________________ कर्म तभी संबद्ध होता है जब मन, वचन, काय की प्रवृत्ति हो / इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चल रही है / कर्म और प्रवृत्ति के कार्य और कारण भाव को लक्ष्य में रखते हुए पुद्गल परमाणुगों के पिण्डरूप कर्म को द्रव्यकर्म कहा है और राग-द्वेषादिरूप प्रवत्तियों को भावकर्म कहा है।५६ इस तरह कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हए-द्रव्यकर्म और भावकम / द्रव्यकम के होने में भावकर्म और भावकम के होने में द्रव्यकर्म कारण है। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है, इसी प्रकार द्रव्यकर्म से भावकम और भावकर्म से द्रव्यकर्म का सिलसिला भी अनादि है।५७ / / कर्म के कर्तृत्व और भोक्तुत्व पर चिन्तन करते समय संसारी श्रात्मा और मुक्त आत्मा का अन्तर स्मरण रखना चाहिए। कम के कर्तृत्व और भोक्तत्व का सम्बन्ध संसारी प्रात्मा से है, मुक्त आत्मा से नहीं। संसारी आत्मा कर्मों से बंधा है। उसमें चैतन्य और जड़त्व का मिश्रण है / मुक्त आत्मा कर्मों से रहित होता है, उसमें विशुद्ध चैतन्य ही होता है / बद्ध प्रात्मा की मानसिक वाचिक और कायिक प्रवृत्ति के कारण जो पुद्गल-परमाणु आकृष्ट होकर परस्पर एक दूसरे के साथ मिल जाते हैं, नीरक्षीरवत् एक हो जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं / इस तरह कर्म भी जड़ और चेतन का मिश्रण है। प्रश्न हो सकता है कि संसारी आत्मा भी जड़ और चेतन का मिश्रण है और कर्म में भी वही बात है। तब दोनों में अन्तर क्या है ? उत्तर है कि संसारी आत्मा का चेतन अंश जीव कहलाता है और जड़ अंश कर्म कहलाता है। ये चेतन और जड़ अंश इस प्रकार के नहीं है जिनका संसार-अवस्था में अलग-अलग रूप से अनुभव किया जा सके / इनका पृथक्करण मुक्तावस्था में ही होता है / संसारी आत्मा सदैव कर्म युक्त ही होता है / जब वह कर्म से मुक्त हो जाता है तब वह मुक्त प्रात्मा कहलाता है। कर्म जब आत्मा से पृथक हो जाता है तब वह कर्म नहीं पूदगल कहलाता है / आत्मा से सम्बद्ध पुद्गल द्रव्यकर्म है और द्रव्यकर्म युक्त आत्मा की प्रवृत्ति भावकम है। गहराई से चिन्तन करने पर प्रात्मा और पुद्गल के तीन रूप होते हैं-(१) शुद्ध आत्मा-जो मुक्तावस्था में है / (2) शुद्ध पुद्गल (3) आत्मा और पुद्गल का सम्मिश्रण-जो संसारी आत्मा में है। कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का सम्बन्ध प्रात्मा और पुद्गल की सम्मिश्रण-अवस्था में है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध सहज जिज्ञासा हो सकती है कि अमूर्त आत्मा मूर्त कर्म के साथ किस प्रकार सम्बद्ध हो सकता है ? समाधान है कि प्रायः सभी आस्तिक दर्शनों ने संसार और जीवात्मा को अनादि माना है। अनादिकाल से वह कर्मों से बंधा हुया और विकारी है। कर्म बद्ध आत्माएँ कथंचित् मूर्त होती हैं। दूसरों शब्दों में कहें तो स्वरूप से अमूर्त होने पर भी संसार-दशा में मूर्त होती है / जो आत्मा पूर्ण रूप से कम मुक्त हो जाता है उसको कभी भी कर्म का बंधन नहीं होता। अतः आत्मा और कर्म का सम्बन्ध मूर्त का मूर्त के साथ होने वाला सबंध है। दोनों का अनादिकालीन सम्बन्ध चला आ रहा है / 56. कर्मप्रकृति-नेमिचन्दाचार्य विरचित 6 57. देखिए धर्म और दर्शन, पृ. 42 देवेन्द्रमुनि शास्त्री [ 24 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org