________________ है। विश्व-वैचित्र्य का मुख्य कारण कर्म है और काल प्रादि उसके सहकारी कारण हैं। कर्म को प्रधान कारण मानने से जन-जन के मन में आत्मविश्वास और प्रात्मबल पैदा होता है और साथ ही पुरुषार्थ का पोषण होता है। सुख दुःख का प्रधान कारण अन्यत्र न ढूढ कर अपने आप में ढूढना बुद्धिमत्ता है / आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने लिखा है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत कर्म और पुरुषार्थ इन पाँच कारणों में से किसी एक को हो कारण माना जाए और शेष कारणों की उपेक्षा की जाए, यह मिथ्यात्व है। कार्यनिष्पत्ति में काल आदि सभी कारणों का समन्वय किया जाय२४ यह सम्यक्त्व है / इसीका समर्थन प्राचार्य हरिभद्र ने भी किया है / 25 दैव, कर्म, भाग्य और पुरुषार्थ के सम्बन्ध में अनेकान्त दृष्टि रखनी चाहिए। प्राचार्य समन्तभद्र ने लिखा है-बुद्धिपूर्वक कर्म न करने पर भी इष्ट या अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होना दैवाधीन है। बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से इष्टानिष्ट की प्राप्ति होना पुरुषार्थ के अधीन है / कहीं पर देव प्रधान होता है तो कहीं पर पुरुषार्थ / 26 देव और पुरुषार्थ के सही समन्वय से ही अर्थसिद्धि होती है। जैन दर्शन में जड़ और चेतन पदार्थों के नियामक के रूप में ईश्वर या पुरुष की सत्ता नहीं मानी गई है। उसका मन्तव्य है कि ईश्वर या ब्रह्म को जगत् की उत्पत्ति, स्थिति व संहार का कारण या नियामक मानना निरर्थक है। कर्म आदि कारणों से ही प्राणियों के जन्म, जरा और मरण प्रादि की सिद्धि की जा सकती है। अतएव कर्ममूलक विश्व व्यवस्था मानना तर्कसंगत है / कर्म अपने नैसगिक स्वभाव से अपने-आप फल प्रदान करने में समर्थ होता है। कर्मवाद की ऐतिहासिक समीक्षा ऐतिहासिक दष्टि से कर्मवाद पर चिन्तन करने के लिए हमें सर्वप्रथम वेदकालीन कर्म सम्बन्धी विचारों पर ध्यान देना होगा। उपलब्ध साहित्य में वेद सबसे प्राचीन हैं। वैदिक युग के महषियों को कर्म-सम्बन्धी ज्ञात था या नहीं ? इस पर विज्ञों के दो मत हैं। कितने हो विज्ञों का यह मत है कि वेदों-संहिता ग्रन्थों में कर्मवाद का वर्णन नहीं पाया है तो कितने ही विद्वान् कहते हैं कि वेदों के रचयिता ऋषिगण कर्मवाद के ज्ञाता थे। जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों में कर्मवाद की चर्चा नहीं है, उनका कहना है कि वैदिक काल के ऋषियों ने प्राणियों में रहे हुए वैविध्य और वैचित्र्य का अनुभव तो गहराई से किया पर उन्होंने उसके मूल की अन्वेषणा अन्तर में न कर बाह्य जगत् में की / किसी ने कमनीय कल्पना के गगन में विहरण करते हुये कहा-कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एक भौतिक तत्त्व है तो दूसरे ऋषि ने अनेक भौतिक तत्त्वों को सृष्टि को उत्पत्ति का कारण माना / तीसरे ऋषि ने प्रजापति ब्रह्मा को हो सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना। इस तरह वैदिक युग का सम्पूर्ण तत्त्वचिन्तन देव और यज्ञ -सन्मतितर्क प्रकरण 3,53 24. कालो सहाव णियई पुवकम्म पुरिसकारणेगंता / मिच्छत्तं तं चेव उ समासपो हंति सम्मत्त // 25. शास्त्रवार्तासमुच्चय 191-192 26. प्राप्तमीमांसा 88-91 [ 17 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org