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________________ कर्मवाद का विश्लेषण एकदम गौण हो गया है / यह सत्य है कि कर्म क्या है, वे किस प्रकार बंधते हैं और किस प्रकार प्राणी उनसे मुक्त होते हैं, आदि जिज्ञासाओं का समाधान वैदिक संहितामों में नहीं है। वहाँ पर मुख्य रूप से, यज्ञकर्म को ही कर्म माना है और कदम-कदम पर देवों से सहायता के लिए याचना की है। जब यज्ञ और देव की अपेक्षा कर्मवाद का महत्त्व अधिक बढ़ने लगा, तब उसके समर्थकों ने उक्त दोनों वादों का कर्मवाद के साथ समन्वय करने का प्रयास किया और यज्ञ से ही समस्त फलों की प्राप्ति स्वीकार की। इस मन्तव्य का दार्शनिक रूप मीमांसा दर्शन है। यज्ञ विषयक विचारणा के साथ देव विषयक विचारणा का भी विकास हुआ। ब्राह्मणकाल में अनेक देवों के स्थान पर एक प्रजापति देव की प्रतिष्ठा हुई / उन्होंने भी कर्म के साथ प्रजापति का समन्वय कर कहा-प्राणी अपने कर्म के अनुसार फल अवश्य प्राप्त करता है परन्तु फल प्राप्ति अपने पाप न होकर प्रजापति के द्वारा होती है। प्रजापति (ईश्वर) जीवों को अपने-अपने कर्म के अनुसार फल प्रदान करता है / वह न्यायाधीश की तरह है। इस विचारधारा का दार्शनिक रूप न्याय वैशेषिक, सेश्वरसांख्य और वेदान्त दर्शन में हया है। यज्ञ आदि अनुष्ठानों को वैदिक परम्परा में कर्म कहा गया है। वे अस्थायी हैं / उसी समय समाप्त हो जाते हैं तो वे किस प्रकार फल प्रदान कर सकते हैं ? इसलिए फल प्रदान करने वाले एक अदृष्ट पदार्थ की कल्पना की गई। उसे मीमांसा दर्शन ने 'अपूर्व' कहा / वैशेषिक दर्शन में 'अदृष्ट' एक गुण माना गया है जिसके धर्म अधर्म रूप ये दो भेद हैं / न्यायदर्शन में धर्म और अधर्म को 'संस्कार' कहा है। अच्छे बुरे कर्मों का प्रात्मा पर संस्कार पड़ता है वह अदृष्ट है / 'अदृष्ट' अात्मा का गुण है। जब तक उसका फल नहीं मिल जाता तब तक वह प्रात्मा के साथ रहता है। उसका फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है / 29 चूकि यदि ईश्वर कर्मफल की व्यवस्था न करे तो कर्म निष्फल हो जाएं। सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार कहते हैं / 30 श्रेष्ठ और कनिष्ठ प्रवृत्तियों का प्रकृति पर संस्कार पड़ता है। उस प्रकृतिगत संस्कार से ही कर्मों के फल प्राप्त होते हैं। इस प्रकार वैदिक परम्परा में कर्मवाद का विकास हुआ है। बौद्ध दर्शन में कर्म बौद्ध और जैन ये दोनों कर्म-प्रधान श्रमण-संस्कृति की धाराएं हैं / बौद्ध-परम्परा ने भी कर्म की अदृष्ट शक्ति पर चिन्तन किया है। उसका अभिमत है कि जीवों में जो विचित्रता दृष्टिगोचर होती है वह कर्मकृत है।' लोभ (राग) द्वेष और मोह से कर्म की उत्पत्ति होती है / राग-द्वेष और मोहयुक्त होकर प्राणी सत्व, मन, वचन और काय की प्रवृत्तियां करता है और राग-द्वेष और मोह 29. ईश्वरः कारणं पुरुषकर्मफलस्य दर्शनात् / न्यायसूत्र 401 30. अन्तःकरणधर्मत्वं धर्मादीनाम् / -सांख्यसूत्र श२५ 31. (क) भासितं पेतं महाराज भगवता-कम्मस्सका मागव सत्ता कम्मदायादा, कम्मयोनी, कम्मबन्धू कम्मपटिसरणा, कम्म सते विभजति यदिदं हीनपणीततायाति / -मिलिन्द प्रश्न 312 (ख) कमंजं लोकवैचित्यं ---प्रभिधर्म कोष 4.1 [ 19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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