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________________ 102] [ विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्धं रोहीतक नगर में दत्त सार्थवाह की कृष्णश्री भार्या की कुक्षि में बालिका के रूप में उत्पन्न हुआ अर्थात् कन्या के रूप में गर्भ में पाया। १६-तए णं सा कण्हसिरी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव दारियं पयाया सुउमालपाणिपाया जाव सुरूवा। तए णं तोसे दारियाए अम्मापियरो निव्वत्तवारसाहियाए विउलं असणं जाव मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणस्स पूरो नामधेज्जं करेंति तं होउ णं दारिया देवदत्ता नामेणं, तए णं सा देवदत्ता दारिया पंचधाईपरिग्गहिया जाव परिवड्ढइ / १६-तब उस कृष्णश्री भार्या ने नव मास परिपूर्ण होने पर एक कन्या को जन्म दिया। वह अत्यन्त कोमल हाथ-पैरों वाली तथा अत्यन्त रूपवती थी / तत्पश्चात् उस कन्या के मातापिता ने बारहवें दिन बहत-सा अशनादिक तैयार कराया यावत मित्र, ज्ञाति निजक, स्वजन, संबंधीजन तथा परिजनों को निमन्त्रित करके एवं भोजनादि से निवत्त हो लेने पर कन्या का नामकरण संस्कार करते हुए कहा-हमारी इस कन्या का नाम देवदत्ता रक्खा जाता है / तदनन्तर वह देवदता पांच धायमाताओं के संरक्षण में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। १७-तए णं सा देवदत्ता दारिया उम्मुक्कबालभावा जाव (विण्णयपरिणयमेत्ता) जोव्वणेण य रूवेण य लावण्णेण य ईव-अईव उक्किट्ठा उक्किटुसरीरा यावि होत्था / तए णं सा देवदत्ता दारिया अन्नया कयाइ व्हाया जाव' विभूसिया बहूहिं खुज्जाहि जाव परिक्खिता उपि अागासतलगंसि कणतिदूसेणं कोलमाणी विहरइ / १७-तदनन्तर वह देवदत्ता बाल्यावस्था से मुक्त होकर यावत् यौवन, रूप व लावण्य से अत्यन्त उत्तम व उत्कृष्ट शरीरवाली होगई। एक वार वह देवदत्ता स्नान करके यावत् समस्त आभूषणों से विभूषित होकर बहुत सी कुब्जा आदि दासियों के साथ अपने मकान के ऊपर सोने की गेंद के साथ क्रीडा करती हुई विहरण कर रही थी। १८-इमं च णं वेसमणदत्ते राया हाए जाव' विभूसिए प्रासं दुरुहइ, दुरुहित्ता बहूहिं पुरिसेहिं सद्धि संपरिवडे आसवाहिणियाए निज्जायमाणे दत्तस्स गाहावइस्स गिहस्स प्रदूरसामतेणं बीइवयइ / तए णं से वेसमणे राया जाव वीइवयमाणे देवदत्तं दारियं उप्पि पागासतलगंसि कणतिदूसेणं कोलमाणि पासइ, पासित्ता देवदत्ताए दारियाए रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य जायविम्हए कोडुबिय. पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी-कस्स णं देवाणुप्पिया ! एसा दारिया ? कि वा नाएधेज्जेणं? तए णं ते कोडुबियपुरिसा वेसमणं रायं करयल जाव एवं क्यासी-'एस णं सामी ! दत्तस्स सत्थवाहस्स धूया, कण्हसिरोए भारियाए प्रत्तया देवदत्ता नामं दारिया रूवेण य जोवणेण य लावण्णेण य उक्किटुसरीरा।' १८–इधर स्नानादि से निवृत्त यावत् सर्वालङ्कारविभूषित राजा वैश्रमणदत्त अश्व पर १-२-द्वि. अ., सूत्र 22. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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