभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स 'तह' ति जाव पडिसुणेति / For Private &Personal.Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] २२-तदनन्तर उस अभग्नसेन सेनापति ने अपने गुप्तचरों की बातों को सुनकर तथा विचारकर अपने पांच सौ चोरों को बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! पुरिमताल नगर के महाबल राजा ने आज्ञा दी है कि यावत् दण्डनायक ने चोरपल्ली पर आक्रमण करने का तथा मुझे जीवित पकड़ने को यहाँ आने का निश्चय कर लिया है. अतः उस दण्डनायक को सालाटवी चोरपल्ली पहुँचने से पहिले ही मार्ग में रोक देना हमारे लिये योग्य है। __अभग्नसेन सेनापति के इस परामर्श को 'तथेति' (बहुत ठीक, ऐसा ही होना चाहिए) ऐसा कहकर पांच सौ चोरों ने स्वीकार किया। २३--तए णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता पंचहि चोरसह सद्धि बहाए जाव पायच्छित्ते भोयणमंडवंसि तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च 5 आसाएमाणे 4 विहरइ / जिमियभुत्तुतारागए वि य णं समाणे प्रायंते चोक्खे परमसूइभए पंचहि चोरसएहि सद्धि अल्लं चम्म दुरुहइ, दुरुहिता सन्नद्धबद्ध जाव पहरणेहि मगइएहिं जाव रवेणं पुवावरण्हकालसमयंसि सालाडवीप्रो चोरपल्लोओ णिग्गच्छह, णिग्गच्छित्ता विसमदुग्गगहणं ठिए गहियभत्तपाणे तं दंडं पडिवालेमाणे चिट्ठइ / २३–तदनन्तर अभग्नसेन चोर सेनापति ने अशन, पान, खादिम और स्वादिम–अनेक प्रकार की स्वादिष्ट भोजनसामग्री तैयार कराई तथा पांच सौ चोरों के साथ स्नानादि क्रिया कर दुःस्वप्नादि के फलों को निष्फल करने के लिये मस्तक पर तिलक तथा अन्य माङ्गलिक कृत्य करके भोजनशाला में उस विपुल प्रशनादि वस्तुओं तथा पांच प्रकार की मदिराओं का यथारुचि पास्वादन, विस्वादन आदि किया। भोजन के पश्चात् योग्य स्थान पर आचमन किया, मुख के लेपादि को दूर कर परम शुद्ध होकर पांच सौ चोरों के साथ आर्द्रचर्म पर आरोहण किया। तदनन्तर दृढ़बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक प्रादि से युक्त कवच को धारण करके यावत् आयुधों और प्रहरणों से सुसज्जित होकर हाथों में ढालें बांधकर यावत् महान् उत्कृष्ट, सिंहनाद आदि शब्दों के द्वारा समुद्र के समान गर्जन करते हुए एवं आकाशमण्डल को शब्दायमान करते हुए अभग्नसेन ने सालाटवी चोरपल्ली से मध्याह्न के समय प्रस्थान किया। खाद्य पदार्थों को साथ लेकर विषम और दुर्ग-गहन वन में ठहरकर वह दण्डनायक की प्रतीक्षा करने लगा। विवेचन--आर्द्रचर्म पर आरोहण करने का क्या प्रयोजन है ? ऐसा प्रश्न उठने पर इसके समाधान के सम्बन्ध में तीन मान्यताएँ हैं--- प्राचार्य श्री अभयदेव सूरि के मन्तव्यानुसार-'आर्द्र चर्मारोहति मांगल्यार्थमिति' आद्रचर्म का आरोहण करना चोरों का अपना मांगलिक अनुष्ठान था / कारण 'विघ्नध्वंसकामो मंगलमाचरेत्' इस उक्ति के अनुसार अभग्नसेन और उसके साथियों ने दण्डनायक के बल को मार्ग में रोकने में पा सकने वाले संभावित विघ्नों के विनाश की कामना से प्रस्थान से पूर्व यह मंगल-अनुष्ठान किया। __ दूसरी मान्यता परम्परा का अनुसरण करने वाली है। तदनुसार आर्द्रचर्म पर आरोहित होने का परमार्थ यह है कि अनुकूल-प्रतिकूल कैसी भी परिस्थिति में पांव पीछे नहीं हटेगा। 'कार्य वा साधयेयं, देहं वा पातयेयम्' अर्थात् हर प्रयत्ल से कार्य को सिद्ध करके ही विराम लुगा, अन्यथा Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध देह का उत्सर्ग कर दूगा / इस प्रतिज्ञा से प्राबद्ध होने का दृढ़तम संकल्प पार्द्र चमं पर ग्रारोहित होने से प्रतीत होता है। ___ तीसरी मान्यता यह है कि जिस तरह आर्द्रचर्म फैलता है, वृद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस पर प्रारोहण करने वाला भी धन-जनादि परम समृद्धि के वृद्धि रूप प्रसार को उपलब्ध करता है। इसी महत्वाकांक्षा रूप भावना को सन्मुख रखते हुए अभग्नसेन और उसके पाँच सौ साथियों ने प्रार्द्रचर्म पर प्रारोहण किया। २४-तए णं से दंडे जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावई तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छिता प्रभग्गसणणं चोरसेणावइणा सद्धि संपलग्गे यावि होत्था। तए णं अभग्गसेणे चोर सेणावई तं दण्डं खिप्पामेव यमहिय जाव (पवरवीर-घाइय विवडियचिध-धय-पडाग दिसोदिसि) पडिसेहेइ / २४–उसके बाद वह कोतवाल जहाँ अभग्नसेन चोरसेनापति था, वहाँ पर आता है, और आकर अभग्नसेन चोरसेनापति के साथ युद्ध में संप्रवृत्त हो जाता है। तदनन्तर, अभग्नसेन चोर सेनापति ने उस दण्डनायक को शीघ्र ही हतमथित कर दिया अर्थात् उस कोतवाल की सेना का हनन किया, वोरों का घात किया, ध्वजा पताका को नष्ट कर दिया, दण्डनायक का भी मानमर्दन कर उसे और उसके साथियों को इधर उधर भगा दिया। २५–तए णं से दण्डे प्रभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा हय० जाव पडिसेहिए समाणे अथामे प्रबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जमिति कट्ट जेणेव पुरिमताले नयरे, जेणेव महाबले राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-जाव एवं वयासी–एवं खलु, सामी! अभग्गसेणे चोरसेणावई विसमदुग्गगहणं ठिए गहियभत्तपाणिए / नो खलु से सक्का केणइ सुबहुएणावि पासबलेण वा हस्थिबलेण वा रहबलेण वा चाउरंगेण वि उरं उरेण गिहित्तए।' ताहे सामेण य भएण य उवप्पयायेण विस्संभमाणेउं पयत्ते यावि होत्था। जे वि से अभितरगा सीसगभमा, मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं च विउलेण, धण-कणग-रयण-संतसारसावएज्जेणं भिन्दइ, अभागसेणस्स य चोरसेणावइस्स अभिक्खणं अभिक्खणं महत्थाई महग्घाई महरिहाई पाहुडाई पेसेइ, प्रभग्गसेणं चोरसेणावई वीसंभमाणेइ। २५-~-तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति के द्वारा हत-मथित यावत् प्रतिषेधित होने से तेजोहीन, बलहीन, वीर्यहीन तथा पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हुअा वह दण्डनायक शत्रुसेना को परास्त करना अशक्य जानकर पुनः पुरिमतालनगर में महाबल नरेश के पास आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दसों नखों की अञ्जलि कर इस प्रकार कहने लगा प्रभो! चोरसेनापति अभग्नसेन ऊँचे, नीचे और दुर्ग-गहन वन में पर्याप्त खाद्य तथा पेय सामग्री के साथ अवस्थित है / अतः बहुत अश्वबल, गजबल, योद्धाबल और रथबल, कहाँ तक कहूँचतुरङ्गिणी सेना के साक्षात् बल से भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता है ! दण्डनायक के ऐसा कहने पर महाबल राजा सामनीति. भेदनीति व उपप्रदान नीति–दान नीति से उसे विश्वास में लाने के लिये प्रवृत्त हुा / तदर्थ वह उसके (चोरसेनापति के) शिष्यभ्रम-शिष्य Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] [ 53 तुल्य, अंतरंग-समीप में रहने वाले पुरुषों को अथवा जिन अंगरक्षकों को वह शिर अथवा शिर के कवच तुल्य मानता था उनको तथा मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों को धन, स्वर्ण रत्न और उत्तम सारभूत द्रव्यों के द्वारा तथा रुपयों पैसों का लोभ देकर उससे (चोरसेनापति से) जुदा करने का प्रयत्न करता है और अभग्नसेन चोरसेनापति को भी बार बार महाप्रयोजन वाली, सविशेष मूल्य वालो, बड़े पुरुष को देने योग्य यहाँ तक कि राजा के योग्य भेंट भेजने लगा। इस तरह भेंट भेजकर अभग्नसेन चोरसेनापति को विश्वास में ले आता है। विवेचन---'सीसगभमा' के दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। एक 'शिष्य कभ्रमा:' और दूसरा 'शीर्षकभ्रमा:' / इन दोनों प्रतिरूपों को लक्ष्य में रखकर इसके तीन अर्थ सम्भावित हैं १-शिष्य अर्थ को सूचित करने वाला--दूसरा शब्द शिष्यक है, जिसमें शिष्यत्व की भ्रान्ति हो उसे शिष्यकभ्रम कहा जाता है अर्थात् जो विनीत होने के कारण शिष्य तुल्य है। २-शिर रक्षक होने के कारण जिन्हें शिर अथवा शिर के कवच के समान माना जाता है अर्थात् जो शिर के कवच की भांति शिर की रक्षा करते हैं / ३-शरीर रक्षक होने के नाते जिनको शरीर तुल्य समझा जाता है, वे भी शीर्षकभ्रम कहे जाते हैं। २६-तए णं से महाबले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नयरे एगं महं महइमहालयं कडागारसालं करेइ-प्रणेग-खंभसयसन्निविटु पासाईयं दरिसणिज्जं / तए णं से महाबले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नयरे उस्सुक्कं जाय उक्करं प्रभडप्पवेसं अदंडिमकुदडिमं अधरिम अधारणिज्ज अणुद्धयम इंगं अमिलायमल्लदाम गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरियं पमुइयपक्कीलाभिराम जहारिह) दसरत्तं पमोयं घोसावेइ, घोसावेत्ता कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे, देवाणप्पिया! सालाडवीए चोरपल्लोए। तत्थ णं तुम्भे प्रभग्गसेणं चोरसेणावई करयल जाव एवं वयह २६–तदनन्तर किसी अन्य समय महाबल राजा ने पुरिमताल नगर में महती–प्रशस्त, सुन्दर व अत्यन्त विशाल, मन में हर्ष उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, जिसे देखने पर भी पाखें न थकें ऐसी सैकड़ों स्तम्भों वाली कुटाकारशाला बनवायी। उसके बाद महाबल नरेश ने किसी समय उस षड्यन्त्र के लिए बनवाई कूटाकारशाला के निमित्त उच्छुल्क-(जिसमें राजदेयभाग-महसूल माफ कर दिया हो) यावत् दश दिन के प्रमोद उत्सव को उद्घोषणा कराई / कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा कि-हे भद्रपुरुषो ! तुम शालाटवी चोरपल्ली में जानो और वहाँ अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अञ्जलि करके, इस प्रकार निवेदन करो---- विवेचन--कूट पर्वत के शिखर का नाम है। कूट के समान जिसका आकार हो उसे कूटाकारशाला कहते हैं, अर्थात जिस भवन का प्राकार पर्वत की चोटी के समान हो। १---उच्छुल्क-जिस उत्सव में राजकीय कर-महसूल न लिया जाता हो। २-उत्कर-जिसमें दुकान के लिये लो गयी जमीन का भाड़ा अथवा क्रय-विक्रय के लिये लाये गये गाय आदि पशुओं का कर न लिया जाय / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ) [ विपाकसूत्र---गथम श्रु तस्कन्ध ३–अभटप्रवेश-जिस उत्सव में किसी राजपुरुष के द्वारा किसी घर की तलाशी नहीं ली जा सकती। 4- अदण्डिम-कुदण्डिम-न्यायानुसार दी जाने वाली सजा दण्ड कही जाती है, और न्यूनाधिक सजा को कुदण्ड कहते हैं, उस दण्ड कुदण्ड से उत्पन्न द्रव्य का जिस उत्सव में अभाव हो। ५-अधरिम-जिस उत्सव में किसी को कोई अपने ऋण के कारण पीडित नहीं कर सकता। ६-अधारणीय-जिस उत्सव में दुकान आदि लगाने के लिये राजा की ओर से वापिस नहीं लौटाई जाने वाली आर्थिक सहायता दी जाय / ७-अनुद्धत मृदंग--जिसमें मृदंग बजाने वालों ने बजाने के लिये मदंग ग्रहण किये हों, तबलों को बजाने के लिये ठीक ढंग से ऊँचा कर लिया हो। --अम्लान माल्यदाम-जिसमें खिले हुए पुष्प एवं पुष्पमालाओं की सुव्यवस्था हो। E-गणिका नाटकीय कलित-जो उत्सव प्रधान वेश्या और अच्छे नाटक करने वाले नटों से युक्त हो। १०–अनेक तालाचरानुचरित—जिस उत्सव में ताल बनाकर नाचने वाले अपना कौशल दिखाते हों। ११–प्रमुदित प्रकीडिताभिराम-जो उत्सव तमाशा दिखाने वालों तथा खेल दिखाने वालों से मनोहर हो। १२–यथार्ह-जो उत्सव सर्वप्रकार से योग्य-अादर्श व व्यवस्थित हो, तात्पर्य यह कि वह उत्सव अपनी उपमा आप ही हो। २७--एवं खलु देवाणुपिया ! पुरिमताले नयरे महाबलस्स रन्नो उस्सुक्के जाव दसरत्ते . पमोए उग्धोसिए / तं कि णं, देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणं खाइम साइम पुष्फवत्थमल्लालंकारे य इह हव्वमाणिज्जउ उदाहु सयमेव गच्छित्था ? 27 - (कौटुम्बिक पुरुषों ने चोरसेनापति से कहा-) हे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्क यावत् दशदिन पर्यन्त प्रमोद-उत्सव की घोषणा कराई है, तो क्या आपके लिए विपुल अशन. पान, खादिम और स्वादिम तथा पुष्प वस्त्र माला अलङ्कार यहीं पर लाकर उपस्थित किए जायँ अथवा आप स्वयं वहाँ इस प्रसंग पर उपस्थित होंगे? / २८-तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा महाबलस्स रण्णो करयल० जाव एवं सामि त्ति' आणाए क्यणं पडिसुणन्ति पडिसुणेत्ता, पुरिमतालाओ नयरानो पडिमिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता नाइविकिहि प्रद्धाणेहि सुहेहि वसहिपायरासेहिं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता प्रभग्गसणं चोरसेणावई करयल जाव एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! पुरिमताले नयरे महाबलस्स रण्णो उस्सुक्के जाव उदाहु सयमेव गच्छित्था ?' तए णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई ते कोडुबियपुरिसे एवं वयासी—'अहणं देवाणुप्पिया ! पुरिमतालनयरं सयम व गच्छामि।' ते कोडुबियपुरिसे सक्कारेइ सम्माणेइ पडिविसज्जेइ ! Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] [ 55 २८-तदनन्तर वे कौटुम्बिक पुरुष महाबल नरेश की इस प्राज्ञा को दोनों हाथ जोड़कर यावत् अञ्जलि करके 'जी हाँ स्वामी' कहकर विनयपूर्वक सुनते हैं और सुनकर पुरिमताल नगर से निकलते हैं। छोटी-छोटी यात्राएँ करते हुए, तथा सुखजनक विश्राम-स्थानों पर प्रातःकालीन भोजन आदि करते हुए जहाँ शालाटवी नामक चोर-पल्ली थी वहाँ पहुंचे। वहाँ पर अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजुलि करके इस प्रकार निवेदन करने लगे देवानुप्रिय ! पुरिमताल नगर में महाबल नरेश ने उच्छुल्य यावत् दस दिनों का प्रमोद उत्सव उद्घोषित किया है, तो क्या आपके लिये अशन, पान, खादिम, स्वादिम, पुष्पमाला अलंकार यहाँ पर ही उपस्थित किये जाएँ अथवा अाप स्वयं वहाँ पधारते हैं? तब अभग्नसेन सेनापति ने कौटुम्बिक पुरुषों को उत्तर में इस प्रकार कहा-'हे भद्र पुरुषो! मैं स्वयं ही प्रमोद-उत्सव में पुरिमताल नगर में आऊँगा।' तत्पश्चात् अभग्नसेन ने उनका उचित सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया। २६-तए णं से प्रभग्गसणे चोरसेणावई बहूहि मित्त जाव परिवुडे व्हाए जाब पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सालाडवीमो चोरपल्लीनो पडिनिक्खमह / पडिनिक्खमित्ता जेणेव पुरिमताले नयरे, जेणेव महाबले राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, करयल० महाबलं रायं जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेत्ता महत्थं जाव पाहुडं उवणेइ / तए णं से महाबले राया, अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तं महत्थं जाव पडिच्छइ, अभग्गसेणं चोरसेणावई सक्कारेइ, सम्माणेइ, पडिविसज्जेइ, कूडागारसालं च से श्रावसह दलया। तए णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई महाबलेणं रण्णा विसज्जिए समाणे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छइ। २६-तदनन्तर मित्र, ज्ञाति व स्वजन-परिजनों से घिरा हुआ वह अभग्नसेन चोरसेनापति स्नानादि से निवृत्त हो यावत् अशुभ स्वप्न का फल विनष्ट करने के लिये प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक आदि माङ्गलिक अनुष्ठान करके समस्त आभूषणों से अलंकृत हो शालाटवी चोरपल्ली से निकलकर जहाँ पुरिमताल नगर था और जहाँ महाबल नरेश थे, वहां पर पाता है। पाकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दश नखों वाली अञ्जलि करके महाबल राजा को 'जय-विजय शब्द से बधाई देता है / बधाई देकर महार्थ यावत् राजा के योग्य प्राभूत-भेंट अर्पण करता है। तदनन्तर महाबल राजा उस अभग्नसेन चोरसेनापति द्वारा अर्पित किए गए उपहार को स्वीकार करके उसे सत्कार-सम्मानपूर्वक-अपने पास से विदा करता हुआ कुटाकारशाला में उसे रहने के लिये स्थान देता है / तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति महाबल राजा के द्वारा सत्कारपूर्वक विसजित होकर कूटाकारशाला में आता है और वहाँ पर ठहरता है / ३०-तए णं से महाबले राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणप्पिया! विउलं असणं पाणं खाइम साइम उवक्खडावेह, उववखडावेत्ता तं विउलं असणं-४, सुरं च-५, सुबहुं पुप्फवत्थ-गंध-मल्लालंकारं च प्रभग्गसेणस्स चोरसेणाव इस्स कूडगारसाल उवणेह / तए णं से कोडुबियपुरिसा करयल जाव उवणेति / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] [विपाकसूत्र---प्रथम श्रुतस्कन्ध तए णं से प्रभग्गसेणे चोरसेणावई बहूहि मित्तनाइ० सद्धि संपरिबुडे व्हाए जाव सव्वालंकारविभूसिए तं विउलं असणं-४ सुरं च 5, प्रासाएमाणे पमत्ते विहरइ / ३०-इसके बाद महाबल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-तुम लोग विपुल अशन, पान, खादिम, स्वादिम पुष्प, वस्त्र, गंधमाला अलंकार एवं सुरा आदि मदिराओं को तैयार कराग्रो और उन्हें कुटाकार-शाला में चोरसेनापति अभग्नसेन की सेवा में पहुंचा दो। कौटुम्बिक पुरुषों ने हाथ जोड़कर यावत् अञ्जलि करके राजा की आज्ञा स्वीकार की और तदनुसार विपुल अशनादिक सामग्री वहाँ पहुँचा दी। तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति स्नानादि से निवृत्त हो, समस्त आभूषणों को पहिनकर अपने बहुत से मित्रों व ज्ञाति जनों आदि के साथ उस विपुल अशनादिक तथा पंचविध मदिराओं का सम्यक प्रास्वादन विस्वादन करता हा प्रमत्त-बेखबर होकर विहरण करने लगा। 31- तए णं से महाबले राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी—'गच्छह णं तुन्भे, देवाणुप्पिया ! पुरिमतालस्स नयरस्स दुवाराई पिहेह, अभग्गसेणं चोरसेणावइं जीवनगाहं गिण्हह, गिहित्ता ममं उवणेह / ' तए णं ते कोडुबियपुरिसा करयल जाव पडिसुर्णेति, पडिसुणेत्ता पुरिमतालस्स नयरस्स दुवाराई पिहेंति, अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गिण्हंति, महाबलस्स रण्णो उवणेति / तए णं से महाबले राया अभग्गसेणं चोरसेणावई एएणं विहाणेणं वज्झ प्राणवेइ / एवं खलु गोयमा ! अभग्गसेणे चोरसेणावई पुरापोराणाणं जाव विहरइ। 31- (अभग्नसेन चोरसेनापति को सत्कारपूर्वक कुटाकारशाला में ठहराने और भोजन कराने तथा मदिरा पिलाने के पश्चात्) महाबल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा---'हे देवानुप्रियो ! तुम लोग जानो और जाकर पुरिमताल नगर के दरवाजों को बन्द कर दो और अभग्नसेन चोरसेनापति को जीवित स्थिति में ही पकड़ लो और पकड़कर मेरे सामने उपस्थित करो !' तदनन्तर कौटुम्बिक पुरुषों ने राजा की यह प्राज्ञा हाथ जोड़कर यावत् दश नखों वाली अञ्जलि करके शिरोधार्य की और पुरिमतालनगर के द्वारों को बन्द करके चोरसेनापति अभग्नसेन को जीवित पकड़ कर महाबल नरेश के समक्ष उपस्थित किया। तत्पश्चात् महाबल नरेश ने अभग्नसेन चोरसेनापति को इस विधि से (जैसा तुम देखकर आए हो) बध करने की आज्ञा प्रदान कर दी। श्रमण भगवान महावीर कहते हैं हे गौतम ! इस प्रकार निश्चित रूप से वह चोरसेनापति अभग्नसेन पूर्वोपाजित पापकर्मों के नरक तुल्य विपाकोदय के रूप में घोर वेदना का अनुभव कर रहा है। अभग्नसेन का भविष्य ३२–अभग्गसेणे णं भन्ते ! चोरसेणावई कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहि उववजिहिइ? 'गोयमा ! अभग्गसेणे चोरसेगावईं सत्ततोसं वासाइं परमाउं पाल इत्ता अज्जे व तिभागावसेसे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन ] [ 57 दिवसे सूलभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववज्जिहिइ / ' से गं तो अणंतरं उध्वट्टित्ता, एवं संसारो जहा पढमे जाव वाउ-तेउ-पाउ-पुढवीसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चायाइस्सइ ! तो उन्वट्टित्ता वाणारसीए नयरीए सयरत्ताए पच्चायाहिइ / से णं तत्थ सूरिएहि जोवियानो ववरोविए समाणे तत्थेव वाणारसीए नयरीए सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ / से गं तत्थ उम्मुक्कबालभावे-‘एवं जहा पढमे, जाव अंतं काहिइ / ' ३२-गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-अहो भगवन ! वह अभग्नसेन चोरसेनापति कालावसर में काल करके कहाँ जाएगा ? तथा कहाँ उत्पन्न होगा? / भगवान ने उत्तर दिया-हे गौतम ! अभग्नसेन चोरसेनापति 37 वर्ष की परम आयुष्य को भोगकर आज ही त्रिभागावशेष (जिसका तीसरा भाग बाकी हो, ऐसे) दिन में सूली पर चढ़ाये जाने से काल करके (मृत्यु को प्राप्त होकर) रत्नप्रभानामक प्रथम नरक में नारकी रूप से, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, उत्पन्न होगा। फिर प्रथम नरक से निकलकर प्रथम अध्ययन में प्रतिपादित मृगापुत्र के संसारभ्रमण की तरह इसका भी परिभ्रमण होगा, यावत् पृथ्वीकाय, अपकाय, वायु काय तेजस्काय आदि में लाखों वार उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर बनारस नगरी में शूकर के रूप में उत्पन्न होगा। वहाँ शूकर के शिकारियों द्वारा उसका घात किया जाएगा। तत्पश्चात् उसी बनारस नगरी के श्रेष्ठिकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ बालभाव को पार करके युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, प्रवजित होकर, संयमपालन करके यावत् निर्वाण पद प्राप्त करेगा-जन्म-मरण का अन्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् समझ लेना चाहिये / // तृतीय अध्ययन समाप्त / Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन शकट जम्बूस्वामी की जिज्ञासा १--उवखेवो---जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तच्चस्स प्रज्झयणस्स अयम पण्णत्ते, चउत्थस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेण भगवया महावीरेण के अट्ट पण्णते? तो णं सुहम्मे अणगारे जंबू-अणगारं एवं वयासी १-जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया-भन्ते ! यदि श्रमण भगवान् महावीर ने, जो यावत् निर्वाणप्राप्त हैं, यदि तीसरे अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा तो भगवान ने चौथे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? तब सुधर्मा स्वाभी ने जम्बू अनगार से इस प्रकार कहासुधर्मा स्वामी का समाधान २-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं साहंजणी णामं नयरी होत्था / रिद्धस्थिमियसमिद्धा। तीसे णं साहंजणोए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीमाए देवरमणे णामं उज्जाणे होत्था / तत्थ णं अमोहस्स जखस्स जक्खाययणे होत्था, पोराणे / तत्थ णं साहंजणीए नयरीए महचंदे णाम राया होत्था, महयाहिमवंतमहंतमलयमदरसारे / तस्स णं महचंदस्स रण्णो सुसेणे णाम अमच्चे होत्था / साम-भेय-दंड-उपप्पयाणनीतिसुपउत्तनयविहण्णू निग्गह-कुसले / तत्थ णं साहंजणीए नयरोए सुदरसिणा णाम गणिया होत्था / वण्णप्रो।' २-हे जम्बू ! उस काल उस समय में साहजनी नाम की एक ऋद्ध-भवनादि की सम्पत्ति से सम्पन्न, स्तिमित-स्वचक्र-परचक्र के भय से रहित तथा समृद्ध-धन-धान्यादि से परिपूर्ण नगरी थी। उसके बाहर ईशानकोण में देवरमण नाम का एक उद्यान था। उस उद्यान में अमोघनामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था। उस नगरी में महचन्द्र नाम का राजा राज्य करता था। वह हिमालय के समान दूसरे राजाओं से महान् था। उस महचन्द्र नरेश का सुषेण नाम का मन्त्री था, जो सामनीति, भेदनीति दण्डनीति और उपप्रदाननीति के प्रयोग को और न्याय नीतियों की विधि को जानने वाला तथा निग्रह में कुशल था। उस नगर में सुदर्शना नाम की एक सुप्रसिद्ध गणिका-वेश्या रहती थी। उसका वर्णन (द्वितीय अध्याय में वर्णित कामध्वजा वेश्या के समान) जान लेना चाहिये। ३-तत्थ णं साजणीए नयरीए सुभद्दे णाम सत्यवाहे परिवसइ / अड्ढे / तस्स णं सुभहस्स सत्यवाहस्स भद्दा णाम भारिया होत्था, अहीणपडिपुष्णचिदियसरीरा / तस्स णं सुभद्दसत्थवाहस्स पुते भद्दाए भारियाए अत्तए सगडे णाम दारए होत्था, अहीणपडिपुण्णपंचिदि यसरीरे / 1. देखिए द्वि. अ., सूत्र-३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : शकट | [ 59 ३-उस नगरी में सुभद्र नाम का एक सार्थवाह रहता था। उस सुभद्र सार्थवाह की अन्यूननिर्दोष सर्वाङ्गसुन्दर शरीर वाली भद्रा नामक भार्या थी / सुभद्र सार्थवाह का पुत्र व भद्रा भार्या का आत्मज शकट नाम का बालक था / वह भी अन्यून-पंचेन्द्रियों से परिपूर्ण-सुन्दर शरीर से सम्पन्न था। ४-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे / परिसा राया य निग्गए। धम्मो कहियो / परिसा पडिगधा, राया वि णिग्गओ। ४-उस काल, उस समय साहजनी नगरी के बाहर देवरमण उद्यान में श्रमण भगवान महावीर पधारे / नगर से भगवान के दर्शनार्थ जनता और राजा निकले / भगवान् ने धर्मदेशना दी। धर्मदेशना श्रवण कर राजा और प्रजा सब पुनः अपने अपने स्थान पर चले गये। शकट के पूर्वभव का वृत्तान्त 5- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्म भगवनो महावीरस्स जे? अन्तेवासी जाव' रायमग्गमोगाढे / तत्थ णं हत्थी, प्रासे बहवे पुरिसे पासइ / तेसि च पुरिसाणं मझगए पासइ एग सइत्थीयं पुरिसं प्रवप्रोडयबंधणं उक्खित्तकण्णनासं जाव घोसिज्जमाणं / चिता तहेव जाव भगवं वागरेइ / ___५--उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी श्री गौतम स्वामी (पूर्ववत् भिक्षा ग्रहण करके) यावत् राजमार्ग में पधारे। वहां उन्होंने हाथी, घोड़े और बहतेरे पुरुषों को देखा / उन पुरुषों के मध्य में अवकोटकबन्धन (जिस बन्धन में दोनों हाथों को मोड़कर पृष्ठ भाग पर रज्जु के साथ बाँधा जाय, उस बन्धन) से युक्त, कटे कान और नाक वाले यावत् उद्घोषणा सहित एक सस्त्रीक (स्त्री सहित) पुरुष को देखा / देख कर गौतम स्वामी ने पूर्ववत् विचार किया (यह पुरुष नारकीय वेदना भुगत रहा है, आदि) और भगवान् से आकर प्रश्न किया / भगवान् ने उत्तर में इस प्रकार कहा ६–एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जम्बुद्दीवे दोवे भारहे वासे छगलपुरे नाम नयरे होत्था / तत्थ सोहगिरी नाम राया होत्था, महया हिमवंतमहंतमलयमंदरसारे। तत्थ णं छगलपुरे नयरे छणिए नाम छागलिए परिवसइ / अड्ड, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे। ६-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीपनामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में छगलपुर नाम का एक नगर था / वहाँ सिंह गिरि नामक राजा राज्य करता था। वह हिमालयादि पर्वतों के समान महान् था / उस नगर में छणिक नामक एक छागलिक-बकरों के मांस से आजीविका करने वाला कसाई रहता था, जो धनाढय, अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। ७–तस्स णं छणियस्स छागलियस्स बहवे प्रयाण य एलयाण य रोज्झाण य वसभाण य ससयाण य सयराण य पसयाण य सिंघाण य हरिणाण य मयूराण य महिसाण य सयवद्धाण य सहस्सबद्धाण य जूहाणि बाडगंसि संनिरुद्धाइं चिट्ठति / अन्ने य तत्थ बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा 1. द्वि. अ. सूत्र-६. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्र तस्कन्ध बहवे अए य जाव महिसे य सारक्खमाणा संगोवेमाणा चिट्ठति / अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्न भइभत्तवेयणा बहवे प्रए य जाव महिसे य जीवियानो ववरोति, ववरोवित्ता मंसाइं कप्पणोकप्पियाइं करेंति, करेता छणियस्स छागलियस्स उवर्णेति / ___ अन्ने य से बहवे पुरिसा ताई बहुयाइं अयमसाई जाव महिसमसाई तवएसु य कवल्लीसु य कंदुएसु य भज्जणेसु य इंगालेसु य तलतिय भज्जति य सोल्लेति य, तलित्ता भज्जित्ता सोल्लेत्ता य तो रायमगंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरंति / अप्पणा वि य णं से छण्णिए छागलिए तेहि बहुविहेहि अयमंसेहि जाव महिसम सेहि सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च प्रासाएमाणे विहरइ / ७-उस छण्णिक छागलिक के अनेक अजों-बकरों, रोझों-नीलगायों, वृषभों, शशकोंखरगोशों, मृगविशेषों अथवा मृगशिशुओं, शूकरों, सिंहों, हरिणों, मयूरों और महिषों के शतबद्ध तथा सहस्रबद्ध अर्थात् सौ-सौ तथा हजार-हजार जिनमें बंधे रहते थे ऐसे यूथ, बाड़े में सम्यक् प्रकार से रोके हुए रहते थे / वहाँ जिनको वेतन के रूप में भोजन तथा रुपया पैसा दिया जाता था, ऐसे उसके अनेक आदमी अजादि और महिषादि पशुओं का संरक्षण-संगोपन करते हुए उन पशुओं को बाड़े में रोके रहते थे। छण्णिक छागलिक के रुपया और भोजन लेकर काम करने वाले अनेक नौकर पुरुष सैकड़ों तथा हजारों अजों तथा भैंसों को मारकर उनके मांसों को कैंची तथा छुरी से काट काट कर छण्णिक छागलिक को दिया करते थे। उसके अन्य अनेक नौकर उन बहत से बकरों के मांसों तथा महिषों के मांसों को तवों पर, कड़ाहों में, हांडों में अथवा कडाहियों या लोहे के पात्रविशेषों में, भूनने के पात्रों में, अंगारों पर तलते, भनते और शुल द्वारा पकाते हए अपनी आजीविका चलाते थे। वह छणिक स्वयं भी उन मांसों के साथ सुरा आदि पांच प्रकार के मद्यों का प्रास्वादन विस्वादन करता वह हुआ जीवनयापन कर रहा था। ८-तए णं से छण्णिए छागलिए एयकम्मे, एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म कलिकलुसं समज्जिणित्ता सत्तवाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा चउत्थीए पुढवीए उक्कोसेणं दससागरोवमठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / ८-उस छण्णिक छागलिक ने अजादि पशुओं के मांसों को खाना तथा मदिरानों का पीना अपना कर्तव्य बना लिया था। इन्हीं पापपूर्ण प्रवृत्तियों में वह सदा तत्पर रहता था। वही प्रवृत्ति उसके जीवन का विज्ञान बन गई थी, और ऐसे ही पापपूर्ण कर्मों को उसने अपना सर्वोत्तम आचरण बना रक्खा था। अतएव वह क्लेशोत्पादक और कालुष्यपूर्ण अत्यधिक क्लिष्ट कर्मों का उपार्जन कर सात सौ वर्ष की पूर्ण प्रायु पालकर कालमास में काल करके चतुर्थ नरक में, उत्कृष्ट दस सागरोपम स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। शकट का वर्तमान भव ६-तए णं तस्स सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दा भारिया जायनिंदुया यावि होत्था / जाया जाया Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : शकट ] [61 दारगा विणिहायमावज्जति / तए णं से छण्णिए छालिए चउत्थीए पुढवीए अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव साहंजगीए सुभद्दस्स सस्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने / तए णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ नवण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तए णं तं दारगं अम्मापियरो जायमेत्तं चेव सगडस्स हेद्वानो ठावति / दोच्चं पि गिण्हार्वति, प्रणपूवेणं सारखेति, संगोवेंति, संवडति, जहा उझियए, जाव जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्ते चेव सगडस्स हेट्ठा ठाविए, तम्हा णं होउ णं अम्ह एस दारए 'सगडे नामेणं / सेसं जहा उज्झियए / सुभद्दे लवणसमुद्दे कालगए, माया वि कालगया। से वि सयानो गिहारो निच्छुढे / तए णं से सगडे दारए सयानो गिहाप्रो निच्छुढे समाणे सिंघाडा तहेव जाव सुदरिसणाए गणियाए सद्धि संपलमो यावि होत्था। –तदनन्तर उस सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका (जिसके बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हों) थी। उसके उत्पन्न होते हुए बालक मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे / इधर छणिक नामक छागलिक-कसाई का जीव चतुर्थ नरक से निकलकर सीधा इसी साहंजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नाम की भार्या के गर्भ में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ / __लगभग नवमास परिपूर्ण हो जाने पर किसी समय भद्रा नामक भार्या ने बालक को जन्म दिया / उत्पन्न होते ही माता-पिता ने उस बालक को शकट-छकड़े-गाड़े के नीचे स्थापित कर दिया-- रख दिया और फिर उठा लिया / उठाकर यथाविधि संरक्षण, संगोपन व संवर्द्धन किया। यावत् यथासमय उसके माता-पिता ने कहा-उत्पन्न होते ही हमारा यह बालक छकड़े के नीचे स्थापित किया गया था, प्रतः इसका 'शकट' ऐसा नामाभिधान किया जाता है-उसका नाम शकट रख दिया। शकट का शेष जीवन उज्झित की ही तरह समझ लेना चाहिये। इधर सुभद्र सार्थवाह लवण समुद्र में कालधर्म को प्राप्त हया और शकट की माता भद्रा भी मृत्यु को प्राप्त हो गयी। तब शकट कुमार को राजपुरुषों के द्वारा घर से निकाल दिया गया / अपने घर से निकाले जाने पर शकटकुमार साहंजनी नगरी के शृंगाटक (त्रिकोण मार्ग) आदि स्थानों में भटकता रहा तथा जुआरियों के अड्डों तथा शराबधरों में घूमने लगा। किसी समय उसकी सुदर्शना गणिका के साथ गाढ़ प्रीति हो गयी। (जैसी उज्झित की कामध्वजा के साथ हो गयी थी।) १०-तए णं से सुसेणे प्रमच्चे तं सगडं दारगं अन्नया कयाइ सुरिसणाए गणियाए गिहारो निच्छुभावेइ, निच्छुभावेत्ता सुदरिसणं गणियं अभितरियं ठावेइ, ठावेत्ता सुदरिसणाए गणियाए सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ / 10 तदनन्तर सिंहगिरि राजा का अमात्य-मन्त्री सुषेण किसी समय उस शकट कुमार को सुदर्शना वेश्या के घर से निकलवा देता है और सुदर्शना गणिका को अपने घर में पत्नी के रूप में रख लेता है / इस तरह घर में पत्नी के रूप में रखी हुई सुदर्शना के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विशिष्ट कामभोगों को यथारुचि उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 [ विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतकन्ध ११–तए णं से सगड़े दारए सुरिसणाए गणियाए गिहाम्रो निच्छुभेमाणे सुरिसणाए गणियाए मच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववण्णे अण्णस्थ कत्थइ सुई च रइं च घिइंच अलभमाणे तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसाणे तट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए सुदरिसणाए गणियाए बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहर। तए णं से सगडे दारए अन्नया कयाइ सुदरिसणाए गणियाए अंतरं लभेइ, लभेत्ता सुदरिसणाए गणियाए गिहं रहसियं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता सुदरिसणाए सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। घर से निकाला गया शकट सुदर्शना वेश्या में मूच्छित, गृद्ध, अत्यन्त आसक्त होकर अन्यत्र कहीं भी सुख चैन, रति, शान्ति नहीं पा रहा था। उसका चित्त, मन, लेश्या अध्यवसाय उसी में लीन रहता था। वह सुदर्शना के विषय में ही सोचा करता, उसमें करणों को लगाए रहता, उसी की भावना से भावित रहता। वह उसके पास जाने की ताक में रहता और अवसर देखता रहता था। एक बार उसे अवसर मिल गया। वह सुदर्शना के घर में घुस गया और फिर उसके साथ भोग भोगने लगा। १२-इम च णं सुसेणे अमच्चे पहाए जाव सध्वालंकारविभूसिए मणुस्सवरगुराए परिक्खित्ते जेणेव सदरिसणाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता सगडं दारयं सूदरिसणाए गणियाए सद्धि उरालाई भोग भोगाई भुजमाणं पासइ, पासित्ता प्रासुरुत्ते जाव मिसमिसेमाणे तिवलियं भिडि निडाले साहट्ट सगडं दारयं पुरिसेहि गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता अट्टि जाव(मुट्ठि-जाणु-कोपर-पहार संभग्गमहियं करेइ, करिता प्रवनोडयबन्धणं करेइ, करेत्ता जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागच्छ, उवाग. च्छित्ता करयल जाव एवं वयासी–'एवं खलु सामो! सगडे दारए मम अंते उरंसि प्रवरद्धे / ' तए णं से महचंदे राया सुसेणं अमच्चं एवं क्यासी-'तुमं चेव णं, देवाणुपिया ! सगडस्स दारगस्स दंडवत्तेहि।' तए णं से सुसेणे अमच्चे महचंदेणं रन्ना अब्भणुन्नाए समाणे सगडं दारयं गुदरिसणं च गणियं एएणं विहाणेणं वज्झं प्राणवेइ / तं एवं खलु, गोयमा ! सगडे दारए पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ / १२-इधर एक दिन स्नान करके तथा सर्व अलङ्कारों से विभूषित होकर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित सुसेण मन्त्री सुदर्शना के घर पर आया। आते ही उसने सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए शकट कुमार को देखा / देखकर वह क्रोध के वश लाल-पीला हो, दांत पीसता हुआ मस्तक पर तीन सल वाली भृकुटि चढ़ा लेता है। शकट कुमार को अपने पुरुषों से पकड़वाकर यष्टियों, मुट्ठियों, घुटनों, कोहनियों से उसके शरीर को मथित कर अवकोटकबन्धन से जकड़वा लेता है। तदनन्तर उसे महाराज महचन्द्र के पास ले जाकर दोनों हाथ जोड़कर तथा मस्तक पर दसों नखवाली अञ्जलि करके इस प्रकार निवेदन करता है-'स्वामिन् ! इस शकट कुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है।' Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : शकट [ 63 इसके उत्तर में महाराज महचन्द्र सुषेण मन्त्री से इस प्रकार बोले-'देवानुप्रिय ! तुम ही इसको अपनी इच्छानुसार दण्ड दे सकते हो।' तत्पश्चात् महाराज महचन्द्र से प्राज्ञा प्राप्त कर सुषेण अमात्य ने शकट कुमार और सुदर्शना गणिका को पूर्वोक्त विधि से (जिसे हे गौतम ! तुमने देखा है) बध करने की आज्ञा राजपुरुषों को प्रदान की। शकट का भविष्य १३-सगडे णं भंते ! दारए कालगए कहि गच्छिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा ! सगडे णं दारए सत्तावन्न वासाइं परमाउयं पालइत्ता अज्जेब तिभागावसेसे दिवसे एग महं अयोमयं तत्तं समजोइभूयं इत्थिपडिम अवयासाविए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उववज्जिहिइ। से गं तो अणंतरं उच्चट्टित्ता रायगिहे नयरे मातंगकुलंसि जुगलत्ताए पच्चायाहिइ / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो निव्वत्तबारसाहस्स इमं एथारूवं गोण्णं नामधेज्जं करिस्संत्ति- 'तं होउ णं दारए सगडे नामेणं, होउ णं दारिया सुदरिसणा नामेणं / ' १३-शकट की दुर्दशा का कारण भगवान से सुनकर गौतम स्वामी ने प्रश्न किया--हे प्रभो ! शकट कुमार बालक यहाँ से काल करके कहाँ जाएगा और कहाँ पर उत्पन्न होगा? भगवान् बोले-हे गौतम ! शकट दारक को 57 वर्ष की परम आयु को भोगकर आज ही तीसरा भाग शेष रहे दिन में एक महालोहमय तपी हुई अग्नि के समान देदीप्यमान स्त्रीप्रतिमा से प्रालिंगित कराया जायगा। तब वह मृत्यु-समय में मरकर रत्नप्रभा नाम की प्रथम नरक भूमि में नारक रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर राजगृह नगर में मातङ्ग--चाण्डाल के कुल में युगल रूप से उत्पन्न होगा। युगल (वे दो बच्चे जो एक ही गर्भ से साथ-साथ उत्पन्न हुए हों) के माता-पिता बारहवें दिन उनमें से बालक का नाम 'शकटकुमार' और कन्या का नाम 'सुदर्शना' रक्खेंगे। १४---तए णं से सगडे दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णयपरिणयमेते जोव्वणगमणुपत्ते भविस्सइ / तए णं सा सुदरिसणा वि दारिया उम्मक्कबालभावा जोधणगमणुप्पत्ता स्वेण य जोवणेण य लावणेण य उक्किट्ठा उक्किटुसरीरा यावि भविस्सइ / तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए रूवेण य जोवणेण 5 लावण्णेण य मुच्छिए सुदरिसणाए सद्धि उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्सइ। तए णं से सगडे दारए अन्नया सयमेव कडग्गाहित्तं उबसंपज्जित्ताणं विहरिस्सइ / तए णं से सगडे दारए कूडग्गाहे भविस्सइ अहम्मिए जाव' दुप्पडियाणन्दे / एयकम्मे-४ सुबहुं पाकम्मं समज्जिणित्ता कालमासे काल किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उवदन्जिहिइ / संसारो तहेव जाव पुढवीए। 1. प्र. अ. सूत्र 20 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [विपाकसूत्र--प्रथम श्रु तस्कन्ध से गं तओ अणंतरं उध्वट्टित्ता वाणारसीए नयरीए मच्छत्ताए उववज्जिहिइ / से णं तत्थ मच्छबन्धिएहिं वहिए तत्थेव वाणारसीए नयरोए सेट्टिकुल सि पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ / बोहि, पव्वज्जा, सोहम्मे कप्पे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्खेवो। १४–तदनन्तर शकट कुमार बाल्यभाव को त्याग कर यौवन को प्राप्त करेगा। सदर्शना कुमारी भी बाल्यावस्था पार करके विशिष्ट ज्ञानबुद्धि की परिपक्वता को प्राप्त करती हुई युवावस्था को प्राप्त होगी। वह रूप, यौवन व लावण्य में उत्कृष्ट श्रेष्ठ व सुन्दर शरीर वाली होगी। तदनन्तर सुदर्शना के रूप, यौवन और लावण्य की सुन्दरता में मूच्छित होकर शकट कुमार अपनी बहिन सुदर्शना के साथ ही मनुष्य सम्बन्धी प्रधान कामभोगों का सेवन करता हुआ जीवन व्यतीत करेगा। / तत्पश्चात् किसी समय वह शकट कुमार स्वयमेव कूटनाहित्व को प्राप्त कर विचरण करेगा। वह कट ग्राह (कपट से जीवों को फँसाने वाला मारने वाला) बना हुया वह शकट महाअधर्मी एवं दुष्प्रत्यानन्द होगा / इन अधर्म-प्रधान कर्मों से बहुत से पापकर्मों को उपाजित कर मर कर रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में लारकी रूप से उत्पन्न होगा। उसका संसार-भ्रमण भी पूर्ववत (इक्कड, उज्झित आदि के समान) जान लेना चाहिए यावत् वह पृथ्वीकाय आदि में लाखों-लाखों वार उत्पन्न होगा। तदनन्तर वहाँ से निकलकर वह सीधा वाराणसी नगरी में मत्स्य के रूप में जन्म लेगा। वहाँ पर मत्स्यघातकों के द्वारा बध को प्राप्त होकर यह फिर उसी वाराणसी नगरी में एक श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहाँ सम्यक्त्व एवं अनगार धर्म को प्राप्त करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में देव होगा / वहाँ से च्युत हो, महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहाँ साधुवृत्ति का सम्यक्तया पालन करके सिद्ध, बुद्ध होगा, समस्त कर्मों और दुःखों का अन्त करेगा। में मर // चतुर्थ अध्ययन समाप्त / / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन बृहस्पतिदत्त प्रस्तावना पंचमस्स उपखेवो-जइ णं भन्ते ! पांचवें अध्ययन का उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् जान लेना चाहिये। अर्थात् जम्बूस्वामी ने प्रश्न किया कि श्रमण भगवान् महावीर ने दुःखदिपाक के पांचवें अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? तब सुधर्मा स्वामी ने कहा १-एवं खलु, जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबी णाम णयरी होत्था / रिद्धस्थिमियसमिद्धा / बाहिं चंदोतरणे उज्जाणे / सेयभद्दे जक्खे / १-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में कौशाम्बी नाम की एक नगरी थी, जो भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्वचक्र-परचक्र के भय से मुक्त तथा समृद्धि से समृद्ध थी। उस नगरी के बाहर चन्द्रावतरण नामक उद्यान था। उसमें श्वेतभद्र नामक यक्ष का आयतन था। २–तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सयाणीए नाम राया होत्था / महया० / मियावई देवी। तस्स णं सयाणीयस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए उदायणे नामं कुमारे होत्था, अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरे, जुवराया। तस्स णं उदायणस्स कुमारस्स पउमावई नामं देवी होत्था। २-उस कौशम्बी नगरी में शतानीक नाम का राजा राज्य करता था। जो हिमालय पर्वत आदि के समान महान् और प्रतापी था / उसके मृगादेवी नाम की रानी थी / उस शतानीक राजा का पुत्र और रानी मृगादेवी का पात्मज उदयन नाम का एक कुमार था जो सर्वेन्द्रिय सम्पन्न अथ च युवराज पद से अलंकृत था। उस उदयन कुमार की पद्मावती नाम की देवी-पत्नी थी। ३-तस्स णं सयाणीयस्स सोमदत्त नामं पुरोहिए होत्था, रिउव्वेय-यज्जुब्वेय-सामवेयअथव्वणवेयकुसले / तस्स णं सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ता नाम भारिया होत्था / तस्स णं सोमदत्तस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए बहस्सइदत्ते नामं दारए होत्था / अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरे / ३-उस शतानीक राजा का सोमदत्त नामक पुरोहित था, जो ऋग्वेद, यजर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का पूर्ण ज्ञाता था। उस सोमदत्त पुरोहित के वसुदत्ता नाम की भार्या थी, तथा सोमदत्त का पुत्र एवं वसुदत्ता का प्रात्मज बृहस्पतिदत्त नाम का सर्वाङ्गसम्पन्न एक सुन्दर बालक था। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ४-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए / तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे तहेव जाव' रायमग्गमोगाढे। तहेव पासइ हत्थी, प्रासे, पुरिसमझे पुरिसं / चिता / तहेव पुच्छइ, पुत्वभवं / भगवं वागरेइ / ४-उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कौशम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में पधारे। उस समय भगवान् गौतम स्वामी पूर्ववत् कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ गए / और लौटते हुए राजमार्ग में पधारे। वहाँ हाथियों, घोड़ों और बहुसंख्यक पुरुषों को तथा उन पुरुषों के बीच एक बध्य पुरुष को देखा। उनको देखकर मन में विचार करते हैं और स्वस्थान पर पाकर भगवान् से उसके पूर्व-भव के सम्बन्ध में पृच्छा करते हैं। भगवान् उसके पूर्वभव का इस प्रकार वर्णन करते हैं-- पूर्वभव ५-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सव्वोभद्दे नाम नयरे होत्था, रिद्धत्यिमियसमिद्ध / तत्थ णं सवप्रोभद्दे नयरे जियसत्तू राया। तस्स णं जियसत्तुस्स रन्नो महेसरदत्त नामं पुरोहिए होत्था, रिउव्वेय-यजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेयकुसले यावि होत्था। ५---हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त पान्तरिक व बाह्य उपद्रवों से मुक्त तथा धनधान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस सर्वतोभद्र नामक नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस जितशत्रु राजा का महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कुशल था। ६-तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए जितसत्तुस्स रन्नो रज्जबलविवद्धणट्ठयए कल्लाकल्लि एगमेगं माहणदारयं, एममेगं खत्तियदारयं एगमेगं वइस्सदारयं, एगमेगं सुद्ददारयं गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता तेसि जीवंतगाणं चेव हिययउंडए गिण्हावेए गिण्हावेत्ता जियसत्तुस्स रन्नो संतिहोमं करे। तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अदमी-चउद्दसीसु दुवे-दुवे माहणखत्तिय-वइस्स-सुद्ददारगे, चउण्हं मासाणं चत्तारि-चत्तारि, छण्हं मासाणं अट्ठ-अट्ठ संवच्छरस्स सोलस-सोलस / जाहे जाहे वि य णं जियसत्त राया परबलेण अभिजुजइ, ताहे ताहे वि य णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठसयं माहणदारगाणं, अट्ठसयं खत्तियदारगाणं, अनुसयं वइस्सदारगाणं, अट्ठसयं सुद्ददारगाणं पुरिसेहि गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता जियसत्तुस्स रन्नो संतिहोम करेइ / तए णं से परबले खिप्पामेव विद्ध सिज्जइ वा पडिसेहिज्जइ बा। ६-महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य की एवं बल की वृद्धि के लिये प्रतिदिन एक-एक ब्राह्मण बालक, एक-एक क्षत्रिय बालक, एक-एक वैश्य बालक और एक-एक शूद्र बालक को पकड़वा लेता था और पकड़वाकर, जीते जी उनके हृदयों के मांसपिण्डों को ग्रहण करवाता१. द्वि. अ., सूत्र-६ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : बृहस्पति दत्त ] निकलवा लेता था और बाहर निकलवाकर जितशत्रु राजा के निमित्त उनसे शान्ति-होम किया करता था। इसके अतिरिक्त वह पुरोहित अष्टमी और चतुर्दशी के दिन दो-दो बालकों के, चार-चार में चार-चार के, छह मास में आठ-आठ बालकों के और संवत्सर-वर्ष में सोलह-सोलह बालकों के हृदयों के मांसपिण्डों से शान्तिहोम किया करता था। जब-जब जितशत्रु राजा का किसी शत्रु के साथ युद्ध होता तब-तब वह महेश्वरदत्त पुरोहित एक सौ आठ (108) ब्राह्मण बालकों, एक सौ आठ क्षत्रियबालकों, एक सौ आठ वैश्यबालकों और एक सौ पाठ शूद्रबालकों को अपने पुरुषों द्वारा पकड़वाकर और जीते जी उनके हृदय के मांसपिण्डों को निकलवाकर जितशत्रु नरेश की विजय के निमित्त शान्तिहोम करता था / उसके प्रभाव से जितशत्रु राजा शीघ्र ही शत्रु का विध्वंस कर देता या उसे भगा देता था। ७-तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहु पावकम्मं समज्जिणित्ता तीसं वाससयं परमाउयं पालइत्ता कालमासे काल किच्चा पंचमीए पुढवीए उक्कोसेण सत्तरससागरोवमट्टिइए नरगे उववन्ने / ७-इस प्रकार के क्रूर कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, क्रूरकर्मों में प्रधान, नाना प्रकार के पापकर्मों को एकत्रित कर अन्तिम समय में वह महेश्वरदत्त पुरोहित तीन हजार वर्ष का परम आयुष्य भोगकर पांचवें नरक में उत्कृष्ट सत्तरह सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुमा / वर्तमान भव -से णं तमो अणंतरं उबट्टित्ता इहेव कोसंबीए नयरीए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ताए भारियाए पुत्तताए उववन्ने / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो निबत्तबारसाहस्स इम एयारूवं नामधेज्ज करेंति-'जम्हा णं अम्हं इमे दारए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स पुत्ते, वसुदत्ताए अत्तए, तम्हा णं होउ अम्हं दारए वहस्सइदत्ते नाम णं / ' तए णं से बहस्सइदत्ते दारए पंचधाइपरिम्गहिए जाव परिवड्डइ / तए णं से वहस्सइदत्ते उम्मक्कबालभावे जोवणगमणुप्पत्ते विन्नयपरिणयमेते होत्था / से णं उदायणस्स कुमारस्स पियबालवयस्सए यावि होत्था / सहजायए, सहड्डियए, सहपंसुकोलियए। ८-तदनन्तर महेश्वरदत्त पुरोहित का वह पापिष्ठ जीव उस पांचवें नरक से निकलकर सीधा इसी कौशाम्बी नगरी में सोमदत्त पुरोहित की वसुदत्ता भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हा। तत्पश्चात उत्पन्न हए उस बालक के माता-पिता ने जन्म से बारहवें दिन नामकरण संस्कार करते हए कहा-यह बालक सोमदत्त का पूत्र और वसूदत्ता का पात्मज होने के कारण इसका बृहस्पतिदत्त यह नाम रक्खा जाए। तदनन्तर वह बृहस्पतिदत्त बालक पांच धायमाताओं से परिगृहीत यावत् वृद्धि को प्राप्त करता हुआ तथा बालभाव को पार करके युवावस्था को प्राप्त होता हुआ, परिपक्व विज्ञान को उपलब्ध किये हुए वह उदयन कुमार का बाल्यकाल से ही प्रिय मित्र हो गया। कारण यह था कि ये दोनों एक साथ ही उत्पन्न हुए, एक साथ बढ़े और एक साथ ही दोनों ने धूलि-क्रीडा की थी अर्थात् खेले थे। -तए णं से सयाणीए राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते / तए णं से उदायणं कुमारे बहूहि राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठी-सेणावइ-सस्थवाहप्पभिइहि सद्धि संपरिवुडे रोय Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध माणे, कन्दमाणे, विलवमाणे सयाणीयस्स रन्नो महया इडि-सक्कारसमुदएणं नीहरणं करेइ, करेत्ता बहूहि लोइयाई मयकिच्चाई करेइ / तए णं ते बहवे राईसर जाव सत्थवाहा उदायणं कुमारं महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचंति / / तए णं से उदायणकुमारे राया जाए महया हिमवंत! ह-तदनन्तर किसी समय राजा शतानीक कालधर्म को प्राप्त हो गया। तब उदयनकुमार बहुत से राजा, तलवर, माडंबिक, कौटुबिक, इभ्य, श्रेष्ठी सेनापति और सार्थवाह आदि के साथ रोता हुअा, आक्रन्दन करता हुआ तथा विलाप करता हुआ शतानीक नरेश का राजकीय समृद्धि के अनुसार सन्मानपूर्वक नीहरण तथा मृतक सम्बन्धी सम्पूर्ण लौकिक कृत्यों को करता है। तदनन्तर उन राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि ने मिलकर बड़े समारोह के साथ उदयन कुमार का राज्याभिषेक किया। उदयनकुमार हिमालय पर्वत के समान महान् राजा हो गया / १०-तए णं से बहस्सइदत्ते दारए उदायणस्स रन्नो पुरोहियकम्मं करेमाणे सव्वट्ठाणेसु, सव्वभूमियासु, अंतेउरे य दिन्नवियारे जाए यावि होस्था / तए णं से बहस्सइदत्ते पुरोहिए उदायणस्स रन्नो अंतेउरंसि वेलासु य अवेलासुय, काले य अकाले य, रापो य वियाले य पविसमाणे अन्नया कयाइ पउमावईए देवीए सद्धि संपलग्गे यावि होत्था। पउमावईए देवीए सद्धि उरालाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। १०-तदनन्तर बृहस्पतिदत्त कुमार उदयन नरेश का पुरोहित हो गया और पौरोहित्य कर्म करता हुआ सर्वस्थानों, सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में भी इच्छानुसार बेरोक-टोक गमनागमन करने लगा। तत्पश्चात् वह बृहस्पतिदत्त पुरोहित उदयन-नरेश के अन्तःपुर में समय-समय, काल-अकाल तथा रात्रि एवं सन्ध्याकाल में स्वेच्छापूर्वक प्रवेश करते हुए धीरे धीरे पद्मावती देवी के साथ अनुचित सम्बन्ध वाला होगया। तदनुसार पद्मावती देवी के साथ उदार यथेष्ट मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों को सेवन करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। ११-इमं च णं उदायणे राया पहाए जाव विभूसिए जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहस्सइदत्तं पुरोहियं पउमावइए देवीए सद्धि उरालाई भोगभोगाइं भुजमाणं पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते तिवलियं भिडि पिडाले साहट्ट बहस्सइदत्तं पुरोहियं पुरिसेहि गिण्हावेइ जाव (गिण्हावेत्ता अद्वि-मुट्ठि-जाणु-कोप्परपहार-संभग्ग-महियगत्तं करेइ, करेता अवनोडय-बंधणं करेइ, करेत्ता) एएणं विहाणेणं वझं प्राणवेइ। एवं खलु गोयमा ! बहस्सइदत्ते पुरोहिए पुरा पुराणाणं जाव विहरइ / ११-इधर किसी समय उदयन नरेश स्नानादि से निवृत्त होकर और समस्त अलङ्कारों से अलंकृत होकर जहाँ पद्मावती देवी थी वहाँ आया / पाकर उसने बृहस्पतिदत्त पुरोहित को पद्मावती Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन : बृहस्पतिदत्त ] देवी के साथ भोगोपभोग भोगते हुए देखा। देखते ही वह क्रोध से तमतमा उठा / मस्तक पर तीन बल वाली भृकुटि चढ़ाकर बृहस्पतिदत्त पुरोहित को पुरुषों द्वारा पकड़वाकर यष्टि (अस्थि), मुट्ठी, घुटने, कोहनी, आदि के प्रहारों से उसके शरीर को भग्न कर दिया गया, मथ डाला और फिर इस प्रकार (जैसा कि तुमने राजमार्ग में देखा है ) ऐसा कठोर दण्ड देने की राजपुरुषों को आज्ञा दी।। _हे गौतम ! इस तरह बृहस्पतिदत्त पुरोहित पूर्वकृत क्रूर पापकर्मों के फल को प्रत्यक्षरूप से अनुभव कर रहा है। भविष्य १२–'बहस्सइदत्ते णं भंते ! दारए इनो कालगए समाणे कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ? गोयमा ! बहस्सइदत्ते णं दारए पुरोहिए चउट्टि वासाइं परमाउयं पालइत्ता अज्जेव तिभागावसेसे दिवसे सूलिय-भिन्ने कए समाणे कालमासे काल किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववज्जिहिति / संसारो जहा पढमे जाव वाउ-तेउप्राउ-पुढवीसु। तमो हत्थिणाउरे नयरे मिगत्ताए पच्चायाइस्सइ / से णं तत्थ बाउरिएहि वहिए समाणे तत्थेव हथिणाउरे नयरे सेट्टिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ, बोहि, सोहम्मे कम्पे, महाविवेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो। १२–गौतम स्वामी ने प्रश्न किया, हे भगवन् ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित यहाँ से काल करके कहाँ जायेगा? और कहाँ पर उत्पन्न होगा? भगवान ने उत्तर दिया-हे गौतम ! बृहस्पतिदत्त पुरोहित 64 वर्ष की आयु को भोगकर दिन का तीसरा भाग शेष रहने पर सूली से भेदन किया जाकर कालावसर में काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्कृष्ट एक सागर की स्थिति वाले नारकों में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर प्रथम अध्ययन में वणित मृगापुत्र की तरह सभी नरकों में, सब तिर्यञ्चों में तथा एकेन्द्रियों में लाखों लाखों बार जन्म-मरण करेगा। तत्पश्चात् हस्तिनापुर नगर में मृग के रूप में जन्म लेगा। वहाँ पर वागुरिकों-जाल में फँसाने का काम करने वाले व्याधों के द्वारा मारा जाएगा। और इसी हस्तिनापुर में श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप से जन्म धारण करेगा! वहाँ सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा और काल करके सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा / वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहाँ पर अनगार वृत्ति धारण कर, संयम की आराधना करके सब कर्मों का अन्त करेगा-परमसिद्धि को प्राप्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् जान लेना चाहिए। // पञ्चम अध्ययन समाप्त / / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन नन्दिवर्द्धन प्रस्तावना १-उक्खेवो-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भंते / समणेणं भगवया महावीरेणं के प्र8 पण्णत्ते? तए णं सुहम्मे प्रणगारे जम्बू-अणगारं एवं वयासी १-उत्क्षेप-जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-भगवन् / यदि यावत् मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने पांचवें अध्ययन का यह अर्थ कहा, तो षष्ठ अध्ययन का भगवान् ने क्या अर्थ कहा है ? २.-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं महुरा नाम नयरी होत्था। भंडोरे उज्जाणे। सुदंसणे जक्खे। सिरिदामे राया। बन्धुसिरी भारिया। पुत्ते नंदिबद्धणे कुमारे अहीण (पडिपुण्णपंचिदियशरीरे) जाब जुवराया। २--हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में मथुरा नाम की नगरी थी / वहाँ भण्डीर नाम का एक उद्यान था / सुदर्शन नामक यक्ष का उसमें आयतन था। वहाँ श्रीदाम नामक राजा राज्य करता था, उसकी बन्धुश्री नाम की रानी थी। उनका सर्वाङ्ग-सम्पन्न युवराज पद से अलंकृत नन्दिवर्द्धन नाम का सर्वांगसुन्दर पुत्र था। ३-तस्स सिरिदामस्स सुबन्ध नामं अमच्चे होत्था। साम-भेय-दण्ड-उवप्पयाणनीतिकुसले, सुपउत्तनयविहण्णू / तस्स गं सुबंधुस्स अमच्चस्स बहुमित्तापुत्ते नामं दारए होत्था, ग्रहोण० / तस्स णं सिरिदामस्स रन्नो चित्ते नामं प्रल कारिए होत्था। सिरिदामस्स रण्णो चित्ते बहुविहं अलकारियकम्म करेमाणे सव्वट्ठाणेसु य सव्वभूमियासु य, अंतेउरे य, दिन्नवियारे यावि होत्था / ३--श्रीदाम नरेश का सुबन्धु नामक मन्त्री था, जो साम, दण्ड, भेद-उपप्रदान में कुशल थानीति-निपुण था / उस मन्त्री के बहुमित्रापुत्र नामक सर्वाङ्गसम्पन्न व रूपवान् बालक था। श्रीदाम नरेश का, चित्र नामक अलंकारिक (केशादि को अलंकृत करने वाला नाई) था। वह राजा का अनेकविध, क्षौरकर्म करता हुआ राजा की आज्ञा से सर्वस्थानों, सर्व-भूमिकाओं तथा अन्तःपुर में भी, बेरोक-टोक, आवागमन करता रहता था। 4 तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा निग्गया, राया निग्गयो जाव परिसा पडिगया। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन ] [71 ४-उस काल उस समय में मथुरा नगरी में भगवान महावीर स्वामी पधारे। परिषद् व राजा भगवान् की धर्मदेशना श्रवण करने नगर से निकले, यावत् धर्मदेशना सुनकर वापिस चले गये। गौतम स्वामी का प्रश्न ५-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जे? जाव' रायमगमोगाढे। तहेव हत्थी, प्रासे, पुरिसे, पासइ / तेसि च पुरिसाणं मझगयं एगं पुरिसं पासइ जाव नरनारिसंपरिवुडं / तए णं तं पुरिसं रायपुरिसा चच्चरंसि तत्तंसि प्रयोमयंसि समजोइभूयसीहासणंसि निवेसावेति / तयाणंतरं च णं पुरिसाणं मझगयं पुरिसं बहुविहअयकलसेहि तत्तेहिं समजोइभूएहि, अप्पेगइया तंबभरिएहि, अप्पेगइया तउयभरिएहि, अप्पेगइया सीसग-भरिएहि. अप्पेगइया कलकलभरिएहि, अप्पेगइया खारतेल्लभरिएहि, महया-महया रायाभिसेएणं अभिसिंचंति / तयाणंतरं च णं तत्तं प्रयोमयं समजोइ-भूयं अयोमयसंडासएण गहाय हारं पिणद्धति / तयाणंतरं च णं अद्धहारं पिणद्धति जाव (तिसरियं पिणद्धति, पाल बं पिणद्धति, कडिसुत्तयं पिणद्धति, पट्ट पिणद्धति, मउड़) पिणद्धति / चिन्ता तहेव जाव वागरेइ / ५-उस समय भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य गौतम स्वामी भिक्षा के लिये नगरी में पधारे। भिक्षा ग्रहण करके लौटते हए यावत राजमार्ग पर पधारे। वहाँ उन्होंने (पूर्ववत) हाथियों, घोड़ों और पुरुषों को देखा, तथा उन पुरुषों के मध्य में यावत् बहुत से नर-नारियों के वृन्द से घिरे हुए एक पुरुष को देखा / राजपुरुष उस पुरुष को चत्वर--जहाँ बहुत से रास्ते मिलते हों ऐसे स्थान में अग्नि के समान-सन्तप्त लोहमय सिंहासन पर बैठाते हैं। बैठाकर कोई-कोई राजपुरुष उसको अग्नि के समान उष्ण लोहे से परिपूर्ण, कोई ताम्रपूर्ण, कोई त्रपु-रांगा से पूर्ण, कोई सीसा से पूर्ण, कोई कलकल से पूर्ण, अथवा कलकल शब्द करते हुए अत्युष्ण पानी से परिपूर्ण, क्षारयुक्त तैल से पूर्ण, अग्नि के समान तपे कलशों के द्वारा महान् राज्याभिषेक से उसका अभिषेक करते हैं / तदनन्तर उसे, लोहमय संडासी से पकड़कर अग्नि के समान तपे हुए अयोमय--अठारह लड़ियों वाले हार, अर्द्ध हार-नौ लड़ी वाले हार, तीन लड़ी वाले हार को, कोई प्रालम्ब-लम्बी लटकती माला, कोई करधनी, कोई मस्तक के पट्टवस्त्र अथवा भूषणविशेष और कोई मुकुट पहिनाते हैं। यह भयावह दृश्य देखकर श्री गौतमस्वामी को पूर्ववत् विचार उत्पन्न हुआ—यह पुरुष नारकीय वेदना भोग रहा है, आदि / यावत् गौतमस्वामी उस पुरुष के पूर्वभव सम्बन्धी वृत्तान्त को भगवान् से पूछते हैं / भगवान् उत्तर में इस प्रकार कहते हैंभगवान का उत्तर : नन्दिषेण का पूर्वभव ६–एवं खलु गोयमा। तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सोहपुरे नाम 1. द्वि. अ., सूत्र 6 Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] [विपाकसूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्धं नयरे होत्था। रिद्धस्थिमियसमिद्ध / तत्थ णं सोहपुरे नयरे सोहरहे नामं राया होत्था / तस्स णं सोहरहस्स रनो दुज्जोहणे नाम चारगपालए होत्था, अहम्मिए जाव' दुप्पडियानंदे / ६-हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सिंहपुर नामक एक ऋद्ध, स्तिमित व समृद्ध नगर था। वहाँ सिंहरथ नाम का राजा राज्य करता था / उस राजा के दुर्योधन नाम का चारकपाल–कारागाररक्षक-जेलर था, जो अधर्मी यावत् कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। जेलर का घोर अत्याचार ७–तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालगस्स इमेयारूवे चारगभंडे होत्था-बहवे प्रयकुडीओअप्पेगइयाश्रो तंबभारियानो, अप्पेगइयानो तउयभरियानो, अप्पेगइयानो सीसभरियानो, अप्पेगइयानो कलकलभरियाप्रो, अप्पेगइयानो खारतेल्लभरियानो-प्रणगिकायंसि अद्दहियानो चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स चारपालगस्स बहवे उट्टियानो-अप्पेगइयाओ प्रासमुत्तभरियायो, अप्पेगइयाश्रो हस्थिमुत्तरियायो, अप्पेगइयानो गोमुत्तरियामो, अप्पेगइयायो महिसमुत्तभरियायो, अप्पेगइयानो उट्टमुत्तरियाओ, अप्पेगइयानो अयमुत्तरियानो, अप्पेगइयाप्रो एलमुत्तभरिथाओ बहुपडिपुण्णाश्रो चिट्ठति। तस्स गं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे हत्थंडुयाण य पायंडुयाण य हडीण य नियलाण य संकलाण य पुजा य निगरा य संनिक्खित्ता चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे बेणुलयाण य वेत्तलयाण य चिचालयाण य छियाण य कसाण य वायरासीण य पुजा निगरा चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स-चारगपालस्स बहवे सिलाण य लउडाण य मोग्गराण य कणंगराण य पुजा य निगरा य संनिक्खित्ता चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे तंतोण य वरत्ताण य वागरज्जूण य वालयसुत्तरज्जण य पुजा य निगरा य संनिक्खित्ता चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे प्रसिपत्ताण य करपत्ताण य खुरपत्ताण य कलम्बचीरपत्ताण य पुजा य निगरा य संनिविखत्ता चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे लोहखोलारण य कडगसक्कराण य चम्मपट्टाण य अल्लपट्टाण य पुजा य निगरा य संनिक्खित्ता चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे सूईण य डंभणाण य कोट्टिल्लाण य पुंजा य निगरा य संनिक्खित्ता चिट्ठति / तस्स णं दुज्जोहणस्स चारगपालस्स बहवे पच्छाण (सत्थाण) य पिप्पलाण य कुहाडाण य नहच्छेयणाण य दम्भतिणाण य पुजा य निगरा य संनिक्खित्ता चिट्ठति / 1. तृ.अ., सूत्र 4 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन] [73 ७-दुर्योधन नामक उस चारकपाल के निम्न चारकभाण्ड-कारागार सम्बन्धी साधन-- उपकरण थे / अनेक प्रकार को लोहमय कुण्डियाँ थी, जिनमें से कई एक ताम्र से पूर्ण थी, कई एक अपुरांगा से परिपूर्ण थो, कई एक सोसे से भरी थो तो कितनोक चूर्णमिश्रित जल (जिस जल का स्पर्श होते ही जलन उत्पन्न हो जाय) से भरी हुई थी और कितनीक क्षारयुक्त तेल से भरी थी जो कि अग्नि पर रक्खी रहती थी। दुर्योधन नामक उस चारकपाल के पास उष्ट्रिकाएँ--उष्ट्रों के पृष्ठ भाग के समान बड़े-बड़े बर्तन (मटके) थे-उनमें से कई एक अश्वमूत्र से भरे हुए थे, कितनेक हाथी के मूत्र से भरे हुए थे, कितने उष्ट्रमूत्र से, कितनेक गोमूत्र से, कितनेक महिषमूत्र से, कितनेक बकरे के मूत्र से तो कितनेक भेड़ों के मूत्र से भरे हुए थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक हस्तान्दुक (हाथ में बाँधने का काण्ठ-निर्मित बन्धन विशेष) पादान्दुक (पैर में बांधने का बन्धनविशेष) हडि--काठ की बेड़ी, निगड-लोहे की बेड़ी. और शृखला-लोहे की जजीर के पुज (शिखरयुक्त राशि) तथा निकर (शिखर रहित ढेर) लगाए हुए रक्खे थे। तथा उस दुर्योधन चारकपाल के पास वेणुलताओं--वांस के चाबुकों, बेंत के चाबुकों, चिंचाइमली के चाबुकों, कोमल चर्म के चाबुकों, सामान्य चर्मयुक्त चाबुकों, वल्कलरश्मियों- वृक्षों की त्वच से निमित्त चाबुकों के पुज व निकर रक्खे रहते थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक शिलाओं, लकड़ियों, मुद्गरों और कनंगरों-जल में चलने वाले जहाज आदि को स्थिर करने वाले यन्त्रविशेष-के पुञ्ज व निकर रखे रहते थे। उस दुर्योधन चरकपाल के पास चमड़े की रस्सियों, सामान्य रस्सियों, बल्कल रज्जुओं, छाल से निमित्त रस्सियों, केशरज्जुनों (ऊनी रस्सियों) और सूत्र रज्जुओं (सूती रस्सियों) के पुञ्ज व निकर रक्खे रहते थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास असिपत्र (कृपाण) करपत्र (आरा) क्षुरपत्र (उस्तरा) और कदम्बचीरपत्र (शस्त्र-विशेष) के भी पुञ्ज व निकर रक्खे रहते थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास लोहे की कीलों, बांस की सलाइयों, चमड़े के पट्टों व अल्लपट्ट-विच्छू की पूछ के आकार जैसे शस्त्र-विशेष के पुज व निकर रक्खे हुए थे। उस दुर्योधन चारकपाल के पास अनेक सुइयों, दम्भनों-अग्नि में तपाकर जिनसे शरीर में दाग दिया जाता है, ऐसी सलाइयों तथा लघु मुद्गरों के पुज व निकर रखे हुए थे। उस दुर्योधन के पास अनेक प्रकार के शस्त्र, पिप्पल (छोटे छुरे) कुठार-कुल्हाड़ों, नखच्छेदकनेहरनों एवं डाभ के अग्रभाग से तीक्ष्ण हथियारों के पुञ्ज व निकर रक्खे हुए थे। -तए णं से दुज्जोहणे चारगपालए सोहरहस्स रनो बहवे चोरे य पारदारिए य गंठिभेए य रायावयारी य अणहारए य बालघायए य विस्संभघायए य जूयगरे य खंडपट्टे य पुरिसेहि गिण्हावेइ, गिहावित्ता उत्ताणए पाडेइ, पाडेता लोहदण्डेणं मुहं विहाडेइ, विहाडित्ता अप्पेगइए तत्ततंबं पज्जेइ, अप्पेगइए त उयं पज्जेइ, अप्पेगइए सोसगं पज्जेइ, अप्पेगइए कलकलं पज्जेइ, अप्पेगइए Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] [विपाकसूत्र --प्रथम श्रु तस्कन्ध खारतेल्लं पज्जेइ, अप्पेगइयाणं तेणं चेव अभिसेयगं करेइ / अप्पेगइए उत्ताणए पाडेइ, पाडित्ता, प्रासमुत्तं पज्जेइ, अप्पेगइए हत्यिमुत्तं पज्जेइ, जाव एलमुत्तं पज्जेइ। अप्पेगइए हेट्ठामहे पाडेइ, छडछडस्प्स' वम्भावेइ, वम्मावित्ता अप्पेगइए तेणं चेव प्रोवोल दलयइ। अप्पेगइए हत्थंयाई बन्धावेइ, अप्पेगइए पायंदुए बन्धावेइ, अप्पेगइए हडिबन्धणं करेइ, अप्पेगइए नियडबन्धणं करेइ, अप्पेगइए संकोडियमोडिययं करेइ, अप्पेगइए संकलबंधणं करेइ। अप्पेगइए हछिन्नए करेइ जाव सत्थोवाडियं करेइ, अप्पेग इए वेणुलयाहि य जाव वायरासीहि य हणावेइ / अप्पेगइए उत्ताणए कारवेइ, कारेत्ता उरे सिल दलावेइ, तो लउड छुहावेइ, छुहावित्ता पुरिसेहि उक्कंपावेइ / अप्पेगइए तंतीहि य जाव सुत्तरज्जुहि य हत्थेसु पाएसु य बंधावेइ, अगड सि पोचूलयालगं पज्जेइ, अप्पेगइए असिपत्तेहि य जाव कलंबचीरपत्तेहि य पच्छावेइ, पच्छावेत्ता खारतेल्लेणं अभिगावेइ / अप्पेगइए निडालेसु य अवसु य कोप्परेसु य जाणुसु य खलुएसु य लोहकोलए य क डसकराम्रो य दवावेइ, अलिए भंजावेइ / अप्पेगइए सूईओ डंभणाणि य हत्थंगुलियासु य पायेंगुलियासु य कोट्टिल्लएहि य पाउडावेइ, प्राउडावेत्ता भूमि कंडूयावेइ / अप्पेगइए सत्थेहि य जाव (अप्पेगइए पिप्पलेहि ए, अप्पेगइए कुहाडेहि य, अप्पेगइए) नहच्छेयहि य अंगं पच्छावेइ, दमेहि य कुसेहि य प्रोल्लबद्ध हि य वेढावेइ, वेढावेत्ता प्रायवंसि दलयइ, दलइत्ता सुक्के समाणे चडचडस्स उम्पावेइ ! तदनन्तर वह दुर्योधन चारपालक सिंहरथ राजा के अनेक चोर, परस्त्रीलम्पट, ग्रन्थि भेदकगांठकतरों, राजा के अपकारी-दश्मनों, ऋणधारक ऋण लेकर वापिस नहीं करने वालों, बालघातकों, विश्वासघातियों, जुआरियों और धूर्त पुरुषों को राजपुरुषों के द्वारा पकड़वाकर ऊर्ध्वमुख-सीधाचित्त गिराता है और गिराकर लोहे के दण्डे से मुख को खोलता है और खोलकर कितनेएक को तप्त तांबा पिलाता है, कितनेएक को रांगा, सीसक, चूर्णादिमिश्रित जल अथवा कलकल करता हुआ अत्यन्त उष्ण जल और क्षारयुक्त तैल पिलाता है तथा कितनों का इन्हीं से अभिषेक कराता है। कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उन्हें अश्वमूत्र हस्तिमूत्र यावत् भेड़ों का मूत्र पिलाता है / कितनों को अधोमुख गिराकर छल छल शब्द पूर्वक (छड़-छड़ शब्द पूर्वक) वमन कराता है और कितनों को उसी के द्वारा पीड़ा देता है। कितनों को हथकड़ियों बेड़ियों से, हडिबन्धनों से व निगडबन्धनों बद्ध करता है। कितनों के शरीर को सिकोड़ता व मरोड़ता है। कितनों को सांकलों से बांधता है, तथा कितनों का हस्तच्छेदन यावत् शस्त्रों से चीरता-फाड़ता है। कितनों को वेणुलताओं यावत् वृक्षत्वचा के चाबुकों से पिटवाता है। 