SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकृति-संक्रमण की तरह बंधकालीन रस में भी परिवर्तन हो सकता है। मन्दरस वाला कर्म बाद में तीव्ररस वाले कर्म के रूप में बदल सकता है और तीव्ररस, मन्दरस के रूप में हो सकता है / अतः जीव एवंभूत तथा अन-एवंभूत वेदना वेदते हैं / इस विषय में स्थानाङ्ग की चतुभंगी का उल्लेख पहले किया जा चुका है / 132 जिज्ञासा हो सकती है कि इसका मूल कारण क्या है ? जैन कर्म साहित्य समाधान करता है कि कर्म की विभिन्न अवस्थाएं हैं / मुख्य रूप से उन्हें ग्यारह भेदों में विभक्त कर सकते हैं / 1 33 (1) बन्ध, (2) सत्ता (3) उद्वर्तन-उत्कर्ष, (4) अपवर्तन-अपकर्ष, (5) संक्रमण (6) उदय (7) उदीरणा (8) उपशमन, (6) निधत्ति (10) निकाचित और (11) अबाधाकाल / (1) बंध-आत्मा के साथ कर्म-परमाणुओं का सम्बन्ध होना, क्षीर-नीरवत् एकमेक हो जाना बंध है / 134 बंध के चार प्रकारों का वर्णन हम कर चुके हैं। (2) सत्ता-आबद्ध-कर्म अपना फल प्रदान कर जब तक आत्मा से पृथक् नहीं हो जाते तब तक बे आत्मा से ही सम्बद्ध रहते हैं। इसे जैन दार्शनिकों ने सत्ता कहा है। (3) उद्वर्तन-उत्कर्ष--प्रात्मा के साथ प्राबद्ध कर्म की स्थिति और अनुभाग-बंध तत्कालीन परिणामों में प्रवहमान कषाय की तीव्र एवं मन्दधारा के अनुरूप होता है। उसके पश्चात को स्थिति-विशेष अथवा भाव-विशेष के कारण उस स्थिति एवं रस में वृद्धि होना उद्वर्तनउत्कर्ष है। (4) अपवर्तन-अपकर्ष पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग को कालान्तर में न्यून कर देना अपवर्तन-अपकर्ष है / इस प्रकार उद्वर्तन-उत्कर्ष से विपरीत अपवर्तन-अपकर्ष है। सारांश यह है कि संसार को घटाने-बढ़ाने का प्राधार पूर्वकृत कर्म की अपेक्षा वर्तमान अध्यवसायों पर विशेष प्राधृत है। (5) संक्रमण--एक प्रकार के कर्म परमाणुओं की स्थिति आदि का दूसरे प्रकार के कर्मपरमाणुओं की स्थिति आदि के रूप में परिवर्तित हो जाने की प्रक्रिया को संक्रमण कहते हैं / इस प्रकार के परिवर्तन के लिए कुछ निश्चित मर्यादाएं हैं जिनका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है। संक्रमण के चार प्रकार हैं--(१) प्रकृति-संक्रमण (2) स्थिति-संक्रमण (3) अनुभाव-संक्रमण (4) प्रदेश-संक्रमण / 135 (6) उदय-कर्म का फलदान उदय है। यदि कर्म अपना फल देकर निर्जीर्ण हो तो वह फलोदय है और फल दिये विना ही उदय में आकर नष्ट हो जाय तो प्रदेशोदय है। 131. भगवती 55 132. स्थानाङ्ग 414 / 312, (ख) तुलना कीजिए-अंगुत्तरनिकाय 4 / 232-233 133. द्रव्यसंग्रह टीका गा. 33 134. (क) तत्त्वार्थसूत्र 114 सर्वार्थ सिद्धि (ब) उत्तराध्ययन 28124 नेमिचन्द्रीय टीका 135. स्थानाङ्ग 4 / 216 [ 45] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy