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________________ 541 [विपाकसूत्र--प्रथम श्रतस्कन्ध सयण-संबंधि-परियणमहिलाहिं सद्धि पालिसंडासो नयराम्रो पडिनिक्खमित्ता बहिया जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छित्तए / तत्थ णं उंबरदत्तस्स जक्खस्स महरिहं पुषफच्चणं करित्ता जन्नपायवडियाए प्रोयाइत्तए–'जइ णं अहं देवाणुप्पिया! दारगं वा दारियं वा पयामि, तो णं अहं तुभं जायं च दायं च भायं च अक्खनिहिं च अणुवड्डइस्सामि / ' ति कट्ट, प्रोवाइयं प्रोवाइणित्तए।' एवं संपेहेइ, संपेहिता कल्लं जाव जलते जेणेव सागरदत्ते सत्थावहे तेणेव उवागच्छह, सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी–एवं खलु अहं, देवाणुप्पिया! तुन्भेहिं सद्धि जाव' न पत्ता। तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया! तुम्मेहि अन्भणुनाया जाव प्रोवाइणित्तए।' तए णं से सागरदत्ते गंगदत्तं भारियं एवं वयासी-'मम पि णं, देवाणुप्पिए ! एस चेव मणोरहे, कहं तुमं दारगं दारियं वा पयाइज्जसि / ' गंगदत्ताए मारियाए एयम अणुजाणइ / 11- उस समय सागरदत्त की गङ्गदत्ता भार्या जातनिन्दुका (जिसके बालक जन्म लेने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते हों) थी। अतएव उसके बालक उत्पन्न होने के साथ ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। एक बार मध्यरात्रि में कुटुम्ब सम्बन्धी चिन्ता से जागती उस गंगदत्ता सार्थवाही के मन में जो संकल्प उत्पन्न हुआ, वह निम्न प्रकार है—मैं चिरकाल से सागरदत्त सार्थवाह के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार-प्रधान कामभोगों का उपभोग करती आ रही हूँ परन्तु मैंने आज तक जीवित रहने वाले एक भी बालक अथवा बालिका को जन्म देने का सौभाग्य प्राप्त नहीं किया है / वे माताएँ ही धन्य हैं तथा वे माताएँ ही कृतार्थ अथच कृतपुण्य हैं, उन्हीं का वैभव सार्थक है और उन्होंने ही मनुष्य सम्बन्धी जन्म और जीवन को सफल किया है, जिनके स्तनगत दूध में लुब्ध, मधुर भाषण से युक्त, अव्यक्त तथा स्खलित-तुतलाते वचनवाले, स्तनमूल प्रदेश से कांख तक अभिसरणशील (मचलकर सरक जानेवाले) नितान्त सरल, कमल के समान कोमल सुकुमार हाथों से पकड़कर गोद में स्थापित किये जानेवाले व पुनःपुनः सुमधुर कोमल-मंजुल वचनों को बोलने वाले अपने ही कुक्षि-उदर से उत्पन्न हुए बालक या बालिकाएँ हैं / उन माताओं को मैं धन्य मानती हूँ / उनका जन्म भी सफल और जीवन भी सफल है। मैं अधन्या हूँ, पुण्यहीन हूँ, मैंने पुण्योपार्जन नहीं किया है, क्योंकि मैं इन बालसुलभ चेष्टाओं वाले एक सन्तान को भी उपलब्ध न कर सकी। अब मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं प्रातःकाल, सूर्य के उदय होते ही, सागरदत्त सार्थवाह से पूछकर विविध प्रकार के पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माला और अलङ्कार लेकर बहुत से ज्ञातिजनों, मित्रों, निजकों, स्वजनों, सम्बन्धी जनों और परिजनों की महिलाओं के साथ पाटलिषण्ड नगर से निकलकर बाहर उद्यान में, जहाँ उम्बरदत्त यक्ष का यक्षायतन है, वहां जाकर उम्बरदत्त यक्ष की महाई (वहुमूल्य) पुष्पार्चना करके और उसके चरणों में नतमस्तक हो इस प्रकार प्रार्थनापूर्ण याचना करू --- 'हे देवानुप्रिय ! यदि मैं अब जीवित रहनेवाले बालिका या बालक को जन्म दू तो मैं तुम्हारे याग-देव पूजा, दान-देय अंश, भाग--लाभ अंश व देव भंडार में वृद्धि करूंगी।' इस प्रकार उपयाचनाईप्सित वस्तु की प्रार्थना के लिये उसने निश्चय किया। निश्चय करने के अनन्तर प्रातःकाल सूर्योदय होने के साथ ही जहाँ पर सागरदत्त सार्थवाह था, वहाँ पर आई और पाकर सागरदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहने लगी-'हे स्वामिन् ! मैंने आप के साथ मनुष्य सम्बन्धी सांसारिक सुखों का 1-2. देखिए प्रस्तुत सूत्र के ही ऊपर का पाठ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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