________________ (7) उदीरणा-नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है। जैसे समय के पूर्व ही प्रयत्न से आम आदि फल पकाये जाते हैं वैसे ही साधना से प्राबद्ध कर्म का नियत समय से पूर्व भोग कर क्षय किया जा सकता है / सामान्यत: यह नियम है कि जिस कम का उदय होता है उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है। (8) उपशमन-कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशम है / अर्थात् कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं, किन्तु उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण की संभावना हो वह उपशमन है। जैसे अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना जिससे वह अपना कार्य न कर सके। किन्तु जैसे आवरण के हटते ही अंगारे जलाने लगते हैं वैसे ही उपशम भाव के दूर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देना प्रारम्भ कर देते हैं। (6) निधत्ति-जिसमें कर्मों का उदय और संक्रमण न हो सके किन्तु उद्वर्तन-अपवर्तन की संभावना हो वह नित्ति 136 है / यह भी चार प्रकार का है / 137 (1) प्रकृति-निधत्त (1) स्थितिनिधत्त (3) अनुभाव-निधत्त (4) प्रदेश-निधत्त / (10) निकाचित-जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो वह निकाचित है / अर्थात् आत्मा ने जिस रूप में कर्म बांधा है प्रायः उसी रूप में भोगे बिना उसकी निर्जरा नहीं होती / वह भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप में चार प्रकार का है। (11) अबाधाकाल-कर्म बंधने के पश्चात् अमुक समय तक फल न देने की अवस्था का नाम अबाध-अवस्था है / अबाधाकाल को जानने का प्रकार यह है कि जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की है उतने ही सौ वर्ष का उसका अबाधा काल होता है / जैसे ज्ञानावरणीय की स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है तो अबाधाकाल तीस सौ (तीन हजार) वर्ष का है। भगवती में अष्ट कर्म प्रकृतियों का अबाधाकाल बताया है और प्रज्ञापना:४० में उनकी उत्तर-प्रकृतियों का भी अबाधाकाल उल्लिखित है, विशेष जिज्ञासुओं को मूलग्रन्थ देखने चाहिए। जैन कर्म साहित्य में कर्मों की इन अवस्थानों एवं प्रक्रिया का जैसा विश्लेषण है वैसा अन्य दार्शनिकों के साहित्य में दृग्गोचर नहीं होता। हाँ, योगदर्शन में नियत-विपाकी अनियत विपाकी, और आवायगमन के रूप में कर्म की त्रिविध दशा का उल्लेख किया है। नियतविपाकी कर्म का अर्थ है-जो नियत समय पर अपना फल देकर ही नष्ट होता है। अनियत विपाकी कर्म का अर्थ है जो कर्म विना फल दिये ही आत्मा से पृथक हो जाते हैं और प्रावायगमन का अर्थ है एक कर्म 136. कर्मप्रकृति गा 2 137. स्थानाङ्ग 4 / 296 138. स्थानाङ्ग 2 / 296 139. भगवती // 3 140. प्रज्ञापना 23 / 2 / 21-29 [ 46] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org