1. इस पद के स्थान में 'धलघलस्स तथा बलस्स' पाठ भी प्राता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षरठ अध्ययन / 75 कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उनकी छाती पर शिला व लक्कड़ रखवा कर उत्कम्पन (ऊपर नीचे) कराता है कि जिससे हड्डियाँ टूट जाएँ। कितनों के चर्मरज्जुओं व सूत्ररज्जुओं से हाथों और पैरों को बँधवाता है, बंधवाकर कुए में उल्टा लटकवाता है, लटकाकर गोते खिलाता है। कितनों का असिपत्रों यावत् कलम्बचीरपत्रों से छेदन कराता है और उस पर क्षारमिश्रित तेल से मर्दन कराता है। कितनों के मस्तकों, कण्ठमणियों, घंटियों, कोहनियों, जानुप्रों तथा गुल्फों-गिट्टों में लोहे की कीलों को तथा बांस की शालाकाओं को ठुकवाता है तथा वृश्चिककण्टकों-विच्छु के कांटों को शरीर में प्रविष्ट कराता है। कितनों के हाथ की अंगुलियों तथा पैर की अंगुलियों में मुद्गरों के द्वारा सूइयों तथा दम्भनोंदागने के शस्त्रविशेषों को प्रविष्ट कराता है तथा भूमि को खुदवाता है। कितनों का शस्त्रों व नेहरनों से अङ्ग छिलवाता है और दर्भो-मूलसहितकुशाओं, कुशानोंमूलरहित कुशाओं तथा आईचों द्वारा बंधवाता है / तदनन्तर धूप में गिराकर उनके सूखने पर चड़ चड़ शब्द पूर्वक उनका उत्पाटन कराता है। प्राचार का दुष्परिणाम -तए णं से दुज्जोहणे चारगपालए एयकम्मे एयपहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबह पावकम्मं समज्जिणित्ता एगतीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे काल किच्चा छट्टीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / ९-इस तरह वह दुर्योधन चारकपालक इस प्रकार की निर्दयतापूर्ण प्रवृत्तियों को अपना कर्म, विज्ञान व सर्वोत्तम आचरण बनाए हुए अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके 31 सौ वर्ष की परम आयु भोगकर कालमास में काल करके छठे नरक में उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप में उत्पन्न हुआ। १०–से णं तमो अणंतरं उध्वट्टित्ता इहेव महुराए नगरीए सिरिदामस्स रन्नो बन्धसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्न / तए णं बन्धुसिरो नवण्हं मासाणं बहुपडिपुष्णाणं जाव दारगं पयाया। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो निन्वत्ते बारसाहे इमं एयारूवं नामधेज्जं करेंति-'होउ णं अम्हं दारगे नंदिसेणे नामेणं'। तए णं से नंदिसेणे कुमारे पंचधाईपरिवुडे जाव परिवइ / तए णं से नंदिसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे जाव विहरइ, जोवणगमणुप्पत्ते जुवराया जाए यावि होत्था। तए णं से नंदिसणे कुभारे रज्जे य जाव अंते उरे य मुच्छिए इच्छइ सिरिदामं रायं जीवियानो बवरोवेत्तए, सयमेव रज्जसिरि कारेमाणे, पालेमाणे विहरित्तए / तए णं से नंदिसणे कुमार सिरिदामस्स रन्नो बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे विहरइ / १०--तदनन्तर वह दुर्योधन चारकपाल का जीव छठे नरक से निकलकर इसी मथुरा नगरी में श्रीदाम राजा की बन्धुश्री देवी की कुक्षि में पुत्ररूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर लगभग नव मास परिपूर्ण होने पर बन्धुश्री ने बालक को जन्म दिया / तत्पश्चात् बारहवें दिन माता-पिता ने नवजात बालक का नन्दिषेण नाम रक्खा। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तदनन्तर पाँच धायमाताओं से सार-संभाल किया जाता हुअा नन्दिषेण कुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा। जब वह बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था को प्राप्त हुआ तब युवराज पद से अलंकृत भी हो गया। तत्पश्चात् राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नंदिषेण कुमार श्रीदाम राजा को मारकर स्वयं ही राज्यलक्ष्मी को भोगने एवं प्रजा का पालन करने की इच्छा करने लगा। एतदर्थ कुमार नन्दिषेण श्रीदाम राजा के अनेक अन्तर--अवसर, छिद्र-जिस समय पारिवारिक व्यक्ति नहीं हों, अथवा विरह--कोई भी पास न हो, राजा अकेला ही हो-ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। पितृवध का दुःसंकल्प ११-तए णं से नन्दिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रन्नो अंतरं अलभमाणे अन्नया कयाइ चित्तं अलंकारियं सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी—'तुम्हे गं देवाणुप्पिया ! सिरिदामस्स रन्नो सव्वट्ठाणेसु य सव्वभूमीसु य अंतेउरे य दिन्नवियारे सिरिदामस्स रन्नो अभिक्खणं अभिक्खणं अलंकारियं कम्म करेमाणे विहरसि / तं गं तुम देवाणुप्पिया ! सिरिदामस्स रन्नो अलंकारियं कम्मं करेमाणे गोवाए खुरं निवेसेहि। तो णं अहं तुम्हं प्रद्धरज्जयं करिस्सामि / तुम अम्हेहिं सद्धि उरालाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरिस्ससि / ' तए णं से चित्ते अलंकारिए नंबिसेणस्स कुमारस्स एयमट्ठ पडिसुणेइ / ११--तदनन्तर श्रीदाम नरेश के वध का अवसर प्राप्त न होने से कुमार नन्दिषेण ने किसी अन्य समय चित्र नामक अलंकारिक-नाई को बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुम श्रीदाम नरेश के सर्वस्थानों, सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में स्वेच्छापूर्वक आ-जा सकते हो और श्रीदाम नरेश का बारम्बार क्षौरकर्म करते हो / अतः हे देवानुप्रिय ! यदि तुम श्रीदाम नरेश के क्षौरकर्म करने के अवसर पर उसकी गरदन में उस्तरा घुसेड़ दो- इस प्रकार तुम्हारे हाथों नरेश का वध हो जाय तो मैं तुमको आधा राज्य दे दूंगा। तब तुम भी हमारे साथ उदार-प्रधान कामभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द समय व्यतीत कर सकोगे। चित्र नामक नाई ने कुमार नन्दिषेण के उक्त कथन को स्वीकार कर लिया। षड्यंत्र विफल : घोर कदर्थना १२--तए णं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमेयारूवे जाव (प्रज्झथिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था-'जइ णं मम सिरिवामे राया एयमागमेइ, तए णं मम न नज्जइ केणइ असुभेणं कुमारेणं मारिस्सइति / कट्ट, भीए जेणेव सिरिदामे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिरिदामं रायं रहस्सियगं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्त मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी 'एवं खलु सामी ! नंदिसेणे कुमारे रज्जे य जाव मुच्छिए इच्छइ तुम्मे जीवियानो ववरोवित्ता सयमेव रज्जसिरि कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए।' Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ षष्ठ अध्ययन [ 77 तए णं से सिरिदामे राया चित्तस्स अलंकारियस्स एयम सोच्चा निसम्म प्रासुरुत्ते जाव साह१ नंदिसणं कुमारं पुरिसेहिं गिहावेइ, गिहावित्ता एएणं विहाणेणं वज्झं प्राणवेइ / 'तं एवं खलु गोयमा ! नन्दिसेणे पुत्ते जाव विहरइ / ' १२-परन्तु कुछ ही समय के बाद चित्र अलंकारिक के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यदि किसी प्रकार से श्रीदाम नरेश को इस षड्यन्त्र का पता लग गया तो न मालूम वे मुझे किस कुमौत से मारेंगे / इस विचार के उद्भव होते ही वह भयभीत हो उठा और एकान्त में गुप्त रूप से जहाँ महाराजा श्रीदाम थे, वहाँ पर आया / एकान्त में दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अञ्जलि कर विनयपूर्वक इस प्रकार बोला 'स्वामिन् ! निश्चय ही नन्दिषेण कुमार राज्य में आसक्त यावत् अध्युपपन्न होकर आपका वध करके स्वयं ही राज्यलक्ष्मी भोगना चाह रहा है।' तब श्रीदाम नरेश ने चित्र अलंकारिक से इस बात को सुनकर, उस पर विचार किया और अत्यन्त क्रोध में पाकर नन्दिषेण को अपने अनुचरों द्वारा पकड़वाकर इस पूर्वोक्त विधान-प्रकार से मार डालने का राजपुरुषों को आदेश दिया। भगवान् कहते हैं- 'हे गौतम ! नन्दिषेण पुत्र इस प्रकार अपने किये अशुभ पापमय कर्मों के फल को भोग रहा है।' नन्दिषेण का भविष्य 'नन्दिसणे कुमारे इमो चुए कालमासे काल किच्चा कहि गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ?' 'गोयमा ! नन्दिसेणे कुमारे सदिवासाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे काल किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए-संसारो तहेव / ___ तनो हत्थिणाउरे नयरे मच्छत्ताए उववज्जिहिइ। से णं तत्थ मच्छिएहि वहिए समाणे तत्थेव सेटिकुले पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ / बोहि सोहम्मे कप्पे-महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ मुच्चिहिइ, परिनिव्वाहिइ, सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिइ। निक्खेवो। गौतम स्वामी ने भगवान् से पूछा कि -भगवान् ! नन्दिषेण कुमार मृत्यु के समय में यहां से काल करके कहां जायगा ? कहाँ उत्पन्न होगा ? भगवान् ने उत्तर दिया हे गौतम ! यह नन्दिषेण कुमार साठ वर्ष की परम आयु को भोगकर मृत्यु के समय में मर करके इस रत्नप्रभा नामक पृथ्वी-नरक में उत्पन्न होगा। इसका शेष संसारभ्रमण मृगापुत्र के अध्ययन की तरह समझ लेना यावत् वह पृथ्वीकाय आदि सभी कायों में लाखों बार उत्पन्न होगा। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] [ विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पृथ्वीकाय से निकलकर हस्तिनापुर नगर में मत्स्य के रूप में उत्पन्न होगा / वहां मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त होकर फिर वहीं हस्तिनापुर नगर में एक श्रेष्ठि-कुल में पुत्ररूप में उत्पन्न होगा / वहाँ से महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगा। वहां पर चारित्र ग्रहण करेगा और उसका यथाविधि पालन कर उसके प्रभाव से सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा और परमनिर्वाण को प्राप्त कर सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त करेगा। // छठा अध्ययन समाप्त / / Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन उम्बरदत्त प्रस्तावना १-.-'जह णं भंते!' उक्खेवो सत्तमस्स / १-अहो भगवन् ! यदि श्रमण भगवान महावीर ने दुःखविपाक के छठे अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो भगवान् ने सातवें अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? इस प्रकार सप्तम अध्ययन के उत्क्षेप की भावना पूर्ववत् जान लेनी चाहिये / २-एवं खलु, जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं पाडलिसंडे नयरे / वणखंडे नाम उज्जाणे / उंबरदत्ते जक्खे / तत्थ णं पाडलिसंडे नयरे सिद्धत्थे राया। तत्थ णं पाडलिसंडे नयरे सागरबत्त सत्यवाहे होत्था, अड्ड० / गंगदत्ता भारिया। तस्स सागरदत्तस्स पुत्ते गंगदत्ताए भारियाए अत्तए उम्बरदत्तनामं दारए होत्था - अहीणपडिपुग्णपंचिदियसरीरे। हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में पाटलिखंड नाम का एक नगर था। वहाँ वनखण्ड नाम का उद्यान था। उस उद्यान में उम्बरदत्त नामक यक्ष का यक्षायतन था। उस नगर में सिद्धार्थ नामक राजा राज्य करता था। पाटलिखण्ड नगर में सागरदत्त नामक एक धनाढ्य सार्थवाह रहता था। उसकी गङ्गदत्ता नाम की भार्या थी। उस सागरदत्त का पुत्र व गङ्गदत्ता भार्या का पात्मज उम्बरदत्त नाम का अन्यून व परिपूर्ण पञ्चेन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीर वाला एक पुत्र था। ३-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवप्रो समोसरणं, जाव परिसा पडिगया। ३-उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर वहां पधारे, यावत् धर्मोपदेश सुनकर राजा तथा परिषद् वापिस चले गये / उम्बरदत्त का वर्तमान भव 4 तेणं कालेणं तेणं समणेणं भगवं गोयमें, तहेव जेणेव पाडलिसंडे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता पालिसंडं नयरं पुरथिमिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता तत्थ गं पासइ एगं पुरिसं कच्छुल्लं को ढियं दोउयरियं, भगंदरियं अरिसिल्लं फासिल्लं सासिल्लं सोगिलं सुयमूह सूयहत्थं सडियपायंगुलियं सडियकण्णनासियं रसियाए य पूइएण य थिविथिवियवणमुहकिमिउत्तयंत Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 ] [विपाकसूत्र-प्रथम अतस्कन्ध पगलत-पूयरुहिरं लालापगलं तकण्णनासं अभिक्खणं अभिक्खणं पूयकवले य रुहिरकवले य किमियकवले य वममाणं कट्ठाई कलुणाई विसराई कूयमाणं मच्छियाचडगरपहकरेणं अन्निज्जमाणमग्गं फुट्टहडाहडसोसं दण्डिखंडवसणं खंडमल्ल-खंडघड-हत्थगयं गेहे-गेहे देहं बलियाए वित्ति कप्पेमाणं पासइ / तया भगवं गोयमे उच्च-नीय-मझिम-कुलाई जाव अडमाणे अहापज्जत्तं समुदाणं गिण्हइ, गिण्हित्ता पालिसंडासो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता भत्तपाणं पालोएइ, भत्तपाणं पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणेणं अभणुनाए समाणे जाव बिलमिव पन्नगभूएणं प्रप्पाणेणं प्राहारमाहारेइ, संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ। ४-उस काल तथा उस समय भगवान् गौतम स्वामी षष्ठतप-बेले के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये पाटलिषण्ड नगर में जाते हैं / उस पाटलिषण्ड नगर में पूर्वदिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं / वहाँ एक पुरुष को देखते हैं, जिसका वर्णन निम्न प्रकार है वह पुरुष कण्डू-खुजली के रोग से युक्त, कोढ के रोगवाला, जलोदर, भगन्दर तथा बवासीर-अर्श के रोग से ग्रस्त था। उसे खांसी, श्वास व सूजन का रोग भी हो रहा था। उसका मुख सूजा हुआ था / हाथ और पैर भी सूजे हुए थे / हाथ और पैर की अङ्गलियां सड़ी हुई थीं, नाक और कान गले हुए थे / व्रणों (घावों) से निकलते सफेद गन्दे पानी तथा पीव से वह 'थिव थिव' शब्द कर रहा था। (अथवा बिलबिलाते हुए) कृमियों से अत्यन्त ही पीडित तथा गिरते हुए पीव और रुधिरवाले व्रणमुखों से युक्त था / उसके कान और नाक क्लेदतन्तुषों-फोड़े के बहाब के तारों से गल चुके थे। बारंबार वह पीव के कवलों-ग्रासों का, रुधिर के कवलों का तथा कृमियों के कवलों का वमन कर रहा था / वह कष्टोत्पादक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण शब्द कर रहा था। उसके पीछे-पीछे मक्षिकारों के झुण्ड के झुण्ड चले जा रहे थे। उसके सिर के बाल अस्तव्यस्त थे / उसने थिगलीवाले वस्त्रखंड धारण कर रक्खे थे। फूटे हुए घड़े का टुकड़ा उसका भिक्षापात्र था। सिकोरे का खंड उसका जल-पात्र था, जिसे वह हाथ में लिए हुए घर-घर में भिक्षावृत्ति के द्वारा आजीविका कर रहा था। इधर भगवान गौतम स्वामी ऊँच, नीच और मध्यम घरों में भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए और यथेष्ट भिक्षा लेकर पाटलिषण्ड नगर से निकलकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ पर आये / आकर भक्तपान की अलोचना की और लाया हुआ आहार-पानी भगवान् को दिखाया / दिखलाकर उनकी प्राज्ञा मिल जाने पर बिल में प्रवेश करते हुए सर्प की भांति-बिना रस लिये हो-पाहार करते हैं और संयम तथा तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे। ५-तए णं से भगवं गोयमे दोच्चं पि छट्टक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं जाव पाडलिसंडं नयरं दाहिणिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसइ, तं चेव पुरिसं पासइ---कच्छुल्लं तहेव जाव संजमेणं तवसा विहरइ। ५-उसके बाद भगवान् गौतम स्वामी ने दूसरी बार बेले के पारणे के निमित्त प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया यावत् भिक्षार्थ गमन करते हुए पाटलिषण्ड नगर में दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहां पर भी उन्होंने कंडू अादि रोगों से युक्त उसी पुरुप को देखा और वे भिक्षा लेकर वापिस पाये / यावत् तप व संयम से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : उम्बरवत्त ] [81 ६-तए णं से गोयमे तच्चं पिछट्टक्खमणपारणगंसि तहेव जाव पच्चस्थिमिल्लेणं दुवारेणं अणुपविसमाणे तं चेव पुरिसं पासइ कच्छुल्लं! ६-तदनन्तर भगवान् गौतम तीसरी बार बेले के पारण के निमित्त उसी नगर में पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं, तो वहां पर भी वे उसी पूर्ववणित पुरुष को देखते हैं। पूर्वभव संबंधी पृच्छा ७–भगवं गोयमे चउत्थं पि छटुक्खणपारणगंसि उत्तरेण / इमेयारूवे अज्झथिए समुप्पन्न - 'अहो णं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं जाव एवं वयासो-एवं खलु अहं, भंते ! छठ्ठ० जाव रीयंते जेणेव पाड लिसंडे नयरे तेणेव उवागच्छामि, उवागच्छित्ता पालिसंडे पुरथिमिल्लेणं दुवारेणं अणुपवितु / तत्थ णं एगं पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव वित्ति कप्पेमाणं / तए प्रहं दोच्चछट्टखमणपारणगंसि दाहिणिल्लेणं दुवारेणं, तहेव / तच्चपि छटुक्खमणपारणगंसि पच्चत्यिमेणं, तहेव / तए णं अहं चउत्थं वि छ?क्खमणपारणगंसि उत्तरदुवारेणं अणुष्पविसामि, तं चेव पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव वित्ति कप्पेमाणे विहरइ / चिन्ता ममं / ' पुन्वभवपुच्छा ।-वागरेइ / ७--इसी प्रकार गौतम चौथी बार बेले के पारणे केलिये पाटलिषण्ड में उत्तरदिशा के द्वार से प्रवेश करते हैं। तब भी उन्होंने उसी पुरुष को देखा / उसे देखकर मन में यह संकल्प हुआ कि--- अहो ! यह पुरुष पूर्वकृत अशुभ कर्मों के कटु-विपाक को भोगता हुआ दुःख पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है यावत् वापिस आकर उन्होंने भगवान् से कहा 'भगवन् ! मैंने बेले के पारणे के निमित्त यावत् पाटलिषण्ड नगर की ओर प्रस्थान किया और नगर के पूर्व दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो मैंने एक पुरुष को देखा जो कण्डूरोग से आक्रान्त यावत् भिक्षावृत्ति से आजीविका कर रहा था। फिर दूसरी बार पुनः छठे के पारणे के निमित्त भिक्षा के लिये उक्त नगर के दक्षिण दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहाँ पर उसी पुरुष को उसी रूप में देखा। तीसरी बार पारणे के निमित्त पश्चिम दिशा के द्वार से प्रवेश किया तो वहाँ पर भी पुनः उसी पुरुष को उसी अवस्था में देखा और जब चौथी बार में बेले के पारण के निमित्त पाटलिखण्ड में उत्तर दिग्द्वार से प्रविष्ट हुआ तो वहाँ पर भी कंडूरोग से ग्रस्त भिक्षावृत्ति करते हुए उस पुरुष को देखा। उसे देखकर मेरे मानस में यह विचार उत्पन्न हुया कि अहो ! यह पुरुष पूर्वोपाजित अशुभ कर्मों का फल भुगत रहा है; इत्यादि। प्रभो ! यह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो इस प्रकार भीषण रोगों से आक्रान्त हुआ कष्टपर्ण जीवन व्यतीत कर रहा है ? भगवान् महावीर स्वामी ने उत्तर देते हुए कहा पूर्वभव-वर्णन --एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दोवे भारहेवासे विजयपुरे नाम नयरं होत्था, रिद्धस्थिमियसमिद्ध / तत्थ णं विजयपुरे नयरे कणगरहे नामं राया होत्था / तस्प्त णं कणगरहस्स रन्नो धन्नंतरो नाम वेज्जे होत्था / Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में विजयपुर नाम का 82] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध अटुंगाउन्वेयपाढए, तंजहा—कुमारभिच्चं सालागे सल्लहत्ते कायतिगिच्छा जंगोले भूयविज्जा रसायणे वाजीकरणे / सिवहत्थे सुहहत्थे लहुहत्थे / ८-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष नाम का ऋद्ध, स्तिमित व समद्ध नगर था। उसमें कनकरथ नाम का राजा राज्य करता था। उस कनकरथ का धन्वन्तरि नाम का वैद्य था जो आयुर्वेद के पाठों अङ्गों का ज्ञाता था। आयुर्वेद के पाठों अङ्गों का नाम इस प्रकार है ___१-कौमारभृत्य-आयुर्वेद का एक अङ्ग जिसमें कुमारों के दुग्धजन्य दोषों के उपशमन का मुख्य वर्णन हो। २-शालाक्य-जिनमें नयन, नाक आदि ऊर्ध्वभागों के रोगों की चिकित्सा का प्रतिपादन किया गया हो। ३-शाल्यहत्य-आयुर्वेद का वह अङ्ग जिसमें शल्य-कण्टक, गोली प्रादि निकालने की विधि का वर्णन किया गया हो।। ४-कायचिकित्सा-शरीर संबंधी रोगों की प्रतिक्रिया---इलाज का प्रतिपादक अायुर्वेद का एक अङ्ग ५-जांगुल-आयुर्वेद का वह विभाग जिसमें विषों की चिकित्सा का विधान है। ६-भूतविद्या-आयुर्वेद का वह भाग जिसमें भूत-निग्रह का प्रतिपादन हो। ७-रसायन-आयु को स्थिर करने वाली व व्याधि-विनाशक औषधियों का विधान करने वाला प्रकरण विशेष / ८–वाजीकरण-बल-वीर्यवर्द्धक औषधियों का विधायक आयुर्वेद का अंग / वह धन्वन्तरि वैद्य शिवहस्त—(जिसका हाथ कल्याण उत्पन्न करने वाला हो) शुभहस्त(जिसका हाथ शुभ अथवा सुख उपजाने वाला हो) व लघुहस्त-(जिसका हाथ कुशलता से युक्त हो) था। ६-तए णं से धनंतरी वेज्जे विजयपुरे नयरे कणगरहस्स रन्नो अंतेउरे य अन्नेसि च बहूणं राईसर जाव सत्थवाहाणं अन्नेसि च बहूणं दुबलाण य गिलाणाण य वाहियाण य रोगियाण य प्रणाहाण य सणाहाण य समणाण य माहणाण य भिक्खगाण य करोडियाण य कप्पडियाण य पाउराण य अप्पेगइयाणं मच्छमंसाई उवदेसेइ, अप्पेगइयाणं कच्छपमंसाई, प्रत्थेगइयाणं गोहामंसाई, अप्पेगइयाणं मगरमंसाई, अप्पेगइयाई सुसुमारमंसाई, अप्पेगइयाणं अयमंसाई एवं एलय-रोउझ-सूयर-मिग-ससयगोमंस-महिसमंसाई, अप्पेगइयाइं तित्तिरमंसाई, अप्पेगइयाणं वट्टक-लावक-कवोय-कुक्कुड-मयूर-मंसाई अन्नेसि च बहूणं जलयर-थलयर-खहयर-माईणं मंसाइं उवदेसेइ / अप्पणा वि य णं से धन्नंतरी वेज्जे तेहिं बहूहि मच्छमंसेहि य जाव मयूरमंसेहि य अन्नेहि य बहूहि जलयर-थलयर-खहयर-मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिए हि य सुरं च महुं च मेरगं च जाई च सीधु च आसाएसाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ / Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : उम्बरदत्त / [83 -वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर के महाराज कनकरथ के अन्तःपुर में निवास करने वाली रानियों को तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर (ऐश्वर्यवान् या राजकुमार) यावत् सार्थवाहों को तथा इसी तरह अन्य बहुत से दुर्बल ग्लान-मानसिक चिन्ता से उदास रहने वाले, रोगी, व्याधित या बाधित, रुग्ण व्यक्तियों को एवं सनाथों, अनाथों, श्रमणों-ब्राह्मणों, भिक्षुकों, करोटिकों-कापालिकों, कार्पटिकों---कन्थाधारी भिक्षुकों अथवा भिखमंगों और आतुरों की चिकित्सा किया करता था। उनमें से कितने को मत्स्यमांस खाने का उपदेश देता था, कितनों को कछुओं के मांस का, कितनों को ग्राह-जलचरविशेष के मांस का, कितनों को मगरों के मांस का, कितनों को सुसुमारों के मांस का, कितनों को बकरा के मांस का अर्थात् इनका मांस खाने का उपदेश दिया करता था। इसी प्रकार भेड़ों, गवयों, शूकरों, मृगों, शशकों, गौत्रों और महिषों का मांस खाने का भी उपदेश करता था। कितनों को तित्तरों के मांस का तो कितनों को बटेरों, लावकों, कबूतरों, कुक्कुटों व मयूरों के मांस का उपदेश देता / इसी भांति अन्य बहुत से जलचरों, स्थलचरों तथा खेचरों आदि के मांस का उपदेश करता था। यही नहीं, वह धन्वन्तरि वैद्य स्वयं भी उन अनेकविध मत्स्यमांसों, मयूरमांसों तथा अन्य बहुत से जलचर स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों से तथा मत्स्यरसों व मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए, भूने हुए मांसों के साथ पांच प्रकार की मदिराओं का आस्वादन व विस्वादन, परिभाजन एवं बार-बार उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता था। १०-तए णं से धन्नंतरी वेज्जे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबह पावं कम्म समन्जिणित्ता बत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोपमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / १०--तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य इन्हीं पापकर्मों वाला इसी प्रकार की विद्या वाला और ऐसा ही आचरण बनाये हुए, अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके 32 सौ वर्ष की परम आयु को भोगकर काल मास में काल करके छट्ठी नरकपृथ्वी में उत्कुष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। ११-तए णं सा गंगदत्ता भारिया जार्यानदुया यावि होत्था, जाया जाया दारगा विणिहायमावज्जति / तए णं तीसे गंगदत्ताए सत्थवाहीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणीए अयं अज्झथिए जाव समुष्पन्ने–'एवं खलु, अहं सागरदत्तेणं सस्थवाहेणं सद्धि बहूइं वासाई उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि / तं धनायो णं तानो अम्मयामो, संपुण्णाप्रो, कयत्थानो, कयपुण्णाओ, कयलक्खणाश्रो णं तामो अम्मयानो, सुलद्ध णं तासि अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफले, जासि मन्ने नियगकुच्छिसंभयाई थणबुद्धलुद्धयाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणपजंपियाई थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणयाई मुद्धयाई पुणो पुणो य कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि गिहिऊण उच्छंगे निवेसियाई देंति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पणिए ! अहं णं अधन्ना अपुण्णा अयपुग्णा एत्तो एगमवि न पत्ता / तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते सागरदत्तं सत्यवाहं पापुच्छित्ता सुबहुं पुफ्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहुमित्त-नाइ-नियग Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 541 [विपाकसूत्र--प्रथम श्रतस्कन्ध सयण-संबंधि-परियणमहिलाहिं सद्धि पालिसंडासो नयराम्रो पडिनिक्खमित्ता बहिया जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छित्तए / तत्थ णं उंबरदत्तस्स जक्खस्स महरिहं पुषफच्चणं करित्ता जन्नपायवडियाए प्रोयाइत्तए–'जइ णं अहं देवाणुप्पिया! दारगं वा दारियं वा पयामि, तो णं अहं तुभं जायं च दायं च भायं च अक्खनिहिं च अणुवड्डइस्सामि / ' ति कट्ट, प्रोवाइयं प्रोवाइणित्तए।' एवं संपेहेइ, संपेहिता कल्लं जाव जलते जेणेव सागरदत्ते सत्थावहे तेणेव उवागच्छह, सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी–एवं खलु अहं, देवाणुप्पिया! तुन्भेहिं सद्धि जाव' न पत्ता। तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! तुम्मेहि अन्भणुनाया जाव प्रोवाइणित्तए।' तए णं से सागरदत्ते गंगदत्तं भारियं एवं वयासी-'मम पि णं, देवाणुप्पिए ! एस चेव मणोरहे, कहं तुमं दारगं दारियं वा पयाइज्जसि / ' गंगदत्ताए मारियाए एयम अणुजाणइ / 11- उस समय सागरदत्त की गङ्गदत्ता भार्या जातनिन्दुका (जिसके बालक जन्म लेने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हों) थी। अतएव उसके बालक उत्पन्न होने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। एक बार मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता से जागती उस गंगदत्ता सार्थवाही के मन में जो संकल्प उत्पन्न हुआ, वह निम्न प्रकार है—मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाह के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार-प्रधान कामभोगों का उपभोग करती आ रही हूँ परन्तु मैंने आज तक जीवित रहने वाले एक भी बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया है / वे माताएँ ही धन्य हैं तथा वे माताएँ ही कृतार्थ अथच कृतपुण्य हैं, उन्हीं का वैभव सार्थक है और उन्होंने ही मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिनके स्तनगत दूध में लुब्ध, मधुर भाषण से युक्त, अव्यक्त तथा स्खलित-तुतलाते वचनवाले, स्तनमूल प्रदेश से कांख तक अभिसरणशील (मचलकर सरक जानेवाले) नितान्त सरल, कमल के समान कोमल सुकुमार हाथों से पकड़कर गोद में स्थापित किये जानेवाले व पुनःपुनः सुमधुर कोमल-मंजुल वचनों को बोलने वाले अपने ही कुक्षि-उदर से उत्पन्न हुए बालक या बालिकाएँ हैं / उन माताओं को मैं धन्य मानती हूँ / उनका जन्म भी सफल और जीवन भी सफल है। मैं अधन्या हूँ, पुण्यहीन हूँ, मैंने पुण्योपार्जन नहीं किया है, क्योंकि मैं इन बालसुलभ चेष्टाओं वाले एक सन्तान को भी उपलब्ध न कर सकी। अब मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं प्रातःकाल, सूर्य के उदय होते ही, सागरदत्त सार्थवाह से पूछकर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलङ्कार लेकर बहुत से ज्ञातिजनों, मित्रों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धी जनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषण्ड नगर से निकलकर बाहर उद्यान में, जहाँ उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन है, वहां जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महाई (वहुमूल्य) पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो इस प्रकार प्रार्थनापूर्ण याचना करू --- 'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहनेवाले बालिका या बालक को जन्म दू तो मैं तुम्हारे याग-देव पूजा, दान-देय अंश, भाग--लाभ अंश व देव भंडार में वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार उपयाचनाईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिये उसने निश्चय किया। निश्चय करने के अनन्तर प्रातःकाल सूर्योदय होने के साथ ही जहाँ पर सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आई और पाकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी-'हे स्वामिन् ! मैंने आप के साथ मनुष्य सम्बन्धी सांसारिक सुखों का 1-2. देखिए प्रस्तुत सूत्र के ही ऊपर का पाठ / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : उम्बरदत्त ] [ 85 पर्याप्त उपभोग करते हए अाजतक एक भी जीवित रहने वाले बालक या बालिका को प्राप्त नहीं किया। अतः मैं चाहती हूँ कि यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपने मित्रों, ज्ञातिजनों निजकों, स्वजनों, सम्बन्धीजनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषण्ड नगर से बाहर उद्यान में उम्बरदत्त यक्ष की महार्ह पुष्पार्चना कर पुत्रोपलब्धि के लिये मनौती मनाऊँ।' __ इसके उत्तर में सागरदत्त सार्थवाह ने अपनी गंगदत्ता भार्या से कहा-'भद्रे ! मेरी भी यही इच्छा है कि किसी प्रकार से तुम्हारे जीवित रहने वाले पुत्र या पुत्री उत्पन्न हों।' ऐसा कहकर उसने गंगदत्ता के उक्त प्रस्ताव का समर्थन करते हुए स्वीकार किया। १२-तए णं सा गंगदत्ता भारिया सागरदत्तसत्थवाहेणं एयम अब्भणुन्नाया समाणी सुबहुपुप्फ वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय मित्त जाव महिलाहिं सद्धि सयाओ गिहाम्रो पडिमिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पालिसंडं नयरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकारं ठवेइ, ठवेत्ता पुक्खरिणि ओगाहेइ, प्रोगाहित्ता जलमज्जणं करेइ, करित्ता जलकीडं करेमाणी व्हाया कयकोउय-मंगलपायच्छित्ता उल्लपडसाडिया पुक्खरणीप्रो पच्चुत्तरइ, पच्चत्तरित्ता तं पुफ्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गिण्हइ, गिहित्ता जेणेव उम्बरदत्तस्स जक्खस्स जक्खायदणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उम्बरदत्तस्स जक्खस्स पालोए पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थं परामुसइ, परामसित्ता उम्बरदत्तं जक्खं लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दगधाराए अभुक्खेइ, प्रभुक्खित्ता पम्हलसुकुमालगंध-कासाइयाए गायलट्ठी अोलूहेइ, प्रोलूहित्ता सेयाइं वत्थाई परिहेइ, परिहित्ता महरिहं पुफ्फारुहणं, मल्लारुहणं गन्धारहणं, चण्णारुहणं करेइ, करित्ता धूर्व डहइ, उहित्ता जन्नुपायवडिया एवं वयइ–'जइ णं अहं देवाणुप्पिया! दारयं दारियं वा पयामि तो णं जाव (ग्रह तुभं जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुवडिस्सामि' त्ति कटु प्रोवाइयं) प्रोवाइणइ, ओवाइणित्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। १२-तब सागरदत्त सार्थवाह की आज्ञा प्राप्त कर वह गंगदत्ता भार्या विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गंध, माला एवं अलंकार तथा विविध प्रकार की पूजा की सामग्री लेकर, मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी एवं परिजनों की महिलाओं के साथ अपने घर से निकल और पाटलिखण्ड नगर के मध्य से होती हुई एक पुष्करिणी-बावड़ी के समीप जा पहुंची। वहाँ पुष्करिणी के किनारे पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों, माल्यों तथा अलङ्कारों को रखकर उसने पुष्करिणी में प्रवेश किया / वहाँ जलमज्जन एवं जलक्रीडा कर कौतुक तथा मंगल प्रायश्चित्त (मांगलिक क्रियाओं) को करके गीली साड़ी पहने हुए वह पुष्करिणी से बाहर आई। बाहर आकर उक्त पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर उम्बरदत्त यक्ष के यक्षायतन के पास पहुँची। उसने यक्ष-प्रतिमा पर नजर पड़ते ही यक्ष को नमस्कार किया। फिर लोमहस्तक-मयूरपिच्छ लेकर उसके द्वारा यक्षप्रतिमा का प्रमार्जन किया। फिर जलधारा से उस यक्षप्रतिमा का अभिषेक किया। तदनन्तर कषायरंग वाले-गेरु जैसे रंग से रंगे हुए सुगन्धित एवं सुकोमल वस्त्र से उसके अंगों को पोंछा / पोंछकर श्वेत वस्त्र पहनाया, पहिनाकर महार्ह (बड़ों के योग्य) पुष्पारोहण, वस्त्रारोहण, गन्धारोहण, माल्यारोहण और चूर्णारोहण किया। तदनन्तर धूप जलाई / धूप जलाकर यक्ष के सन्मुख घुटने टेककर पांव में पड़कर इस प्रकार निवेदन किया-'जो मैं एक जीवित बालक या बालिका को जन्म दूं तो याग, दान एवं भण्डार की वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार-यावत् याचना करती है अर्थात् मान्यता मनाती है। मान्यता मनाकर जिधर से आयी थी उधर लौट जाती है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध १३–तए णं से धन्नेतरी बेज्जे तामओ नरयानो अणंतरं उम्वट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दोवे पाडलिसंडे नयरे गंगदत्ताए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने / तए णं तीसे गंगदत्ताए भारियाए तिण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेयारूवे दोहले पाउ• भूए -'धन्नामो णं तानो अम्मयामो जाव' फले, जामो णं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेति, उवखडावेत्ता बहूहि मित्त० जाव' परिवुडायो तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च महं च मेरगं च जाइं च सोधं च पसण्णं च पुफ्फ जाव (वत्थ-गंध-मल्लाकारं गहाय पाडलिसंड नयरं मझमझेणं पडिनिक्खमंति,पडिनिक्खमित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता पुक्खरिणि प्रोगाहेति, ओगाहेत्ता हायानो कयबलिकम्माप्रो कयकोउयमंगलपायच्छित्ताओ, तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं बहूहि मित्तनाइनियग० जाव सद्धि प्रासाएंति, विसायंति परिभाएंति परिभजति दोहलं विणेति' एवं संपेहेइ, संपेहिता कल्लं जाव जलते जेणेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता सागरदत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-'धन्नानो णं तापो जाव विणेति, तं इच्छामि गं जाव विणित्तए।' तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे गंगदत्ताए भारियाए एयम? अणुजाणाइ। १३-तदनन्तर वह धन्वतरि वैद्य का जीव नरक से निकलकर इसी पाटलिखण्ड नगर में गंगदत्ता भार्या की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ-गर्भ में पाया। लगभग तीन मास पूर्ण हो जाने पर गंगदत्ता भार्या को यह दोहद-मनोरथ उत्पन्न हुआ। ___ 'धन्य हैं वे माताएँ यावत् उन्होंने अपना जन्म और जीवन सफल किया है जो विपुल प्रशन, पान, खादिम, स्वादिम और सुरा आदि मदिराओं को तैय्यार करवाती हैं और अनेक मित्र, ज्ञाति आदि की महिलाओं से परिवृत होकर पाटलिषण्ड नगर के मध्य में से निकलकर पुष्करिणी पर जाती हैं / वहाँ पुष्करिणी में प्रवेश कर जल स्नान व अशुभ-स्वप्न आदि के फल को विफल करने के लिये मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञातिजन आदि की महिलाओं के साथ प्रास्वादनादि करती हुई दोहद को पूर्ण करती हैं।' ___ इस तरह विचार करके प्रातःकाल जाज्वल्यमान सूर्य के उदित हो जाने पर जहाँ सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आती है और आकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहती है-'स्वामिन् ! वे माताएँ धन्य हैं जो यावत् उक्त प्रकार से अपना दोहद पूर्ण करती हैं / मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ।' सागरदत्त सार्थवाह भी दोहदपूर्ति के लिए गंगदत्ता भार्या को आज्ञा दे देता है / १४-तए णं सा गंगदत्ता सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता तं विउलं असणं 4 सुरं च 6 सुबहुं पुफ्फवत्थगंधमल्लालंकारं परिगिण्हावेइ परिगिण्हावेत्ता बहूहि जाव हाया कयबलिकम्मा जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खाययणे जावधवं डडेड, डहेत्ता जेणेव पक्खरिणी तेणेव उवागच्छ / तए णं तानो मित्त० जाव महिलाओ गंगदत्तं सत्यवाहि सव्वालंकारविभूसियं करेंति / तए णं सा गंगदत्ता भारिया ताहि मित्तनाइहिं १-२--सप्तम अ., सूत्र 11 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन : उम्बरदत्त ] [ 87 अन्नाहि वहूहि नगरमहिलाहिं सद्धि तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च महुं च मेरगं च जाई च सीधु च पसण्णं च प्रासाएमाणे दोहलं विणेइ, विणेत्ता, जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। सा गंगदत्ता सस्थवाही संपुण्णदोहला तं गम्भं सुहंसुहेण परिवहइ / १४--सागरदत्त सार्थवाह से आज्ञा प्राप्त कर गंगदत्ता पर्याप्त मात्रा में प्रशनादिक चतुर्विध आहार तैयार करवाती है और उपस्कृत पाहार एवं छह प्रकार के मदिरादि पदार्थ तथा बहुत सी पुष्पादि पूजासामग्री को लेकर मित्र, ज्ञातिजन आदि की तथा अन्य महिलाओं को साथ लेकर यावत् स्नान तथा अशुभ स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिये मस्तक पर तिल क व अन्य माङ्गलिक अनुष्ठान करके उम्बरदत्त यक्ष के प्रायतन में आ जाती है। वहाँ पहिले की ही तरह पूजा करती व धूप जलाती है / तदनन्तर पुष्करिणी-बावड़ो पर आ जाती है, वहाँ पर साथ में आने वाली मित्र, जाति आदि महिलाएं गंगदत्ता को सर्व अलङ्कारों से विभूषित करती हैं, तत्पश्चात् उन मित्रादि महिलाओं तथा अन्य महिलाओं के साथ उस विपूल अशनादिक तथा षड्विध सुरा आदि का प्रास्वादन करती हुई गंगदत्ता अपने दोहद-मनोरथ को परिपूर्ण करती है। इस तरह दोहद को पूर्ण कर वह वापिस अपने घर आजाती है। तदनन्तर सम्पूर्णदोहदा, सन्मानितदोहदा, विनीतदोहदा, व्युच्छिन्नदोहदा सम्पन्नदोहदा वह गंगदत्ता उस गर्भ को सुखपूर्वक धारण करती है / १५–तए णं सा गंगदत्ता भारिया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुग्णाणं जाव दारगं पयाया। ठिावडिया जाव नामधेज्ज करेंति - जम्हाणं इमे दारए उंबरदत्तस्स जक्खस्स प्रोवाइयलद्धए, तं होउ णं दारए उंबरदत्ते नामेणं / ' तए णं से उबरदत्ते दारए पंचधाईपरिग्गहिए परिवडइ / १५–तत्पश्चात् नव मास परिपूर्ण हो जाने पर उस गंगदत्ता ने एक बालक को जन्म दिया। माता-पिता ने स्थितिपतिता-पुत्र जन्म सम्बन्धी उत्सव विशेष मनाया। फिर उसका नामकरण संस्कार किया, 'यह बालक क्योंकि उम्बरदत्त यक्ष की मान्यता मानने से जन्मा है, अतः इसका नाम भी 'उम्बरदत्त' ही हो। तदनन्तर उम्बरदत्त बालक पांच धायमाताओं द्वारा गृहीत होकर वृद्धि को प्राप्त करने लगा। १६-तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे जहा विजयमित्ते कालधम्मणा संजुत्ते, गंगदत्ता वि / उंबरदत्ते निच्छुढे जहा उझियए। तए णं तस्स उंबरदत्तस्स दारगस्स अन्नया कयाइ सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउन्भूया। तंजहा-सासे, कासे जाव' कोढे / तए णं से उंबरदत्ते दारए सोलसहि रोगायंकेहि अभिभूए समाणे कच्छुल्ले जाव देहं बलियाए वित्ति कप्पेमाणे विहरई / एवं खलु गोयमा ! उंबरदत्ते दारए पुरापोराणाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ / ' १६-तदनन्तर सागरदत्त सार्थवाह भी विजयमित्र की ही तरह (समुद्र में जहाज के जलनिमग्न हो जाने से) कालधर्म को प्राप्त हुआ। गंगदत्ता भी (पतिवियोगजन्य असह्य दुःख से दुःखी हुई) कालधर्म को प्राप्त हुई / इधर उम्बरदत्त को भी उज्झित कुमार की तरह राजपुरुषों ने घर से निकाल दिया। उसका घर किसी अन्य को सौंप दिया। 