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________________ 16 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तदनन्तर उस महान् अशन, पान, खादिम, स्वादिम के सुगन्ध से आकृष्ट व मूच्छित हुए उस मृगापुत्र ने उस महान अशन, पान, खादिम, स्वादिम का मुख से आहार किया। शीघ्र ही वह नष्ट हो गया (जठराग्नि द्वारा पचा दिया गया) वह आहार तत्काल पीव (मवाद) व रुधिर के रूप में परिवर्तित हो गया।। मृगापुत्र दारक ने पीव व रुधिर रूप में परिवर्तित उस आहार का वमन कर दिया / वह बालक अपने ही द्वारा वमन किये हुए उस पीव व रुधिर को भी खा गया। मृगापुत्र-विषयक-प्रश्न १६-तए णं भगवनो गोयमस्स तं मियापुत्तं दारगं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए कप्पिए पतिथए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-'अहो णं इमे दारए पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं दुष्पडिकंताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणे विहरइ। न मे दिट्टा नरगा वा नेरइया वा / पच्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरगपडिरूवयं वेयणं वेयइ।' त्ति कटु मियं देवि प्रापुच्छइ, आपुच्छित्ता मियाए देवीए गिहाम्रो पडिनिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता मियग्गामं नयरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छइ, निम्गच्छित्ता जेणेव समणे भगव महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता समणं भगव महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वदइ, नमसइ, वदित्ता-नमंसित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु अहं तुम्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे मियग्गामं नयरं मझमझेण अणुप्पविसामि, अणुपविसित्ता जेणेव मियाए देवीए गिहे तेणेव उवागए / तए णं से मियादेवी मम एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठा, तं चेव सव्व जाव पूयं च सोणियं च प्राहारेइ / तए णं इमे अज्झस्थिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-अहो णं इमे दारए पुरा जाव विहरइ। से णं भंते ! पुरिसे पुव्वभवे के प्रासी ? किनामए वा किंगोत्तए वा ? कवरंसि गामंसि वा नयरंसि वा? किं वा दच्चा कि वा मोच्चा कि वा समायरित्ता केसि वा पुरा जाव विहरई? १६-मृगापुत्र दारक की ऐसी (वीभत्स तथा करुणाजनक) दशा को देखकर भगवान् गौतम स्वामी के मन में ये विकल्प उत्पन्न हुए-अहो! यह बालक पूर्वजन्मों के दुश्चीर्ण (दुष्टता से किए व दुष्प्रतिकान्त (जिन कर्मों को विनष्ट करने का कोई सुगम उपाय ही नहीं है) अशुभ पापकों के पापरूप फल को पा रहा है। नरक व नारकी तो मैंने नहीं देखे, परन्तु यह मृगापुत्र सचमुच नारकीय वेदनाओं का अनुभव करता हुअा (प्रत्यक्ष) प्रतीत हो रहा है। इन्हीं विचारों से आक्रान्त होते हुए भगवान् गौतम ने मृगादेवी से पूछ कर कि अब मैं जा रहा हूं, उसके घर से प्रस्थान किया / मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलकर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे; वहाँ पधार गये / पधारकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके वन्दन तथा नमस्कार किया और वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार बोले भगवन् ! आपश्री से प्राज्ञा प्राप्त करके मृगाग्राम नगर के मध्यभाग से चलता हुआ जहाँ मृगादेवी का घर था वहाँ मैं पहुंचा। मुझे प्राते हुए देखकर मृगादेवी हृष्ट तुष्ट हुई यावत् पीव व शोणित-रक्त का आहार करते हुए मृगा-पुत्र को देखकर मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुअा-अहह ! यह बालक पूर्वजन्मोपाजित महापापकर्मों का फल भोगता हुआ वीभत्स जीवन बिता रहा है। भगवन् ! यह पुरुष मृगापुत्र पूर्वभव में कौन था ? किस नाम व गोत्र का था ? किस ग्राम अथवा नगर का रहने वाला था? क्या देकर, क्या भोगकर, किन-किन कर्मों का आचरण कर और किनकिन पुराने कर्मों के फल को भोगता हा जोवन बिता रहा है ? गए) व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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