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________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता] [103 आरोहण करता है और प्रारोहण करके बहुत से पुरुषों के साथ परिवृत--घिरा हुआ, अश्ववाहनिका--- अश्वक्रीड़ा के लिये जाता हुआ दत्त गाथापति के घर के कुछ पास से निकलता है / तदनन्तर वह वैश्रमणदत्त राजा देवदत्ता कन्या को ऊपर सोने की गेंद से खेलती हुई देखता है और देखकर देवदत्ता दारिका के रूप, यौवन व लावण्य से विस्मय को प्राप्त होता है। फिर कौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है-'हे देवानुप्रियो ! यह बालिका किसकी है ? और इसका क्या नाम है ?' तब वे कौटुम्बिक पुरुष हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहने लगे--'स्वामिन् ! यह कन्या दत्त गाथापति की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा है जो रूप, यौवन तथा लावण्य-कान्ति से उत्तम तथा उत्कृष्ट शरीर वाली है / १६-तए णं से वेसमणे राया आसवाहिणियाप्रो पडिनियत्त समाणे अभितरठाणिज्जे पुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासो-'गच्छह णं तुब्भे, देवाणुप्पिया ! दत्तस्स धूयं कण्हसिरीए भारियाए अत्तयं देवदत्तं दारियं पुस्सनंदिस्स जुवरन्नो मारियत्ताए वरेह, जइ वि सा सयंरज्जसुक्का।' १६--तदनन्तर राजा वैश्रमणदत्त अश्ववाहनिका (अश्वक्रीडा) से वापिस आकर अपने अाभ्यन्तर स्थानीय–अन्तरङ्ग पुरुषों को बुलाता है और बुलाकर उनको इस प्रकार कहता है देवानुप्रियो ! तुम जाओ और जाकर सार्थवाह दत्त की पुत्री और कृष्णश्री भार्या की प्रात्मजा देवदत्ता नाम की कन्या की युवराज पुष्यनन्दी के लिये भार्या रूप में मांग करो / यदि वह राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी प्राप्त करने के योग्य है। २०–तए णं ते अभितरठाणिज्जा पुरिसा वेसमणेणं रन्ना एवं दुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल जाव एयम पडिसुणेति, पडिसुणित्ता व्हाया जाव' सुद्धप्पावेसाई वत्थाई पवरपरिहिया जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छित्था। तए णं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठ, प्रासणाप्रो अन्भुटुइ / अब्भुद्वित्ता सत्तटुपयाई पच्चाए प्रासणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतित्ता ते पुरिसे आसत्ये वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी--'संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! कि प्रागमणप्पोयणं ?' तए णं ते रायपुरिसा दत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-'अम्हे णं देवाणुप्पिया ! तव धयं कण्हसिरीए अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसनंदिस्स जुवरन्नो भारियताए वरेमो / तं जइ णं जाणासि देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्ज वा सरिसो वा संजोगो, दिज्जउ गं देवदत्ता भारिया पूसनंदिस्स जुवरन्नो / भण, देवाणुपिया! कि दलयामो सुक्कं ? तए णं से दत्ते अभितरठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी-'एयं चेव. देवाणुप्पिया ! मम सुक्कं जं णं वेसमणे राया मम दारियानिमित्तणं अणुगिण्हइ / ते अभितरठाणिज्जे पुरिसे विउलेणं पुफ्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, संमाणेइ सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ। 1. द्वि. अ., सूत्र 22. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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