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________________ द्वितीय अध्ययन ] [ 31 ६-तत्थ णं हरियणाउरे नयरे भोमे नाम क डग्गाहे होत्या, अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे / तस्स णं भीमस्स कूडग्गाहस्स उप्पला नामं भारिया होत्था, अहोणपडिपुण्णचिदियसरीरा।' तए णं सा उष्पला कूडग्गाहिणी अन्नया कयाइ आवन्नसत्ता जाया यावि होत्था / तएणं णं तीसे उप्पलाए कूडग्गाहिणीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अयमेवारूवे दोहले पाउन्भूए--- —उस हस्तिनापुर नगर में भीम नामक एक कुटनाह (धोखे से---कपटपूर्वक जीवों को फंसाने वाला) रहता था। वह स्वभाव से ही अधर्मी व कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। उस भीम कूटग्राह की उत्पला नामक भार्या थी जो अहीन (अन्यून) पंचेन्द्रिय वाली थी। किसी समय वह उत्पला गर्भवती हुई। उस उत्पला नाम की कूटग्राह की पत्नी को पूरे तीन मास के पश्चात् इस प्रकार का दोहद-मनोरथ (जो कि गर्भिणी स्त्रियों को गर्भ के अनुरूप उत्पन्न होता है) उत्पन्न हुमा १०–'धन्नाप्रो णं तानो अम्मयानो [संपुण्णासोपंतानो अम्मयात्रो, कयस्थानो णं तानो अम्मयायो, कयपुण्णासो गं तारो अम्मयानो, कयलक्खणानो णं ताओ अम्मयाओ, कविहवासो गं ताप्रो अम्मयानो, सुलद्ध णं तासि माणुस्सए जम्मजीवियफले जानो णं बहूणं नगरगोरूवाणं सणाहाण य जाव वसहाण य ऊहेहि य थणेहि य वसणेहि य छप्पाहि य ककुहेहि य वहेहि य कण्णेहि य अच्छोहि य नासाहि य जिज्भाहि य श्रोट दिय: हि य कम्बलेहि यसोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य परिसुक्केहि य लावणेहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीहुं च पसन्नं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीप्रो. परिभाएमाणोनो परिभुजेमाणीयो दोहलं विणेति / तं जइ णं अहमवि बहूणं नगर जाव: विणिज्जामि' त्ति कटट तंसि दोहलंसि प्रविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा मोलुग्गा अोलुग्गसरीरा नित्तया दीण-विमण-वयणा पंडुल्लइयमुहा प्रोमंथिय-नयण-वयणकमला जहोइयं पुष्फवस्थगंधमल्लालंकाराहारं अपरिभुजमाणी करयलमलियन्च कमलमाला प्रोहय जाव (मणसंकप्पा करयलपल्हत्थमुही अट्टज्माणोवगया भूमिगयदिट्ठीया) झियाइ / १०–वे माताएँ धन्य हैं, पुण्यवती हैं, कृतार्थ हैं, सुलक्षणा हैं, उनका ऐश्वर्य सफल है, उनका मनुष्यजन्म और जीवन भी सार्थक है, जो अनेक अनाथ या सनाथ नागरिक पशुओं यावत् वृषभों के ऊधस् (वह थैली जिसमें दूध भरा रहता है) स्तन, वृषण-अण्डकोष, पूछ, ककुद् (स्कन्ध का ऊपरी भाग) स्कन्ध, कर्ण, नेत्र, नासिका, जीभ, ओष्ठ (होंठ) कम्बल-सास्ना (गाय के गले का चमड़ा) जो कि शूल्य (शूला-प्रोत), तलित (तले हुए) भृष्ट (भुने हुए), शुष्क (स्वयं सूखे हुए) और लवणसंस्कृत मांस के साथ सुरा, मधु (पुष्पनिष्पन्न मदिरा-विशेष) मेरक (मद्य विशेष जो तालफल से निर्मित होती है) सीधु (एक विशेष प्रकार की मदिरा जो गुड़ व धान के मेल से निष्पन्न होती है) प्रसन्ना (वह मदिरा जो द्राक्षा आदि से बनती है। इन सब मद्यों का सामान्य आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन-वितरण (दूसरों को बाँटती हुई) तथा परिभोग करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं / काश ! मैं भी अपने दोहद को इसी प्रकार पूर्ण करूं। इस विचार के अनन्तर उस दोहद के पूर्ण न होने से वह उत्पला नामक कटग्राह की पत्नी सूखने लगी, (भोजन न करने से बल रहित होकर) भूखे व्यक्ति के समान दीखने लगी, मांस रहित१. द्वि. अ., सूत्र-३ 2. द्वि. अ., सूत्र-८ 3. द्वि. अ., सूत्र--८ T रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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