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________________ / विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ७-तए णं से भगवनो गोयमस्स तं पुरिसं पासित्ता इमे अज्झथिए चितिए कप्पिए पथिए मणोगए संकरपे समुप्पज्जित्था-'अहो णं इमे पुरिसे जाव नरयपडिरूवियं वेयणं वेएई' त्ति कटु वाणियगामे नयरे उच्च-नीच-मज्झिमकुलाई जाव प्रडमाणे अहापज्जतं सामुदाणियं गिण्हइ, गिहित्ता वाणियगामे नयरे मज्झमझेणं जाव पडिदंसेइ, पडिदंसित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एव वयासी- 'एव खलु अहं भंते ! तुम्भेहि अब्भणुन्नाए समाणे वाणियगामं जाव तहेव वेएइ / से गं भंते ! पुरिसे पुस्वभवे के प्रासी ? जाव' पच्चणुभवमाणे विहरइ ? ७-तत्पश्चात् उस पुरुष को देखकर भगवान् गौतम को यह चिन्तन, विचार, मन:संकल्प उत्पन्न हुआ कि-'ग्रहो ! यह पुरुष कैसी नरकतुल्य वेदना का अनुभव कर रहा है !' ऐसा विचार करके वाणिजग्राम नगर में उच्च, नीच, मध्यम (धनिक, निर्धन तथा मध्यम कोटि के) घरों में भ्रमण करते हुए यथापर्याप्त (आवश्यकतानुसार) भिक्षा लेकर वाणिजग्राम नगर के मध्य में से होते हुए श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आये। उन्हें लाई हुई भिक्षा दिखलाई / तदनन्तर भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उनसे इस प्रकार कहने लगे हे प्रभो। आपकी आज्ञा से मैं भिक्षा के हेतु वाणिजग्राम नगर में गया। वहाँ मैंने एक ऐसे पुरुष को देखा जो साक्षात् नारकीय वेदना का अनुभव कर रहा है। हे भगवन् ! वह पुरुष पूर्वभव में कौन था ? जो यावत् नरक जैसी विषम वेदना भोग रहा है ? पूर्वभव-विवरण ८-एवं खलु गोयमा ! लेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जम्बुद्दीवे दीवे भारते वासे हस्थिणाउरे नामं नयरे होत्था, रिद्धस्थ०२ तत्य णं हस्थिणाउरे नयरे सुणंदे णामं राया होत्था / महया हिमवत०३ महंत-मलय-मंदर-महिंदसारे / तत्थ णं हस्थिणाउरे नघरे बहुमझदेसभाए महं एगे गोमण्डवे होत्था। अणंगखम्भसयसंनिविद, पासाईए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे / तत्थ णं बहवे नगरगोरूवाणं सणाहा य प्रणाहा य नगरगावीमो य नगरवलीवदा य नगरपड्डयाओ य नगरवसभा य पउरतणपाणिया निब्भया निरुब्बिग्गा सुहंसुहेणं परिवसंति / ८-हे गौतम! उस पुरुष के पूर्वभव का वृत्तान्त इस प्रकार है-उस काल तथा उस समय में इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत इस भरतक्षेत्र में हस्तिनापुर नामक एक समृद्ध नगर था। उस नगर का सुनन्द नामक राजा था। वह हिमालय पर्वत के समान महान् था। उस हस्तिनापुर नामक नगर के लगभग मध्यभाग में सैकड़ों स्तम्भों से निर्मित सुन्दर मनोहर, मन को प्रसन्न करने वाली एक विशाल गोशाला थी / वहाँ पर नगर के अनेक सनाथ-जिनका कोई स्वामी हो और अनाथ—जिनका कोई स्वामी न हो, ऐसी नगर की गायें, बैल, नागरिक छोटी गायें-बछड़ियाँ, भैसे, नगर के सांड, जिन्हें प्रचुर मात्रा में घास-पानी मिलता था, भय तथा उपसर्गादि से रहित होकर परम सुखपूर्वक निवास करते थे ! 1. प्रथम अ., सू. 19 2. औषपातिक–१ 3. प्रोपपातिक -14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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