1. प्र. अ., सूत्र, 2. सप्तम अ., सूत्र 4. Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 // [विपाकसूत्र - प्रथम श्रु तस्कन्ध तत्पश्चात् किसी समय उम्बरदत्त के शरीर में एक ही साथ सोलह प्रकार के रोगातङ्क उत्पन्न हो गये, जैसे कि, श्वास, कास यावत् कोढ़ आदि / इन सोलह प्रकार के रोगातकों से अभिभूत हुआ उम्बरदत्त खुजली यावत् हाथ आदि के सड़ जाने से दुःखपूर्ण जीवन बिता रहा है। भगवान् कहते हैं-हे गौतम ! इस प्रकार उम्बरदत्त बालक अपने पूर्वकृत अशुभ कर्मों का यह भयङ्कर फल भोगता हुअा इस तरह समय व्यतीत कर रहा है। उंबरदत्त का भविष्य 17 --'से णं उंबरदत्ते दारए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ,कहिं उववर्जािहइ ? गोयमा ! उंबरदत्ते दारए बावरि वासाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे काल किच्चा इमीसे रमणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उववज्जिहिइ / संसारो तहेव जाव पुढवी / तमो हस्थिणाउरे नयरे कुक्कुडत्ताए पच्चायाहिइ / जाय मेत्त चेव गोटिल्लवहिए तत्थेव हथिणाउरे नयरे सेट्टिकुल सि उववज्जिहिइ / बोहि, सोहम्मे कप्पे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्लेवो। १७--तदनन्तर श्री गौतमस्वामी ने भगवान् महावीर स्वामी से पूछा-अहो भगवन् ! यह उम्बरदत्त बालक मृत्यु के समय में काल करके कहाँ जायगा? और कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान् ने उत्तर दिया-हे गौतम ! उम्बरदत्त बालक 72 वर्ष का परम आयुष्य भोगकर कालमास में काल करके--मरण के समय मर कर इसी रत्नप्रभानाम प्रथम नरक में नारक रूप से उत्पन्न होगा। वह पूर्ववत् संसार भ्रमण करता हुअा पृथिवी आदि सभी कायों में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से निकल कर हस्तिनापुर में कुकुट-कूकड़े के रूप में उत्पन्न होगा। वहां जन्म लेने के साथ ही गोष्ठिकों-दुराचारी मंडली के द्वारा वध को प्राप्त होगा। पुनः हस्तिनापुर में ही एक श्रेष्ठिकुल में उत्पन्न होगा / वहां सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। वहां से मरकर सौधर्मनामक प्रथम कल्प में जन्म लेगा। वहां से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहाँ अनगार धर्म को प्राप्त कर यथाविधि संयम की आराधना कर कर्मो का क्षय करके सिद्धि को प्राप्त होगा-सर्व कर्मों, दु:खों का अन्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये, अर्थात् श्रमण भगवान महावीर ने सप्तम अध्ययन का यह अर्थ कहा है। सप्तम अध्याय समाप्त Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन शौरिकदत्त प्रस्तावना १--'जइ णं भन्ते' अटुमस्स उक्लेवो १-अहो भगवन् ! अष्टम अध्ययन का श्रमण भगवान् महावीर ने क्या अर्थ कहा है ? इस प्रकार उत्क्षेप पूर्ववत् जान लेना चाहिये। २–एवं खलु, जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं सोरियपुरं नयरं होत्था, सोरियडिसगं उज्जाणं / सोरियो जक्खो / सोरियदत्ते राया। २-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में शौरिकपुर नाम का एक नगर था। वहाँ 'शौरिकावतंसक' नाम का एक उद्यान था / उसमें शोरिक नाम के यक्ष का यक्षायतन था। शौरिकदत्त नामक राजा वहाँ राज्य करता था। शौरिकदत्त का वर्तमान भव ३--तस्स णं सोरियपुरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए तत्थ णं एगे मच्छंधपाउए होत्था। तत्थ णं समुद्ददत्ते नामं मच्छंधे परिवसइ / अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे / तस्स गं समुद्ददत्तस्स समुद्ददत्ता नामं भारिया होत्था, अहोणपडिपुण्णपंचिदियसरीरा / तस्स णं समुद्ददत्तस्स पुत्ते समुद्ददत्ताए भारियाए अत्तए सोरियदत्त नामं दारए होत्था, अहीणपडिपुण्णपंचिदियसरीरे / ३-उस शौरिकपुर नगर के बाहर ईशान कोण में एक मच्छीमारों का पाटक-पाड़ामोहल्ला था / वहाँ समुद्रदत्त नामक मच्छीमार रहता था। वह महा-अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द था। उसकी समुद्रदत्ता नाम की अन्यून व निर्दोष पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीरवाली भार्या थी। उस समुद्रदत्त का पुत्र और समुद्रदत्ता भार्या का आत्मज शौरिकदत्त नामक सर्वाङ्गसम्पन्न सुन्दर बालक था। 4 तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, जाव परिसा पडिगया। ४--उस काल व उस समय में (शौरिकावतंसक उद्यान में) भगवान् महावीर पधारे / यावत् परिषद् व राजा धर्मकथा सुनकर वापिस चले गये / Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] [विपाकसूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्य ५-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स जेटु सीसे जाव सोरियपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत समुदाणं गहाय सोरियपुरायो नयरानो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तस्स मच्छंधवाडगस्स अदूरसामतेणं बीइवयमाणे महइमहालियाए मणुस्सपरिसाए मझगयं एग परिसं सुक्कं भक्खं निम्मंसं अद्विचम्मावणद्ध किडिकिडियाभूयं नीलसाडगनियत्थं मच्छकंटएणं गलए अणुलग्गेणं कटाई कलुणाई विस्सराइं उक्कदमाणं अभिक्खणं अभिक्खणं पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले य वममाणं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अज्झस्थिए चितिए, कपिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने-'अहो णं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं जाव विहरई' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव भगवं महाबोरे तेणेव उवागच्छइ / पुत्वभवपुच्छा जाव वागरणं / ५-~-उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी यावत् षष्ठभक्त के पारणे के अवसर पर शौरिकपुर नगर में उच्च, नीच तथा मध्यम-सामान्य घरों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट प्राहार लेकर शौरिकपुर नगर से बाहर निकलते हैं। निकल कर उस मच्छीमार मुहल्ले के पास से जाते हुए उन्होंने विशाल जनसमुदाय के बीच एक सूखे, बुभुक्षित (भूखे), मांसरहित व अतिकृश होने के कारण जिसका चमड़ा हड्डियों से चिपटा हुआ है, उठते, बैठते वक्त जिसकी हड्डियां किटिकिटिका-कड़कड़-शब्द कर रही हैं, जो नीला वस्त्र पहने हुए है एवं गले में मत्स्य-कण्टक लगा होने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण आक्रन्दन कर रहा है, ऐसे पुरुष को देखा / वह खून के कुल्लों, पीव के कुल्लों और कीड़ों के कुल्लों का बारंबार वमन कर रहा था। उसे देख कर गौतम स्वामी के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ,---अहा ! यह पुरुष पूर्वकृत यावत् अशुभकर्मों के फलस्वरूप नरकतुल्य वेदना का अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है ! इस तरह विचार कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुंचे यावत् भगवान् से उसके पूर्वभव की पृच्छा की / भगवान् महावीर उत्तर में इस तरह फरमाते हैंपूर्वभव-कथा ६–एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबहीवे दीवे भारहे वासे नंदिपुरे नाम नयरे होत्था। मित्त राया / तस्स णं मित्तस्स रन्नो सिरीए नामं महाणसिए होत्था, अहम्मिए जाव' दुष्पडियाणंदे / ६-हे गौतम ! उस काल एवं उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नाम का प्रसिद्ध नगर था / वहाँ मित्र राजा राज्य करता था। उस मित्र राजा के श्रीद या श्रीयक नाम का एक रसोइया था। वह महाअधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-कठिनाई से प्रसन्न किया जा सकने वाला था। ७--तस्स णं सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिया य बागुरिया य साउणिया य दिन्नभइभत्तवेयणा कल्लाकल्लि बहवे सहमच्छा य जाव 2 पडागाइपडागे य, अए य जाब 3 महिसे य, तित्तिरे य जाव 4 मऊरे य जीवियानो ववरोति, ववरोवेत्ता सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति / 1. तृतीय अ०, मूत्र 4. २-प्रज्ञापना पद 1. ३-सप्तम अ., सूत्र 9. ४-सप्तम अ., सूत्र 9. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंष्टम अध्ययन : शौरिकदत्त अन्ने य से बहवे तित्तिरा य जाव मऊरा य पंजरंसि संनिरुद्धा चिट्ठति / अन्ने य बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेपणा ते बहवे तित्तिरे य जाव मऊरे य जीवंतए चेव निप्पक्खेंति, निष्पक्खेत्ता सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति / / ७-उसके रुपये, पैसे और भोजनादि रूप से वेतन ग्रहण करनेवाले अनेक मात्स्यिकमच्छीमार, वागुरिक-जालों से जीवों को पकड़ने वाले व्याध, शाकुनिक-पक्षिघातक नौकर पुरुष थे ; जो श्लक्ष्णमत्स्यों-कोमल चर्मवाली मछलियों यावत् पताकातिपताकों-मत्स्यविशेषों, तथा अजों (बकरों) यावत् महिषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों का वध करके श्रीद रसोइये को देते थे। अन्य बहुत से तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी उसके यहाँ पिंजरों में बन्द किये हुए रहते थे। श्रीद रसोइया के अन्य अनेक रुपया, पैसा, भोजनादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष अनेक जोते हुए तित्तरों यावत् मयूरों को पक्ष रहित करके (पंख उखाड़ करके) उसे लाकर दिया करते थे। --तए णं से सिरोए महाणसिए बहूर्ण जलयर-थलयर-खयराणं मसाई कप्पणिकप्पियाई करेइ, तं जहा-सण्हखंडियाणि य वखंडियाणि य दीहखंडियाणि य रहस्सखंडियाणि य हिमपक्काणिय जम्मपक्काणि य बेगपक्काणि धम्मपक्काणि य मारुयपक्काणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिद्वाणि य मामलरसियाणि य मुद्दियारसियाणि य कविदरसियाणि य दालिमरसियाणि य मच्छरसियाणि य तलियाणि य भज्जियाणि य सोल्लियाणि य उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता अन्ने य बहवे मच्छरसए य एणेज्जरसए य तित्तिररसए य जाव मयूररसए य, अन्नं च विउल हरियसागं उवक्खडावेति, उपक्खडावेत्ता मित्तस्स रन्नो मोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेति / अपणा वि य णं से सिरीए महाणसिए तेसि च बहूहि जाव जलयर-थलयर-खहयरमंसेहि रसएहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीधुच प्रासाएमाणे वीसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ / तए णं से सिरीए महाणसिए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म समज्जिणित्ता तेत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता काल मासे काल किच्चा छट्ठोए पुढवीए उववन्ने। ८-तदनन्तर वह श्रीद नामक रसोइया अनेक जलचर, स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों को लेकर सूक्ष्म खण्ड, वृत्त (गोल) खण्ड, दीर्घ (लम्बे) खण्ड, तथा ह्रस्व (छोटे, छोटे) खण्ड किया करता था। उन खण्डों में से कई एक को बर्फ से पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिससे वे खण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप की गर्मी से ब कई एक को हवा के द्वारा पकाता था। कई एक को कृष्ण वर्ण वाले तो कई एक को हिंगुल के जैसे लाल वर्ण वाले किया करता था। वह उन खण्डों को तक्र—छाश से संस्कारित, पामलक-प्रांवले से रस से भावित, द्राक्षारस, कपित्थ तथा अनार के रस से भी संस्कारित करता था एवं मत्स्यरसों से भी भावित किया करता था। तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कई एक को तेल से तलता, कई एक को आग पर भूनता एक को शूला-प्रोत-सूल में पिरोकर पकाता था। ___ इसी प्रकार मत्स्यमांसों के रसों को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिरमांसों के रसों को यावत् मयरमांसों के रसों को तथा अन्य वहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके राजा मित्र के भोजनमंडप में लेजाकर भोजन के समय उन्हें प्रस्तुत करता था। श्रीद रसोइया स्वयं भी अनेक Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [ वियाकसूत्र–प्रथम श्रु तस्कन्ध जलचर, स्थलचर एवं खेचर जीवों के मांसों, रसों व हरे शाकों के साथ, जो कि शूलपक्व होते, तले हुए होते, भूने हुए होते थे, छह प्रकार की सुरा आदि का आस्वादनादि करता हुआ काल यापन कर रहा था। तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करनेवाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं का विज्ञान रखनेवाला, तथा इन्हीं पापों को सर्वोत्तम पाचरण मानने वाला वह श्रीद रसोइया अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर 33 सौ वर्ष की परम आयु को भोग कर काल मास में काल करके छठे नरक में उत्पन्न हुना। ६-तए णं सा समद्ददत्ता भारिया जायनियावि होत्था / जाया जाया दारगा विणिहायमावज्जति / जहा गंगदत्ताए चिन्ता, पापुच्छणा, प्रोवाइयं, दोहला जाव' दारगं पयाया, जाव 'जम्हा गं अम्हे इमे दारए सोरियस्स जक्खस्स प्रोवाइयलद्ध, तम्हा णं होउ अम्हं दारए सोरियदत्ते नामेणं / तए णं से सोरियदत्ते दारए पंचधाई जाव उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमेत्ते जोवणगमणप्पत्ते यावि होत्था। ९-उस समय वह समुद्रदत्ता भार्या-मृतवत्सा थी। उसके बालक जन्म लेने के साथ ही मर जाया करते थे। उसने गंगदत्ता की ही तरह विचार किया, पति की आज्ञा लेकर, मान्यता मनाई और गर्भवती हुई। दोहद की पूर्ति कर समुद्रदत्त बालक को जन्म दिया। 'शौरिक यक्ष की मनौती मनाने के कारण हमें यह बालक उपलब्ध हुअा है' ऐसा कहकर माता पिता ने उसका नाम 'शौरिकदत्त' रक्खा। तदनन्तर पांच धायमाताओं से परिगृहीत, बाल्यावस्था को त्यागकर विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न हो वह शौरिकरदत्त युवावस्था को प्राप्त त हुआ। १०--तए णं से समद्ददत्ते अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। तए णं से सोरियदत्ते बहि मित्त-नाइ रोयमाणे समदृदत्तस्स नोहरणं करेइ, लोइयाइं मयकिच्चाई करे। अन्नया कयाइ सयमेव मच्छंधमहत्तरगत्तं उघसंपज्जित्ताणं विहर। तए णं से सोरियदारए मच्छंधे जाए, अहम्मिए जावर दुष्पडियाणंदे। १०-तदनन्तर किसी समय समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हो गया। रुदन आक्रन्दन व विलाप करते हुए शौरिकदत्त बालक ने अनेक मित्र-ज्ञाति-स्वजन परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया, दाहकर्म व अन्य लौकिक क्रियाएं की। तत्पश्चात् किसी समय वह स्वयं ही मच्छीमारों का मुखिया बन कर रहने लगा। अब वह मच्छीमार हो गया जो महा अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-अति कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। ११-तए णं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा कल्लाल्लि एगट्टियाहि जउणं महाणइं प्रोगाहेति, प्रोगाहित्ता बहूहिं दहगालणेहि य दहमलणेहि य दहमणेहि य दहमहणेहि य दहवणेहि य दहपवहणेहि य अयंचुलेहि य पंचपुलेहि य मच्छंधलेहि य मच्छपुच्छेहि य जंभाहि य तिसिराहि य भिसिराहि य धिसराहि य विसराहि य हिल्लिरीहि य झिल्लिरीहि य 1. देखिए सप्तम अध्ययन 2. तृतीय अ., सूत्र 4 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अटष्म अध्ययन : शोरिकदत्त / [ 63 ललिरोहि य जालेहि य गलेहि य कडपासेहि य वक्कबंधेहि य सुत्तबन्धणेहि य वालबन्धणेहि य बहवे सोहमच्छे जाव' पडागाइपडागे य गिण्हति / गेण्हित्ता एगट्ठियारो भरेंति, भरित्ता कूलं गाहेंति, गाहित्ता मच्छखलए करेंति, करित्ता प्रायवंसि दलयंति / अन्न य से बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा प्रायवतत्तएहि मच्छेहि सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य रायमग्गंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरति / अप्पणा वि य णं से सोरियदत्ते बहूहि सोहमच्छेहि जाव पडागाइपडागेहि य सोल्लेहि य भज्जिएहि य तलिएहि य सुरं च महुं च मे रगं च जाई च सीधु च पसण्णं च आसाएमाणे बीसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। 11 तदनन्तर शौरिकदत्त मच्छीमार ने रुपये, पैसे और भोजनादि का वेतन लेकर काम करने वाले अनेक वेतनभोगी पुरुष रक्खे, जो छोटी नौकाओं के द्वारा यमुना महानदी में प्रवेश करते-घूमते, ह्रद-गलन ह्रद-मलन, ह्रदमर्दन, ह्रद-मन्थन, ह्रदवहन, ह्रद-प्रवहन (ह्रद-जलाशय या झील का नाम है, उसमें मछली प्रादि जीवों को पकड़ने के लिये भ्रमण करना, सरोवर में से जल को निकालना या थूहर आदि के दूध को डालकर जल को दूषित करना, जल का विलोडन करना कि जिससे भयभीत व स्थानभ्रष्ट मत्स्यादि सरलता से पकड़े जा सकें) से, तथा प्रपंचुल, प्रपंपुल, मत्स्यपूच्छ, जम्भा, त्रिसरा, भिसरा, विसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि. जाल. गल. कुटपाश, वल्कबन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध (ये सब मत्स्यादिकों को पकड़ने के विविध साधनविशेषों के विशिष्ट नाम हैं) साधनों के द्वारा कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक मत्स्य-विशेषों को पकड़ते, पकड़कर उनसे नौकाएं भरते हैं। भरकर नदी के किनारे पर लाते हैं, लाकर बाहर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं / तत्पश्चात् उनको वहाँ धूप में सूखने के लिए रख देते हैं। इसी प्रकार उसके अन्य रुपये, पैसे और भोजनादि लेकर काम करनेवाले वेतनभोगी पुरुष धप से सखे हए उन मत्स्यों के मांसों को शुलाप्रोत कर पकाते, तलते और भूनते तथा उन्हें राजमार्गों में विक्रयार्थ रखकर आजीविका करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किये हुए, भुने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार को सुरा सीधु आदि मदिराओं का सेवन करता हुआ जीवन यापन कर रहा था। १२–तए णं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अन्नया कयाइ ते मच्छसोल्ले य तलिए य भज्जिए य पाहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे यावि होत्था। तए णं से सोरियदत्ते मच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूए समाणे कोडुबिययुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सोरियपुरे नयरे सिंघाडग जाव पहेसु य महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं बयह एवं खलु देवाणप्पिया! सोरियदत्तस्स मच्छकंटए गले लग्गे। तं जो णं इच्छइ वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणुनो वा जाणयपुत्तो वा तेगिच्छितो तेगिच्छियपुत्तो वा सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलामो नीहरित्तए, तस्स णं सोरियदत्ते विउलं प्रत्थसंपयाणं दलयइ।' तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव उग्घोसेंति / १२-तदनन्तर किसी अन्य समय शूल द्वारा पकाये गये, तले गए व भूने गए मत्स्य मांसों का आहार करते समय उस शौरिकदत्त मच्छीमार के गले में मच्छी का कांटा फँस गया। इसके कारण वह महती असाध्य वेदना का अनुभव करने लगा / अत्यन्त दुखो हुए शौरिक ने अपने कौटुम्बिक 1-2. प्रज्ञापनासूत्र, पद 1. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों व यावत् सामान्य मार्गों पर जाकर ऊँचे शब्दों से इस प्रकार घोषणा करो कि--हे देवानुप्रियो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का कांटा फंस गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक-पुत्र उस मत्स्य-कंटक को निकाल देगा तो, शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा।" कौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों ने उसकी आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी। १३---तए णं ते बहवे बेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुपत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छिय. पुत्ता य इमेयारूवं उग्घोसणं उग्धोसिज्जमाणं निसामेंति, निसामित्ता जेणेव सोरियदत्तस्स गेहे, जेणेव सोरियमच्छंधे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता बहूहिं उप्पत्तियाहि य वेणइयाहिय ऋम्मियाहि य पारिणामियाहि य बुद्धोहिं परिणामेमाणा परिणामेमाणा वमणेहि य सड्डणेहि य, ओवीलणेहि य कवलग्गाहेहि य सल्लुद्धरणे हि विसल्लकरणेहि य इच्छंति सोरियमच्छंधस्स मच्छकंटयं गलामो नीहरित्तए / नो चेव णं संचाएंति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा / तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपत्ता व जाणुया य जाणयपत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपत्ता य जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलामो नोहरित्तए, ताहे संता जाव (तंता परितंता) जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। __ तए णं से सोरियदत्ते मच्छंधे बेज्जपडियारनिविण्णे तेणं महया दुक्खेणं अभिभूए समाणे सुक्के जाव (भुक्खे जाव किमियकवले य वममाणे) विहरइ / एवं खलु गोयमा ! सोरिए पुरापोराणाणं जाव विहरइ। १३-उसके बाद बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र आदि उपर्युक्त उद्घोषणा को सुनते हैं और सुनकर शौरिकदत्त का जहाँ घर था और शौरिक मच्छीमार जहाँ था वहाँ पर आते हैं / आकर बहुत सी औत्पत्तिकी बुद्धि (स्वाभाविक प्रतिभा), वैनयिकी, कामिकी तथा पारिणामिकी बुद्धियों से सम्यक् परिणमन करते (निदानादि को समझते हुए) वमनों, छर्दों (वमन-विशेषों) अवपीड़नों (दबाने) कवलग्राहों (मख की मालिश करने के लिये दाढों के नीचे लकडी का टकडा रखना) शल्योद्धारों (यन्त्र प्रयोग से काटों को निकालना) विशल्य-करणों (औषध के बल से कांटा निकालना) आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के कांटों को निकालने का तथा पीव को बन्द करने का भरसक प्रयत्न करते हैं परन्तु उसमें वे सफल न हो सके अर्थात् उनसे शौरिकदत्त के गले का कांटा निकाला नहीं जा सका और न पीव व रुधिर बन्द हो सका। तब श्रान्त, तान्त, परितान्त हो अर्थात् निराश व उदास होकर वापिस अपने अपने स्थान पर चले गये। इस तरह वैद्यों के इलाज से निराश हुआ शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूखकर यावत् अस्थिपिञ्जर मात्र शेष रह गया / वह दुःखपूर्वक समय बिता रहा है / भगवान् फरमाते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार वह शौरिकदत्त अपने पूर्वकृत अत्यन्त अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है / शौरिकदत्त का भविष्य १४--'सोरिए णं, भंते ! मच्छंधे इग्रो कालमासे कालं किच्चा कहि गच्छिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ?' Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन : शौरिकदत्त ] [ 95 गोयमा ! सत्तरिवासाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए / संसारो तहेब, जाव पुढवीए / तो हस्थिणाउरे नयरे मच्छत्ताए उववज्जिहिइ / से गं तो मच्छिएहि जीवियानो ववरोविए तस्थेव सेटिकुलंसि उववज्जिहिइ, बोही, सोहम्मे कप्पे, महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्खेवो। १५--गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-अहो भगवन् ! शौरिकदत्त मत्स्यबन्ध-मच्छीमार यहाँ से कालमास में काल करके कहाँ जायगा? कहाँ उत्पन्न होगा? भगवान ने उत्तर दिया-हे गौतम ! 70 वर्ष की परम आयु को भोगकर कालमास में काल करके रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में उत्पन्न होगा। उसका अवशिष्ट संसार-भ्रमण पूर्ववत् ही समझ लेना चाहिये यावत पृथ्वीकाय आदि में लाखों बार उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर हस्तिनापुर में मत्स्य होगा। वहाँ मच्छीमारों के द्वारा वध को प्राप्त होकर वहीं हस्तिनापुर में एक श्रेष्ठिकुल में जन्म लेगा। वहाँ सम्यक्त्व की उसे प्राप्ति होगी / वहाँ से मरकर सौधर्म देवलोक में देव होगा। वहाँ से चय कर महाविदेह क्षेत्र में जन्मेगा, चारित्र ग्रहण कर उसके सम्यक् आराधन से सिद्ध पद को प्राप्त करेगा। निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् समझ लेना चाहिये। / / अष्टम अध्ययन समाप्त / / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन देवदत्ता उत्क्षेप १-'जइ णं भंते!' उखेवो नवमस्स। १-'यदि भगवन् ! श्रमण भगवान महावीर ने अष्टम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ कहा न का क्या अर्थ कहा है ?' इस प्रकार जम्ब स्वामी द्वारा प्रश्न करने पर सुधर्मा स्वामी ने इस प्रकार उत्तर दिया, इस तरह नवम अध्ययन का उत्क्षेप जान लेना चाहिए। २–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रोहीडए' नामं नयरे होत्था, रिद्धथमियसमिद्ध ! पुढविडिसए उज्जाणे। धरणे जक्खे। वेसमणदत्तोराया। सिरोदेवी। पूसनंदी कुमारे जुवराया। २-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में रोहीतक नाम का नगर था / वह ऋद्ध, स्तिमित तथा समृद्ध था। पृथिवी-अवतंसक नामक वहां उद्यान था / उसमें धारण नामक यक्ष का यक्षायतन था। वहाँ वैश्रमणदत्त नाम का राजा राज्य करता था। उसके श्रीदेवी नामक रानी थी / युवराज पद से अलंकृत पुष्पनंदी नामक कुमार था। ३---तत्थ णं रोहीडए नयरे दत्त नाम गाहावई परिवसइ, अड्डे / कण्हसिरीभारिया। तस्स णं दत्तस्स धूया कण्हसिरीए अत्तया देवदत्ता नामं दारिया होत्था, अहीणपडिपुण्णचिदियसरीरा। ३-उस रोहीतक नगर में दत्त नाम का एक गाथापति रहता था। वह बड़ा धनी यावत् सम्माननीय था। उसके कृष्णश्री नाम की भार्या थी। उस दत्त गाथापति की दुहिता-पुत्री तथा कृष्णश्री की प्रात्मजा देवदत्ता नाम की बालिका–कन्या थी; जो अन्यून एवं निर्दोष इन्द्रियों से युक्त सुन्दर शरीरवाली थी। वर्तमान भव ४-तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे; जाव परिसा निग्गया / तेणं कालेणं तेणं समएणं जे? अंतेवासी छटुक्खमणपारणगंसि तहेव जाव रायमगमोगाढे / हत्थी आसे पुरिसे पासइ / तेसि पुरिसाणं मझगयं पासइ एगं इत्थियं उक्खितकण्णनासं नेहतुप्पियगत्तं वज्झकर-कडिजुयनियच्छं कंठे गुणरत्तमल्लदामं चुण्णगुडियगातं चुण्णयं वज्झपाणपीयं, जाव सूले 1. पाठान्तर-राहाडए। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता ] [97 भिज्जमाणं पासइ, पासित्ता इमे प्रज्झथिए जाव समुप्पन्ने, तहेव निग्गए, जाव एवं वयासो-'एसा गं भंते ! इस्थिया पुत्वभवे का प्रासी ?' ४-उस काल उस समय में वहाँ (पृथ्वी अवतंसक उद्यान में) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे यावत् उनकी धर्मदेशना सुनकर राजा व परिषद् वापिस चले गये। उस काल, उस समय भगवान के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी षष्ठखमण-बेले के पारणे के निमित्त भिक्षार्थ नगर में गये यावत् (भिक्षा ग्रहण करके लौटते हुए) राजमार्ग में पधारे। वहाँ पर वे हस्तियों, अश्वों और पुरुषों को देखते हैं, और उन सबके बीच उन्होंने अवकोटक बन्धन से बंधी हुई, कटे हुए कर्ण तथा नाकवाली (जिसके शरीर पर चिकनाई पोती है, जिसे हाथों और कटिप्रवेश में वध्य पुरुष के योग्य वस्त्र पहिनाए गए हैं, हाथों में हथकड़ियां हैं, गले में लाल फूलों की माला पहिनाई गयी है, गेरू के चूर्ण से जिसका शरीर पोता गया है ) ऐसी सूली पर भेदी जाने वाली एक स्त्री को देखा और देखकर उनके मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ कि यह नरकतुल्य वेदना भोग रही है / यावत् पूर्ववत् भिक्षा लेकर नगर से निकले और भगवान् के पास आकर इस प्रकार निवेदन करते लगे कि-भदन्त ! यह स्त्री पूर्वभव में कौन थी ? पूर्वभव ५-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सुपइ8 नामं नयरे होत्या, रिद्धस्थिमियसमिद्ध / महासेणे राया। तस्स णं महासेणस्स रन्नो धारिणीपामोक्खाणं देवीसहस्सं प्रोरोहे यावि होत्था। तस्स णं महासेणस्स रनो पुत्तो धारिणीए देवीए अत्तए सोहसेणे नामं कुमारे होत्था, अहीणपडिपुण्णचिदियसरीरे, जुवाराया। ५-हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीपनामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में सुप्रतिष्ठ नाम का एक ऋद्ध, स्तिमित व समृद्ध नगर था। वहाँ पर महासेन राजा राज्य करते थे। उसके अन्तःपूर में धारिणी प्रादि एक हजार रानियाँ थीं / महाराज महासेन का पुत्र और महारानी धारिणी का आत्मज सिंहसेननामक राजकुमार था जो अन्यून पांचों निर्दोष इन्द्रियों वाला व युवराज पद से अलंकृत था। ६-तए णं तस्स सोहसेणस्स कुमारस्स अम्मापियरो अन्नया कयाइ पंच पासायडिसयसयाई करेंति, अब्भगयमूसियाई। तए णं तस्स सीहसणस्स कुमारस्स प्रम्मापियरो अन्नया कयाइ सामापामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नगसयाणं एगदिवसे पाणि गिहाविसु / पंचसयओ दाओ। तए णं से सोहसेणे कुमारे सामापमोक्खाहिं पंचसयाहिं देवीहिं सद्धि उम्पि जाव' विहरइ। ७---तदनन्तर उस सिंहसेन राजकुमार के माता-पिता ने एक बार किसी समय पांच सौ सविशाल प्रासादावतंसक (श्रेष्ठ महल) बनवाये। तत्पश्चात किसी अन्य समय उन्होंने सिंहसेन राजकुमार का श्यामा प्रादि पांच सौ सुन्दर राजकन्याओं के साथ एक दिन में विवाह कर दिया। 1. ज्ञाताधर्मकथा अ०१॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [विपाकसूत्र---प्रथम श्रुतस्कन्ध पांच सौ-पांच सौ वस्तुओं का प्रीतिदान-दहेज दिया। तदनन्तर राजकुमार सिंहसेन श्यामाप्रमुख उन पांच सौ राजकन्याओं के साथ प्रासादों में रमण करता हुआ सानन्द समय व्यतीत करने लगा। -तए णं से महासेणे राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते / नीहरणं / राया जाए। ८--तत्पश्चात् किसी समय राजा महासेन कालधर्म को प्राप्त हुए। (आक्रन्दन, रुदन, विलाप करते हुए) राजकुमार सिंहसेन ने नि:सरण (शवयात्रा निकाली) तत्पश्चात् राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर राजा बन गया। ६-तए णं से सोहसेणे राया सामाए देवीए मच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववणे अवसेसानो देवीओ नो पाढाइ, नो परिजाणाइ / प्रणाढायमाणे अपरिजाणमाणे विहरई। तए णं तासि एगणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगणाई पञ्चमाईसयाई इमोसे कहाए लढाई समाणाई ‘एवं खलु सोहसेणे राया सामाएदेवीए मच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववण्णे अम्हं धूयाओ नो प्राढाइ, नो परिजाणाइ, प्रणाढायमाणे, अपरिजाणमाणे विहरइ / तं सेयं खलु अम्हं सामं देवि अग्गिप्पओगेण वा विसप्पयोगेण वा, सत्थप्पभोगेण वा जीवियाग्रो ववरोवित्तए, एवं संपेहेंति, संपेहित्ता सामाए देवीए अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणीग्रो विहरान्ति / R-तदनन्तर महाराजा सिंहसेन श्यामादेवी में मूच्छित, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न होकर अन्य देवियों का न पादर करता है और न उनका ध्यान ही रखता है। इसके विपरीत उनका अनादर व विस्मरण करके सानंद समय यापन कर रहा है। तत्पश्चात् उन एक कम पांच सौ देवियों-रानियों की एक कम पांच सौ माताओं को जब इस वृत्तान्त का पता लगा कि-'राजा, सिंहसेन श्यामादेवी में मूच्छित, गद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न होकर हमारी कन्याओं का न तो आदर करता और न ध्यान ही रखता है, अपितु उनका अनादर व विस्मरण करता है; तब उन्होंने मिलकर निश्चय किया कि हमारे लिये यही उचित है कि हम श्यामादेवी को अग्नि के प्रयोग से, विष के प्रयोग से अथवा शस्त्र के प्रयोग से जीवन रहित कर ) डाल / इस तरह विचार करतो हैं और विचार करने के अनंतर अन्तर (जब राजा का आगमन न हो) छिद्र (राजा के परिवार का कोई व्यक्ति न हो) को प्रतीक्षा करती हुई समय बिताने लगीं। १०-तए णं सा सामादेवी इमोसे कहाए लट्ठा समाणी एवं वयासी-'एवं खलु, सामी ! एगणगाणं पंचहं सवत्तीसयाणं एगणगाई पंचमाइसयाई इमीसे कहाए लद्धदाई समाणाई अन्नमन्नं एवं वयासी-'एवं खलु, सीहसेणे-जाव पडिजागरमाणीम्रो विहरन्ति / तं न नज्जइ णं मम केणइ कुमारेण मारिस्संति, त्तिक१ .भीया तत्था तसिया उचिगा संजायभया जाव जेणेव कोवघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता प्रोहयमणसंकप्पा जाव झियाइ / १०-इधर श्यामादेवी को भी इस षड्यन्त्र का पता लग गया। जब उसे यह वृत्तान्त विदित हुआ तब वह इस प्रकार विचार करने लगी-मेरी एक कम पांच सौ सपत्नियों (सोतों) की एक कम पांच सौ माताएं-'महाराजा सिंहसेन श्यामा में अत्यन्त आसक्त होकर हमारी पुत्रियों मार Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता [ 86 का आदर नहीं करते, यह जानकर एकत्रित हुई और 'अग्नि, शस्त्र या विष के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्त कर देना ही हमारे लिए श्रेष्ठ है' ऐसा विचार कर वे अवसर की खोज में हैं। जब ऐसा है तो न जाने वे किस कुमौत से मुझे मारें ? ऐसा विचार कर वह श्यामा भीत, त्रस्त, उद्विग्न व भयभीत हो उठी और जहाँ कोपभवन था वहाँ आई। पाकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से मन में निराश होकर प्रात ध्यान करने लगी। ११–तए णं से सोहसेणे राया इमोसे कहाए लद्ध? समाणे जेणेव कोवघरए, जेणेव सामा देवो, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता सामं देवि प्रोहयमणसंकप्पं जाव पासइ, पासित्ता एवं वयासी-"कि णं तुम देवाण्णुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियासि ?" तए णं सा सामा देवी सोहसेणेण रन्ना एवं वुत्ता समाणी उप्फेणउस्फेणियं सोहसेणं रायं एवं वयासी---'एवं खलु सामो ! मम एगणपंचसवत्तिसयाणं एगण-पंचमाइसयाणं इमोसे कहाए लद्धट्टाणं समाणाणं अन्नमन्नं सदावेंति, सहावित्ता एवं वयासी–एवं खलु सोहसेणे राया सामाए देवीए उरि मुच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववण्णे अम्हं धयानो नो प्राढाइ, नो परिजाणइ, अणाढायमाणे, अपरिजाणमाणे विहरइ, तं सेयं खलु, प्रम्ह सामं देवि अग्गिप्पप्रोगेण वा विसयोगेण वा सत्थप्पनोगेण वा जीवियानो ववरोवित्तए।' एवं संपेहेंति, संपेहित्ता मम अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणोनो विहरंति / तं न नज्जइ णं सामी! ममं केणइ कुमारेण मारिस्संति ति कट्ट. भीया जाव झियामि। ११-तदनन्तर सिंहसेन राजा इस वृत्तान्त से अवगत हुआ और जहाँ कोपगृह था और जहां श्यामादेवी थी वहाँ पर पाया। आकर जिसके मानसिक संकल्प विफल हो गये हैं, जो निराश व चिन्तित हो रही है, ऐसी निस्तेज श्यामादेवी को देखकर कहा-हे देवानुप्रिये ! तू क्यों इस तरह अपहृतमनःसंकल्पा होकर चिन्तित हो रही है ? सिंहसेन राजा के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दूध के उफान के समान क्रु द्ध हुई अर्थात् क्रोधयुक्त प्रबल वचनों से सिंह राजा के प्रति इस प्रकार बोली हे स्वामिन् ! मेरो एक कम पांच सौ सपत्नियों (सोतों) की एक कम पांच सौ माताएं इस वत्तान्त को (कि आप मुझमें अनुरक्त हैं) जानकर इकट्ठी होकर एक दूसरे को इस प्रकार कहने लगी-महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में अत्यन्त आसक्त, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न हुए हमारी कन्यारों का आदर सत्कार नहीं करते हैं। उनका ध्यान भी नहीं रखते हैं। प्रत्युत उनका अनादर व विस्मरण करते हुए समय-यापन कर रहे हैं; इसलिये अब हमारे लिये यही समुचित है कि अग्नि, विष या किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अन्त कर डालें। तदनुसार वे मेरे अन्तर, छिद्र और विवर की प्रतीक्षा करती हुई अवसर देख रही हैं / न जाने मुझे किस कुमौत से मारें! इस कारण भयाक्रान्त हुई मैं कोपभवन में आकर वार्तध्यान कर रही हूँ। १२-तए णं से सोहसेणे साम देवि एवं वयासी-'मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! प्रोहयमणसंकप्पा जाव झियाहि / अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं तव नस्थि कत्तो वि सरीरस्स प्रावाहे पवाहे वा भविस्सई त्ति कटु ताहि इटाहि जाव (कंताहि पियाहि मणुण्णाहि मणामाहि वहि) समासासेइ / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध समासासित्ता तो पडिनिक्खमइ, पडिनिमित्ता कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं क्यासी'गच्छह णं तुभे, देवाणुप्पिया ! सुपइट्ठस्स नयरस्स बहिया एगं महं कूडागारसालं करेह, अणेगखंभसयसंनिविट्ठ जाव पासादीयं करेह, ममं एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' तए णं ते कोडुबियपुरिसा करयल जाव पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सुपइटनयरस्स बहिया पच्चस्थिमे दिसोविभाए एगं महं कूडागार-सालं जाव करेंति अणेगखंभसयसंनिविट्ठ जाव पासाइयं, जेणेव सीहोणे राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति / १२-तदनन्तर महाराजा सिंहसेन ने श्यामादेवी से इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिये ! तू इस प्रकार अपहृत मन वाली-हतोत्साह होकर प्रार्तध्यान मत कर / निश्चय ही मैं ऐसा उपाय करूगा कि तुम्हारे शरीर को कहीं से भी किसी प्रकार की आबाधा-ईषत् पीड़ा तथा प्रवाधा - विशेष बाधा न होने पाएगी / इस प्रकार श्यामा देवी को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वचनों से आश्वासन देता है और आश्वासन देकर वहाँ से निकल जाता है। निकलकर कौटुम्बिक-अनुचर पुरुषों को बुलाता है और उनसे कहता है-तुम लोग जाओ और जाकर सुप्रतिष्ठित नगर से बाहर पश्चिम दिशा के विभाग में एक बड़ी कूटाकारशाला बनाओ जो सैंकड़ों स्तम्भों से युक्त हो, प्रासादीय, अभिरूप, प्रतिरूप तथा दर्शनीय हो- अर्थात् देखने में अत्यन्त सुन्दर हो / वे कौटम्बिक पुरुष दोनों हाथ जोड़ कर सिर पर दसों नख वाली अञ्जलि रख कर इस राजाज्ञा को शिरोधार्य करते हुए चले जाते हैं। जाकर सुप्रतिष्ठित नगर के बाहर पश्चिम दिक विभाग में एक महती व अनेक स्तम्भों वाली प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप अर्थात् अत्यन्त मनोहर कुटाकारशाला तैयार करवाते हैं तैयार करवा कर महाराज सिंहसेन की प्राज्ञा प्रत्यर्पण करते हैं अर्थात् कूटाकार शाला यथायोग्य रूप से तैयार हो गई, ऐसा निवेदन करते हैं / १२-तए णं से सोहसेणे राया प्रनया कयाइ एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणाई पंचमाइसयाई आमंतेइ / तए णं तासि एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगुणाई पंचमाइसयाई सोहसेणेणं रन्ना आमंतियाइं समाणाई सवालंकार विभूसियाई जहाविभवेणं जेणेव सुपइ8 नयरे, जेणेव सोहसेणे राया, तेणेव उवागच्छन्ति / तए णं से सीहसेणे राया एगूणगाणं पंचदेवीसयाणं एगूणगाणं पंचमाइसयाणं कूडागारसालं आवासं दलया। १२---तदनन्तर राजा सिंहसेन किसी समय एक कम पांच सौ देवियों (रानियों) की एक कम पांच सौ माताओं को आमन्त्रित करता है / सिंहसेन राजा का आमंत्रण पाकर वे एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताएं सर्वप्रकार से वस्त्रों एवं प्राभूषणों से सुसज्जित हो अपनेअपने वैभव के अनुसार सुप्रतिष्ठित नगर में राजा सिंहसेन जहाँ थे, वहाँ आजाती हैं / सिंहसेन राजा भी उन एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं को निवास के लिये कुटाकारशाला में स्थान दे देता है। १३–तए णं से सीहसेणे राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-"गच्छह णं तुब्भे देवाणु प्पिया! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवणेह, सुबहु पुफ्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं च कडागारसालं साहरह। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता] [101 . तए णं ते कोडुबियपुरिसा तहेव जाव साहरंति / तए णं तासि एगणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगणगाइं पंचमाईसयाई सव्वालंकारविभूसियाई तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च पसण्णं च प्रासाएमाणाई गंधव्वेहि य नाडएहि य उवगीयमाणाई उवगीयमाणाई विहरन्ति / 13-- तदनन्तर सिंहसेन राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम जागो और विपुल अशनादिक ले जानो तथा अनेकविध पुष्पों, वस्त्रों, गन्धों-सुगन्धित पदार्थों, मालाओं और अलंकारों को कुटाकार शाला में पहुंचानो। कौटुम्बिक पुरुष भी राजा की आज्ञा के अनुसार सभी सामग्री पहुंचा देते हैं। तदनन्तर सर्व-प्रकार के अलंकारों से विभूषित उन एक कम पांच सौ देवियों की एक कम पांच सौ माताओं ने उस विपुल अशनादिक और सुरादिक सामग्री का आस्वादन किया—यथारुचि उपभोग किया और गान्धर्व (गाने वाले व्यक्तियों) तथा (नत्य करने वाले) नर्तकों से उपगीयमान-प्रशस्यमान होती हुई सानन्द विचरने लगीं / अर्थात् भोजन तथा मद्यपान करके नाच-गान में मस्त हो गई। १४-तए णं से सीहसेणे राया प्रद्धरत्तकालसमयंसि बहूहिं पुरिसेहिं सद्धि संपरिवुडे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता, कूडागारसालाए दुवाराई पिहेइ, पिहित्ता कूडागारसालाए सव्वो प्रगणिकायं दलयइ। ___तए णं तासि एगूणगाणं पञ्चण्हं देवीसयाणं एगणगाइं पंचमाइसयाई सोहसेणेण रन्ना प्रालीवियाई समाणाई रोयमाणाई कंदमाणाइं विलबमाणाई अत्ताणाई असरणाई कालधम्मुणा संजुत्ताई। १४-तत्पश्चात् सिंहसेन राजा प्रर्द्धरात्रि के समय अनेक पुरुषों के साथ, उनसे घिरा हुआ, जहाँ कुटाकारशाला थी वहाँ पर आया। पाकर उसने कुटाकारशाला के सभी दरवाजे बन्द करवा दिये / बन्द करवाकर कूटाकारशाला को चारों तरफ से आग लगवा दी। तदनन्तर राजा सिंहसेन के द्वारा प्रादीप्त की गईं, जलाई गईं, त्राण व शरण से रहित हुई एक कम पांच सौ रानियों को एक कम पांच सौ माताएं रुदन क्रन्दन व विलाप करती हुईं कालधर्म को प्राप्त हो गई। १५-तए णं से सोहसेणे राया एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म समज्जिणित्ता चोत्तीसं वाससयाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्टीए पुढवीए उक्कोसेणं वावीससागरोवमटिइएसु नेरइयेसु नेरइयत्ताए उववन्ने / से णं तमो अणंतरं उबट्टित्ता इहेव रोहीडए नयरे दत्तस्स सस्थवाहस्स कण्हसिरीए भारियाए कुच्छिंसि दारियत्ताए उववन्ने। १५-तत्पश्चात् इस प्रकार के कर्म करने वाला, ऐसी विद्या-बुद्धि वाला, ऐसा आचरण करने वाला सिंहसेन राजा अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके ३४-सौ वर्ष की परम आयु भोगकर काल करके उत्कृष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाली छट्ठी नरकभूमि में नारक रूप से उत्पन्न हुया ! वही सिंहसेन राजा का जीव स्थिति के समाप्त होने पर वहां से निकलकर इसी Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] [ विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्धं रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या की कुक्षि में बालिका के रूप में उत्पन्न हुआ अर्थात् कन्या के रूप में गर्भ में पाया। १६-तए णं सा कण्हसिरी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव दारियं पयाया सुउमालपाणिपाया जाव सुरूवा। तए णं तोसे दारियाए अम्मापियरो निव्वत्तवारसाहियाए विउलं असणं जाव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पूरो नामधेज्जं करेंति तं होउ णं दारिया देवदत्ता नामेणं, तए णं सा देवदत्ता दारिया पंचधाईपरिग्गहिया जाव परिवड्ढइ / १६-तब उस कृष्णश्री भार्या ने नव मास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया। वह अत्यन्त कोमल हाथ-पैरों वाली तथा अत्यन्त रूपवती थी / तत्पश्चात् उस कन्या के मातापिता ने बारहवें दिन बहत-सा अशनादिक तैयार कराया यावत मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन, संबंधीजन तथा परिजनों को निमन्त्रित करके एवं भोजनादि से निवत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा-हमारी इस कन्या का नाम देवदत्ता रक्खा जाता है / तदनन्तर वह देवदता पांच धायमाताओं के संरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। १७-तए णं सा देवदत्ता दारिया उम्मुक्कबालभावा जाव (विण्णयपरिणयमेत्ता) जोव्वणेण य रूवेण य लावण्णेण य ईव-अईव उक्किट्ठा उक्किटुसरीरा यावि होत्था / तए णं सा देवदत्ता दारिया अन्नया कयाइ व्हाया जाव' विभूसिया बहूहिं खुज्जाहि जाव परिक्खिता उपि अागासतलगंसि कणतिदूसेणं कोलमाणी विहरइ / १७-तदनन्तर वह देवदत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप व लावण्य से अत्यन्त उत्तम व उत्कृष्ट शरीरवाली होगई। एक वार वह देवदत्ता स्नान करके यावत् समस्त आभूषणों से विभूषित होकर बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर सोने की गेंद के साथ क्रीडा करती हुई विहरण कर रही थी। १८-इमं च णं वेसमणदत्ते राया हाए जाव' विभूसिए प्रासं दुरुहइ, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सद्धि संपरिवडे आसवाहिणियाए निज्जायमाणे दत्तस्स गाहावइस्स गिहस्स प्रदूरसामतेणं बीइवयइ / तए णं से वेसमणे राया जाव वीइवयमाणे देवदत्तं दारियं उप्पि पागासतलगंसि कणतिदूसेणं कोलमाणि पासइ, पासित्ता देवदत्ताए दारियाए रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए कोडुबिय. पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी-कस्स णं देवाणुप्पिया ! एसा दारिया ? कि वा नाएधेज्जेणं? तए णं ते कोडुबियपुरिसा वेसमणं रायं करयल जाव एवं क्यासी-'एस णं सामी ! दत्तस्स सत्थवाहस्स धूया, कण्हसिरोए भारियाए प्रत्तया देवदत्ता नामं दारिया रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किटुसरीरा।' १८–इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् सर्वालङ्कारविभूषित राजा वैश्रमणदत्त अश्व पर १-२-द्वि. अ., सूत्र 22. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता] [103 आरोहण करता है और प्रारोहण करके बहुत से पुरुषों के साथ परिवृत--घिरा हुआ, अश्ववाहनिका--- अश्वक्रीड़ा के लिये जाता हुआ दत्त गाथापति के घर के कुछ पास से निकलता है / तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त राजा देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद से खेलती हुई देखता है और देखकर देवदत्ता दारिका के रूप, यौवन व लावण्य से विस्मय को प्राप्त होता है। फिर कौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-'हे देवानुप्रियो ! यह बालिका किसकी है ? और इसका क्या नाम है ?' तब वे कौटुम्बिक पुरुष हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहने लगे--'स्वामिन् ! यह कन्या दत्त गाथापति की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा है जो रूप, यौवन तथा लावण्य-कान्ति से उत्तम तथा उत्कृष्ट शरीर वाली है / १६-तए णं से वेसमणे राया आसवाहिणियाप्रो पडिनियत्त समाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासो-'गच्छह णं तुब्भे, देवाणुप्पिया ! दत्तस्स धूयं कण्हसिरीए भारियाए अत्तयं देवदत्तं दारियं पुस्सनंदिस्स जुवरन्नो मारियत्ताए वरेह, जइ वि सा सयंरज्जसुक्का।' १६--तदनन्तर राजा वैश्रमणदत्त अश्ववाहनिका (अश्वक्रीडा) से वापिस आकर अपने अाभ्यन्तर स्थानीय–अन्तरङ्ग पुरुषों को बुलाता है और बुलाकर उनको इस प्रकार कहता है देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जाकर सार्थवाह दत्त की पुत्री और कृष्णश्री भार्या की प्रात्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्यनन्दी के लिये भार्या रूप में मांग करो / यदि वह राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी प्राप्त करने के योग्य है। २०–तए णं ते अभितरठाणिज्जा पुरिसा वेसमणेणं रन्ना एवं दुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव एयम पडिसुणेति, पडिसुणित्ता व्हाया जाव' सुद्धप्पावेसाई वत्थाई पवरपरिहिया जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छित्था। तए णं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठ, प्रासणाप्रो अन्भुटुइ / अब्भुद्वित्ता सत्तटुपयाई पच्चाए प्रासणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतित्ता ते पुरिसे आसत्ये वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी--'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! कि प्रागमणप्पोयणं ?' तए णं ते रायपुरिसा दत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-'अम्हे णं देवाणुप्पिया ! तव धयं कण्हसिरीए अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसनंदिस्स जुवरन्नो भारियताए वरेमो / तं जइ णं जाणासि देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्ज वा सरिसो वा संजोगो, दिज्जउ गं देवदत्ता भारिया पूसनंदिस्स जुवरन्नो / भण, देवाणुपिया! कि दलयामो सुक्कं ? तए णं से दत्ते अभितरठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी-'एयं चेव. देवाणुप्पिया ! मम सुक्कं जं णं वेसमणे राया मम दारियानिमित्तणं अणुगिण्हइ / ते अभितरठाणिज्जे पुरिसे विउलेणं पुफ्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, संमाणेइ सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ। 1. द्वि. अ., सूत्र 22. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध तए णं ते अम्भितरठाणिज्जपुरिसा जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छिता वेसमणस्स रन्नो एयम निवेदेति / २०--तदनन्तर वे अभ्यंतर-स्थानीय पुरुष---अन्तरङ्ग व्यक्ति राजा वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर, हर्ष को प्राप्त हो यावत् स्नानादि क्रिया करके तथा राजसभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र पहनकर जहाँ दत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ आये / दत्त सार्थवाह भी उन्हें प्राता देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आसन से उठकर उनके सन्मान के लिए सात-पाठ कदम उनके सामने अगवानी करने गया / उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना की। तदनन्तर आश्वस्त-- गतिजन्य श्रम के न रहने से स्वास्थ्य-शांति को प्राप्त हुए तथा विश्वस्त-मानसिक क्षोभ जरा भी न रहने के कारण विशेष रूप से स्वस्थता को उपलब्ध हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हुए। इन आने वाले राजपुरुषों से दत्त ने इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! प्राज्ञा दीजिये, आपके शुभागमन का प्रयोजन क्या है ? अर्थात् मैं आपके आगमन का प्रयोजन जानना चाहता हूँ। दत्त सार्थवाह के इस तरह पूछने पर आगन्तुक राजपुरुषों ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! हम आपकी पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्य [ की युवराज पुष्यनंदी के लिए भार्या रुप से मंगनी करने आये हैं / यदि हमारी यह मांग आपको युक्त-उचित, अवसरप्राप्त, श्लाघनीय तथा वरवधू का यह संयोग अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए दीजिये और बतलाइये कि इसके लिए पापको क्या शुल्क-उपहार दिया जाय ? उन आभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सुनकर दत्त बोले- 'देवानुप्रियो ! मेरे लिए यही बड़ा शुल्क है कि महाराज वैश्रमणदत्त (अपने पुत्र के लिए) मेरी इस बालिका को ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत कर रहे हैं।' ___ तदनन्तर दत्त गाथापति ने उन अन्तरङ्ग राजपुरुषों का पुष्प, गंध, माला तथा अलङ्कारादि से यथोचित सत्कार-सन्मान किया और सत्कार-सन्मान करके उन्हें विसजित किया। वे आभ्यन्तर स्थानीय पुरुष जहां वैमश्रणदत्त राजा था वहाँ आये और उन्होंने वैश्रमण राजा को उक्त सारा वृत्तान्त निवेदित किया। २१-तए णं से दत्ते गाहावई अन्यया कयाइ सोहणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-महत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणं पामतेइ / हाए जाव पायच्छित्ते सुहासणवरगए तेण मित्त० सद्धि संपरिकुडे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं प्रासाएमाणे विहरई। जिमियभुत्तत्तराएगए वि य णं प्रायंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्तनाइनियगसयण-संबंधिपरियणं विउलेणं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माइ, सक्कारिता सम्माणेत्ता देवदत्तं दारियं व्हायं जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरुहेइ, दुरुहेता सुबहुमित्त जाव सद्धि संपरिवुडे सचिड्ढीए जाव नाइयरवेणं रोहीडयं नयरं मज्झमज्झेणं जेणेव वेसमणरन्नो गिहे, जेणेव वेसमणे राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, बद्धावेत्ता वेससणस्स रन्नो देवदत्तं दारियं उवणेइ / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता] [105 २१-तदनन्तर किसी अन्य समय दत्त गाथापति शुभ तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र व मुहूर्त में विपुल अशनादिक सामग्री तैयार करवाता है और करवाकर मित्र, ज्ञाति, निजक स्वजन संबंधी तथा परिजनों को आमन्त्रित कर यावत् स्नानादि करके दुष्ट स्वप्नादि के फल को विनष्ट करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके सुखप्रद आसन पर स्थित हो उस विपुल अशनादिक का मित्र, ज्ञाति, स्वजन, सम्बन्धी व परिजनों के साथ प्रास्वादन, विस्वादन करने के अनन्तर उचित स्थान पर बैठ आचान्त (आचमन-कुल्ला किए हुए) चोक्ष (मुखादिगत लेप को दूर किए हुए) अत: परम शुचिभूत-परम शुद्ध होकर मित्र, ज्ञाति, निजक-स्वजन-सम्बन्धियों का विपुल पुष्प, माला, गन्ध, वस्त्र, अलङ्कार आदि से सत्कार करता है, सन्मान करता है / सत्कार व सन्मान करके देवदत्ता-नामक अपनी पुत्री को स्नान करवाकर यावत् शारीरिक आभूषणों द्वारा उसके शरीर को विभूषित कर पुरुषसहस्रवाहिनी-एक हजार पुरुषों से उठाई जाने वाली शिविका-पालखी में बिठलाता है। बिठाकर बहुत से मित्र व ज्ञाति जनों आदि से घिरा हुआ सर्व प्रकार के ठाठ-ऋद्धि से तथा वादित्रध्वनि-बाजे-गाजे के साथ रोहीतक नगर के बीचों बीच होकर जहाँ वैश्रमण राजा का घर था और जहां वैश्रमण राजा था, वहाँ आया और आकर हाथ जोड़कर उसे बधाया / बधा कर वैश्रमण राजा को देवदत्ता कन्या अर्पण कर दी। २२–तए णं से वेसमणे राया देवदत्तं दारियं उवणीयं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ट विउलं असणं 4 उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त नाइ० आमंतेइ, जाव सक्कारेइ सम्माइ सक्कारित्ता सम्माणित्ता पूसनंदिकुमारं देवदत्तं च दारियं पट्टयं दुरुहेइ, दुरुहिता सेयापीएहि कलसेहिं मज्जावेइ, मज्जावेत्ता वरनेवत्थाई करेइ, अग्गिहोमं करेइ, करेत्ता पूसनन्दिकुमार देवदत्ताए दरियाए पाणि गिण्हावेई। तए णं से वेसमणे राया पूसनंदिस्स कुमारस्स देवदत्तं दारियं सविधड्ढिोए जाव रवेणं महया इड्ढीसक्कारसमुदएणं पाणिग्गहणं कारेइ, कारेत्ता देवदत्ताए दारियाए अम्मापियरो मित्त जाव परियणं च विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेण वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेइ सम्माणेइ जाव पडिविसज्जेइ। तए णं पूसनन्दी कुमारे देवादत्ताए सद्धि उप्पि पासायवरगए फुट्टमाणेहिं मुइंगमत्थरहि बत्तीसइबद्धनाडएहि उवगिज्जमाणे जाव (उवलालिज्जमाणे उवलालिज्जमाणे इ8 सद्द-फरिसरस-रूव-गंधे विउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे) विहरइ / 22- तव राजा वैश्रमण लाई हुई.अर्पण की गई उस देवदत्ता दारिका को देखकर बड़े हर्षित हुए और हर्षित होकर विपुल अशनादिक तैयार कराया और मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी व परिजनों को आमंत्रित कर उन्हें भोजन कराया। उनका पुष्प, वस्त्र, गंध, माला व अलङ्कार आदि से सत्कार-सन्मान किया। तदनन्तर कुमार पुष्यनन्दी और कुमारी देवदत्ता को पट्टक-पर बैठाकर श्वेत व पीत अर्थात् चाँदी और सोने के कलशों से स्नान कराते हैं। तदनन्तर सुन्दर वेशभूषा से सुसज्जित करते हैं। अग्निहोम-हवन कराते हैं। हवन कराने के बाद कुमार पुष्यनंदी को कुमारी देवदत्ता का पाणिग्रहण कराते हैं। तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त नरेश पुष्यनंदी व देवदत्ता का सम्पूर्ण ऋद्धि यावत् महान वाद्य-ध्वनि और ऋद्धिसमुदाय व सन्मानसमुदाय के Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [विपाकसूत्र---प्रथम श्रुतस्कन्ध साथ विवाह रचाते हैं। तात्पर्य यह है कि विधिपूर्वक बड़े समारोह के साथ कुमार पुष्यनंदी और कुमारी देवदत्ता का विवाह सम्पन्न हो जाता है / तदनन्तर देवदत्ता के माता-पिता तथा उनके साथ आने वाले अन्य उनके मित्रजनों, ज्ञातिजनों निजकजनों, स्वजनों, सम्बन्धिजनों और परिजनों का भी विपुल प्रशनादिक तथा वस्त्र, गन्ध, माला और अलङ्कारादि से सत्कार करते हैं, सन्मान करते हैं; सत्कार व सन्मान करने के बाद उन्हें विदा करते हैं। राजकुमार पुष्यनंदी श्रेष्ठियत्री देवदत्ता के साथ उत्तम प्रासाद में विविध प्रकार के वाद्यों और जिनमें मृदङ्ग बज रहे हैं, ऐसे 32 प्रकार के नाटकों द्वारा उपगीयमान---प्रशंसित होते सानंद मनुष्य संबंधी शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंधरूप भोग भोगते हुए समय बिताने लगे। २३–तए णं से वेसमणे राया अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते / नोहरणं जाव राया जाव पूसनंदी। २३-कुछ समय बाद महाराजा वैश्रमण कालधर्म को प्राप्त हो गये / उनकी मृत्यु पर शोकग्रस्त पुष्यनन्दी ने बड़े समारोह के साथ उनका निस्सरण किया यावत् मृतक-कर्म करके राज सिंहासन पर आरूढ़ हुए यावत् युवराज से राजा बन गए। २४–तए णं से पूसनंदी राया सिरीए देवीए माइभत्तए यावि होत्था / कल्लाल्लि जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिरीए देवीए पायवडणं करेइ, करित्ता सयपाग-सहस्सपागेहि तेल्लेहिं अख्मिगावेइ / अद्विसुहाए, मंससुहाए, तथासुहाए रोमसुहाए चउविहाए संवाहणाए संवाहावेइ संवाहावेता सुरभिणा गंधवट्टएणं उत्तिावेइ, उव्वट्टावेत्ता तिहिं उदएहि मज्जावेइ, तंजहा--- उसिणोदएणं, सोनोदएणं, गन्धोदएणं / विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेइ / सिरीए देवीए व्हायाए जाव पायच्छित्ताए जाव जिमियभुत्तुत्तरागयाए तए णं पच्छा व्हाइ वा भुजइ वा, उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहर इ / २४~-पुष्यनन्दी राजा अपनी माता श्रीदेवी का परम भक्त था। प्रतिदिन माता श्रीदेवी जहां भी हों वहाँ आकर श्रीदेवी के चरणों में प्रणाम करता और प्रणाम करके शतपाक और सहस्रपाक (सौ औषधों के तथा हजार औषधों के सम्मिश्रण से बने) तैलों की मालिश करवाता था। अस्थि को सुख देने वाले, मांस को सुखकारी, त्वचा की सुखप्रद और दोनों को सुखकारी ऐसी चार प्रकार की संवाहन-अंगमर्दन क्रिया से सुखशान्ति पहुँचाता था / तदनन्तर सुगन्धित गन्धवर्तक-बटने से उद्वर्तन करवाता अर्थात् बटना मलवाता। उसके पश्चात् उष्ण, शीत और सुगन्धित जल से स्नान करवाता, फिर विपुल अशनादि चार प्रकार का भोजन कराता / इस प्रकार श्रीदेवी के नहा लेने यावत् अशुभ स्वप्नादि के फल को विफल करने के लिए मस्तक पर तिलक व अन्य माङ्गलिक कार्य करके भोजन कर लेने के अनन्तर अपने स्थान पर आ चुकने पर और वहाँ पर कुल्ला तथा मुखगत लेप को दूर कर परम शुद्ध हो सुखासन पर बैठ जाने के बाद ही पुष्यनन्दी स्नान करता, भोजन करता था। तथा फिर मनुष्य सम्बन्धी उदार भोगों का उपभोग करता हुमा समय व्यतीत करता था। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैवम अध्ययन : देवदत्ता] [ 107 २५-तए णं तोसे देवदत्ताए देवीए अन्नया कयाइ पुवरतावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणीए इमेयारूवे अज्झथिए चितिए कप्पिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्न -'एवं खलु पूसनंदी राया सिरीए देवीए माइभत्ते समाणे भाव विहरइ। तं एएणं वक्खेवेणं नो संचाएमि प्रसनंदिणा रन्ना सद्धि उरालाई माणस्सगाई भोगभोगाइं भजमाणी विहरित्तए। तं सेयं खलु मम सिरि देवि अग्गिप्पमोगेण वा सत्थप्पोगेण वा विसप्पनोगेण वा मंतप्पप्रोगेण वा जीवियानो ववरोवित्तए, ववरोवेत्ता पूसनंदिणा रन्ना सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुजमाणोए विहरित्तए' एवं सपेहेइ संपेहित्ता सिरीए देवीए अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहर। २५-तदनन्तर किसी समय मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ताओं में उलझी हुई (जागती हुई) देवदत्ता के हृदय में यह संकल्प उत्पन्न हुया कि 'इस प्रकार निश्चय ही पुष्यनंदी राजा अपनी माता श्रीदेवी का 'यह पूज्या है' इस बुद्धि से परम भक्त बना हुआ है। इस अवक्षेप-विघ्न के कारण मैं पुष्यनन्दी राजा के साथ पर्याप्त रूप से मनुष्य सम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग नहीं कर पाती हूँ। इसलिये अब मुझे यही करना योग्य है कि अग्नि, शस्त्र विष या मन्त्र के प्रयोग से श्रीदेवी को जीवन से व्यपरोपित करके--मार डाल कर महाराज पुष्यनन्दी के साथ उदार-प्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषयभोगों का यथेष्ट उपभोग करू।' ऐसा विचार कर वह श्रीदेवी को मारने के लिये अन्तर (जिस समय राजा का आगमन न हो, छिद्र (राजपरिवार के किसी सदस्य की जिस समय उपस्थिति न हो) और विवर (जिस समय कोई सामान्य मनुष्य भी न हो ऐसे अवसर) की प्रतीक्षा करती हुई विहरण करने लगी। २६-तए णं सा सिरोदेवी मन्नया कयाइ मज्जाइया विरहियसयणिज्जंसि सुहपसुत्ता जाया यावि होत्था। इमं च णं देवदत्ता देवी जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिरि देवि मज्जाइयं विरहियसयणिज्जसि सुहपसुत्तं पासइ, पासेत्ता दिसालोयं करेइ, करेत्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवान्छित्ता लोहदण्ड परामुसइ, परामुसित्ता लोहदंडं तावेई, तत्तं समजोइभूयं फुल्लकिसुयसमाणं संडासएणं गहाय जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिरीए देवीए प्रवाणसि पविखवा। तए णं सा सिरीदेवी महया-महया सद्देणं प्रारसित्ता कालधम्मुणा संजुत्ता / २६-तदनन्तर किसी समय स्नान की हुई श्रीदेवी एकान्त में अपनी शय्या पर सुखपूर्वक सो रही थी / इधर लब्धावकाश देवदत्ता देवी भी जहाँ श्रीदेवी थी वहाँ पर आती है। स्नान व एकान्त में शय्या पर सुखपूर्वक सोई हुई श्रीदेवी को देखती है। देखकर दिशा का अवलोकन करती है अर्थात् कोई मुझे देख तो नहीं रहा है, यह निश्चय करने के लिए चारों तरफ देखती है। उसके बाद जहाँ भक्तगह-रसोड़ा था वहाँ पर जाती है और जाकर लोहे के डंडे को ग्रहण करती है / ग्रहण कर लोहे के उस डंडे को तपाती है, तपाकर अग्नि के समान देदीप्यमान या खिले हुए किंशुक-केसू के फूल के समान लाल हुए उस लोहे के दण्ड को संडासी से पकड़कर जहाँ श्रीदेवी (सोई) थी वहाँ आती है / आकर श्रीदेवी के अपान-गुदास्थान में घुसेड़ देती है। लोहदंड के घुसेड़ने से बड़े जोर के शब्दों से चिल्लाती हुई श्रीदेवी कालधर्म से संयुक्त हो गई-मृत्यु को प्राप्त हो गई। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध २७–तए णं तीसे सिरीए देवीए दासचेडीग्रो प्रारसियसद्द सोच्चा निसम्म जेणेव सिरी देवो तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता देवदत्तं देवि तो प्रवक्कममाणि पासंति, पासेत्ता जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सिरि देवि निप्पाणं निच्चेटू जीवियविप्पजढं पासन्ति, पासित्ता हा हा अहो अकज्ज' इति कटु रोयमाणीग्रो कंदमाणीयो विलवमाणीओ जेणेव पूसनंदी राया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पूसदि रायं एवं वयासो-'एवं खलु, सामी! सिरीदेवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीवियाप्रो बवरोदिया।' तए णं से पूसनंदी राया तासि दासचेडोणं अंतिए एयमट्ट सोच्चा निसम्म महया माइसोएण अप्फुण्णे समाणे परसुनियत्ते विव चंपग-वरपायवे धसत्ति धरणियलंसि सव्वंगेहि संनिवडिए। २७–तदनन्तर उस श्रीदेवी की दासियाँ भयानक चीत्कार शब्दों को सुनकर अवधारण कर जहां श्रीदेवी थी वहाँ आती हैं और वहाँ से देवदत्ता देवी को निकलती हुई-वापिस जाती देखती हैं / देखकर जिधर श्रीदेवी सोई हुई थी वहाँ आती हैं, आकर श्रीदेवी को प्राणरहित, चेष्टा रहित देखती हैं / देखकर-'हा! हा ! अहो ! बड़ा अनर्थ हुआ' इन प्रकार कहकर रुदन, आक्रन्दन तथा विलाप करती हुई, जहाँ पर पुष्यनंदी राजा था वहां पर जाती हैं / जाकर महाराजा पुष्यनन्दी से इस प्रकार निवेदन करती हैं-'निश्चय ही हे स्वामिन् ! श्रीदेवी को देवदत्ता देवी ने अकाल में ही जीवन से पृथक् कर दिया–अर्थात् मार डाला है।' तदनन्तर पुष्यनन्दी राजा उन दासियों से इस वृत्तान्त को सुन समझ कर महान् मातृशोक से आक्रान्त होकर परशु से काटे हुए चम्पक वृक्ष की भांति धड़ाम से पृथ्वी-तल पर सर्व अङ्गों से गिर पड़ा। २८-तए णं से पूसनन्दी राया महत्तन्तरेण मासत्थे वीसत्थे समाणे बहहिं राईसर जाव सत्थवाहेहि मित्त जाव परियणेणं सखि रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे सिरीए देवीए महया इड्डी सक्कारसमुदएणं नीहरणं करेइ, करेत्ता प्रासुरुत्ते रु? कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे देवदत्तं देवि पुरिसेहि गिण्हावेइ, एतेणं विहाणेणं वझं प्राणवेइ / 'तं एवं खलु, गोयमा ! देवदत्ता देवी पुरापोराणाणं जाव विहरइ।' 