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________________ कर्म का अर्थ कर्म का शाब्दिक अर्थ कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया है / जो कुछ भी किया जाता है वह कर्म है / सोना, बैठना, खाना, पीना आदि / जीवन व्यवहार में जो कुछ भी कार्य किया जाता वह कर्म कहलाता है। व्याकरणशास्त्र के कर्ता 'पाणिनि' ने कर्म की व्याख्या करते हुए कहा--जो कर्ता के लिए अत्यन्त इष्ट हो वह कर्म है।४१ मीमांसादर्शन ने क्रिया-काण्ड को या यज्ञ आदि अनुष्ठान को कर्म कहा है / वैशेषिकदर्शन में कर्म की परिभाषा इस प्रकार है-जो एक द्रव्य में समवाय से रहता हो, जिसमें कोई गुण न हो, और जो संयोग या विभाग में कारणान्तर की अपेक्षा न करे / 42 सांख्य दर्शन में संस्कार के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग मिलता है / 43 गीता में कर्मशीलता को कर्म कहा है।४४ न्यायशास्त्र में उत्क्षेपण, अपक्षेपण पाकचन प्रसारण, तथा गमनरूप पांच प्रकार की क्रियाओं के लिए कर्म शब्द व्यवहृत हुआ है। स्मार्त-विद्वान् चार वर्णों और चार पाश्रमों के कर्तव्यों को कर्म की संज्ञा प्रदान करते हैं। पौराणिक लोग-व्रत-नियम आदि धामिक क्रियाओं को कर्मरूप कहते हैं / बौद्ध दर्शन जीवों की विचित्रता के कारण को कर्म कहते हैं जो वासना रूप है / जैन-परम्परा में कर्म दो प्रकार का माना गया है-भावकर्म और द्रव्यकर्म। राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात् कषाय भाव कर्मक ता है। कार्मण जाति का पदगल-जडतत्व विशेष, जो कषाय के कारण प्रात्मा के साथ मिल जाता है द्रव्यकर्म कहलाता है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है-आत्मा के द्वारा प्राप्त होने से क्रिया को कर्म कहते हैं / उस क्रिया के निमित्त से परिणमन विशेषप्राप्त पुद्गल भी कर्म है।४५ कर्म जो पुद्गल का ही एक विशेष रूप है, अात्मा से भिन्न एक विजातीय तत्त्व है / जब तक आत्मा के साथ इस विजातीय तत्त्व कर्म का संयोग है, तभी तक संसार है और उस संयोग के नाश होने पर प्रात्मा मुक्त हो जाता है। विभिन्न परम्परात्रों में कर्म जैन-परम्परा में जिस अर्थ में 'कर्म' शब्द व्यवहृत हुआ है, उस या उससे मिलते-जुलते अर्थ में भारत के विभिन्न दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, वासना, आशय, धर्माधर्म, अदृष्ट, संस्कार, दैव, भाग्य आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है / वेदान्तदर्शन में माया, अविद्या और प्रकृति शब्दों का प्रयोग हुआ है / मीमांसादर्शन में अपूर्व शब्द प्रयुक्त हुआ है। बौद्धदर्शन में वासना और अविज्ञप्ति शब्दों का प्रयोग दृष्टिगोचर होता है / सांख्यदर्शन में 'प्राशय' शब्द विशेष रूप से मिलता है। न्यायवैशेषिकदर्शन में अदृष्ट संस्कार और धर्माधर्म शब्द विशेष रूप में प्रचलित हैं / दैव, भाग्य, पुण्य, पाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी दर्शनों में हुआ है / भारतीय दर्शनों में एक चार्वाकदर्शन ही ऐसा दर्शन है जिसका कर्मवाद में विश्वास नहीं है। क्योंकि वह आत्मा 41. कतुरीप्सिततमं कर्म / -अष्टाध्यायी 1 / 4 / 79 42. वैशेषिकदर्शनभाष्य -1 / 17 पृ. 35 43. सांख्यतत्त्वकौमुदी 67 44. योगः कर्मसु कौशलम् 45. प्रवचनसार टीका 2025 [21] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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