________________ जैन दर्शन में कर्म का स्वरूप अन्य दर्शनकार कर्म को जहाँ संस्कार या वासना रूप मानते हैं वहाँ जैन दर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि जिस वस्तु का जो गुण होता है वह उसका विधातक नहीं होता। आत्मा का गुण उसके लिए आवरण, पारतन्त्र्य और दु:ख का हेतु नहीं हो सकता। कर्म आत्मा के प्रावरण, पारतन्त्र्य और दुःखों का कारण है, गुणों का विघातक है, अत: वह आत्मा का गुण नहीं हो सकता। ___ बेड़ी से मानव बंधता है, मदिरापान से पागल होता है और क्लोरोफार्म से बेभान / ये सभी पोद्गलिक वस्तुएं हैं / ठीक इसी तरह कर्म के संयोग से आत्मा की भी ये दशाएं होती हैं, अतः कर्म भी पौद्गलिक है / बेड़ी आदि का बंधन बाहरी है, अल्प सामर्थ्य वाला है किन्तु कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए हैं, अधिक सामर्थ्य वाले सूक्ष्म स्कन्ध हैं, एतदर्थ ही बेड़ी आदि की अपेक्षा कर्म-परमाणुओं का जीवात्मा पर बहुत गहरा और आन्तरिक प्रभाव पड़ता है / जो पुद्गल-परमाणु कर्म रूप में परिणत होते हैं उन्हें कर्मवर्गणा कहते हैं और जो शरीररूप में परिणत होते हैं उन्हें नोकर्म-वर्गणा कहते हैं / लोक इन दोनों प्रकार के परमाणुओं से पूर्ण है। शरीर पौद्गलिक है, उसका कारण कर्म है, अतः वह भी पौद्गलिक है / पौद्गलिक कार्य का समवायी कारण पौद्गलिक है। मिट्टी आदि भौतिक है और उससे निर्मित होने वाला पदार्थ भी भौतिक ही होगा। अनुकूल आहार आदि से सुख की अनुभूति होती है और शस्त्रादि के प्रहार से दुःखानुभूति होती है / आहार और शस्त्र जैसे पौद्गलिक हैं वैसे ही सुख-दुःख के प्रदाता कम भी पौद्गलिक हैं। बंध की दृष्टि से जीव और पुद्गल दोनों एकमेक हैं पर लक्षण की दृष्टि से दोनों पृथक्पृथक् हैं / जीव अमूर्त व चेतना युक्त है जबकि पुद्गल मूर्त और अचेतन है। इन्द्रियों के विषय-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द ये मूर्त हैं और उनका उपयोग करने वाली इन्द्रियां भी मूर्त हैं। उनसे उत्पन्न होने वाला सुख दुःख भी मूर्त है, अतः उनके कारणभूत कर्म भी मूर्त हैं / 54 मूर्त ही मूर्त से बंधता है। अमूर्त जीव मूर्त कर्मों को अवकाश देता है / वह उन कर्मों से अवकाश रूप हो जाता है / 55 _जैन दर्शन में कर्म शब्द क्रिया का वाचक नहीं रहा है। उसके मन्तव्यानुसार वह आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक पदार्थ का वाचक है। जीव अपने मन वचन और काय की प्रवृत्तियों से कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है। मन, वचन और काय की प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म सम्बद्ध हो / जीव के साथ 54. जम्हा कम्मरस फलं विसयं फासेहिं भुजदे णिययं / जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि"॥ 55. पंचास्तिकाय 142 —पंचास्तिकाय 141 [ 23 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org