28-- तदनन्तर एक मुहूर्त के बाद (थोड़े समय के पश्चात्) वह पुष्यनन्दी राजा आश्वस्त या। अनेक राजा-नरेश, ईश्वर-ऐश्वर्ययुक्त, यावत सार्थवाह-व्यापारियों के नायकों तथा मित्रों यावत् परिजनों के साथ रुदन, प्राक्रन्दन व विलाप करता हुआ श्रीदेवी का महान ऋद्धि तथा सत्कार के साथ निष्कासन कृत्य (मृत्यु-संस्कार) करता है। तत्पश्चात् क्रोध के आवेश में रुष्ट, कुपित, अतीव क्रोधाविष्ट तथा लाल-पीला होता हुआ देवदत्ता देवी को राजपुरुषों से पकड़वाता है। पकड़वाकर इस पूर्वोक्त विधान से (जिसे तुम देख कर आए हो) 'यह वध्या-हंतव्या है' ऐसी राजपुरुषों को आज्ञा देता है। इस प्रकार निश्चय ही, हे गौतम ! देवदत्ता देवी अपने पूर्वकृत अशुभ पापकमों का फल पा रही है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता [109 देवदत्ता का भविष्य २६--देवदत्ता णं भंते ! देवी इसो कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ? गोयमा ! असीई बासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइएसु नेरइयत्ताए उवज्जिहिइ। संसारो। वणस्सई / तो अणन्तरं उध्वट्टित्ता गंगपुरे नयरे हंसत्ताए पच्चायाहिइ / से णं तत्थ साउणिएहि वहिए समाणे तत्थेव गंगपुरे नयरे सेटिकुलंसि उववज्जिहिइ / बोही / सोहम्मे / महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ / निक्खेवो / २९--तब गौतम स्वामी ने प्रश्न किया-अहो भगवन् ! देवदत्ता देवी यहाँ से काल मास में काल करके कहाँ जाएगी ? कहाँ उत्पन्न होगी ? भगवान महावीर ने कहा-हे गौतम ! देवदत्ता देवी 80 वर्ष की परम-ग्रायु भोग कर काल मास में काल करके इस रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथिवी-नरक में नारक पर्याय में उत्पन्न होगी। शेष संसारभ्रमण पूर्ववत् करती हुई अर्थात् प्रथम अध्ययनगत मृगापुत्र की भांति यावत् वनस्पति अन्तर्गत निम्ब ग्रादि कटु-वृक्षों तथा कटुदुग्ध वाले अर्कादि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी। तदनन्तर वहाँ से निकलकर गङ्गपुर नगर में हंस रूप से उत्पन्न होगी / वहाँ शाकुनिकों द्वारा वध किए जाने पर वह गंगपुर में ही श्रेष्ठिकुल में पुत्ररूप में जन्म लेगी। वहां उसका जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर सौधर्म नामक प्रथम देवलोक में उत्पन्न होगा / वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा। वहाँ चारित्र ग्रहण कर यथावत् पालन कर सिद्धि को प्राप्त करेगा। सर्व कर्मों से मुक्त होगा। निक्षेप--श्री सुधर्मा स्वामी ने उपसंहार करते हुए कहा हे जम्बू ! निर्वाण-प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने नौवें अध्ययन का यह अर्थ कहा है। // नवम अध्ययन समाप्त / / Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन अंज प्रस्तावना १-दसमस्स उक्खेवो-'जइ णं भंते !' १–अहो भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने दशम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है, इत्यादि, उत्क्षेप-प्रस्तावना पूर्ववत् ही जान लेना चाहिये। २–एवं खलु जंजू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वद्धमाणपुरे नामं नयरे होत्था। विजयवद्धमाणे उज्जाणे / मणिभद्दे जक्खे / विजयमित्ते राया। तत्थ णं धणदेवे नामं सत्यवाहे होत्या, अड्डे ! पियंगू नामं भारिया / अंजू दारिया जाव उक्किट्ठसरीरा / समोसरणं, परिसा जाव पडिगया। २-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में वर्द्धमानपुर नाम का एक नगर था / वहां विजयवर्द्धमान नामक उद्यान था। उस में मणिभद्र यक्ष का यक्षायतन था। वहाँ विजयमित्र नामक राजा राज्य करता था / धनदेव नामक एक सार्थवाह-व्यापारियों का नायक, रहता था जो धनाढ्य और प्रतिष्ठित था। उसके प्रियङ्ग नाम की भार्या थी। उनकी उत्कृष्ट शरीरवाली सुन्दर अञ्जु नामक एक बालिका थी। उस समय विजयवर्द्धमान नामक उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे यावत् परिषद् धर्मदेशना सुनकर वापिस चली गयी। अंजू का वर्तमान-भव ३-तेणं कालेणं तेणं समएणं जेट्टे जाव प्रडमाणे जाव विजयमित्तस्स रन्नो गिहस्स असोगवणियाए अदूरसामतेणं वीइवयमाणे पासइ एग इत्थियं सुक्क, भुक्खं निम्मंसं, किडिकिडियाभूयं, प्रढिचम्मावणद्ध नीलसाडगनियत्थं कट्ठाई कलुणाई विस्सराई कूवमाणि पासइ, पासित्ता चिन्ता तहेव, जाव एवं वयासी—'सा णं, भंते ! इस्थिया पुटवभवे का प्रासी ?' वागरणं! ३–उस समय भगवान् के ज्येष्ठ शिष्य श्री गौतमस्वामी यावत् भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए विजयमित्र राजा के घर की अशोकवाटिका के समीप से जाते हुए सूखी, भूखी, निर्मास (जिसके शरीर का मांस सूख गया हो) किटि-किटि शब्द से युक्त (जिसकी शरीरगत अस्थियां कड़कड़ शब्द कर रही हों) अस्थिचविनद्ध-जिसका चमड़ा हड्डियों से चिपटा हुआ हो अर्थात् अस्थिचविशेष तथा नीली साड़ी पहने हुए, कष्टमय, करुणोत्पादक, दीनतापूर्ण वचन बोलती हुई एक स्त्री को देखते हैं / देखकर विचार करते हैं। शेष सब वृत्तान्त पूर्ववत् समझ लेना चाहिये। यावत् गौतम स्वामी भगवान के निकट पाकर पूछते हैं-'भगवन ! यह स्त्री पूर्वभव में कौन थी ?' इसके उत्तर में भगवान महावीर स्वामी प्रतिपादन करने लगे Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : अंजू] [111 पूर्वभव ४-एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहेवासे इंदपुरे नामं नयरे होत्था / तत्थ णं इन्ददत्ते राया। पुढविसिरी नामं गणिया होत्था। वण्णो / ' तए णं सा पुढिविसिरी गणिया इंदपुरे नयरे बहवे राईसर जाव प्यभिइनो बहि चष्णप्पमोगेहि य जाव (हियउड्डावणेहि य निण्हवणेहि य पण्हवणेहि य बसीकरणेहि य प्राभिप्रोगेहि य) अभिप्रोगेत्ता उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरइ / 4 हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारत वर्ष में इन्द्रपुर नाम का एक नगर था / वहाँ इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य करता था। इसी नगर में पृथ्वीश्री नाम की एक गणिका–वेश्या रहती थी। उसका वर्णन पूर्ववत् कामध्वजा वेश्या की ही तरह जान लेना चाहिये। इन्द्रपुर नगर में वह पृथ्वीश्री गणिका अनेक ईश्वर, तलवर यावत् सार्थवाह आदि लोगों को (वशीकरण संबंधी) चूर्णादि के प्रयोगों से वशवर्ती करके मनुष्य संबंधी उदार-मनोज्ञ कामभोगों का यथेष्ट रूप में उपभोग करती हुई समय व्यतीत कर रही थी। ५---तए णं सा पुढिवीसिरी गणिया एयकम्मा एयपहाणा एयविज्जा एयसमायारा सुबहुं पावं कम्मं समज्जिणित्ता पणतीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं वावीसं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना। 5- तदनन्तर एतत्कर्मा एतत्प्रधान एतद्विद्य एवं एतत्-आचारवाली वह पृथ्वीश्री गणिका अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर 35 सौ वर्ष के परम आयुष्य को भोगकर कालमास में काल करके छट्ठी नरकभूमि में 22 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थितिवाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुई। वर्तमान भव ६-सा णं तपो प्रणंतरं उध्वट्टित्ता इहेह बद्धमाणपुरे नयरे धणदेवस्स सस्थवाहस्स पियगु भारियाए कुच्छिसि दारियत्ताए उववन्ना। तए णं सा पियंगु भारिया नवण्हं मासाणं दारिया पयाया। नाम अंजुसिरी / सेसं जहा देववत्ताए। ६-वहां से निकल कर इसी वर्धमानपुर नगर में वह धनदेव नामक सार्थवाह की प्रियङ्ग भार्या की कोख से कन्या रूप में उत्पन्न हुई अर्थात् कन्या रूप से गर्भ में आई / तदनन्तर उस प्रियङ्ग भार्या ने नव मास पूर्ण होने पर उस कन्या को जन्म दिया और उसका नाम अञ्जुश्री रक्खा / उसका शेष वर्णन (नौवें अध्ययन में वर्णित) देवदत्ता ही की तरह जान लेना चाहिये / ७-तए णं से विजये राया पासवाहणियाए जहा वेसमणदत्ते तहा अंजु पासइ / नवरं अप्पणो अट्ठाए वरेइ, जहा तेयली जाव अंजू ए भारियाए सद्धि उपि जाव विहरइ / 1. द्वि. अ० सूत्र 3. 2. ज्ञाताधर्मकथाङ्ग अ०-२.। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [ विपाकसूत्र--प्रथम श्रु तस्कन्ध ७-तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्व क्रीडा के निमित्त जाते हुए राजा वैश्रमणदत्त की भांति ही अञ्जुश्री को देखते हैं और अपने ही लिए उसे तेतलीपुत्र अमात्य की तरह मांगते हैं। यावत् वे अंजुश्री के साथ उन्नत प्रासादों में सानन्द विहरण करते हैं। ८-तए णं तीसे अंजए देवीए अन्नया कयाइ जोणिसूले पाउन्भूए यावि होत्था / तए णं से विजये राया, कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! वद्धमाणपुरे नयरे सिंघाडग जाव एवं वयह–'एवं खलु, देवाणुप्पिया! विजयस्स रन्नो अंजए देवीए जोणिसूले पाउम्भूए ! जो णं इच्छइ वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणुरो वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छियो वा तेगिच्छियपुत्तो वा अंजूए देवीए जोणीसूले उवसामित्तए तस्स णं विजए राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ / तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव उग्घोसेंति / ८-किसी समय अञ्जुश्री के शरीर में योनिशूल (योनि में होने वाली असह्य वेदना) नामक रोग का प्रादुर्भाव हो गया। यह देखकर विजय नरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'तुम लोग वर्धमानपुर नगर में जागो और जाकर वहां के शृगाटक-त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य मार्गों पर यह उद्घोषणा करो कि–देवी अञ्जुश्री को योनिशूल रोग उत्पन्न हो गया है। अत: जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या उसका पुत्र उस रोग को उपशान्त कर देगा, राजा विजयमित्र उसे विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान करेंगे।' कौटुम्बिक पुरुष राजाज्ञा से उक्त उद्घोषणा करते हैं। ___-तए णं ते बहवे वेज्जा वा 6 इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा निसम्म जेणेव विजये राया तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता अंजए देवीए बहहिं उप्पत्तियाहि वेणइयाहि कम्मियाहिं पारिणामियाहि बुद्धोहि परिणामेमाणा इच्छन्ति अंजए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तए, नो संचाएंति उक्सामित्तए / तए णं ते बहवे वेज्जा य 6 जाहे नो संचाएंति अंजए देवीए जोणिसूलं उक्सामित्तए ताहे संता, तंता परितंता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तए णं सा अंजू देवी ताए वेयणाए अभिभूया समाणी सुक्का भुक्खा निम्मंसा कट्ठाई कलुणाई विस्सराई विलवइ। एवं खलु गोयमा ! अंजू देवी पुरा पोराणाणं जाव विहरइ / 8-- तदनन्तर (राजा की आज्ञा से अनुचरों के द्वारा की गयी) इस प्रकार की उद्घोषणा को सुनकर नगर के बहुत से अनुभवी वैद्य, वैद्यपुत्र आदि चिकित्सक विजयमित्र राजा के यहाँ आते हैं / अपनी औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त कर अर्थात् निदान आदि द्वारा निर्णय करते हुए विविध प्रयोगों के द्वारा देवी अंजूश्री के योनिशूल को उपशान्त करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु उनके उपयोगों से अजश्री का योनिशूल शांत नहीं हो पाया / जब वे अनुभवी वैद्य आदि अंजूश्री के योनिशूल को शमन करने में विफल हो गये तब खिन्न, श्रान्त एवं हतोत्साह होकर जिधर से आये थे उधर ही चले गये। तत्पश्चात् देवी अंजश्री उस योनिशूलजन्य वेदना से अभिभूत (पीड़ित) हुई सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांस रहित होकर कष्ट-हेतुक, करुणोत्पादक और दीनतापूर्ण शब्दों में विलाप करती हुई समय-यापन करने लगी। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन : अंजू ] [113 भगवान् कहते हैं-हे गौतम ! इस प्रकार रानी अञ्जूश्री अपने पूर्वोपार्जित पाप कर्मों के फल का उपभोग करती हुई जीवन व्यतीत कर रही है / भविष्यत् वृत्तान्त १०-"अंजू णं भंते ! देवी इसो कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ ? कहि उववजिहिइ।' 'गोयमा! अंज णं देवी नउई वासाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे काल किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइएसु नेरइयत्ताए उवज्जिहिइ / एवं संसारो जहा पढमे तहा नेग्रन्वं जाव वणस्सई / साणं तो अणंतरं उध्वट्टित्ता सम्वोभद्दे नयरे मयूरत्ताए पच्चायाहिइ। से णं तत्थ साउणिएहि वहिए समाणे तत्थेव सवप्रोभद्दे नयरे सेटिकुलसि पुत्तत्ताए पच्चायाहिइ / से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवल बोहिं बुझिहिइ / पव्वज्जा / सोहम्मे / "से णं तानो देवलोगायो प्राउक्खएणं कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उवज्जिहिइ ? . गोयमा ! महाविदेहे जहा पढमे जाव सिज्झिहिइ, जाव अंतं काहिइ / एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तणं दुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयम? पन्नत्ते। सेवं भंते / सेवं भंते ! ति बेमि / १०-गौतमस्वामी ने प्रश्न किया–अहो भगवन् ! अञ्जू देवी मृत्यु का समय आने पर काल करके कहाँ जायेगी ? कहाँ उत्पन्न होगी? भगवान् ने उत्तर दिया-हे गौतम ! अजू देवी 60 वर्ष को परम आयु को भोगकर काल मास में काल करके इस रत्नप्रभानामक पृथ्वी के नारकों में नारकी रूप से उत्पन्न होगी। उसका शेष संसार-परिभ्रमण प्रथम अध्ययन की तरह जानना चाहिये / यावत् वनस्पति-गत निम्बादि कटुवृक्षों तथा कटु दुग्ध वाले अर्क प्रादि पौधों में लाखों बार उत्पन्न होगी। वहाँ की भव-स्थिति को पूर्ण कर इसी सर्वतोभद्र नगर में मयूर के रूप में जन्म लेगी। वहां वह मोर व्याधों के द्वारा मारा जाने पर सर्वतोभद्र नगर के ही एक श्रेष्ठोकुल में पुत्र रूप से उत्पन्न होगा। वहां बालभाव को त्याग कर, युवावस्था को प्राप्त कर, विज्ञान की परिपक्व अवस्था को प्राप्त करता हुआ वह तथारूप स्थविरो से बोधिलाभ-सम्यक्त्व को प्राप्त करेगा। तदनन्तर प्रव्रज्या-दीक्षा ग्रहण कर मृत्यु के बाद सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा। __ गौतम-भगवन् ! देवलोक की आयु तथा स्थिति पूर्ण हो जाने के बाद वह कहां जायेगा? कहां उत्पन्न होगा? भगवान्-गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में जाएगा। वहाँ उत्तम कुल में जन्म लेगा / जैसा कि प्रथम अध्ययन में वर्णित है यावत् सिद्ध बुद्ध सब दुःखों का अन्त करेगा। हे जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दुःखविपाकनामक दशम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादन किया है। जम्बू-भगवन् ! आपका यह कथन सत्य, परम सत्य, परम-परम सत्य है / // दशम अध्ययन सम्पूर्ण / / // दुःखविपाकीय प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त / / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध सुखविपाक सार : संक्षेप यद्यपि कार्मणजाति के पुद्गल, जीव के साथ बद्ध होने से पूर्व समान स्वभाव (प्रकृति) वाले होते हैं, किन्तु जब उनका जीव के साथ बन्ध होता है तो उनमें जीव के योग के निमित्त से भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं। वही स्वभाव जैनागम में 'कर्मप्रकृति' के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी प्रकृतियाँ मूल में आठ हैं और फिर उनके अनेकानेक अवान्तर भेद-प्रभेद हैं। विपाक की दृष्टि से कर्मप्रकृतियाँ दो भागों में विभक्त की गई हैं-अशुभ और शुभ / ज्ञानावरणीय आदि चार घातिकर्मों की सभी अवान्तर प्रकृतियाँ अशुभ हैं। अघातिकर्मों की प्रकृतियाँ दोनों भागों में विभक्त हैं-कुछ अशुभ और कुछ शुभ / अशुभ प्रकृतियाँ पापप्रकृतियाँ कहलाती हैं, जिनका फल-विपाक जीव के लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय एवं दुःखरूप होता है। शुभ कर्म-प्रकृतियों का फल इससे विपरीत-इष्ट, कान्त, प्रिय और सांसारिक सुख को उत्पन्न करने वाला होता है। दोनों प्रकार के फल-विपाक को सरल, सरस और सुगम रूप से समझाने के लिए विपाकसूत्र को रचना हुई है। यद्यपि यह सत्य है कि पाप और पुण्य--दोनों प्रकार की कर्मप्रकृतियों का सर्वथा क्षय होने पर ही मुक्ति की प्राप्ति होती है, तथापि दोनों प्रकार की प्रकृतियों में कितना और कैसा अन्तर है, यह तथ्य विपाकसूत्र में वर्णित कथानकों के माध्यम से समझा जा सकता है / दुःखविपाक के कथा-नायक मृगापुत्र आदि भी अन्त में मुक्ति प्राप्त करेंगे और सुखविपाक में उल्लिखित सुबाहु कुमार आदि को भी मुक्ति प्राप्त होगी। दोनों प्रकार के कथानायकों की चरम स्थिति एक-सी होने वाली है। तथापि उससे पूर्व संसार-परिभ्रमण का जो चित्रण किया गया है, वह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। पापाचारी मृगापुत्र प्रादि को दिल दहलाने वाली, घोरतर दुःखमय दुर्गतियों में से दीर्घ-दीर्घतर काल तक गुजरना होगा। अनेकानेक वार नरकों में, एकेन्द्रियों में तथा दूसरी अत्यन्त विषम एवं त्रासजनक योनियों में दुस्सह वेदनाएँ भुगतनी होंगी। तब कहीं जाकर उन्हें मानव-भव पाकर सिद्धि की प्राप्ति होगी। सुखविपाक के कथानायक सुबाहुकुमार आदि को भी दीर्घकाल तक संसार में रहना है। किन्तु उनके दीर्घकाल का अधिकांश भाग स्वर्गीय सुखों के उपभोग में अथवा सुखमय मानवभव में ही व्यतीत होने वाला है। पुण्यकर्म के फल से होने वाले सुखरूप विपाक और पापाचार के फलस्वरूप होने वाले दु:खमय विपाक की तुलना करके देखने पर ज्ञात होगा कि पाप और पुण्य दोनों बन्धनात्मक होने पर भी दोनों के फल में अन्धकार और प्रकाश जैसा अन्तर है। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक : सार : संक्षेप] [ 115 यह सत्य है कि मुमुक्षु साधक एकान्त संवर और निर्जरा के कारणभूत वीतराग भाव में रमण करना ही उपादेय मानता है, किन्तु इस प्रकार के विशुद्ध वीतरागभाव में दीर्घकाल पर्यन्त निरन्तर रमण करना बड़े-बड़े उच्चकोटि के साधकों के लिए भी संभव नहीं है। अतएव पापबन्ध से बचने के लिए पुण्य-प्रवृत्ति करने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं है / भले ही यह प्रादर्श स्थिति न हो मगर आदर्श स्थिति प्राप्त करने के लिए अनिवार्य स्थिति अवश्य है। विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में ऐसे ही पुण्यशाली पुरुषों का वर्णन किया गया है / इसमें भी प्रथम श्रुतस्कन्ध की तरह दश अध्ययन हैं / प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का वर्णन किया गया है / परम पुण्य के उदय से सुबाहु को राज-परिवार में जन्म लेने के साथ ही श्रमण भगवान महावीर के समागम का भो सौभाग्य प्राप्त होता है। उसने सुन्दर, मनोहर सौम्य और प्रिय बाह्य आकृति प्राप्त की / वह इतना प्रियदर्शन है कि गौतम स्वामी जैसे विरक्त महापुरुष का भी हृदय अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। वे भगवान् से उसकी मनोहरता और सोमता का कारण पूछते हैं। उसके पूर्वभव के विषय में पृच्छा करते हैं। भगवान ने गौतम स्वामी के प्रश्न का जो उत्तर दिया, उसका सारांश यह है कि सुबाहु पूर्वभव में सुमुख गाथापति था। एक बार मासखमण की निरन्तर तपस्या करने वाले सुदत्त अनगार पारणा के लिए उसके गृह में प्रविष्ट हुए / दृष्टि पड़ते ही सुमुख को हर्ष और सन्तोष हुआ / उत्तरासंग करके उनके सामने गया, प्रदक्षिणा करके मुनिराज को वन्दन-नमस्कार किया। निर्दोष आहार भक्तिभाव पूर्वक वहराया। उच्च और उदार भाव से प्रदत्त आहारदान के परिणमस्वरूप उसका संसार परीत हो गया। उसने मनुष्यायु का बन्ध किया / यही नहीं, देवों द्वारा पाँच दिव्य प्रकट करके अपना अान्तरिक प्रानन्दातिरेक प्रकाशित किया गया / मानवगण ने सुमुख को 'धन्य धन्य' कहा / सुबाहुकुमार ने भगवान महावीर के निकट गृहस्थधर्म अंगीकार किया, फिर अनगार धर्म की प्रव्रज्या अंगीकार को / अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर सौधर्म देवलोक में जन्म लिया। तत्पश्चात् बीच-बीच में मनुष्य होकर सभी विषमसंख्यक देव-लोकों के सुखों का उपभोग करने के बाद सर्वार्थसिद्ध विमान में, जहाँ सांसारिक सुखों की चरम सीमा होती है, जन्म लेकर तेतीस सागरोपम जितने दीर्घतर काल पर्यन्त रहकर महाविदेह में उत्पन्न होकर शाश्वत अनन्त आनन्दमय सिद्धि प्राप्त करेगा। कहाँ मृगापुत्र आदि का दुःखों से परिपूर्ण लम्बा भवभ्रमण और कहाँ सुबाहुकुमार आदि का सुख मय संसार! दोनों की तुलना करने से पाप और पुण्य का अन्तर सरलता से समझा जा सकता है। प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार के वर्णन के सदृश ही अन्य अध्ययनों में शेष नौ पुण्यशालियों का वर्णन है / नाम, आदि की भिन्नता होने पर भी मुख्य तत्त्व समान ही है। विस्तार के लिए मूल आगम देखना चाहिए। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय श्र तस्कन्ध : सुखविपाक प्रथम अध्ययन प्रस्तावना १-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नयरे, गुणसिलए चेइए, सुहम्में समोसढे / जम्बू जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं भगबया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अयम? पन्नत्ते, सुहविवागाणं भन्ते ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते ? तए णं से सुहम्मे अणगारे जंबुणगारं एवं वयासी-एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव सम्पत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा सुबाहू भद्दनंदी य, सुजाए य सुवासवे / तहेव जिणदासे य धणवई य महब्बले // भद्दनंदी महच्चंदे वरदत्ते तहेव य / / १-उस काल तथा उस समय राजगृह नगर के अन्तर्गत गुणशीलनामक चैत्य-उद्यान में अनगार श्रीसुधर्मा स्वामी पधारे / उनकी पर्युपासना-सेवा में संलग्न रहे हुए श्री जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया-प्रभो ! यावत् मोक्ष रूप परम स्थिति को संप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने यदि दुःखविपाक का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादित किया, तो यावत् मुक्ति को संप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक का क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ? (विनयशील अन्तेवासी) आर्य जम्बू की इस जिज्ञासा के उत्तर में अनगार श्रीसुधर्मा स्वामी जंबू अनगार के प्रति इस प्रकार बोले-हे जम्बू ! यावत् निर्वाणप्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने सुख-विपाक के दस अध्ययन प्रतिपादित किये हैं / वे इस प्रकार हैं--- (1) सुबाहु (2) भद्रनंदी (3) सुजात (4) सुवासव (5) जिनदास (6) धनपति (7) महाबल (8) भद्रनंदी (9) महचंद्र और (10) वरदत्त / २–'जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस प्रज्झयणा पन्नत्ता, पढमस्स गं भंते ! अज्झयणस्स सुहविवागाणं जाव संपत्तेणं के अट्ठ पन्नत्ते? तए णं से सुहम्मे अणगारे जंबु अणगारं एवं वयासो 1- हे भदन्त ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान महावीर ने यदि सुखविपाक के सुबाहुकुमार आदि दश अध्ययन प्रतिपादित किये है तो हे भगवन् ! मोक्ष को उपलब्ध श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुख-विपाक के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कथन किया है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीसुधर्मा स्वामी ने श्रीजम्बू अनगार के प्रति इस प्रकार कहा Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [ 117 ३--एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हस्थिसीसे नामं नयरे होत्था--रिद्धत्यमियसमिद्धे / तत्थ णं हस्थिसीसस्स नयरस्स बहिया उत्तर-पुरथिमे दिसोभाए एत्थ णं पुष्फकरंडए नामं उज्जाणे होत्था, सम्वोउय-पुष्फ-फल-समिद्धे / तत्थ णं कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, दिवे० / तत्थ णं हथिसीसे नयरे प्रदीणसत्तू नामं राया होत्था, महया हिमवंत-महंत-मलय-मंदरमहिंदसारे / तस्स णं प्रवीणसत्तुस्स रन्नो धारिणोपामोक्खा देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्था / ३-इस प्रकार निश्चय ही हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में हस्तिशीर्ष नाम का एक बड़ा ऋद्ध-भवनादि के आधिक्य से युक्त, स्तिमित-स्वचक्र-परचक्र के भय से मुक्त, समृद्ध-धन-धान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस नगर के बाहर उत्तरपूर्व दिशा में अर्थात् ईशान कोण में सब ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले फल-पुष्पादि से युक्त पुष्पकरण्डक नाम का एक (रमणीय) उद्यान था। उस उद्यान में कृतवनमाल-प्रिय नामक यक्ष का यक्षायतन था / जो दिव्य-प्रधान एवं सुन्दर था / वहां अदीनशत्रु नामक राजा राज्य करता था, जो कि राजारों में हिमालय आदि पर्वतों के समान महान् था। अदीनशत्रु नरेश के अन्तःपुर में धारिणीप्रमुख अर्थात् धारिणी जिनमें प्रधान है, ऐसी एक हजार रानियां थीं। सुबाहु का जन्म : गृहस्थजीवन ४-तए णं सा धारिणी देवी अन्नया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि (वासभवणंसि) सोहं सुमिणे जहा मेहस्स जम्मणं तह भाणियवं; ' जाव सुबाहुकुमारे अलंभोगसमत्थे यावि होत्था। तए णं सुबाहुकुमारं अम्मापियरो वावत्तरिकलापंडियं जाव अलंभोगसमत्थं वा वि जाणंति, जाणित्ता अम्मापियरो पंच पासायडिसगसयाई कारवेति अब्भुग्गयमूसियपहसियाई। एगं च णं महं भवणं कारेंति एवं जहा महाबलस्स रन्नो णवरं पुष्फचला पामोक्खाणं पंचण्हं रायवरकन्नसयाणं एगदिवसेणं पाणि गिहार्वेति / तहेव पंचसइयो दानो, जाव उपि पासायवरगए फुट्टमाहि जाव विहरइ / ४-तदनन्तर एक समय राजकुलउचित वासभवन में शयन करती हुयी धारिणी देवी ने स्वप्न में सिंह को देखा। जैसे ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र में वर्णित मेघकुमार का जन्म कहा गया है, उसी प्रकार पुत्र सुबाहु के जन्म प्रादि का वर्णन भी जान लेना चाहिये / यावत् सुबाहुकुमार सांसारिक कामभोगों का उपभोग करने में समर्थ हो गया। तब सुबाहुकुमार के माता-पिता ने उसे बहत्तर कलानों में कुशल तथा भोग भोगने में समर्थ हुआ जाना, और जानकर उसके माता-पिता जिस प्रकार भूषणों में मुकुट सर्वोत्तम होता है, उसी प्रकार महलों में उत्तम पांच सौ महलों का निर्माण करवाया जो अत्यन्त ऊंचे, भव्य एवं सुन्दर थे। उन प्रासादों के मध्य में एक विशाल भवन तैयार करवाया, इत्यादि सारा वर्णन महाबल राजा ही की तरह जान लेना चाहिए / महाबल ही की तरह सम्पन्न हुए सुबाहकुमार के विवाह में विशेषता यह है कि-पुष्पचूला प्रमुख पांच सौ श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ एक ही दिन में उसका विवाह कर दिया गया। इसी तरह पांच सौ का प्रीतिदान-दहेज उसे १-ज्ञाताधर्मकथांग, प्रथम अध्ययन / 2 ओ. सूत्र-१४७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [ विपाकसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध दिया गया। तदनन्तर सुबाहुकुमार ऊपर सुन्दर प्रासादों में स्थित, जिसमें मृदंग बजाये जा रहे है, ऐसे नाट्यादि से उद्गीयमान होता हुआ मानवोचित मनोज्ञ विषयभोगों का यथारुचि उपभोग करने लगा। सुबाहु का धर्म-श्रवण 5 तेणं कालेणं तेणं समएणं, समणे भगवं महावीरे समोसढे / परिसा निग्गया। प्रदीणसत्त जहा कणियो निग्गयो सुबाहू वि जहा जमाली तहा रहेणं निग्गए,' जाव धम्मो कहियो / राया परिसा गया। ५-उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हस्तिशीर्ष नगर में पधारे। परिषद् (जनता) धर्मदेशना सुनने के लिए नगर से निकली, जैसे महाराजा कूणिक निकला था, अदीनशत्रु राजा भी उसी तरह भगवद्दर्शन तथा देशनाश्रवण करने के लिये निकला / जमालिकुमार की तरह सुबाहुकुमार ने भी भगवान् के दर्शनार्थ रथ से प्रस्थान किया / यावत् भगवान् ने धर्म का प्रतिपादन किया, परिषद् और राजा धर्मदेशना सुनकर वापस लौट गये। गृहस्थधर्म का स्वीकार ६-तए णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतु? उडाए उट्ठ इ, उद्वित्ता समणं भगवं महाबोरं वंदइ, वंदित्ता नमसइ, नमंसित्ता एवं वयासी'सद्दहामि णं भत्ते ! निग्गथं पावयणं / जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर जाव प्पभिईयो मुंडा भवित्ता अगाराश्रो अणगारियं पव्वइया, नो अहं तहा संचाएमि मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पव्वइत्तए अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जामि / " "अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / " तए णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जइ / पडिवज्जित्ता तमेव रहं दुरूहइ, दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। ६-तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के निकट धर्मकथा श्रवण तथा मनन करके अत्यन्त प्रसन्न हुआ सुबाहुकुमार उठकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन, नमस्कार करने के अनन्तर कहने लगा-'भगवन् ! में निग्रंथप्रवचन पर श्रद्धा करता हूं यावत् जिस तरह आपके श्रीचरणों में अनेकों राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि उपस्थित होकर, मुडित होकर तथा गृहस्थावस्था से निकलकर अनगारधर्म में दीक्षित हुए हैं, अर्थात् राजा, ईश्वर आदि ने पंच महाव्रतों को स्वीकार किया है, वैसे मैं मुडित होकर घर त्यागकर अनगार अवस्था को धारण करने में समर्थ नहीं हूँ / मैं पांच अणुव्रतों तथा सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है, ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अंगीकार करना चाहता हूं। १-देखिए भगवती सूत्र, श. 9 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [116 उत्तर में भगवान् ने कहा-'जैसे तुमको सुख हो वैसा करो, किन्तु इसमें देर मत करो।' ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों वाले बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया। अर्थात् उक्त द्वादशविध व्रतों के यथाविधि पालन करने का नियम ग्रहण किया। तदनन्तर उसी रथ पर सुबाहुकुमार सवार हुआ और सवार होकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस चला गया। गौतम को सुबाहुविषयक जिज्ञासा ७-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स जे? अंतेवासी इन्दभूई जाव एवं वयासी—"अहो गं भंते ! सुबाहुकुमारे इ8, इगुरूवे, कते, कंतरूवे, पिये, पियरूवे, मणुन्ने, मनुन्नरूवे, मणामे, मणामस्वे, सोमे, सोमरूवे, सुभगे, सुभगरूवे, पियंदसणे सुरूवे। बहुजणस्स वि य गं भंते ! सुबाहुकुमारे इ8 जाव सुरूवे। साहुजणस्स वि य गं! सुबाहुकुमारे इ8 इदुरूवे जाव सुरूवे / सुबाहणा भंते ! कुमारेणं इमा एयारूवा उराला माणुस्सरिद्धि किन्ना लद्धा? किन्ना पत्ता ? किन्ना अभिसमन्नागया ? के वा एस पासो पुव्वभवे ?" जाव (किनामए वा कि वा गोत्तणं ? कयरंसि गामंसि वा संनिवेसंसि वा ? किं वा दच्चा कि वा भोच्चा कि वा समायरित्ता कस्स चा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रायरियं वयणं सोच्चा निसम्म सुबाहुणा कुमारेण इमा एयारूवा माणु सिड्ढी लद्धा पत्ता) अभिसमन्नागया ? ७-उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे.-'अहो भगवन् ! सुबाहु कुमार बालक (बहुजन इष्ट) बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप-सुन्दर रूप वाला है। अहो भगवन् ! यह सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, इष्ट रूप यावत् सुरूप लगता है। भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवीय समृद्धि कैसे उपलब्ध की ? कैसे प्राप्त की ? और कैसे उसके सन्मुख उपस्थित हुई ? सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? यावत् इसका नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम अथवा बस्ती में उत्पन्न हुआ था? क्या दान देकर, क्या उपभोग कर और कैसे प्राचार का पालन करके और किस श्रमण या माहन के एक भी आर्यवचन को श्रवण कर सुबाहुकुमार ने ऐसी यह ऋद्धि लब्ध एवं प्राप्त की है, कैसे यह समृद्धि इसके सन्मुख उपस्थित विवेचन-सुबाहुकुमार की व्यावहारिक जीवन जीने की कला इतनी अद्भुत और आकर्षक थी कि वह आम जनसमुदाय का प्रीति-भाजन बन गया। उससे सभी प्रसन्न थे। प्राणों के अन्तराल से उसे चाहते थे। जन-मन के हृदय में देवता की तरह उसने स्थान बना लिया था। इतना ही नहीं, वह साधुजनों का भी स्नेहपात्र बन गया था। प्राध्यात्मिक साधना की दिशा में प्रतिपल जागृत व प्रगतिशील रहने के कारण निःस्वार्थ, स्वभावतः अनासक्त एवं निष्काम वृत्ति वाले साधुपुरुषों के के हृदय में भी सुबाहु का प्रेम-पूर्ण स्थान बन गया / यहाँ सुबाहुकुमार के लिये जो अनेक विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं, वे सामान्य दृष्टि से सामानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु उन सब के अर्थ में थोड़ा अन्तर है, जो इस प्रकार है Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 ] [विपाकसूत्र--द्वितीय श्र तस्कन्ध इष्ट-जो चाहने योग्य हो, जिसकी इच्छा की जाय, वह इष्ट होता है / इष्टरूप-किसी की चाह उसके विशेष कृत्य को उपलक्षित करके भी सम्भव है, अतः इष्टरूप अर्थात् उसकी आकृति ही ऐसी थी जिससे इष्ट प्रतीत होता था। कान्त-इष्टरूपता भी अन्यान्य कारणों से संभवित है, अत: स्वरूपतः कान्त-रमणीय था। कान्तरूप-सुन्दर स्वभाव वाला। (सुबाहु की इष्टता में उसका सुन्दर स्वभाव कारण था / ) प्रिय-सुन्दर स्वभाव होने पर भी कर्म के प्रभाव से प्रेम उत्पन्न करने में असमर्थ रह सकता है, अतः प्रेम का उत्पादक जो हो वह प्रिय / प्रियरूप-जिसका रूप प्रिय-प्रीतिजनक हो। मनोज्ञ-मनोज्ञरूपान्तरिक वृत्ति से जिसकी शोभनता अनुभव में आवे वह मनोज्ञ, उसके रूप वाला मनोज्ञरूप कहलाता है। मनोम, मनोमरूप-किसी की मनोज्ञता तात्कालिक भी हो सकती है, अतः मनोम विशेषण से जिसकी सुन्दरता का स्मरण बार-बार किया जाय / सोम-रुद्रतारहित व्यक्ति सोम-सौम्य स्वभाव वाला होता है। सुभग-बल्लभता वाला। सुरूप-सुन्दर आकार तथा स्वभाव वाले को सुरूप कहते हैं। प्रियदर्शन-प्रेम का जनक आकार और उस आकार वाला। भगवान् द्वारा समाधान ८-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे नाम नयरे होत्था, रिद्धथमियसमिद्ध / तत्थ णं हस्थिणाउरे नयरे सुमुहे नामं गाहावई परिवसइ, प्रड्ढे / ८-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का एक ऋद्ध, स्तमित एवं समृद्ध नगर था। वहां सुमुख नाम का धनाढ्य गाथापति रहता था। 