________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [116 उत्तर में भगवान् ने कहा-'जैसे तुमको सुख हो वैसा करो, किन्तु इसमें देर मत करो।' ऐसा कहने पर सुबाहुकुमार ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समक्ष पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों वाले बारह प्रकार के गृहस्थधर्म को स्वीकार किया। अर्थात् उक्त द्वादशविध व्रतों के यथाविधि पालन करने का नियम ग्रहण किया। तदनन्तर उसी रथ पर सुबाहुकुमार सवार हुआ और सवार होकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में वापस चला गया। गौतम को सुबाहुविषयक जिज्ञासा ७-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स जे? अंतेवासी इन्दभूई जाव एवं वयासी—"अहो गं भंते ! सुबाहुकुमारे इ8, इगुरूवे, कते, कंतरूवे, पिये, पियरूवे, मणुन्ने, मनुन्नरूवे, मणामे, मणामस्वे, सोमे, सोमरूवे, सुभगे, सुभगरूवे, पियंदसणे सुरूवे। बहुजणस्स वि य गं भंते ! सुबाहुकुमारे इ8 जाव सुरूवे। साहुजणस्स वि य गं! सुबाहुकुमारे इ8 इदुरूवे जाव सुरूवे / सुबाहणा भंते ! कुमारेणं इमा एयारूवा उराला माणुस्सरिद्धि किन्ना लद्धा? किन्ना पत्ता ? किन्ना अभिसमन्नागया ? के वा एस पासो पुव्वभवे ?" जाव (किनामए वा कि वा गोत्तणं ? कयरंसि गामंसि वा संनिवेसंसि वा ? किं वा दच्चा कि वा भोच्चा कि वा समायरित्ता कस्स चा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि प्रायरियं वयणं सोच्चा निसम्म सुबाहुणा कुमारेण इमा एयारूवा माणु सिड्ढी लद्धा पत्ता) अभिसमन्नागया ? ७-उस काल तथा उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम अनगार यावत् इस प्रकार कहने लगे.-'अहो भगवन् ! सुबाहु कुमार बालक (बहुजन इष्ट) बड़ा ही इष्ट, इष्टरूप, कान्त, कान्तरूप, प्रिय, प्रियरूप, मनोज्ञ, मनोज्ञरूप, मनोम, मनोमरूप, सौम्य, सुभग, प्रियदर्शन और सुरूप-सुन्दर रूप वाला है। अहो भगवन् ! यह सुबाहुकुमार साधुजनों को भी इष्ट, इष्ट रूप यावत् सुरूप लगता है। भदन्त ! सुबाहुकुमार ने यह अपूर्व मानवीय समृद्धि कैसे उपलब्ध की ? कैसे प्राप्त की ? और कैसे उसके सन्मुख उपस्थित हुई ? सुबाहुकुमार पूर्वभव में कौन था ? यावत् इसका नाम और गोत्र क्या था ? किस ग्राम अथवा बस्ती में उत्पन्न हुआ था? क्या दान देकर, क्या उपभोग कर और कैसे प्राचार का पालन करके और किस श्रमण या माहन के एक भी आर्यवचन को श्रवण कर सुबाहुकुमार ने ऐसी यह ऋद्धि लब्ध एवं प्राप्त की है, कैसे यह समृद्धि इसके सन्मुख उपस्थित विवेचन-सुबाहुकुमार की व्यावहारिक जीवन जीने की कला इतनी अद्भुत और आकर्षक थी कि वह आम जनसमुदाय का प्रीति-भाजन बन गया। उससे सभी प्रसन्न थे। प्राणों के अन्तराल से उसे चाहते थे। जन-मन के हृदय में देवता की तरह उसने स्थान बना लिया था। इतना ही नहीं, वह साधुजनों का भी स्नेहपात्र बन गया था। प्राध्यात्मिक साधना की दिशा में प्रतिपल जागृत व प्रगतिशील रहने के कारण निःस्वार्थ, स्वभावतः अनासक्त एवं निष्काम वृत्ति वाले साधुपुरुषों के के हृदय में भी सुबाहु का प्रेम-पूर्ण स्थान बन गया / यहाँ सुबाहुकुमार के लिये जो अनेक विशेषण प्रयुक्त किये गये हैं, वे सामान्य दृष्टि से सामानार्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु उन सब के अर्थ में थोड़ा अन्तर है, जो इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org