________________ सप्तम अध्ययन : उम्बरदत्त / [83 -वह धन्वन्तरि वैद्य विजयपुर नगर के महाराज कनकरथ के अन्तःपुर में निवास करने वाली रानियों को तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर (ऐश्वर्यवान् या राजकुमार) यावत् सार्थवाहों को तथा इसी तरह अन्य बहुत से दुर्बल ग्लान-मानसिक चिन्ता से उदास रहने वाले, रोगी, व्याधित या बाधित, रुग्ण व्यक्तियों को एवं सनाथों, अनाथों, श्रमणों-ब्राह्मणों, भिक्षुकों, करोटिकों-कापालिकों, कार्पटिकों---कन्थाधारी भिक्षुकों अथवा भिखमंगों और आतुरों की चिकित्सा किया करता था। उनमें से कितने को मत्स्यमांस खाने का उपदेश देता था, कितनों को कछुओं के मांस का, कितनों को ग्राह-जलचरविशेष के मांस का, कितनों को मगरों के मांस का, कितनों को सुसुमारों के मांस का, कितनों को बकरा के मांस का अर्थात् इनका मांस खाने का उपदेश दिया करता था। इसी प्रकार भेड़ों, गवयों, शूकरों, मृगों, शशकों, गौत्रों और महिषों का मांस खाने का भी उपदेश करता था। कितनों को तित्तरों के मांस का तो कितनों को बटेरों, लावकों, कबूतरों, कुक्कुटों व मयूरों के मांस का उपदेश देता / इसी भांति अन्य बहुत से जलचरों, स्थलचरों तथा खेचरों आदि के मांस का उपदेश करता था। यही नहीं, वह धन्वन्तरि वैद्य स्वयं भी उन अनेकविध मत्स्यमांसों, मयूरमांसों तथा अन्य बहुत से जलचर स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों से तथा मत्स्यरसों व मयूररसों से पकाये हुए, तले हुए, भूने हुए मांसों के साथ पांच प्रकार की मदिराओं का आस्वादन व विस्वादन, परिभाजन एवं बार-बार उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करता था। १०-तए णं से धन्नंतरी वेज्जे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबह पावं कम्म समन्जिणित्ता बत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोपमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / १०--तदनन्तर वह धन्वन्तरि वैद्य इन्हीं पापकर्मों वाला इसी प्रकार की विद्या वाला और ऐसा ही आचरण बनाये हुए, अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन करके 32 सौ वर्ष की परम आयु को भोगकर काल मास में काल करके छट्ठी नरकपृथ्वी में उत्कुष्ट 22 सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। ११-तए णं सा गंगदत्ता भारिया जार्यानदुया यावि होत्था, जाया जाया दारगा विणिहायमावज्जति / तए णं तीसे गंगदत्ताए सत्थवाहीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणीए अयं अज्झथिए जाव समुष्पन्ने–'एवं खलु, अहं सागरदत्तेणं सस्थवाहेणं सद्धि बहूइं वासाई उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुजमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि / तं धनायो णं तानो अम्मयामो, संपुण्णाप्रो, कयत्थानो, कयपुण्णाओ, कयलक्खणाश्रो णं तामो अम्मयानो, सुलद्ध णं तासि अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफले, जासि मन्ने नियगकुच्छिसंभयाई थणबुद्धलुद्धयाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणपजंपियाई थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणयाई मुद्धयाई पुणो पुणो य कोमलकमलोवमेहि हत्थेहि गिहिऊण उच्छंगे निवेसियाई देंति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पणिए ! अहं णं अधन्ना अपुण्णा अयपुग्णा एत्तो एगमवि न पत्ता / तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते सागरदत्तं सत्यवाहं पापुच्छित्ता सुबहुं पुफ्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारं गहाय बहुमित्त-नाइ-नियग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org