8-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा जाइसंपन्ना जाव पंचहि समणसहि सद्धि संपरिवुडा पुन्वाणुपुदिव चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा जेणेव हस्थिणाउरे नयरे, जेणेक सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छन्ति / उवागच्छित्ता प्रहापडिरूवं उम्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति / ६—उस काल तथा उस समय उत्तम जाति और कुल से संपन्न अर्थात् श्रेष्ठ मातृपक्ष एवं पितृपक्ष वाले यावत् पांच सौ श्रमणों से परिवृत हुए धर्मघोष नामक स्थविर (जाति, श्रत व पर्याय से वृद्ध) क्रमपूर्वक चलते हुए तथा ग्रामानुग्राम विचरते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवननामक Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [ 121 उद्यान में पधारे / पधार कर वहां यथाप्रतिरूप--अनगार धर्म के अनुकल अवग्रह (प्राश्रयस्थान) को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे / विवेचन---स्थविर शब्द का सामान्य अर्थ वृद्ध या बड़ा साधु होता है। स्थानांग में तीन प्रकार के स्थविर बताये हैं --1. जातिस्थविर 2. श्रु तस्थविर 3. पर्यायस्थविर / साठ वर्ष की अवस्था वाला मुनि जातिस्थविर कहलाता है। स्थानांग व समवायांग का पाठी श्र तस्थविर गिना जाता है / कम से कम बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला पर्यायस्थविर माना जाता है / (स्थानांग सूत्र स्थान 3 उ; 3) ज्ञातासूत्र आदि में गणधरों को भी स्थविर पद से सम्बोधित किया है। १०-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी सुदत्ते नामं अणगारे उराले जाव तेउलेस्से मासंमासेण खममाणे विहरइ / तए णं से सुदत्ते अणगारे मासक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, जहा गोयमस्वामी तहेब, धम्मघोसे थेरे पापुच्छइ, जाव अडमाणे सुमुहुस्स गाहावइस्स गेहे अणुप्पविट्ठ। १०---उस काल और उस समय में धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी-शिष्य उदार-प्रधान यावत् तेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हए (अनेक योजन प्रमाण वाले क्षेत्र में स्थित वस्तनों को भस्म कर देने वाली तेजोलेश्या-घोर तप से प्राप्त होने वाली लब्धि-विशेष, को अपने में संक्षिप्त-गुप्त किये हुए) सुदत्त नाम के अनगार एक मास का क्षमण-तप करते हुए अर्थात् एक-एक मास के उपवास के बाद पारणा करते हुए विचरण कर रहे थे। एक बार सुदत्त अनगार मास-क्षमण पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, दूसरे प्रहर में ध्यान करते हैं और तीसरे प्रहर में श्री गौतम स्वामी जैसे श्रमण भगवान् महावीर से भिक्षार्थ गमन के लिए पूछते हैं, वैसे ही वे धर्मघोष स्थविर से पूछते हैं, यावत् भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए सुमुख गाथापति के घर में प्रवेश करते हैं। विवेचन-हमने यहां 'धम्मघोसे थेरे पापुच्छई' ऐसा ही पाठ रक्खा है परन्तु इसके स्थान पर 'सहम्मे थेरे पापुच्छई' ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। प्रकृत में सुधर्मा स्थविर का कोई प्रसंग न होने से 'धम्मघोसे थेरे आपुच्छइ' पाठ प्रसंग के अनुकूल व युक्तिसङ्गत लगता है। अन्यथा 'सुहम्मे थेरे' पाठ से श्री जम्बू स्वामी के गुरु श्री-सुधर्मा स्वामी के ग्रहण की भी भूल हो जाना सम्भव है। फिर भी 'सुहम्मे थेरे' इस पाठ की अवहेलना नहीं की जा सकती है, कारण वह अनेक प्रतियों में उपलब्ध है, अत: "स्थितस्य गतिश्चितनीया" इस न्याय को अभिमुख रखकर सूत्रगत पाठ का यदि विचार किया जाय तो सम्भव है 'सुधर्मा' शब्द से सूत्रकार को भी धर्मघोष स्थविर ही इष्ट हो। धर्मघोष मुनि का हो दूसरा नाम सुधर्मा होना चाहिये। इसी अभिप्राय से शायद सूत्रकार ने धर्मघोष के बदले सुधम्मे-सुधर्मा पद का उल्लेख किया है। इस पाठ के सम्बन्ध में वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि 'सुहम्मे थेरे' 'त्ति धर्मघोषस्थविरमित्यर्थः, धर्मशब्दसाम्यात् शब्दद्वयस्याप्येकार्थत्वात्' इस प्रकार करते हैं। तात्पर्य यह है सुधर्मा और धर्मघोष इन दोनों के नामों में 'धर्म' शब्द समान है। इस समानता को लेकर ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के परिचायक हैं-सुधर्मा शब्द से धर्मघोष और धर्मघोष शब्द से सुधर्मा का ग्रहण होता है / तत्त्व सर्वज्ञगम्य है। __११–तए णं से सुमुहे गाहावई सुदत्तं अणगारं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हतु8 पासणामो अब्भुट्टइ, अभत्ता पायपीढायो पच्चोरहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाग्रो प्रोमुयइ, प्रोमइत्ता एगसाडियं Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 ] विपाकसूत्रः द्वितीय श्रु तस्कन्ध : उत्तरासंगं करेइ, करिता सुदत्तं प्रणगारं सतलुपयाई पच्चुग्गच्छइ, पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करिता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुमहत्थेणं विउलेणं असणपाणेणं पडिलाभिस्सामि ति तुट्ठ पडिलाभेमाणे वि तु?, पडिलाभिए वि तु?! ११--तदनन्तर वह सुमुख गाथापति सुदत्त अनगार को आते हुए देखता है और देखकर अत्यन्त हर्षित और प्रसन्न होकर आसन से उठता है। प्रासन से उठकर पाद-पीठ--पैर रखने के प्रासन से नीचे उतरता है। उतरकर पादुकाओं को छोडता है। छोड़कर एक शाटिक-एक कपड़ा जो बीच में सिया हुआ न हो, इस प्रकार का उत्तरासंग (उत्तरीय वस्त्र का शरीर में न्यास) करता है, उत्तरासंग करने के अनन्तर सुदत्त अनगार के सत्कार के लिए सात-पाठ कदम सामने जाता है। सामने जाकर तीन बार पादक्षिण प्रदक्षिणा करता है, वंदन करता है, नमस्कार करके जहां अपना भक्तगृह-भोजनालय था वहां पाता है। प्राकर अपने हाथ से विपुल अशन पान का-आहार का दान दूगा अथवा दान का लाभ प्राप्त करूंगा, इस विचार से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त होता है। वह देते समय भी प्रसन्न होता है और आहारदान के पश्चात् भी प्रसन्नता का अनुभव करता है / १२-तए णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दव्वसुद्धणं' गाहकसुद्धणं दायक सुद्धणं तिविहेणं तिकरणसुद्ध णं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकए,२ मणुस्साउए निबद्ध ! गेहंसि य से इमाई पच दिव्वाई पाउन्भूयाई, तंजहा 1. वसुहारा बुढा 2. दसद्धवण्णे कुसुमे निवाडिए 3. चेलुक्खेवे कए 4. श्राहयानो देवदुन्दुभीग्रो 5. अंतरा वि य णं प्रागासे 'अहो दाणं अहो दाणं' घु? य / 1. दव्वसुद्धणं गाहग-सुद्धे णं दायग-सुद्धणं-द्रव्य शुद्धि, ग्राहकशुद्धि और दाता की शुद्धि इस प्रकार है देयशुद्धि---सूमुख गाथापति द्वारा निर्दोष आहार देना, दात-शुद्धि .....दान से पहिले, दान देते समय और दान देने के पश्चात् सुमुख के चित्त में प्रानन्द का अनुभव होना, हर्षित मन वाला होना / प्रादाता-ग्राहक मास-क्षमणतपोधनी सुदत्त मुनि / इस प्रकार देय दाता व आदाता की पवित्रता से दान उत्तम फल-दायी होता है / 2. परिसमन्तात् इतः गतः इति परीतः / अपरीतः परीतीकृत इति परीतीकृतः-पराङ मुखीकृत:- अल्पीकृत इत्यर्थः / संसार को संक्षिप्त कर देना। दिवाइं-१. देवता सम्बन्धी वस-सुवर्ण और उसकी लगातार वष्टि धारा कहलाती है। देवकृत सुवर्णवृष्टि को ही बसुधारा कहते हैं। 2. कृष्ण, नील, पीत, श्वेत और रक्त पांच रंग पुष्पों में पाये जाते हैं / देवों द्वारा बरसाए गये ये पूष्प वैक्रिय-लब्धिजन्य हैं, अत: अचित्त होते हैं। 3. चेलोत्क्षेप-चेल-वस्त्र, उसका उत्क्षेप-फेंकना चेलोत्क्षेप कहा जाता है। 4. देवदुन्दुभिनाद---देव-दुन्दुभियों का वजना। 5. आश्चर्य उत्पन्न करने वाले दान की 'अहो दान' संज्ञा है। जिस दान के प्रभाव से प्रापित हो देवता स्वयं ऐसा करते हों उसे अहोदान शब्द से कहना युक्तिसंगत ही है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] / 123 हस्थिणाउरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं प्राइक्खइ ४–'धन्ने णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहावई जाव गाहावई जाव (एवं कयलक्खे गं सुलद्ध णं सुमुहस्स गाहावइस्स जम्मजोवियफले, जस्त णं इमा एयारूवा उराला माणुसिड्ढो लद्धा पत्ता अभिसमन्नागता) तं धन्ने-५ णं सुमुहे गाहावई !' 12- तदनन्तर उस सुमुख गाथापति के शुद्ध द्रव्य (निर्दोष पाहारदान) से तथा त्रिविध, त्रिकरण शुद्धि से अर्थात् मन वचन और काय की स्वाभाविक उदारता सरलता एवं निर्दोषता से सुदत्त अनगार के प्रतिलम्भित होने पर अर्थात् सुदत्त अनगार को विशुद्ध भावना द्वारा शुद्ध आहार के दान से अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त हुए सुमुख गाथापति ने संसार को (जन्म-मरण की परम्परा को) बहुत कम कर दिया और मनुष्य आयुष्य का बन्ध किया। उसके घर में सुवर्णवृष्टि, पांच वर्णो के फूलों की वर्षा, वस्त्रों का उत्क्षेप (फेंकना) देवदुन्दभियों का बजना तथा आकाश में 'अहोदान' इस दिव्य उद्घोषणा का होना—ये पाँच दिव्य प्रकट हुए। हस्तिनापुर के त्रिपथ यावत् सामान्य मार्गों में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर आपस में एक दूसरे से कहते थे--हे देवानुप्रियो ! धन्य है सुमुख गाथापति ! सुमुख गाथापति सुलक्षण है, कृतार्थ है, उसने जन्म और जीवन का सुफल प्राप्त किया है जिसे इस प्रकार की यह मानवीय ऋद्धि प्राप्त हुई / वास्तव में धन्य है सुमुख गाथापति ! _ विवेचन--भावनाशील और सरलचेता दाता को दान देते हुए तीन बार हर्ष होता है - (1) आज मैं दान दूगा, अाज मुझे सद्भाग्य से दान देने का स्वर्णावसर उपलब्ध हुग्रा है, यह प्रथम हर्ष ! फिर दान देने के समय उसके रोंये-रोंये में प्रानन्द उभरता है, यह दूसरा हर्ष ! और दान देने के पश्चात् अन्तरात्मा में संतोष व आनन्द वृद्धिंगत होता रहता है, यह तीसरा हर्ष / / दूसरी तरह देय, दाता व प्रतिग्राहक पात्र, ये तीनों ही शुद्ध हों तो वह दान जन्म-मरण के बन्धनों को तोड़ने वाला और संसार को परित्त-संक्षिप्त-कम करने वाला होता है / १३--तए णं से समुहे गाहावई बहूहि वाससयाई पाउयं पालेइ, पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इहेव हत्थिसीसे नयरे प्रदोणसत्तुस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने / तए णं सा धारिणी देवी सयणिज्जंसि सुत्तजागरा प्रोहीरमाणो पोहोरमाणो तहेव सीहं पासइ, सेसं तं चेव जाव उप्पि पासाए विहरइ। तं एवं खलु, गोयमा ! सुबाहुणा इमा एयारूवा माणुस्सरिद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया। १३–तदनन्तर वह समुख गाथापति सैंकड़ों वर्षों की आयु का उपभोग कर काल-मास में काल करके इसी हस्तिशीर्षक नगर में अदीनशत्रु राजा की धारिणी देवी की कुक्षि में पुत्र रूप में उत्पन्न हुमा (गर्भ में पाया)। तत्पश्चात् वह धारिणी देवी किञ्चित् सोई और किञ्चित् जागती हुई स्वप्न में सिंह को देखती है। शेष वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। यावत् उन्नत प्रासादों में मानव सम्बन्धी उदार भोगों का यथेष्ट उपभोग करता विचरता है। भगवान् ने कहा-हे गौतम ! सुबाहुकुमार को उपर्युक्त महादान के प्रभाव से इस तरह की मानव-समृद्धि उपलब्ध तथा प्राप्त हुई और उसके समक्ष समुपस्थित हुई है / और दान Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 | विपाकसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध १४-"पभू णं भन्ते ! सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पवइत्तए?" 'हता पभू'। तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई / तए णं से समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ हथिसीसानो नयरात्रो पुफ्फकरंडायो उज्जाणाम्रो कथवणमालज-खाययणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए णं से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' पडिला माणे विहरइ / गौतम-प्रभो! सुबाहुकुमार प्रापश्री के चरणों में मुण्डित होकर, गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म को ग्रहण करने में समर्थ है ? भगवान्–हाँ गौतम ! है अर्थात् प्रवजित होने में समर्थ है / तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना व नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानगत कृतवनमाल नामक यक्षायतन से विहार किया और विहार करके अत्य देशों में विचरने लगे। इधर सुबाहुकुमार श्रमणोपासक-देशविरत श्रावक हो गया। जीव अजीव आदि तत्वों का मर्मज्ञ यावत् आहारादि के दान-जन्य लाभ को प्राप्त करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। विवेचन—भगवान महावीर की धर्मदेशना से प्रभावित व प्रतिबोधित हए सुबाहकुमार ने भगवान् से कहा था-प्रभो! अापके पास अनेक राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार, साधु धर्म को स्वोकार करते हैं परन्तु मैं उस सर्वविरति रूप साधुधर्म को स्वीकार करने में समर्थ नहीं हूँ। अतः आप मुझे देशविरति धर्म-अणुव्रत पालन का ही नियम करावें / सुबाहुकुमार के उक्त कथन को स्मृति में रखते हुए गौतम स्वामी ने 'पभू णं, भंते ! सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगारानो अणगारियं पव्वइत्तए ?' इस प्रश्न में 'पभू' शब्द का इसी अभिप्राय से प्रयोग किया लगता है ! १५---तए णं से सुबाहुकुमारे अन्नया कयाइ चाउद्दसट्टमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पोसहसाल पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ पडिले हित्ता दब्भसंथारगं संथरइ संथरित्ता दब्भसंथारं दुरुहइ, दुरुहिता अट्टम भत्त पगिण्हइ, पगिहित्ता पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे पडिजागरभाणे विहरइ। 15. तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहुकुमार चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या और 1. देखिये समिति द्वारा प्रकाशित उपासकदशांग पृ. 62. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [ 125 पूर्णमासी, इन तिथियों में जहाँ पौषधशाला थी-पोषधव्रत करने का स्थान विशेष था-वहाँ पाता है। पाकर पोषधशाला का प्रमार्जन करता है, प्रमार्जन कर उच्चारप्रस्रवणभूमि मल-मूत्र विसर्जन के स्थान को प्रोतलेखना-निरोक्षण करता है। दर्भसंस्तार--कुशा के ग्रासन को बिछाता है। बिछाकर प्रारूढ होता है और अटठमभक्त-तीन दिन का लगातार उपवास ग्रहण करता है। पौषधशाला में पौपधिक - पौषधव्रत धारण किये हुए वह, अष्टमभक्त सहित पौषध-अष्टमी, चतुर्दशी ग्रादि पर्व तिथियों में करने योग्य जैन श्रावक का व्रत विशेष अथवा आहारादि के त्यागपूर्वक किये जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान विशेष-का यथाविधि पालन करता हुआ अर्थात् तेला-पौषध करके विहरण करता है। 16--- तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूचे अज्झस्थिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-धन्ना णं ते गामागर-नगर-निगम-रायहाणि-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडब-पट्टणासम-संबाह-सन्निवेसा जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरइ।। धन्ना णं ते राईसर-तलवर-माउंबिय-कोडुबिय इन्भ-सेटि-सेणावइ-सत्यवाहप्पभिइनो जे णं समणस्स भगवश्रो महावीरस्स अंतिए मुंडा जाब पव्वयंति। धन्ना णं ते राईसरतलवर जे जं समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खवइयं दुबालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जन्ति / धन्ना णं ते राईसरतलवर० जाव जे णं समणस्स भगवनो महावीरस्स अन्तिए धम्म सुणेन्ति / तं जइ णं समणे भगवं महावीरे पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागच्छिज्जा जाव विहरिज्जा, तए णं अहं समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता जाव (अगाराप्रो अणगारियं) पव्वएज्जा। 16. तदन्तर मध्य रात्रि में धर्मजागरण के कारण जागते हुए सुबाहुकुमार के मन में यह आन्तरिक विचार, चिन्तन, कल्पना, इच्छा एवं मनोगत संकल्प उठा कि-वे ग्राम प्राकर नगर, निगम, राजधानी, खेट (खेडे) कर्बट, द्रोणमुख, मडम्ब, पट्टन, आश्रम, संबाध और सन्निवेश धन्य हैं जहाँ पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते हैं। वे राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति और सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो श्रमण भगवान महावीर स्वामी के निकट मुण्डित होकर प्रवजित होते हैं / 1. धर्म की पुष्टि करनेवाले नियमविशेष का धारण करना पौषधवत कहलाता है। इसमें ग्राहारादि के त्याग के साथ ही शरीर के शृगार का त्याग, ब्रह्मचर्य का पालन, व्यापार-व्यवहार का भी वर्जन अपेक्षित है। चागें प्रकार के प्राहार के त्यागपूर्वक किया जाने वाला पौषधवत पौषधोपवास कहलाता है : 'पोपणं पोषं: पुष्टिरित्यर्थः तं धत्तं गह णाति इति पौषधः।' Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 [ विपाकसूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध वे राजा, ईश्वर प्रादिक धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पञ्चाणुवतिक और सप्त शिक्षावतिक (पांच अणुव्रतों एवं सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है) उस बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अङ्गीकार करते हैं। वे राजा ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म-श्रवण करते हैं। सो यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः गमन करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हुए, यहाँ पधारें तो मैं गृह त्याग कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुडित होकर प्रवजित हो जाऊँ। १७---तए णं समणे भगवं महावीरे सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं जाव' वियाणित्ता पुवाणुपुचि जावर दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिसीसे जयरे जेणेव पुफ्फकरंडे उज्जाणे जेणेव कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / परिसा राया निग्गया / तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तं महया जणसई वा जणसण्णिवायं वा जहा जमाली तहा निग्गयो / धम्मो कहियो / परिसा राया पडिगया / 17. तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी सुबाहु कुमार के इस प्रकार के संकल्प को जानकर क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरते हुए जहाँ हस्तिशीर्षनगर था, और जहाँ पुष्पकरण्डक नामक उद्यान था, और जहाँ कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे एवं यथा प्रतिरूप-अनगार वृत्ति के अनुकूल अवग्रह-स्थानविशेष को ग्रहण कर संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए। तदनन्तर परिषदा व राजा दर्शनार्थ निकले / सुबाहुकुमार भी पूर्व ही की तरह बड़े समारोह के साथ भगवान् की सेवा में उपस्थित हुअा / भगवान् ने उस परिषद् तथा सुबाहुकुमार को धर्म का प्रतिपादन किया। परिषद और राजा धर्मदेशना सुन कर वापिस चले गये। १८--तए णं सुबाहुकुमारे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छइ / निक्खणाभिसेलो तहेव जाव अणगारे जाव इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। 18. सुबाहुकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म श्रवण कर उसका मनन करता हुप्रा (ज्ञाताधर्मकथा में वर्णित) श्रेणिक राजा के पुत्र मेघकुमार की तरह अपने माता-पिता से अनुमति लेता है / तत्पश्चात् सुबाहुकुमार का निष्क्रमण-अभिषेक मेघकुमार ही की तरह होता है। यावत् वह अनगार हो जाता है, ईर्यासमिति का पालक यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बन जाता है / ३-भगवती श 9 / १-२–देखिये ऊपर का 16 वां सूत्र। ४-देखिये ज्ञाताधर्मकथा, प्र. अ. / Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [ 127 १६-तए णं से सुबाहू अणगारे समणस्स भगवनो महावीरस्स तहारूवाणां थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहि चउत्थछट्ठट्ठमतवोवहाणेहि अप्पाणं भवित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता पालोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / 16. तदनन्तर सुबाहु अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक आदि एकादश अङ्गों का अध्ययन करते हैं / अनेक उपवास, बेला, तेला आदि नाना प्रकार के तपों के आचरण से आत्मा को वासित करके अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (साधुवृत्ति) का पालन कर एक मास की संलेखना (एक अनुष्ठान-विशेष जिसमें शारीरिक व मानसिक तप द्वारा कषाय आदि का नाश किया जाता है) के द्वारा अपने आपको आराधित कर साठ भक्तों-भोजनों का अनशन द्वारा छेदन कर अर्थात् 29 दिन का अनशन कर आलोचना व प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि को प्राप्त होकर कालमास में काल करके सोधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हए। विवेचन-यहाँ यह शङ्का सम्भव है कि 'मासियाए संलेहणाए' शब्द का उल्लेख करने के बाद 'सट्ठिभत्ताई' का उल्लेख हुआ है, जो 29 दिन का ही वाचक है तो 'मासियाए संलेहणाए' की अर्थसङ्गति कैसे बैठेगी? हमारी दृष्टि से इसकी यह संङ्गति सम्भव है कि प्रत्येक ऋतु में मासगत दिनों की संख्या समान नहीं होती है, अत: जिस ऋतु में जिस मास के 29 दिन होते हैं उस मास को ग्रहण करने के लिए सूत्रकार ने 'मासियाए संलेहणाए' शब्द ग्रहण किया है। यह पद देकर भी 'सट्ठिभत्ताई' जो पद दिया है उससे यही द्योतित होता है कि 29 दिन के मास में ही साठ भक्त-भोजन छोड़े जा सकते हैं, 30 दिन के मास में नहीं। २०--से णं तारो देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लहिहिइ, लहिहिता केवलं बोहिं बुज्झिहिइ, बुज्झिहित्ता तहारूवाणं थेराणं अंतिए मुडे जाव पन्वइस्सइ / से णं तत्थ बहूई वासाई सामण्णं पाउणिहिइ, पाउणिहिता पालोइयपडिक्कते समाहिंपत्ते कालगए सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उम्वन्जिहिइ। से णं तारो देवलोगानो माणुस्सं, पवजा बंभलोए। माणुस्सं / तो महासुक्के / तो माणुस्सं, प्राणए देवे / तो माणुस्सं, पारणे। तो माणुस्सं, सव्वदृसिद्ध / से णं तपो प्रणंतरं उव्वट्टित्ता महाविदेहे वासे जाई अड्राइं जहा दढपइन्ने, सिज्झिहिइ / 1. सामायिक शब्द चारित्र के पंचविध विभागों में से प्रथम विभाग-पहला चारित्र,श्रावक का नवम व्रत, आवश्यक सूत्र का प्रथम विभाग तथा संयमविशेष इत्यादि अनेक अर्थों का द्योतक है / प्रकृत में मामायिक का अर्थ प्रथम अङ्ग आचाराङ्ग ग्रहण करना अनुकूल प्रतीत होता है, कारण 'सामाइयमाइयाई' ऐसा उल्लेख है और वह 'एक्कारस अंगाई' का विशेषण है अर्थात् सामायिक है आदि में जिसके ऐसे ग्यारह अङ्ग ! ग्यारह अङ्गों के नाम ये हैं--पाचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानांग, समवायांम, भगवती, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृशाङ्ग, अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] [ विपाकसूर --द्वितीय श्र तस्कन्ध 20. तदनंतर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने पर व्यवधान रहित देव शरीर को छोडकर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त क शंकादि दोषों से रहित केवली - बोधि का लाभ करेगा, बोधि उपलब्ध कर तथारूप स्थविरों के पास मुडित होकर साधुधर्म में प्रवजित हो जाएगा। वहाँ वह अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय--संयम व्रत का पालन करेगा और आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होगा। काल धर्म को प्राप्त कर सनत्कुमारनामक तीसरे देवलोक में देवता के रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ से पुनः मनुष्य भव प्राप्त करेगा। दीक्षित होकर यावत् महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न होगा / वहाँ से च्यव कर फिर मनुष्य-भव में जन्म लेगा और पूर्व की ही तरह दीक्षित होकर यावत् प्रानत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ की भवस्थिति को पूर्ण कर मनुष्य-भव में प्राकर दीक्षित हो धारण नाम के ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यव कर मनुष्य-भव को धारण करके अनगार-धर्म का अाराधन कर शरोरान्त होने पर सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यवकर सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में सम्पन्न कुलों में से किसी कुल में उत्पन्न होगा। वहाँ दृढप्रतिज्ञ' की भाँति चारित्र प्राप्त कर सिद्धपद को प्राप्त करेगा। विवेचन - 'ग्राउक्खएणं' प्रादि तीन शब्दों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है-'पाउक्खएणं त्ति-प्रायष्यकर्मनिर्जरेण, भवक्खएण त्ति देवगतिनिबन्धनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरेण, ठिडक्खएणं प्रायष्यकर्मादिकर्मस्थितिविगमेन / ' प्राय शब्द से प्रायष्कर्म के दलिकों या कर्मवर्गणाओं का क्षय इष्ट है। भव शब्द से देवगति में कारणभूत देवगति नामकर्म के कर्मदलिकों का नाश गृहीत है-और स्थिति शब्द से ग्रायुष्कर्म के दलिक जितने समय तक आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित रहते हैं, उस कालस्थिति का नाश स्थितिनाश कहा जाता है / २१-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते / त्ति बेमि / 21. प्रार्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं. हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक अंग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। / प्रथम अध्ययन समाप्त / / 1. 'दृढप्रतिज्ञ' के वर्णन के लिये देखिए-ौप. सूत्र-१४१-१५४ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन भद्रनन्दी १--विइयस्स उक्खेवो। १-द्वितीय अध्ययन की प्रस्तावना पूर्ववत् समझ लेनी चाहिये / २-तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभपुरे नयरे। थूभकरंडगउज्जाणं। धन्नो जक्खो / धणावहो राया। सरस्सई देवी। सुमिणदंसणं, कहणं, जम्म, बालत्तणं, कलाप्रो य / जोव्वणं पाणिग्गहणं दामो पासाय भोगा य। जहा सुबाहुस्स। नवरं भद्दनंदी कुमारे। सिरिदेवी पामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं / सामिस्स समोसरणं / सावगधम्मं / पुत्वभवपुच्छा / महाविदेहे वासे पुडरोकिणी नयरी। विजए कुमारे / जुगबाहू तित्थयरे पडिलाभिए / मणुस्साउए निबद्ध / इहं उम्पन्न / सेसं जहा सुबाहुस्स जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिवाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ / निक्लेवो। २-जम्बू स्वामी ने प्रश्न किया कि श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक के दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ? उत्तर में सुधर्मा स्वामी कहते हैं, हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में ऋषभपुर नाम का एक नगर था। वहाँ स्तुपकरण्डक नामक उद्यान था। धन्य नामक यक्ष का यक्षायतन था / वहाँ धनावह नाम का राजा राज्य करता था। उसकी सरस्वती देवी नाम की रानी थी। महारानी का स्वप्न-दर्शन, पति से स्वप्न-वृत्तान्तकथन, समय आने पर बालक का जन्म, बालक का बाल्यावस्था में कलाएं सीखकर यौवन को प्राप्त होना, तदनन्तर विवाह होना, माता-पिता के द्वारा दहेज देना और ऊँचे प्रासादों में अभीष्ट भोगोपभोगों का उपभोग करना, आदि सभी वर्णन सुबाहुकुमार ही की तरह जानना चाहिये। उसमें अन्तर केवल इतना है कि सुबाहुकुमार के बदले बालक का नाम 'भद्रनन्दी' था / उसका श्रीदेवी प्रमुख पाँच सौ देवियों के साथ (श्रेष्ठ राज्यकन्याओं के साथ) विवाह हुा / तदनन्तर महावीर स्वामी का पदार्पण हा, भद्रनन्दी ने श्रावकधर्म अंगीकार किया। गौतम स्वामी द्वारा उसके पूर्वभव सम्बन्धी प्रश्न करने पर भगवान् ने इस प्रकार उत्तर दिया महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत पुण्डरीकिणी नाम की नगरी में विजय नामक कुमार था। उसके द्वारा भी युगबाहु तीर्थंकर को प्रतिलाभित करना-दान देना, उससे मनुष्य आयुष्य का बन्ध होना, यहाँ भद्रनन्दी के रूप में जन्म लेना, यह सब सुबाहुकुमार ही की तरह जान लेना चाहिये / यावत् वह महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्ध होगा, बुद्ध होगा, मुक्त होगा, निर्वाण पद को प्राप्त करेगा व सर्व दुःखों का अन्त करेगा / निक्षेप की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये / / द्वितीय अध्ययन समाप्त / / Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन सुजातकुमार १-तच्चस्स उक्खयो। १-तृतीय अध्ययन की प्रस्तावना भी यथापूर्व जान लेनी चाहिये / २-वीरपुरं नयरं। मणोरमं उज्जाणं / वीरकण्हमित्ते राया। सिरीदेवी। सुजाए कुमारे / बलसिरीपामोक्खाणं पंचसयकन्नगाणं पाणिग्गहणं / सामीसमोसरणं / पुवभवपुच्छा। उसुयारे नथरे / उसभदत्ते गाहावई। पुफ्फदत्ते अणगारे पडिलाभिए। माणुस्साउए निबद्ध / इह उप्पन्न जाव महाविदेहवासे सिज्झिहिइ, बुज्झिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिवाहिइ, सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ। निक्खेवो। २–श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा-हे जम्बू ! वीरपुर नामक नगर था। वहाँ मनोरम नामका उद्यान था / महाराज वीरकृष्णमित्र राज्य करते थे। श्रीदेवी नामक उनकी रानी थी। सुजात नाम का कुमार था / बलश्रो प्रमुख 500 श्रेष्ठ राज-कन्याओं के साथ सुजातकुमार का पाणिग्रहणसंस्कार हुआ / श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे। सुजातकुमार ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया / श्री गौतम स्वामी ने पूर्वभव की जिज्ञासा प्रकट की। श्रमण भगवान् महावीर ने इस तरह पूर्वभव का वृत्तान्त कहा-- __ इषुकासार नामक नगर था / वहाँ ऋषभदत्त गाथापति रहता था। उसने पुष्पदत्त अनगार को निर्दोष आहार दान दिया, फलतः शुभ मनुष्य प्रायुष्य का बन्ध हुआ। आयु पूर्ण होने पर यहाँ सुजातकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ यावत् महाविदेह क्षेत्र में चारित्र ग्रहण कर सिद्ध पद को प्राप्त करेगा। विवेचन-दूसरे अध्ययन की तरह तीसरे अध्ययन का भी सारा वर्णन प्रथम अध्ययन के ही समान है। केवल नाम व स्थान मात्र का भेद है। अतः सारा वर्णन सुबाहुमार की ही तरह समझ लेना चाहिये। निक्षेप की कल्पना पूर्व की भांति कर लेनी चाहिये / // तृतीय अध्ययन समाप्त / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन सुवासबकुमार १-चउत्थस्स उक्लेवो। १-चतुर्थ अध्ययन की प्रस्तावना भी यथापूर्व समझ लेनी चाहिये / २---विजयपुरं नयरं / नन्दणवणं उज्जाणं / असोगो जक्खो। वासवदत्ते राया / कण्हादेवी / सुवासवे कुमारे। भद्दापामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं जाव पुत्वभवे / कोसंबी नयरी / धणपाले राया। वेसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिए / इहं उववन्ने / जाव सिद्ध / निक्खेवो। २-सुधर्मा स्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू ! विजयपुर नाम का एक नगर था। वहाँ नन्दनवन नाम का उद्यान था। उस उद्यान में अशोक नामक यक्ष का एक यक्षायतन था। विजयपुर नगर के राजा का नाम वासवदत्त था। उसकी कृष्णादेवी नाम की रानी थी। सुवासवकुमार नामक राजकुमार था। भद्रा-प्रमुख पांच सौ राजाओं की श्रेष्ठ कन्याओं के साथ विवाह हुआ / श्रमण भगवान महावीर स्वामी पधारे / सुवासवकुमार ने श्रावकधर्म स्वीकार किया। गौतम स्वामी ने उसके पर्वभव का वत्तान्त पछा। उत्तर में श्री भगवान ने फरमाया गौतम ! कौशाम्बी नाम की नगरी थी। वहाँ धनपाल नामक राजा था। उसने वैश्रमणभद्र अनगार को निर्दोष आहार का दान दिया, उसके प्रभाव से मनुष्य-आयुष्य का बन्ध हुना यावत् यहाँ सुवासवकुमार के रूप में जन्म लिया है, यावत् इसी भव में सिद्धि-गति को प्राप्त हुए / विवेचन--प्रस्तुत अध्ययन में भी चरित्रनायक के नाम, जन्मभूमि, उद्यान, माता-पिता, परिणीत स्त्रियों, पूर्वभव सम्वन्धी नाम, जन्मभूमि तथा प्रतिलम्भित मुनिराज की विभिन्नता के नामों को छोड़कर अवशिष्ट सारा कथा-विभाग सुबाहुकुमार को ही तरह समझ लेने का निर्देश किया है। निक्षेप की कल्पना पूर्ववत् कर लेनी चाहिये / / / चतुर्थ अध्ययन समाप्त // Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चम अध्ययन जिनदास १-पंचमस्स उक्खेवो। १-पञ्चम अध्ययन की प्रस्तावना भी यथापूर्व जान लेनी चाहिये / २-सोगन्धिया नयरी / नीलासोए उज्जाणे। सुकालो जक्खो। अप्पडिहयो राया। सुकण्हा देवी। महाचंदे कुमारे / तस्स अरहदत्ता भारिया / जिणदासो युत्तो। तित्थयरागमणं / जिणदासपुवभवो / मज्झमिया नयरी। मेहरहो राया / सुधम्मे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्ध / निक्खेवो। २-हे जम्बू ! सौगन्धिका नाम की नगरी थी। वहाँ नीलाशोक नाम का उद्यान था / उसमें सुकाल नाम के यक्ष का यक्षायतन था। उक्त नगरी में अप्रतिहत नामक राजा राज्य करते थे। सुकृष्णा नाम की उनकी भार्या थी। उनके पुत्र का नाम महाचन्द्रकुमार था। उसकी अहद्दत्ता नाम की भार्या थी / जिनदास नाम का पुत्र था। किसी समय श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण हुआ / जिनदास ने भगवान् से द्वादशविध गृहस्थ धर्म स्वीकार किया। श्री गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव की जिज्ञासा प्रकट की और भगवान् ने इसके उत्तर में इस प्रकार फरमाया हे गौतम! माध्यमिका नाम की नगरी थी। महाराजा मेघरथ वहाँ के राजा थे। सुधर्मा अनगार को महाराजा मेघरथ ने भावपूर्वक निर्दोष आहार दान दिया, उससे मनुष्य भव के आयुष्य का बन्ध किया और यहाँ पर जन्म लेकर यावत् इसी जन्म में सिद्ध हुआ / निक्षेप-उपसंहार की कल्पना पूर्ववत् समझनी चाहिये। विवेचन-प्रस्तुत अध्ययन में जिनदास के जीवन-वृत्तान्त के संकलन में यदि कोई विशेषता हो तो मात्र इतनी ही कि इसके पितामह श्री अप्रतिहत राजा और पितामही श्री सकृष्णा देवी का भी इसमें उल्लेख है, जो प्रायः अन्य किसी अध्यायों के जीवनवृत्तों में उपलब्ध नहीं है। शेष कथावस्तु सुबाहुकुमार के समान ही है। विशिष्टता है तो इतनी ही कि इसी भव में (इसी जन्म में) यह मोक्ष को प्राप्त हुआ। ॥