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________________ मिथ्या ज्ञान है / 4 योगदर्शन क्लेश को बंध का कारण मानता है और क्लेश का कारण अविद्या है / 5 उपनिषद्६ भगवद्गीता और ब्रह्म सूत्र में भी अविद्या को ही बंध का कारण माना है। इस प्रकार जैन दर्शन और अन्य दर्शनों में कर्मबंध के कारणों में शब्दभेद और प्रक्रियाभेद होने पर भी मूल भावनात्रों में खास भेद नहीं है / निश्चयनय और व्यवहारनय निश्चय और व्यवहार दृष्टि से भी जैन दर्शन में कर्म-सिद्धान्त का विवेचन किया गया है / जो पर-निमित्त के बिना वस्तु के असली तात्त्विक स्वरूप का कथन करता है वह निश्चयनय है और जो परनिमित्त की अपेक्षा से वस्तु का कथन करता है वह व्यवहारनय है। प्रश्न है कि निश्चय और व्यवहार की प्रस्तुत परिभाषा के अनुसार क्या कर्म के कर्तृत्व व भोक्तृत्व आदि का निरूपण हो सकता है ? परनिमित्त के अभाव में वस्तु के वास्तविक स्वरूप के कथन का अर्थ है शुद्ध वस्तु के स्वरूप का कथन / इस अर्थ की दृष्टि से निश्चयनय शुद्ध-आत्मा और शुद्ध-पुद्गल का ही कथन कर सकता पदगल-मिश्रित प्रात्मा का या प्रात्म-मिश्रित पूदगल का नहीं। अतः कर्म के कर्तत्वभोक्तत्व आदि का कथन निश्चयनय से किस प्रकार सम्भव है ? 88 चूकि कर्म का सम्बन्ध सांसारिक आत्मा से है। व्यवहारनय परनिमित्त की अपेक्षा से वस्तु का निरूपण करता है अतः कर्मयुक्त प्रात्मा का कथन व्यवहारनय से ही हो सकता है। निश्चयनय पदार्थ के शुद्ध स्वरूप का अर्थात् जो वस्तु स्वभाव से अपने आप में जैसी है वैसी ही प्रतिपादन करता है और व्यवहारनय संसारी आत्मा जो कर्म से युक्त है उसका प्रतिपादन करता है। इस तरह निश्चय और व्यवहारनय में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है। दोनों की विषय वस्तु भिन्न-भिन्न है उनका क्षेत्र पृथक्-पृथक है / निश्चयनय से कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व आदि का निरूपण नहीं हो सकता। वह मुक्त आत्मा और पुद्गल आदि शुद्ध अजीव का ही प्रतिपादन कर सकता है। कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व कितने ही चिन्तकों ने निश्चय और व्यवहारनय की मर्यादा को विस्मृत करके निश्चयनय से कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व का निरूपण किया है जिससे कर्म सिद्धान्त में अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो गईं ! इन समस्याओं का कारण है संसारी जीव और मुक्त जीव के भेद का विस्मरण और साथ ही कभी-कभी कर्म और पुद्गल का अन्तर भी भुला दिया जाता है। उन चिन्तकों का मन्तव्य है कि जीव न तो कर्मों का कर्ता है और न भोक्ता ही है कि दव्य कर्म पौद्गलिक हैं, पुद्गल के विकार हैं, इसलिए पर हैं / उनका कर्ता चेतन जीव किस प्रकार हो सकता है ? चेतन का कर्म चेतनरूप होता है और अचेतन का कर्म अचेतनरूप / यदि चेतन का कर्म भी अचेतनरूप होने लगेगा तो चेतन 84. ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानम् -मराठ वृत्ति 44 85. योगदर्शन 21314 86. कठोपनिषद् 1 / 2 / 5 87. भगद्गीता 5 // 156 88. पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना पृ० 11 [28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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