________________ का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं मानता है। इसलिए कर्म और उसके द्वारा होने वाले पुनर्भव, परलोक आदि को भी वह नहीं मानता है / 46 न्यायदर्शन के अभिमतानुसार राग, द्वेष और मोह इन तीन दोषों से प्रेरणा संप्राप्त कर जीवों में मन, वचन और काय को प्रवृत्तियाँ होती हैं और उससे धर्म और अधर्म की उत्पत्ति होती है / ये धर्म और अधर्म संस्कार कहलाते हैं / 40 वैशेषिकदर्शन में चौबीस गुण माने गये हैं उनमें एक अदृष्ट भी है। यह गुण संस्कार से पृथक है और धर्म-अधर्म ये दोनों उसके भेद हैं / 48 इस तरह न्यायदर्शन में धर्म, अधर्म का समावेश संस्कार में किया गया है। उन्हीं धर्म-अधर्म को वैशेषिकदर्शन में अदष्ट के अन्तर्गत लिया गया है। राग प्रादि दोषों से संस्कार होता है, संस्कार से जन्म, जन्म से राग आदि दोष और उन दोषों से पुन: संस्कार उत्पन्न होते हैं / इस तरह जीवों की संसार परम्परा बीजांकुरवत् अनादि है। सांख्य-योगदर्शन अभिमतानुसार अविद्या अस्मिता, राग, द्वष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों से क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है / प्रस्तुत क्लिष्टवृत्ति से धर्माधर्म रूपी संस्कार पैदा होता है। संस्कार को इस वर्णन में बीजांकुरवत् अनादि माना है / मीमांसादर्शन का अभिमत है कि मानव द्वारा किया जाने वाला यज्ञ आदि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करता है और वह अपूर्व ही सभी कर्मों का फल देता है / दूसरे शब्दों में कहें तो वेद द्वारा प्ररूपित कर्म से उत्पन्न होने वाली योग्यता या शक्ति का नाम अपूर्व है / वहाँ पर अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य को अपूर्व नहीं कहा है / वेदान्तदर्शन का मन्तव्य है कि अनादि अविद्या या माया ही विश्ववैचित्र्य का कारण है।' ईश्वर स्वयं मायाजन्य है / वह कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है इसलिए फलप्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है / 52 बौद्धदर्शन का अभिमत है कि मनोजन्य संस्कार वासना है और वचन और कायजन्य संस्कार अविज्ञप्ति है / लोभ द्वेष और मोह से कर्मों की उत्पत्ति होती है / लोभ, द्वेष और मोह से भी प्राणी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ करता है और उससे पुनः लोभ, द्वेष और मोह पैदा करता है इस तरह अनादि काल से यह संसार चक्र चल रहा है / 53 46. (क) जैनधर्म और दर्शन प्र. 443 (ख) कर्मविपाक के हिन्दी अनुवाद को प्रस्तावना, पं. सुख लालजी पृ. 23 47. न्यायभाष्य 16122 आदि 46. प्रशस्तपादभाष्य पृ. ४७----(चौखम्बा संस्कृत सिरीज, बनारस 1930 49. योगदर्शन भाष्य 115 आदि 50. (क) शाबरभाष्य 2 / 115 (ख) तंत्रवार्तिक 21115 आदि 51. शांकर भाष्य 2114 52. शांकर भाष्य 312138.41 53. (क) अंगुसरनिकाय 3 / 33 / 1 (ख) संयुक्तनिकाय 15 // 5 // 6 [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org