________________ की परिधि में ही विकसित हुआ। पहले विविध देवों की कल्पना की गई और उसके पश्चात् एक देव की महत्ता स्थापित की गई। जीवन में सुख और वैभव की उपलब्धि हो, शत्रु पराजित हों, अतः देवों की प्रार्थनाएँ की गई और सजीव व निर्जीव पदार्थों की आहुतियाँ दी गई। यज्ञ कर्म का शनैः शनैः विकास हुआ। इस प्रकार यह विचारधारा संहिताकाल से लेकर ब्राह्मणकाल तक क्रमशः विकसित हुई।२७ आरण्यक और उपनिषद् युग में देववाद व यज्ञवाद का महत्त्व कम होने लगा और ऐसे नये विचार सामने आये जिनका संहिताकाल व ब्राह्मणकाल में अभाव था / उपनिषदों से पूर्व के वैदिकसाहित्य में कर्मविषयक चिन्तन का अभाव है पर अारण्यक व उपनिषदकाल में 'अदष्ट' के ' के रूप कर्म का वर्णन मिलता है। यह सत्य है कि कर्म को विश्व वैचित्र्य का कारण मानने में उपनिषदों का भी एकमत नहीं रहा है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रारम्भ में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष को ही विश्व-वैचित्र्य का कारण माना है, कर्म को नहीं। जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों-संहिता-ग्रन्थों में कर्मवाद या कर्म-गति आदि शब्द भले ही न हों किन्तु उनमें कर्मवाद का उल्लेख अवश्य हुआ है। ऋग्वेद संहिता के निम्न मंत्र इस बात के ज्वलंत प्रमाण हैं ----शुभस्पतिः (शुभ कर्मों के रक्षक), धियस्पतिः (सत्य कर्मों के रक्षक), विचर्षणिः तथा विश्व चर्षणिः (शुभ और अशुभ कर्मों के द्रष्टा) 'विश्वस्थ कर्मणो धर्ता (सभी कर्मों के आधार) आदि पद देवों के विशेषणों के रूप में व्यवहृत हुये हैं। कितने ही मंत्रों से स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि शुभ कर्म करने से अमरत्व की उपलब्धि होती है। कर्मों के अनुसार ही जीव अनेक बार संसार में जन्म लेता है और मरता है। वामदेव ने अनेक पूर्वभवों का वर्णन किया पूर्व जन्म के दुष्कृत्यों से ही लोग पाप कर्म में प्रवत्त होते हैं। आदि उल्लेख वेदों के मंत्रों में हैं / पूर्वजन्म के पापकृत्यों से मुक्त होने के लिए ही मानव देवों को अभ्यर्थना करता है। वेदमंत्रों में संचित और प्रारब्ध कर्मों का भी वर्णन है। साथ ही देवयान और पितयान का वर्णन करते हुये कहा गया है कि श्रेष्ठ-कर्म करने वाले लोग देवयान से ब्रह्मलोक को जाते हैं और साधारण कर्म करने वाले पितयान से चन्द्रलोक में जाते हैं। ऋग्वेद में पूर्वजन्म के निकृष्ट कर्मों के भोग के लिए जीव किस प्रकार वृक्ष, लता आदि स्थावर शरीरों में प्रविष्ट होता है, इसका वर्णन है / 'मा को भुजेमान्यजातमेनो' 'मा वा एनो अन्यकृतं भुजेम' आदि मन्त्रों से यह भी ज्ञात होता है कि एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किये गये कर्मों को भी भोग सकता है और उससे बचने के लिए साधक ने इन मन्त्रों में प्रार्थना की है। मुख्य रूप से जो जीव कर्म करता है वही उसके फल का उपभोग भी करता है पर विशिष्ट शक्ति के प्रभाव से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है / 28 उपर्युक्त दोनों मतों का गहराई से अनुचिन्तन करने पर ऐसा स्पष्ट ज्ञात होता है कि वेदों में कर्म सम्बन्धी मान्यताओं का पूर्ण रूप से अभाव तो नहीं है पर देववाद और यज्ञवाद के प्रभुत्व से 27. (क) आत्ममीमांसा-पृ० 79-80 50 दलसुख मालवणियां (ख) जैन धर्म और दर्शन-पृ० 430, डा. मोहनलाल मेहता 28. (क) भारतीय दर्शन--पृ० 39-41, उमेश मिश्र (ख) जैन धर्म और दर्शन-पृ० 432 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org