________________ और अचेतन का भेद नष्ट होकर महान् संकर दोष उपस्थित होगा। इसलिए प्रत्येक द्रव्य स्व-भाव का कर्ता है पर-भाव का कर्ता नहीं। प्रस्तुत कथन में संसारी जीव को द्रव्य कर्मों का कर्ता व भोक्ता इसलिए नहीं माना गया कि कर्म पौद्गलिक हैं / यह किस प्रकार सम्भव है कि चेतन जीव अचेतन कर्म को उत्पन्न करे ? इस हेतु में जो ससारी अशुद्ध आत्मा है उनको शुद्ध चैतन्य मान लिया गया है और कर्म को शुद्ध पुद्गल / किन्तु सत्य तथ्य यह है कि न संसारी जीव शुद्ध चैतन्य है और न कर्म शुद्ध पुद्गल ही हैं। संसारी जीव चेतन और अचेतन द्रव्यों का मिला-जुला रूप है, इसी तरह कर्म भी पुदगल का शुद्ध रू अपितु एक विकृत अवस्था है जो संसारी जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति से निर्मित हुई है और उससे संबद्ध है। जीव और पुद्गल दोनों अपनी-अपनी स्वाभाविक अवस्था में हो तो कर्म की उत्पत्ति का कोई प्रश्न ही पैदा नहीं हो सकता। संसारी जीव स्वभाव में स्थित नहीं है किन्तु उसकी स्व और पर-भाव की मिश्रित अवस्था है, इसलिये उसे केवल स्व-भाव का कर्ता किस प्रकार कह सकते हैं ? जब हम यह कहते हैं कि जीव कर्मों का कर्ता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि जीव पुद्गल का निर्माण करता है। पुद्गल तो पहले से ही विद्यमान हैं। उसका निर्माण जीव नहीं करता, जीव तो अपने सन्निकट में स्थित पूदगल परमाणुओं को अपनी प्रवृत्तियों से प्राकृष्ट कर अपने में मिलाकर नीरक्षीवत् एक कर देता है / यही द्रव्य कर्मों का कर्तृत्व कहलाता है। ऐसी स्थिति में यह कहना एकान्ततः युक्त नहीं है कि जीव द्रव्य कर्मों का कर्ता नहीं है। यदि जीव द्रव्य कर्मों का कर्ता नहीं है तो फिर उसका कर्ता कौन है ? पुद्गल अपने आप कर्म रूप में परिणत नहीं होता, जीव ही उसे कर्म रूप में परिणत करता है। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि द्रव्य कर्मों के कर्तृत्व के अभाव में भाव कर्मों का कर्तृत्व किस प्रकार सम्भव हो सकता है! द्रव्य कर्म ही तो भाव कर्म को उत्पन्न करते हैं। सिद्ध द्रव्य कर्मों से मुक्त हैं इसलिए भावकों से भी मक्त हैं। जब यह सिद्ध हो जाता है कि जीव पुद्गल-परमाणुओं को कर्म के रूप में परिणत करता है तो वह कर्म फल का भोक्ता भी सिद्ध हो जाता है। च कि जो कर्मों से बद्ध होता है वही उनका फल भी भोगता है। इस तरह संसारी जीव कर्मों का कर्ता और उनके फल का भोक्ता है किन्तु मुक्त जीव न तो कर्मों का कर्ता है और न कर्मों का भोक्ता ही है। जो विचारक जीव को कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं मानते हैं, वे एक उदाहरण देते हैं। जैसे एक युवक, जिसका रूप अत्यन्त सुन्दर है, कार्यवश कहीं पर जा रहा है, उसके दिव्य व भव्य रूप को निहार कर एक तरुणी उस पर मुग्ध हो जाय और उसके पीछे-पीछे चलने लगे तो उस युवक का उसमें क्या कर्तृत्व है ? की तो वह युवती है। युवक तो उसमें केवल निमित्त कारण है। इसी प्रकार यदि पुद्गल जीव की ओर आकर्षित होकर कर्म के रूप में परिवर्तित होता है तो उसमें जीव का क्या कर्तृत्व है। कर्ता तो पुद्गल स्वयं है / जीव उसमें केवल निमित्त कारण है। यही बात कर्मों के भोक्तृत्व के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं। यदि यही बात है तो आत्मा न कर्ता सिद्ध होगा, न भोक्ता, न बद्ध होगा, न मुक्त, न राग-द्वेषादि भावों से युक्त सिद्ध होगा और न उनसे 89. पंचम कर्मग्रन्थ प्रस्तावना पृ० 11-12 90. पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना पृ. 12 [29] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org