________________ 32] [विपाकसूत्र---प्रथम श्रु तस्कन्ध अस्थि-शेष हो गयी, रोगिणी व रोगी के समान शिथिल शरीर वाली, निस्तेज-कान्ति रहित, दीन तथा चिन्तातुर मुख वाली हो गयी। उसका बदन फीका तथा पीला पड़ गया, नेत्र तथा मुख-कमल मुर्भा गया, यथोचित पुष्प, वस्त्र, गन्ध, माल्य-फूलों की गूथी हुई माला-आभूषण और हार आदि का उपभोग न करने वाली, करतल से मदित कमल को माला की तरह म्लान हुई कर्तव्य व अकर्तव्य के विवेक से रहित चिन्ताग्रस्त रहने लगी। ११-इमं च णं भीमे कडग्गाहे जेणेव उप्पला कडग्गाहिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय० जाव पासइ, एवं वयासी-कि गं तुमे देवाणुप्पिए ! प्रोहय जाव झियासि ?' तए णं सा उप्पला भारिया भीमं कूडग्गाहं एवं वयासी-'एवं खलु, देवाणुप्पिया ! मम तिण्हं मासाणं बहुपडिपुग्णाणं दोहला पाउन्भूया-'धन्ना णं तारो जाओ णं बहूणं गोरूवाणं ऊहेहि य जाव लावणेहि य सुरं च 6 आसाएमाणीयो.४ दोहलं विणेति / ' तए णं अहं देवाणुप्पिया! तसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाव झियामि।' / 11- इतने में भीम नामक कूटग्राह, जहाँ पर उत्पला नाम की कूटग्राहिणी थी, वहाँ पाया और उसने आर्तध्यान ध्याती हुई चिन्ताग्रस्त उत्पला को देखा / देखकर कहने लगा---'देवानुप्रिये ! तुम क्यों इस तरह शोकाकुल, हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान में मग्न हो रही हो? तदनन्तर वह उत्पला भार्या भीम नामक कूटग्राह को इस प्रकार कहने लगी-स्वामिन् ! लगभग तीन मास पूर्ण होने पर मुझे यह दोहद उत्पन्न हुमा कि वे माताएँ धन्य हैं, कि जो चतुष्पाद पशुओं के ऊधस् स्तन आदि के लवण-संस्कृत माँस का अनेक प्रकार की मदिराओं के साथ प्रास्वादन करती हई अपने दोहद को पूर्ण करती हैं। उस दोहद के पूर्ण न होने से निस्तेज व हतोत्साह होकर मैं प्रार्तध्यान में मग्न हूँ। (यहाँ पूर्वोक्त विवरण समझ लेना चाहिये / ) १२-तए णं से मीमे कडग्गाहे उप्पलं भारियं एवं बयासी-'मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! प्रोहयमणसंकप्पा जाब झियाहि अहं णं तहा करिस्सासि जहा णं तव दोहलस्स संपत्ती भविस्सइ।' ताहि इटाहि जाव (कंताहि पियाहि मणुण्णाहिं मणामाहि) वहिं समासासेइ / / तए णं से भीमे कूडग्गाहे प्रद्धरत्तकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्ध जाव (बद्धवम्मियकवए उप्पीलियसरासणपट्टीए पिणद्धगेवेज्जे विमलवरबद्धचिधपट्ट गहियाउह) पहरणे सयानो गिहारो निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता हस्थिणारं नयरं मझमझेणं जेणेव गोमण्डवे तेणेव उवागए, बहूर्ण नगरगोरुवाणं जाव वसभाण य अप्पेगइयाणं ऊहे छिदइ जाव अपेगइयाणं कंबले छिदइ, अप्पेगइयाणं अन्नमनाइं अंगोवंगाई वियंगेइ, वियंगेत्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उप्पलाए कूडग्गाहिणीए उवणेइ / तए णं सा उप्पला भारिया तेहिं बहूहि गोमंसेहि य सोल्लेहि य सुरं च-५ प्रासाएमाणी-४ तं दोहलविणेइ / तए णं सा उप्पला कडग्गाहिणी संपुण्णदोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला संपन्नदोहला तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहइ / / १२-तदनन्तर उस भीम कटग्राह ने अपनी उत्पला भार्या से कहा-देवानुप्रिये ! तुम चिन्ताग्रस्त वार्तध्यान युक्त न होओ, मैं वह सब कुछ करूंगा जिससे तुम्हारे इस दोहद' की परिपूर्ति हो जायगी / इस प्रकार के इष्ट, प्रिय, कान्त, मनोहर, मनोज्ञ वचनों से उसने उसे समाश्वासन दिया। तत्पश्चात् भीम कुटग्राह आधी रात्रि के समय अकेला ही दृढ कवच पहनकर, धनुष-बाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org