________________ प्रथम अध्ययन ] [ 17 भगवान् द्वारा समाधान २०-गोयमा !' इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी—एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेण तेणं समएणं इह जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारे नाम नयरे होत्था रिद्धत्यिमिय....... / वग्णनो' / तत्थ णं सयदुवारे नयरे धणवई नामं राया होत्था / वण्णो / तस्स णं सयदुवारस्स नयरस्स प्रदूरसामन्ते दाहिणपुरस्थिमे दिसोभाए विजयवद्धमाणे नामं खेडे होत्था। रिद्धथमियसमिद्ध / तस्स णं विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचगामसयाई आभोए यावि होत्था। तत्थ पं विजयवद्धमाणे खेडे इक्काई नाम रटुकडे होत्था, अहम्मिए जाव (अधम्माणुए अधम्मि? अधम्मक्खाई अधममपलोई अधम्मपलज्जणे अधम्मसमुदाचारे) दुप्पडियाणंदे / से णं इक्काई रटुकडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पञ्चण्हं गामसयाणं माहेबञ्चं जाव पालेमाणे विहर।। 20- 'हे गौतम / ' इस तरह सम्बोधन करते हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भगवान् गौतम के प्रति इस प्रकार कहा---'हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में शतद्वार नामक एक समृद्धिशाली नगर था। उस नगर में धनपति नाम का एक राजा राज्य करता था। उस नगर से कुछ दूरी पर (न अधिक दूर और न अधिक समोप) दक्षिण और पूर्व-दिशा के मध्य-अग्निकोण में विजयवर्द्धमान नामक एक खेट--(नदी व पर्वतों से घिरा हुआ अथवा धूलि के प्राकार से वेष्टित) नगर था जो ऋद्धि-समृद्धि प्रादि से परिपूर्ण था। उस विजयवर्द्धमान खेट का पांच सौ ग्रामों का विस्तार था। उस विजयवर्द्धमान खेट में इक्काई-एकादि नाम का राष्ट्रकट-राजा को ओर से नियुक्त प्रतिनिधि-प्रान्ताधिपति था, जो परम अधार्मिक यावत् (अधर्मानुगामी, अधर्मानिष्ठ, अधर्मभाषी, अधमर्मानुरागी, अधर्माचारी) तथा दुष्प्रत्यानन्दी-परम असन्तोषो, (साधुजनविद्वेषी अथवा पापकृत्यों में ही सदा आनन्द मानने वाला) था। वह एकादि विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों का आधिपत्य-शासन और पालन करता हुआ जीवन बिता रहा था। इकाई का अत्याचार २१-तए णं से इक्काई विजयवद्धमाणस्य खेडस्स पंच गामसयाई बहूहि करेहि य भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि य पराभवेहि य दिज्जेहि य भिज्जेहि य कुतेहि य लंछपोसेहि य पासीवणेहि य पंथकोट्टेहि य प्रोवीलेमाणे प्रोवीलेमाणे विहम्मेणाणे विहम्मेमाणे तज्जेमाणे तज्जेमाणे तालेमाणे तालेमाणे निद्धणे करेमाणे करेमाणे विहरइ। तए णं से इक्काई रटकडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूणं राई-सर-तलवर-माडंविय-कोडुवियसेट्ठि-सत्यवाहाणं अन्नोसि च. बहूणं गामेल्लगपुरिसाणं बहुसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य गुज्झेसु यनिच्छएसु य ववहारेसु य सुणमाणे भणइ न 'सुणेमि', असुणमाणे भणइ 'सुमि' एवं पस्समाणे, भासमाणे, गिण्हमाणे, जाणेमाणे' / तए णं से इक्काई रटकूडे एयकम्में एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म कलिकलुसं समज्जिणमाणे विहरइ / २१--तदनन्तर वह एकादि नाम का प्रतिनिधि (प्रान्ताधिपति) विजयवर्द्धमान खेट के पांच सौ ग्रामों को करों-महसूलों से, करों की प्रचुरता से, किसानों को दिये धान्यादि के द्विगुण आदि के 1. औप० सूत्र--१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org