________________ 120 ] [विपाकसूत्र--द्वितीय श्र तस्कन्ध इष्ट-जो चाहने योग्य हो, जिसकी इच्छा की जाय, वह इष्ट होता है / इष्टरूप-किसी की चाह उसके विशेष कृत्य को उपलक्षित करके भी सम्भव है, अतः इष्टरूप अर्थात् उसकी आकृति ही ऐसी थी जिससे इष्ट प्रतीत होता था। कान्त-इष्टरूपता भी अन्यान्य कारणों से संभवित है, अत: स्वरूपतः कान्त-रमणीय था। कान्तरूप-सुन्दर स्वभाव वाला। (सुबाहु की इष्टता में उसका सुन्दर स्वभाव कारण था / ) प्रिय-सुन्दर स्वभाव होने पर भी कर्म के प्रभाव से प्रेम उत्पन्न करने में असमर्थ रह सकता है, अतः प्रेम का उत्पादक जो हो वह प्रिय / प्रियरूप-जिसका रूप प्रिय-प्रीतिजनक हो। मनोज्ञ-मनोज्ञरूपान्तरिक वृत्ति से जिसकी शोभनता अनुभव में आवे वह मनोज्ञ, उसके रूप वाला मनोज्ञरूप कहलाता है। मनोम, मनोमरूप-किसी की मनोज्ञता तात्कालिक भी हो सकती है, अतः मनोम विशेषण से जिसकी सुन्दरता का स्मरण बार-बार किया जाय / सोम-रुद्रतारहित व्यक्ति सोम-सौम्य स्वभाव वाला होता है। सुभग-बल्लभता वाला। सुरूप-सुन्दर आकार तथा स्वभाव वाले को सुरूप कहते हैं। प्रियदर्शन-प्रेम का जनक आकार और उस आकार वाला। भगवान् द्वारा समाधान ८-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे नाम नयरे होत्था, रिद्धथमियसमिद्ध / तत्थ णं हस्थिणाउरे नयरे सुमुहे नामं गाहावई परिवसइ, प्रड्ढे / ८-हे गौतम ! उस काल तथा उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में हस्तिनापुर नाम का एक ऋद्ध, स्तमित एवं समृद्ध नगर था। वहां सुमुख नाम का धनाढ्य गाथापति रहता था। 8-तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा जाइसंपन्ना जाव पंचहि समणसहि सद्धि संपरिवुडा पुन्वाणुपुदिव चरमाणा गामाणुगामं दूइज्जमाणा जेणेव हस्थिणाउरे नयरे, जेणेक सहसंबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छन्ति / उवागच्छित्ता प्रहापडिरूवं उम्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति / ६—उस काल तथा उस समय उत्तम जाति और कुल से संपन्न अर्थात् श्रेष्ठ मातृपक्ष एवं पितृपक्ष वाले यावत् पांच सौ श्रमणों से परिवृत हुए धर्मघोष नामक स्थविर (जाति, श्रत व पर्याय से वृद्ध) क्रमपूर्वक चलते हुए तथा ग्रामानुग्राम विचरते हुए हस्तिनापुर नगर के सहस्राम्रवननामक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org