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________________ रहित ही / परन्तु सत्य तथ्य यह नहीं है / जैसे किसी रूपवान् पर युवती मुग्ध होकर उसके पीछे हो जाती है वैसे जड़ पुद्गल चेतन आत्मा के पीछे नहीं लगते / पुद्गल अपने आप आकर्षित होकर प्रात्मा को पकड़ने के लिए नहीं दौड़ता / जीव जब सक्रिय होता है तभी पुद्गल-परमाणु उसकी ओर प्राकृष्ट होते हैं। अपने को उसमें मिलाकर उसके साथ एकमेक हो जाते हैं, और समय पर फल प्रदान कर उससे पुनः पृथक् हो जाते हैं / इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के लिए जीव पूर्णरूप से उतरदायी है / जीव की क्रिया से ही पुद्गल परमाणु उसकी ओर खिचते हैं, सम्बद्ध होते हैं और उचित फल प्रदान करते हैं / यह कार्य न अकेला जीव ही कर सकता है और न अकेला पुद्गल ही कर सकता है / दोनों के सम्मिलित और पारस्परिक प्रभाव से ही यह सब कुछ होता है / कर्म के कर्तृत्व में जीव की इस प्रकार की निमित्तता नहीं है कि जीब सांख्यपुरुष की भांति निष्क्रिय अवस्था में निर्लिप्त भाव से विद्यमान रहता हो और पुद्गल अपने आप कर्म के रूप में परिणत हो जाते हों / जीव और पुद्गल के परस्पर मिलने से ही कम की उत्पत्ति होती है / एकान्त रूप से जीव को चेतन और कर्म को जड़ नहीं कह सकते / जीव भी कर्म-पुद्गल के संसर्ग के कारण कथंचित् जड़ है और कर्म भी चैतन्य के संसर्ग के कारण कथंचित् चेतन हैं / जब जीव और कर्म एक-दूसरे से पूर्णरूप से पृथक् हो जाते हैं, उनमें किसी प्रकार का संपर्क नहीं रहता है तब वे अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाते हैं अर्थात् जीव एकान्त रूप से चेतन हो जाता है और कर्म एकान्त रूप से जड़ / संसारी जीव और द्रव्यकर्म रूप पुद्गल के मिलने पर उसके प्रभाव से ही जीव में राग-द्वषादि . भावकर्म की उत्पत्ति संभव है। प्रश्न है कि यदि जीव अपने शुद्ध स्वभाव का कर्ता है और पुद्गल भी अपने शुद्ध स्वभाव का कर्ता है तो राग-द्वेष आदि भावों का कर्ता कौन है ? राग-द्वेष आदि भाव न जीव के शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं और न पुद्गल के ही शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं अतः उसका कर्ता किसे मानें ! उत्तर है-चेतन अात्मा और अचेतन द्रव्यकर्म के मिश्रित रूप को ही इन अशुद्ध-वैभाविक भावों का कर्ता मान सकते हैं / राग-द्वेषादि भाव चेतन और अचेतन द्रव्यों के सम्मिश्रण से पैदा होते हैं वैसे ही मन, वचन और काय आदि भी / कर्मों की विभिन्नता और विविधता से ही यह सारा वैचित्र्य है। निश्चयदृष्टि से कर्म का कर्तृत्व और भोक्तत्व मानने वाले चिन्तक कहते हैं--प्रात्मा अपने स्वाभाविक भाव ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का और वैभाविक भाव राग, द्वेष आदि का कर्ता है परन्तु उसके निमित्त से जो पुद्गल-परमाणुओं में कर्मरूप परिणमन होता है उसका वह कर्ता नहीं है। जैसे घड़े का कर्ता मिट्टी हैं, कुभार नहीं। लोक-भाषा में कुभार को घड़े का बनाने वाला कहते हैं पर इसका सार इतना ही है कि घट-पर्याय में कुभार निमित्त है / वस्तुत: घट मृत्तिका का एक भाव है इसलिए उसका कर्ता भी मिट्टी ही है।' किन्तु प्रस्तुत उदाहरण उपयुक्त नहीं है / आत्मा और कर्म का सम्बन्ध घड़े और कुभार के समान नहीं है / घड़ा और कुभार दोनों परस्पर एकमेक नहीं होते किन्तु आत्मा और कम नीरक्षीरवत् एकमेक हो जाते हैं। इसलिए कर्म और आत्मा का परिणमन घड़ा और कुभार के 91. पंचम कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना, पृ. 13 [ 30 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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