________________ प्रथम अध्ययन] [15 कहकर वह जहाँ भोजनालय था, वहाँ अाती है और आकर वस्त्र-परिवर्तन करती है। बस्त्र-परिवर्तन कर काष्ठ-शकट---लकड़ी की गाड़ी को- ग्रहण करती है और उसमें योग्य परिमाण में (विपुल मात्रा में) अशन, पान, खादिम व स्वादिम पाहार भरती है। तदनन्तर उस काष्ठ-शकट को खींचती हई जहाँ भगवान् गौतम स्वामी थे वहाँ आती है और भगवान् गौतम स्वामी से निवेदन करती है'प्रभो! आप मेरे पीछे पधारें। मैं आपको मृगापुत्र दारक बताती हूँ।' (यह सुनकर) गौतम स्वामी मृगादेवी के पीछे-पीछे चलने लगे। १७–तए णं सा मियादेवी तं कट्टसगाडयं अणुकद्दमाणी अणुकद्दमाणी जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छइ; उवागच्छित्ता चउप्पुडेणं वत्येणं मुहं बंधेइ / मुहं बंधमाणी भगव गोयम एव वयासी'तुब्भे वि य णं भंते ! मुहपोत्तियाए मुहं बंधह / ' तए णं से भगव गोयमे मियादेवीए एवं वत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधेइ / __ १७-तत्पश्चात् वह मृगादेवी उस काष्ठ-शकट को खींचती-खींचती जहां भूमिगृह (भोंरा) था वहाँ पर आती है और पाकर चार पड़ वाले वस्त्र से मुह को बांधकर भगवान् गौतम स्वामी से इस प्रकार निवेदन करने लगी--'हे भगवन ! आप भी मुख-वस्त्रिका से मुह को बांध लें।' मृगादेवी द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर भगवान् गौतमस्वामी ने भी मुख-वस्त्रिका से मुख को बांध लिया। १५---तए णं सा मियादेवी परंमही भूमिधरस्स दुवारं विहाडेइ / तए णं गंधे निग्गच्छइ-से जहानामए अहिमडे इ वा जाव [गोमडे इ वा सुणहमडे इ वा मज्जारमडे इ वा मणुस्समडे इ वा महिसमडे इ वा मूसगमडे इ वा पासमडे इ वा हस्थिमडे इ वा सोहमडे इ वा बग्घमडेइ इ वा विगमडे इ वा दीविगमडे इ वा मयकुहिय-विण-दुरभिवावण्ण-दुभिगंधे किमिजालाउलसंसत्ते प्रसुइ-विलीणविगय-बीभच्छदरिसणिज्जे भवेयारूवे सिया ? नो इण? सम?, एत्तो अणिटुतराए चेव अकंततराए चेव अप्पियतराए चेव अमणुष्णतराए चेव प्रमणामतराए चेव] गन्धे पन्नत्ते ! तए णं से मियापुते दारए तस्स विउलस्स असण-पाण-खाइमसाइमस्स गन्धेणं अभिभूए समाणे तंसि विउलंसि असण-पाण-खाइम-साइमंमि मुच्छिए तं विउलं असण-पाण खाइम-साइमं प्रासएणं पाहारेइ, माहारित्ता खिप्पामेव विद्ध सेइ, तो पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणामेइ तं पिय णं से पयं च सोणियं च पाहारेइ / १८-तत्पश्चात् मृगादेवी ने पराङ मुख होकर (पोछे को मुख करके) जब उस भूमिगृह के दरवाजे को खोला तब उसमें से दुर्गन्ध निकलने लगी ! वह गन्ध मरे हुए सर्प यावत् (गाय, कुत्ता, बिल्ली, मनुष्य, महिष, मूषिक, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, द्वीपिक आदि का कलेवर सड़ गया हो, गल गया हो, दुर्गधित हो, जिसमें कीडों का समह बिलबिला रहा हो. जो प्रशचि. विकृत और देखने में भी बीभत्स हो, वह दुर्गन्ध ऐसी थी ? नहीं, वह दुर्गन्ध) उससे भी अधिक अनिष्ट (अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अमनाम) थी ! 1. अशन--रोटी, दाल, शाक, भात, प्रादि सामग्री अशन शब्द से अभिप्रेत है। 2. पानी मात्र का ग्रहण पान शब्द से किया गया है। 3. द्राक्ष, पिस्ता, वादाम ग्रादि मेवे व मिठाई अादि पदार्थ खाद्य हैं। 4. पान, सुपारी, इलायची, लवंग ग्रादि मुखवास योग्य पदार्थ स्वादिम शब्द से इन्ट हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org