पञ्चम अध्ययन समाप्त / / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ अध्ययन धनपति १-छट्ठस्स उक्खेवो। १-छठे अध्याय की प्रस्तावना भी पूर्ववत् ही समझ लेनी चाहिए। २-फणगपूर नयरं / सेयासोयं उज्जाणं / वीरभद्दो जक्खो। पियचंदो राया। सुभद्दा देवी। वेसमणे कुमारे जुवराया। सिरोदेवी पमोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं / तित्थयरागमणं / धणवई जुवरायपुत्ते जाव पुत्वभवो। मणिवया नयरी। मित्तो राया। संभूतिविजए अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्ध / निक्खेवो। २---हे जम्बू ! कनकपुर नाम का नगर था। वहाँ श्वेताशोकनामक एक उद्यान था। वहाँ वीरभद्र नाम के यक्ष का यक्षायतन था / कनकपुर का राजा प्रियचन्द्र था, उसकी रानी का नाम सुभद्रादेवी था। युवराज पदासीन पुत्र का नाम वैश्रमण कुमार था। उसका श्रीदेवी प्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह हंा था / किसी समय तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी पधारे / युवराज के पुत्र धनपति कुमार ने भगवान् से श्रावकों के व्रत ग्रहण किए यावत् गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव की पृच्छा की / उत्तर में भगवान् ने कहा धनपतिकुमार पूर्वभव में मणिचयिका नगरी का राजा था। उसका नाम मित्र था / उसने संभूतिविजय नामक अनगार को शुद्ध आहार से प्रतिलाभित किया यावत् इसी जन्म में वह सिद्धिगति को प्राप्त हुआ। निक्षेप-उपसंहार भी पूर्ववत् समझना चाहिये / विवेचन-प्रस्तुत अध्ययन में धनपतिकुमार ने भी सुबाहुकुमार ही की तरह पूर्वभव में सुपात्र दान से मनुष्य आयुष्य का बन्ध किया। भगवान् महावीर स्वामी के पास क्रमशः श्रावक धर्म व अन्त में मुनि धर्म की दीक्षा लेकर कर्मबन्धनों को तोड़कर मोक्ष प्राप्त किया। ___ इस भव व पूर्वभव में नामादि की भिन्नता के साथ-साथ सुबाहुकुमार व धनपति कुमार के जीवन में इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार देवलोकों में जाता हुआ और मनुष्य-भव प्राप्त करता हुआ अन्त में महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा जबकि धनपति कुमार इसी जन्म में निर्वाण को उपलब्ध हो गया। // षष्ठ अध्ययन समाप्त / / . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्ययन महाबल १---सत्तमस्स उक्खेवो। १-सातवें अध्याय का उत्क्षेप पूर्ववत ही समझ लेना चाहिये। २-महापुरं नयरं। रत्तासोगं उज्जाणं। रत्तपायो जक्खो / बले राया। सुभद्दा देवी। महब्बले कुमारे। रत्तवईपामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं / तित्थयरागमणं जाव पुन्वभवो / मणिपुरं नयरं / नागदत्ते गाहावई / इन्दपुरे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्ध / निक्खेवो। 2- हे जम्बू ! महापुर नामक नगर था / वहाँ रक्ताशोक नाम का उद्यान था। उसमें रक्तपाद यक्ष का आयतन था / नगर में महाराज बल का राज्य था। सुभद्रा देवी नाम की उसकी रानी थी। महाबल नामक राजकुमार था। उसका रक्तवती प्रभृति 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ विवाह किया गया। उस समय तीर्थङ्कर भगवान् श्री महावीर स्वामी पधारे। तदनन्तर महाबल राजकुमार का भगवान् से श्रावकधर्म अङ्गीकार करना, गणधर देव का भगवान् से उसका पूर्वभव पूछना तथा भगवान् का प्रतिपादन करते हुए कहना---- गौतम ! मणिपुर नाम का नगर था। वहाँ नागदेव नाम का गाथापति रहता था। उसने इन्द्रदत्त नाम के अनगार को पवित्र भावनाओं से निर्दोष आहार का दान देकर प्रतिलम्भित किया तथा उसके प्रभाव से मनुष्य आयुष्य का बन्ध करके यहाँ पर महाबल के रूप में उत्पन्न हुआ। तदनन्तर उसने श्रमणदीक्षा स्वीकार कर यावत् सिद्धगति को प्राप्त किया। निक्षेप-उपसंहार भी पूर्ववत् जानना चाहिये / // सप्तम अध्ययन समाप्त / / Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्ययन भद्रनन्दी १-अट्ठमस्स उवखेवो। १-अष्टम अध्याय का उत्क्षेप पूर्व की भांति ही समझ लेना चाहिये / २--सुघोसं नयरं। देवरमणं उज्जाणं। वीरसेणो जक्खो। प्रज्जुणो राया। तत्तवई देवी। भनन्दी कुमारे / सिरिदेवी पामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं जाव पुव्वभवे / महाघोसे नयरे / धम्मघोसे गाहावई / धम्मसीहे अणगारे पडिलाभिए जाब सिद्ध / २-सुघोष नामक नगर था। वहाँ देवरमण नामक उद्यान था। उसमें वीरसेन नामक यक्ष का यक्षायतन था। सुघोष नगर में अर्जुन नामक राजा राज्य करता था। उसके तत्त्ववती नाम की रानी थी और भद्रनन्दी नाम का राजकुमार था / उसका श्रीदेवी आदि 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ / किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का वहां पदार्पण हुआ / भद्रनन्दी ने भगवान की देशना से प्रभावित होकर श्रावकधर्म अङ्गीकार किया / श्री गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में पृच्छा की और भगवान् ने उत्तर देते हुए फरमाया-... हे गौतम ! महाघोष नगर था। वहाँ धर्मघोष नाम का गाथापति रहता था। उसने धर्मसिंह नामक मुनिराज को निर्दोष आहार के दान से प्रतिलाभित कर मनुष्य-भव के आयुष्य का बन्ध किया और यहाँ पर उत्पन्न हुआ। यावत् साधुधर्म का यथाविधि अनुष्ठान करके श्री भद्रनन्दी अनगार ने बन्धे हुए कर्मों का आत्यंतिक क्षय कर मोक्ष पद को प्राप्त किया / निक्षेप-उपसंहार पूर्ववत् समझना चाहिये। विवेचन-सुबाहुकुमार और भद्रनन्दी के जीवन में इतना ही अन्तर है कि सुबाहुकुमार देवलोक आदि अनेकों भव कर के महाविदेह क्षेत्र से सिद्ध होंगे जब कि भद्रनन्दी इसी भव में मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। // अष्टम अध्ययन समाप्त / / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्ययन महाचन्द्र १-नवमस्स उक्खेवो। १--नवम अध्ययन का उत्क्षेप यथापूर्व जान लेना चाहिये / २–चम्पा नयरी / पुण्णभह उज्जाणे / पुण्णभहो जक्खो। दत्ते राया। रत्तवई देवी / महचंदे कुमारे जुवराया। सिरोकन्तापामोक्खाणं पंचसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं जाव पुश्वभवो / तिगिच्छिया नयरी। जियसत्तू राया। धम्मवीरिए अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्ध / २-हे जम्बू ! चम्पा नाम की नगरी थी। वहाँ पूर्णभद्र नामक सुन्दर उद्यान था। उसमें पूर्णभद्र यक्ष का यक्षायतन था। वहाँ के राजा का नाम दत्त था और रानी का नाम रक्तवती था। उनके युवराज पदासीन महाचन्द्र नामक राजकुमार था। उसका श्रीकान्ता प्रमुख 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुअा था। एक दिन पूर्णभद्र उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ / महाचन्द्र ने उनसे श्रावकों के बारह व्रतों को ग्रहण किया / गणधर देव श्री गौतम स्वामी ने उसके पूर्वभव के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की। भगवान महावीर स्वामी ने उत्तर देते हुए फरमाया हे गौतम ! चिकित्सिका नाम की नगरी थी। महाराजा जिनशत्रु वहाँ राज्य करते थे। उसने धर्मवीर्य अनगार को प्रासुक-निर्दोष आहार पानी का दान देकर प्रतिलम्भित किया, फलत: मनुष्य-आयुष्य को बान्धकर यहाँ उत्पन्न हुआ। यावत् श्रामण्य-धर्म का यथाविधि अनुष्ठान करके महाचन्द्र मुनि बन्धे हुए कर्मों का समूल क्षय कर परमपद को प्राप्त हुए। इन सब के जीवनवृत्तान्तों में मात्र नामगत व स्थानगत भिन्नता के अतिरिक्त अर्थगत कोई भेद नहीं है। निक्षेप उपसंहारपूर्वववत् समझ लेना चाहिये / / नवम अध्ययन समाप्त / Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्ययन वरदत्त १-दसमस्स उपखेवो। १--दशम अध्ययन की प्रस्तावना पूर्व की भांति ही जाननी चाहिये / २–एवं खलु, जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं ससएणं साएयं नामं नयरं होत्था / उत्तरकुरू उज्जाणे। पासामियो जक्खो। मित्तनन्दो राया / सिरिकन्ता देवी / वरदत्ते कुमारे / वरसेणापामोक्खाणं पंचदेवीसयाणं रायवरकन्नगाणं पाणिग्गहणं / तित्थयरागमणं / सावगधम्म / पुग्वभवपुच्छा। सयदुवारे नयरे / विमलवाहणे राया। धम्मरुई नामं अणगारं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता पडिलाभिए समाणे मणुस्साउए निबद्ध / इहं उप्पन्ने / सेसं जहा सुबाहुस्स कुमारस्स / चिन्ता जाव पव्वज्जा। कप्पन्तरियो जाव सम्वसिद्ध / तयो महाविदेहे जहा दढपइन्नो जाव सिज्झिहिइ बुझिहिइ, मुच्चिहिइ, परिणिवाहिइ सव्वदुक्खामंतं काहिइ / / ‘एवं खलु, जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेण जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दसमस्स अज्झषणस्स अयमट्ठ पन्नत्ते।' सेवं भन्ते ! सेवं भंते ! सुहविवागा। २-हे जम्बू ! उस काल तथा उस समय में साकेत नाम का एक विख्यात नगर था / वहाँ उत्तरकरु नाम का सुन्दर उद्यान था। उसमें पाशमग नामक यक्ष का यक्षायतन था राजा मित्रनन्दी थे। उनकी श्रीकान्ता नाम की रानी थी। (उनका) वरदत्त नाम का राजकुमार था / कुमार वरदत्त का वरसेना आदि 500 श्रेष्ठ राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण-संस्कार हुआ था / तदनन्तर किसी समय उत्तरकुरु उद्यान में श्रमण भगवान महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ। वरदत्त ने देशना श्रवण कर भगवान् से श्रावकधर्म अङ्गीकार किया। गणधर श्रीगौतम स्वामी के पूछने पर भगवान् श्री महावीर ने वरवत्त के पूर्वभव का वृत्तान्त इस प्रकार फरमाया हे गौतम ! शतद्वार नाम का नगर था / उसमें विमलवाहन नामक राजा राज्य करता था। उसने एकदा धर्मरुचि अनगार को प्राते हुए देखकर उत्कट भक्तिभावों से निर्दोष आहार का दान कर प्रतिलाभित किया। उसके पुण्यप्रभाव से शुभ मनुष्य आयुष्य का बन्ध किया / वहाँ की भवस्थिति को पूर्ण करके इसी साकेत नगर में महाराजा मित्रनन्दी की रानी श्रीकान्ता की कुक्षि से वरदत्त के रूप के उत्पन्न हुआ। शेष वृत्तान्त सुबाहुकुमार की तरह ही समझ लेना चाहिये / अर्थात् भगवान् के विहार कर जाने के बाद पौषध-शाला मैं पोषधोपवास करना, भगवान् के पास दीक्षित होने वालों को पुण्यशाली बतलाना और भगवान् के पुनः पधारने पर दीक्षित होने का संकल्प करना / यह सब सुबाहुकुमार व वरदत्त कुमार दोनों के जीवन में समान ही है / तदनन्तर दीक्षित होकर संयमव्रत का Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] [विपाकसूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध पालन करते हुए मनुष्य-भव से देवलोक और देवलोक से मनुष्यभव, देवलोकों में भी बीच-बीच के एक एक देवलोक को छोड़कर सुबाहु के समान ही गमनागमन करते हुए अन्त में सुबाहुकुमार की ही तरह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर, वहाँ पर चारित्र की सम्यक् आराधना से कर्मरहित होकर मोक्षगमन भी समान ही समझना चाहिये। __ वरदत्त कुमार का जीव स्वर्गीय तथा मानवीय, अनेक भवों को धारण करता हुआ अन्त में सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न होगा, वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो, दृढ़प्रतिज्ञ की तरह सिद्धगति को प्राप्त करेगा। हे जम्बू ! इस प्रकार यावत् मोक्षसम्प्रात श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने सुखविपाक के दशम अध्ययन का अर्थ प्रतिपादन किया है, ऐसा मैं कहता हूँ / जम्बू स्वामी-भगवन् ! आपका सुखविपाक का कथन, जैसे कि आपने फरमाया है, वैसा ही है, वैसा ही है। // दशम अध्ययन समाप्त / / / / सुखविपाक समाप्त // / / विपाकश्रुत समाप्त / / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट विशिष्ट-शब्द-सूची Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट विशिष्ट-शब्द सूची [प्रस्तुत परिशिष्ट में उन्हीं शब्दों को संगृहीत किया गया है, जो बहु प्रचलित नहीं हैं। प्रत्येक पृष्ठ के सामने वह पृष्ठाङ्क अंकित किया गया है, जिस पृष्ठ पर उस शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत संस्करण अर्थ-सहित है ही, अतएव शब्दों का अर्थ सामने लिखित पृष्ठ पर देखा जा सकता है / ग्रन्थ में एक-एक शब्द अनेकानेक स्थलों पर प्रयुक्त हुआ है, किन्तु यहाँ उन सब स्थलों का उल्लेख करना आवश्यक न समझ कर केवल एक स्थल का ही उल्लेख किया गया है / ] 9 अइपडाग अकन्त अकारण अक्खयनिहि अगड अग्गिन अग्गिप्पयोग अच्छि अज्झत्थिन अज्झवसाण अझोववन्न अट्ट अट्ठमभत्त अट्ठमी अठि अड्ढ अणगारिया अणसण अणहारम अणाह अणि ? अणुपुव्वेणं प्रणमग्गजाय अलग्ग 60 अणुवासणा 20 अणोहट्टिय 18 अण्डयवाणियय 85 अतुरियं अत्तम अत्ताण अत्थ अथव्वणवेय अथाम 37 अदूरसामंत 37 अदंडिमकुदंडिम 20 अधम्मिए 124 अरिमं 124 अधाण 106 अन्तर 26 अन्तरा अन्तेउर 127 अन्तेवासी अन्धारूव अप्पसो 20 अप्पिय अबी 13 अब्भङ्ग 12 अभितरप्पवह MONYour M N MXN X Wor me 00000GR0G GAS COMKOM 24 73 ا ر Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [विपाकसूत्र पावसह 22 अासत्थ पासीवण आसुरुत्त आहेवच्च इङ्गाल 6 rrrrr 099 9 22 126 124 अभडप्पवेस अभिक्खणं अभिभूय अमणाम अमणुण्ण अम्मधाई अयंपुल अरिस अरिसिल्ल अलंकारियकम्म अलंभोगसमत्थ अलिप अवयोडय अवण्हाण अवदू अवद्दहणा अवयासावित्र अवरत्त अवाण अवेला असयंवस असि अंसागय अहापडिरूव अहिमड पाउर प्रागय प्रागर प्राणत्तिया आभिप्रोगिय आमलरसिय आयङ्क प्रायव प्रारसिय पालीविय 122 74 124 21 107 12 इन्दमह उक्कर 76 उक्कुरुडिया उक्कोडा उग्गह 74 उच्चार उच्छंग उण्ड 74 उत्तरकंचुइज्ज 16 उत्तरासंग उत्ताणय उद्दिट्ठ उपप्पयाण उप्पत्तिया उप्फेण उप्फेणियं उम्माण उरग उरपरिसप्प उरंउरेणं उज्वट्ट उस्सुक्क 125 एगठ्ठिया 36 एगसाडिय 61 एणेज्ज 18 एयकम्म 63 एयप्पहाण 33 एयविज्ज 101 एयसमायार 85 एल YO2WXY on rurrr .. 121 17 पालोय Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ] [143 ourn 28 कवि 31 कवोय 31 कसा 74 काई 84 कागणी 14 कायतिगिच्छा 0 . काल mov X ओचल प्रोमन्थिय ओलुग्ग प्रो(उ)ल्ल प्रोवाइय प्रोवील प्रोसह पोसारिय ककुह कक्ख कक्खडिय कच्छव कच्छुल्ल कट्ठसगडिया कडगसक्कर (रा) कणङ्गर कण्ड कण्ण कण्णीरह कन्दू (न्दु) कप्पडिअ कप्पणी कप्पाय कब्बड कम्बल कम्मिया 46 कालुणवडिया कास कासिल्ल 28 किच्चा 24 किडिकिडियाभूयं किमि 14 किसुय N 76 कुक्कुडी )" m कुच्छि 18 कुच्छिसूल कुडङ्ग कुडुम्बजागरिया कुण्डी कुद्दालिया कुन्त 42 कुमार 125 कुमारभिच्च 31 कुविय 94 कुहाड 17 कुहिय 104 कूडग्गाह 72 कूडपास 82 कूडागारसाला 71 कोउय 72 कोट्टिल्ल कोड बिय 28 कोढिय 64 कोप्पर 44 कोलंब or09 50 5 Y x x x x x x 9 करण करपत्त करोडिय कलकल कलम्बचीरपत्त कल्लाकल्लिं कवन कवलग्गाह कवल्ली or Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [विषाकसूत्र कोवघर 44 127 खक्खरग खण्डपट्ट खण्डपडहअ खण्डी खत्तिय खलीणमट्टिया खलुग्र खहयर खार खुज्जा खुत्तो खुर 28 चउक्क 42 चउत्थ 28 चउप्पूड चउसछि चच्चर 24 चडगर चण्ड 10 चन्दसूरपासणिया 71 चम्म 102 चाउद्दसो चाउरंगिणी 72 चिच्चीसद्द 125 चुण्ण चुल्लपिया चुल्लपिया माउया 57 चेलुक्खेव 72 124 52 24 खेड गढिय गणिम गणिया गण्ठिभेय गल गल गामेल्लग गाय गावी EK U Wav1 42 चोक्खे Mmm WWor mr mU9 N छछ छक्खमण छडछडस्स छल्ली छागलिन छिद्द गिद्ध गिलाण 0 0 0MMMMMG.GWWWGK GK 10 0 09 wors 019 wor u94b55 WWW Now छिपतर गीवा ভা गडिय गुण्डिय गुलिया गेवेज्ज गोहिल्ल गोण गोमण्डव गोहा घम्मपक्क छिया छेप्पा जउणा जंगोल जण्णु (न्नु) पायवडियं जमगसमग 40 जम्पिय जम्भा जम्मपक्क जलयर 61 जाइ owNY MUw Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [145 जाई जाणय जाणयपुत्त जाणवया जाण जामाउय जायनिन्दुया जाल जीवग्गाह जीविय (विप्पजड) 31 तुप्पिय 18 तेगिच्छियपुत्त तेगिच्छिी 46 तोण थण थलयर थासग थिमिय थिविथिविय 108 थेर दगधारा दण्ड 51 दडभतिण दब्भसंथारग 661 34 m woro Moor me mmW 121 जुगल 124 122 दस 62 46 14 जूय जह जोणिसूल झय झिल्लिरी टिटिभी ठाणिज्ज ठिइवडिया डम्भण तउ तच्छण तडी तन्ती तप्पणा तयप्पिय तया तलवर तल्लेस्स तवन तवूर (री) तहारूव तित्तिर 62 दह दामा 103 दाय 47 दार (ग) दालिम दिवस 14 दिसालोय 24 दीह 16 दुष्पडिक्कन्त दुप्पडियाणंद 106 दुप्पहंस 17 दुवार 37 दुहट्ट 60 देज्ज (दिज्ज) 21 देवदुन्दुभि 127 देवी 82 दोउयरिय 103 दोहमुख 68 दोहल 104 धमणि 08 or orx 199 our or moror.90 04 r or .9 तिन्दूस 125 निवलिया तिहि 22 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [विपाकसूत्र 28 125 0 धरिम धाई धिसरा ध्या नक्क नक्खत्त नत्तुई नत्तय नत्तयावई नय नयर निक्कण निक्किट्ठ निक्खमणाभिसेय निगम निगर निच्चे? निच्छूढ निण्हवण नित्थाण निद्धण निप्पाण नियत्थ नियल 35 पञ्चाणुव्व इयं पञ्चामेल पट्टग 43 पडाग पडिजागर 104 पडियाइक्खिय पत्थियपिडग 43 पन्थकोट्ट 43 पन्नगभूम पभू 125 पमाण 42 पम्हल 46 पया 126 परमाउय परसु 72 107 परिणामिया परित्तीका परियारग पसन्ना 42 पसय 108 पह 60 पहकर 72 पहरण पाउब्भय पागार 125 108 परिचत्त WW. 122 0 59 11 28 निरूह निविण्ण नीहरण पाडए नेरइय नेवत्थाई नेह पक्खर पंगुल पच्चत्थिम पच्छ पच्छणा पञ्चपुल पाणागार 105 पायच्छित्त पायण्डुय पायरास पायवडिय पायवीढ 72 पारणय 16 पारदारिय 62 पारिच्छेज्ज 9 or mro Wrowser Yo mous onr WWW ANGHWA Kw cWImxm. 1 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट] [147 पासाय पाहुड पिउसिया पिउस्सियपई पिप्पल पुडपाक पुण्णमासिणी पुष्फ पुरस्थिम पुरापोराण पुव्वरत्त K.ती GR.KWMW20 MG पथ For More our Kordx 48 भेज्ज (भिज्ज) 46 भेय भेसज्ज 43 मग्गइन 72 मङ्गल मच्छखल 124 मच्छन्ध मच्छन्धल मच्छबंधिय मच्छिय मज्ज मडंब मन्त मयकिच्च 24 मयूरी 35 महिं महाणसिन 67 महापह महापिउय महामाउया महिट्ठ 107 महिस 44 माइ (ई) माउसिया 30 माडंबिय माण मातङ्गकुल मासियाग्रो मारुयपक्क माहण 17 मिसिमिसे पेरन्त पेल्लअ पेल्लिन पोय पोरिसी पंसू फरिहा फलन 6MNSWTrimro mrudd0 "Mr Wr maovw फुल्ल बगी बलियाए बलीवद्द बिल बीभच्छ भज्जण भण्ड भत्त भर भिक्खग भिसिरा भुज्जो भूमिघर भूयविज्जा CINSISI dowW.GAMM.WWst. मुठी मुत्त 24 मुद्दिया मुद्धसूल 82 मुहपोत्तिया Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] [विषाकसूत्र 104 वेगपक्क मुहुत्त मूल वेज्ज 18 मेज्ज WoPK Mor 6 मेर मोग्गर मोडियय यजुम्वेय रयण रव रसायण रसिया रहस्सियं रहस्सोकय रायावयारी रिउव्वेय रिद्ध 35 वेज्जघुत्त वेणइया वेयण सगड सजीव 20 सड्डण 105 सण्डास 82 सणाह सण्डपट्ट (खंडपट्ट) सह सत्तसिक्खावइयं सत्थकोस सत्थप्पयोग 17 सत्थवाह 82 सद्द 0 mm 99 Fro590 Www m 84 107 82 . or ord or GAM रोगिय 54 सहि wr or SY . 0G रोझ लउड लक्खणं लट्ठी लल्लरि लहुहत्थ लंछपोस लाला लावण लेस्सा लोमहत्थ लोमखील विद्दी विरेयण विवर विसप्पओग विसल्लकरण विसिरा विस्सम्भ 72 सन्तिहोम 26 समजोइभूय समण समणोवास 82 समय 17 समाहिपत्त 76 समुदाणिय 82 समुल्लालिय सयसहस्स 85 सयर सयंरज्जसुक्का सरीसव सलाहणिज्ज सल्लहत्त सल्लुद्धरण ससय 62 सहजायए 73 सहपंसुकीलिय 24 103 000 67 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट {149 31 9 mmmmm 107 125 113 सह्वड्ढिय सहस्सलंभा संकल संकोडिय संडासम संनिवेश संपत्ती संपलग्ग संबाह संलेहणा साउणिय साडणा साम सालाग सावएज्ज सास सासिल्ल सिणेहपाण सिरावेह सिरोवत्थी सिलिया सिवहत्थ सिंघ सिंघाडग सीय 105 67 सीहु 26 सुइ 72 सुक्क 74 सुण्हा 107 सुत्तबन्धण 125 सुद्द 32 सुय 68 सुहपसुत्त सूयर 127 सेट्ठि सेयणा सयं सेयापी सोणिय सोल्ल हडाहड 76 हडी 16 हत्थण्डुय 16 हत्थनिक्खेव 16 हरिण 16 हरियसाग 82 हवं 56 हियउडडावणा 18 हिल्लिरी 104 71 हेट्ठा 52 हेरंग m 9 mx Mmm 09 सीसग सीसगभम Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० श्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते , तं जहा–उक्कावाते, दिसिदाधे, गज्जिते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्त, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो अोरालिए सरीरगे। --स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहिं सज्झायं करित्तए, तं जहाआसाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तिप्रपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा—पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्त / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पुव्वण्हे, अवरण्हे, पनोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं। जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे-- आकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन--यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3-4. गजित-विद्य त--गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है / अतः आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्धात–बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अत: आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 8. धूमिका कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है / जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डी मांस और रुधिर-पंचेद्रिय तिर्यंच की हड्डी मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है / वृत्तिकार आस पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि –मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान–श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। - 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ,मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्र पुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय न करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-पाषाढपूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमानों के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 26-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि प्रात: सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1, श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, ब्यावर 2. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 2. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 3. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर 3. श्री ज्ञानराजजी मूथा, पाली 4. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 4. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 5. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 5. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 6. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी 6. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा७. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर टोला 8. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 7. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, 6. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, ब्यावर सिकन्दराबाद 8. शी प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेडता 10. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 11. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास बागलकोट 12. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (K.G. _____F.) एवं जाड़न स्तम्भ 11. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तालेरा, पाली 12. श्री नेमीचंदली मोहनलालजी ललवाणी, 1. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर चांगाटोला 2. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 13. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तालेरा, पाली 3. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा,बालाघाट 14. श्री सिरेकवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचंद 4. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी जी झामड़, मदुरान्तकम 5. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास 15. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर 6. श्री हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 16. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 7. श्री वर्धमान इन्डस्ट्रीज, कानपुर 17. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 8. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 18. श्री भेरुदानजी लाभचंदजी सराणा. धोबडी 9. श्री एस. रिखबचन्दजी चोरड़िया, मद्रास तथा नागौर 10. श्री प्रार. परसनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 19. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 11. श्री अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास बालाघाट 12. श्री दीपचन्दजी बोकडिया, मद्रास 20. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 13. श्री मिश्रीलालजी तिलोकचन्दजी संचेती, दुर्ग 21. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 ] [ सदस्य-नामावली 22. श्री मोहनराजजी बालिया, अहमदाबाद 7. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 23. श्री चेनमलजी सुराणा, मद्रास 8. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 24. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, नागौर 6. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 25. श्री बादलचंदजी मेहता, इन्दौर 10. श्री के. पुखराजजी बाफना, मद्रास 26. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 11. शी पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 27. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 12. श्री चम्पालालजी बुधराजजो बाफणा, ब्यावर 28. श्री इन्दरचंदजी बैद, राजनांदगांव 13. श्री नथमलजी मोहनलाल लणिया, चण्डावल 26. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा- 14. थ, मांगीलाल प्रकाशचन्दजी रुणवाल, वर टोला 15. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 30. श्री भंवरलालजी मूलचंदजी सुराणा मद्रास 16. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 31. श्री सिद्धकरणजी शिखर चन्दजी बैद, चांगाटोला कुशालपुरा 32. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 17. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 33. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास कुशालपुरा 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चोपड़ा, अजमेर 18. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पालो 35. श्री घेवरचंदजी पुखराज जी, गोहाटी 16. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 36. श्री मांगीलालजी चोरडिया, आगरा 20. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 21. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी. मेडतासिटी 38. श्री गुणचंदजी दल्लीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 22. श्री माणकराजजी किशनराजजी, मेडतासिटी 36. श्री अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 23. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 40. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा मेडतासिटी 41. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, 24. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम बैंगलोर 25. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 42. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास विल्लीपुरम् 43. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 26. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 44. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कुप्पल 27. श्री हरकराजजी मेहता, जोधपुर 46. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 28. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 26. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर सहयोगी सदस्य 30. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 1. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 31. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 2, श्री अमरचंदजी बालचंदजी मोदी, ब्यावर जोधपुर 3. श्री चम्पालालजी मीठालालजी सकलेचा, 32. श्री मोहनलालजी चम्पालाल गोठी, जोधपुर जालना 33. श्री जसराजजी जंवरीलाल धारीवाल, जोधपुर 4. श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 5. श्री भंवरलालजी चोपड़ा, ब्यावर 35. श्री पासुमल एण्ड कं०, जोधपुर 6. श्री रतनलालजी चतर, ब्यावर 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 6 6 6 6 1 सदस्य-नामावली] [155 37. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर 68. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुलि 38. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 66. श्री प्रेमराजजी मिट्ठालालजी कामदार, जोधपुर चांवडिया 36. श्री बच्छराजजी सू 70. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 40. श्री ताराचंदजी केबलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 71. श्री भंवरलालजी नवरतनमलजी सांखला, 41. श्री मिश्रीलालजी लिखमीचंदजी साँड, जोधपुर मेट्टपालियम 42. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 72. श्री सूरजकरणजी सुराणा, लाम्बा 43. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 73. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 44. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 74. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 45. श्री सरदारमल एन्ड कं., जोधपुर 75. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर 46. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 76. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री नेमीचंदजी डाकलिया, जोधपुर 77. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 48. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 78. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 46. श्री मुन्नीलालजी, मूलचंदजी, पुखराजजी 76. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता गुलेच्छा, जोधपुर 80. श्री बालचंदजी थानमलजी भुरट (कुचेरा), 50. श्री सुन्दरबाई गोठी, महामन्दिर कलकत्ता 51. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा 81. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 52. श्री पुखराजजी लोढ़ा, महामंदिर 82. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 53. श्री इन्द्रचन्दजी मुकन्दचन्दजी, इन्दौर 83. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 54. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 54. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरड़िया भैरुद 55. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 85. श्री मांगीलालजी मदनलालजी, चोरड़िया भैरुद 56. श्री भीकचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 86. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता धूलिया सिटी 57. श्री सुगनचंदजी संचेती, राजनांदगाँव 87. श्री भीवराजजी बागमार, कुचेरा 58. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गोलेच्छा, राज- 88. श्री गंगारामजी इन्दरचंदजी बोहरा, कुचेरा नांदगाँव 86. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 56. श्री धीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग कुचेरा 60. श्री प्रासकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 60. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 61. श्री प्रोखचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 61. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर (भरतपुर) 62. श्री भंवरलालजी मूथा, जयपुर 12. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 63. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 63. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन 64. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 14 श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना. गोठन भिलाई नं. 3 65. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंबरीलालजी 65. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई नं. 3 कोठारी, गोठन 66. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई नं. 3 66. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 67. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी, भिलाई नं. 3 67. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया or r Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] [ सदस्य-नामावली 18. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 114. श्री कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास दल्ली-राजहरा 115. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 66. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 116. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बुलारम 117. श्री माँगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर - 100. श्री फतेराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 118. श्री इन्दरचंदजी जुगराजजी बाफणा, बैंगलोर 101. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी 116. श्री चम्पालालजी माणकचंदजी सिंधी, कुचेरा 102. श्री जुगराजजी बरमेचा, मद्रास 120. श्री संचालालजी बाफना, औरंगाबाद 103. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, 121. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता बुलारम सिटी 104. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, नागौर 122. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, 105. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास सिकन्दराबाद 106. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भण्डारी, 123. श्रीमती रामकुवर धर्मपत्नी श्रीचांदमलजी . बैंगलोर लोढ़ा, बम्बई 107. श्री रामप्रसन्न ज्ञान प्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 124. श्री भीकमचन्दजी मारणकचन्दजी खाबिया, 108. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास (कुडालोर), मद्रास 106. श्री अमरचंदजी चम्पालालजी छाजेड़, पादु 125. श्री जीतमलजी भंडारी, कलकत्ता बडी 126. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 110. श्री माँगीलालजी शांतिलालजी रुणवाल, 127. श्री. टी. पारसमलजी चोरडिया, मद्रास हरसोलाव 127. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 111. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 128, श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, पारसमलजी ललवाणी, गोठन सिकन्दराबाद 112. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 126. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, कुचेरा बिलाड़ा 113. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 130. श्री वर्द्ध मान स्था. जैन श्रावक संघ बगड़ीनगर Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________