________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [ 121 उद्यान में पधारे / पधार कर वहां यथाप्रतिरूप--अनगार धर्म के अनुकल अवग्रह (प्राश्रयस्थान) को ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे / विवेचन---स्थविर शब्द का सामान्य अर्थ वृद्ध या बड़ा साधु होता है। स्थानांग में तीन प्रकार के स्थविर बताये हैं --1. जातिस्थविर 2. श्रु तस्थविर 3. पर्यायस्थविर / साठ वर्ष की अवस्था वाला मुनि जातिस्थविर कहलाता है। स्थानांग व समवायांग का पाठी श्र तस्थविर गिना जाता है / कम से कम बीस वर्ष की दीक्षापर्याय वाला पर्यायस्थविर माना जाता है / (स्थानांग सूत्र स्थान 3 उ; 3) ज्ञातासूत्र आदि में गणधरों को भी स्थविर पद से सम्बोधित किया है। १०-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थेराणं अंतेवासी सुदत्ते नामं अणगारे उराले जाव तेउलेस्से मासंमासेण खममाणे विहरइ / तए णं से सुदत्ते अणगारे मासक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, जहा गोयमस्वामी तहेब, धम्मघोसे थेरे पापुच्छइ, जाव अडमाणे सुमुहुस्स गाहावइस्स गेहे अणुप्पविट्ठ। १०---उस काल और उस समय में धर्मघोष स्थविर के अन्तेवासी-शिष्य उदार-प्रधान यावत् तेजोलेश्या को संक्षिप्त किये हए (अनेक योजन प्रमाण वाले क्षेत्र में स्थित वस्तनों को भस्म कर देने वाली तेजोलेश्या-घोर तप से प्राप्त होने वाली लब्धि-विशेष, को अपने में संक्षिप्त-गुप्त किये हुए) सुदत्त नाम के अनगार एक मास का क्षमण-तप करते हुए अर्थात् एक-एक मास के उपवास के बाद पारणा करते हुए विचरण कर रहे थे। एक बार सुदत्त अनगार मास-क्षमण पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय करते हैं, दूसरे प्रहर में ध्यान करते हैं और तीसरे प्रहर में श्री गौतम स्वामी जैसे श्रमण भगवान् महावीर से भिक्षार्थ गमन के लिए पूछते हैं, वैसे ही वे धर्मघोष स्थविर से पूछते हैं, यावत् भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए सुमुख गाथापति के घर में प्रवेश करते हैं। विवेचन-हमने यहां 'धम्मघोसे थेरे पापुच्छई' ऐसा ही पाठ रक्खा है परन्तु इसके स्थान पर 'सहम्मे थेरे पापुच्छई' ऐसा पाठ भी उपलब्ध होता है। प्रकृत में सुधर्मा स्थविर का कोई प्रसंग न होने से 'धम्मघोसे थेरे आपुच्छइ' पाठ प्रसंग के अनुकूल व युक्तिसङ्गत लगता है। अन्यथा 'सुहम्मे थेरे' पाठ से श्री जम्बू स्वामी के गुरु श्री-सुधर्मा स्वामी के ग्रहण की भी भूल हो जाना सम्भव है। फिर भी 'सुहम्मे थेरे' इस पाठ की अवहेलना नहीं की जा सकती है, कारण वह अनेक प्रतियों में उपलब्ध है, अत: "स्थितस्य गतिश्चितनीया" इस न्याय को अभिमुख रखकर सूत्रगत पाठ का यदि विचार किया जाय तो सम्भव है 'सुधर्मा' शब्द से सूत्रकार को भी धर्मघोष स्थविर ही इष्ट हो। धर्मघोष मुनि का हो दूसरा नाम सुधर्मा होना चाहिये। इसी अभिप्राय से शायद सूत्रकार ने धर्मघोष के बदले सुधम्मे-सुधर्मा पद का उल्लेख किया है। इस पाठ के सम्बन्ध में वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि 'सुहम्मे थेरे' 'त्ति धर्मघोषस्थविरमित्यर्थः, धर्मशब्दसाम्यात् शब्दद्वयस्याप्येकार्थत्वात्' इस प्रकार करते हैं। तात्पर्य यह है सुधर्मा और धर्मघोष इन दोनों के नामों में 'धर्म' शब्द समान है। इस समानता को लेकर ये दोनों शब्द एक ही अर्थ के परिचायक हैं-सुधर्मा शब्द से धर्मघोष और धर्मघोष शब्द से सुधर्मा का ग्रहण होता है / तत्त्व सर्वज्ञगम्य है। __११–तए णं से सुमुहे गाहावई सुदत्तं अणगारं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हतु8 पासणामो अब्भुट्टइ, अभत्ता पायपीढायो पच्चोरहइ पच्चोरुहित्ता पाउयाग्रो प्रोमुयइ, प्रोमइत्ता एगसाडियं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org