________________ है। प्राचार्य हरिभद्र', आचार्य अभयदेव ने वृत्ति में लिखा है कि विपाक का अर्थ है-पुण्य पाप रूप कर्म-फल, उस का प्रतिपादन करने वाला सूत्र विपाकश्रुत है। समवायांग में विपाक का परिचय देते हुए लिखा है कि विपाक सूत्र सुकृत और दुष्कृत कमों के फल-विपाक को बतलाने वाला आगम है / उसमें दुःखविपाक और सुखविपाक ये दो विभाग हैं। नन्दीसूत्र में आचार्य देववाचक ने विपाक का यही परिचय दिया है। स्थानांगसूत्र में विपाक सूत्र का नाम कर्मविपाकदशा दिया है / वृत्तिकार' के अनुसार यह ग्यारहवें अंग विपाक का प्रथम श्रुतस्कन्ध है / समवायांगसूत्र के अनुसार विपाक के दो श्रुतस्कंध हैं, बीस अध्ययन हैं, बीस उद्देशनकाल हैं, बीस समुद्देशनकाल हैं, संख्यात पद, संख्यात अक्षर, परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ नामक छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियां, संख्यात संग्रहणियां, और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं / वर्तमान में जो विपाकसूत्र उपलब्ध है वह 1216 श्लोकपरिमाण है। स्थानाङ्ग में प्रथम श्रु तस्कंध के दस अध्ययनों के नाम आये हैं, पर दूसरे श्रु तस्कंध के अध्ययनों के नाम वहां उपलब्ध नहीं हैं। वृत्तिकार का यह अभिमत है कि दूसरे श्र तस्कन्ध के अध्ययनों की अन्यत्र चर्चा की गई है / 12 प्रथम श्रु तस्कन्ध का नाम 'कर्मविपाकदशा' है।3 स्थानाङ्ग के अनुसार कर्मविपाकदशा के अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं१४ : (1) मृगापुत्र, (2) गोत्रास, (3) अण्ड, (4) शकट, (5) ब्राह्मण, (6) नन्दिषेण, (7) शौरिक, (8) उदुम्बर, (9) सहस्रोद्दाह आभरक, (10) कुमार लिच्छई / उपलब्ध विपाक के प्रथम श्रु तस्कन्ध के अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं (1) मृगापुत्र, (2) उज्झितक, (3) अभग्नसेन, (4) शकट, (5) बृहस्पतिदत्त, (6) नन्दिवर्द्धन, (7) उम्बरदत्त, (8) शौरिकदत्त, (6) देवदत्ता, (10) अंजू / 5. विपचनं विपाकः, शुभाशुभकर्मपरिणाम इत्यर्थः, तत्प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्र तं ! -नन्दीहारिभद्रीयावृत्ति प. 105, प्र.-ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्व. संस्था रतलाम, सन् 1928 6. विपाक : पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतमागमो विपाकश्रु तम् / –विपाकसूत्र अभयदेववृत्ति 7. विवागसुए णं सुकड-दुक्कडाण-कम्माणं फल विवागा प्राविति, -समवायांगसूत्र 146, मुनि कन्हैयालाल 8. नन्दीसूत्र प्रागमपरिचय सूत्र 11 9. कम्मविवागदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता -स्थानात, स्थान 10, सूत्र 111: 10. कर्मविपाकदशा:, विपाकन ताख्यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमश्र तस्कन्धः --स्थानाङ्ग वत्ति पत्र 480 11. समवायांग सूत्र 146, पृ. 133, मुनि कन्हैयालाल 'कमल' 12. द्वितीयश्र तस्कन्धोऽप्यस्य दशाध्ययनात्मक एव, न चासाबिहाभिमतः, उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्वादिति -स्थानात वृत्ति पत्र 480 13. कर्मण:-अशुभस्य बिपाक:-फलं कर्मविपाक: तत्प्रतिपादका दशाध्ययनात्मकत्वादृशाः कर्मविपाकदशा: विपाकश्र ताख्यस्यकादशाङ्गस्य प्रथमश्र तस्कन्धः ---स्थानाङ्ग वृत्ति पत्र 480 14. स्थानाङ्ग 10 / 111 [12] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org