________________ को उत्पन्न करता है। इस तरह संसार चक्र निरन्तर चलता रहता है / 32 जिस चक्र का न आदि है, न अन्त है किन्तु अनादि हैं / 33 एक बार राजा मिलिन्द ने प्राचार्य नागसेन से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि जीव द्वारा किये गये कर्मों की स्थिति कहाँ है ? समाधान करते हुए प्राचार्य ने कहा-वह दिखलाया नहीं जा सकता कि कर्म कहाँ रहते हैं / 34 विसुद्धिमग्ग में कर्म को अरूपी कहा है।३५ अभिधर्म कोष में उस प्रविज्ञप्ति को रूप कहा है / 36 यह रूप सप्रतिद्य न होकर अप्रतिद्य है / 37 सौत्रान्तिक मत की दृष्टि से कर्म का समावेश अरूप में है, वे अविज्ञप्ति को नहीं मानते हैं / बौद्धों ने कर्म को सूक्ष्म माना है / मन वचन, और काया की जो प्रवृत्ति है वह कर्म कहलाती है पर वह विज्ञप्ति रूप है, प्रत्यक्ष है। यहां पर कर्म का तात्पर्य मात्र प्रत्यक्ष प्रवृत्ति नहीं किन्तु प्रत्यक्ष कर्मजन्य संस्कार है। बौद्ध परिभाषा में इसे वासना और अविज्ञप्ति कहा है। मानसिक क्रियाजन्य संस्कार-कर्म को वासना कहा है और वचन एवं कायजन्य संस्कार-कर्म को अविज्ञप्ति कहा है / 36 विज्ञानवादी बौद्ध कर्म को 'वाचना' शब्द से पुकारते हैं। प्रज्ञाकर का अभिमत है कि जितने भी कार्य हैं वे सभी वासनाजन्य हैं। ईश्वर हो या कर्म (क्रिया) प्रधान प्रकृति हो या अन्य कुछ इन सभी का मूल वासना है। ईश्वर को न्यायाधीश मानकर यदि विश्व की विचित्रता की उपपत्ति की जाए तो भी वासना को माने बिना कार्य नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में कहें तो ईश्वर प्रधान कर्म इन सभी सरिताओं का प्रवाह वासना समुद्र में मिलकर एक हो जाता है।४° शून्यवादी मत के मन्तव्य के अनुसार अनादि अविद्या का अपर नाम ही वासना है। विलक्षण-वर्णन ___ जैन-साहित्य में कर्मवाद के सम्बन्ध में पर्याप्त विश्लेषण किया गया है। जैन दर्शन में प्रतिपादित कर्म-व्यवस्था का जो वैज्ञानिक रूप है उसका किसी भी भारतीय परम्परा में दर्शन नहीं होता। जैन परम्परा इस दृष्टि से सर्वथा विलक्षण है। आगम साहित्य से लेकर वर्तमान साहित्य में कर्मवाद का विकास किस प्रकार हुआ है, इस पर पूर्व में ही संक्षेप में लिखा जा चुका है। 32. अंगुत्तरनिकाय तिकनिपात सूत्र 36, 1 पृ. 134 33. संयुक्त निकाय 15 / 5 / 6 भाग 2, पृ. 181-182 34. न सक्का महाराज तानि कम्मानि दस्सेतु इध व एध वा तानि कम्मानि तिद्वन्तीति --मिलिन्द प्रश्न 31155. 75 35. विसुद्धिमग 17 / 110 36. अभिधर्म कोष 119 37. देखिए प्रात्ममीमांसा पृ. 106 38. नौमी अरियंटल कोन्फरंस पृ. 620 39. (क) अभिधर्मकोष चतुर्थ परिच्छेद, (ख) प्रमाणवात्तिकालंकार, 75 40. न्यायावतारवार्तिक वृत्ति की टिपणी प. 177-8 में उधत [20] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org