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________________ 104] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध तए णं ते अम्भितरठाणिज्जपुरिसा जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छिता वेसमणस्स रन्नो एयम निवेदेति / २०--तदनन्तर वे अभ्यंतर-स्थानीय पुरुष---अन्तरङ्ग व्यक्ति राजा वैश्रमण की इस आज्ञा को सम्मानपूर्वक स्वीकार कर, हर्ष को प्राप्त हो यावत् स्नानादि क्रिया करके तथा राजसभा में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र पहनकर जहाँ दत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ आये / दत्त सार्थवाह भी उन्हें प्राता देखकर बड़ी प्रसन्नता के साथ आसन से उठकर उनके सन्मान के लिए सात-पाठ कदम उनके सामने अगवानी करने गया / उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना की। तदनन्तर आश्वस्त-- गतिजन्य श्रम के न रहने से स्वास्थ्य-शांति को प्राप्त हुए तथा विश्वस्त-मानसिक क्षोभ जरा भी न रहने के कारण विशेष रूप से स्वस्थता को उपलब्ध हुए एवं सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर अवस्थित हुए। इन आने वाले राजपुरुषों से दत्त ने इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! प्राज्ञा दीजिये, आपके शुभागमन का प्रयोजन क्या है ? अर्थात् मैं आपके आगमन का प्रयोजन जानना चाहता हूँ। दत्त सार्थवाह के इस तरह पूछने पर आगन्तुक राजपुरुषों ने कहा-'हे देवानुप्रिय ! हम आपकी पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्य [ की युवराज पुष्यनंदी के लिए भार्या रुप से मंगनी करने आये हैं / यदि हमारी यह मांग आपको युक्त-उचित, अवसरप्राप्त, श्लाघनीय तथा वरवधू का यह संयोग अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनन्दी के लिए दीजिये और बतलाइये कि इसके लिए पापको क्या शुल्क-उपहार दिया जाय ? उन आभ्यन्तरस्थानीय पुरुषों के इस कथन को सुनकर दत्त बोले- 'देवानुप्रियो ! मेरे लिए यही बड़ा शुल्क है कि महाराज वैश्रमणदत्त (अपने पुत्र के लिए) मेरी इस बालिका को ग्रहण कर मुझे अनुगृहीत कर रहे हैं।' ___ तदनन्तर दत्त गाथापति ने उन अन्तरङ्ग राजपुरुषों का पुष्प, गंध, माला तथा अलङ्कारादि से यथोचित सत्कार-सन्मान किया और सत्कार-सन्मान करके उन्हें विसजित किया। वे आभ्यन्तर स्थानीय पुरुष जहां वैमश्रणदत्त राजा था वहाँ आये और उन्होंने वैश्रमण राजा को उक्त सारा वृत्तान्त निवेदित किया। २१-तए णं से दत्ते गाहावई अन्यया कयाइ सोहणंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त-महत्तंसि विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधिपरियणं पामतेइ / हाए जाव पायच्छित्ते सुहासणवरगए तेण मित्त० सद्धि संपरिकुडे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं प्रासाएमाणे विहरई। जिमियभुत्तत्तराएगए वि य णं प्रायंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्तनाइनियगसयण-संबंधिपरियणं विउलेणं पुष्फ-वत्थ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ सम्माइ, सक्कारिता सम्माणेत्ता देवदत्तं दारियं व्हायं जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं दुरुहेइ, दुरुहेता सुबहुमित्त जाव सद्धि संपरिवुडे सचिड्ढीए जाव नाइयरवेणं रोहीडयं नयरं मज्झमज्झेणं जेणेव वेसमणरन्नो गिहे, जेणेव वेसमणे राया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, बद्धावेत्ता वेससणस्स रन्नो देवदत्तं दारियं उवणेइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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