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________________ परिणमन से पृथक प्रकार का है। कर्म-परमाणुओं और आत्म-प्रदेशों का परिणमन जड़ और चेतन का मिश्रित परिणमन होता है जिनमें अनिवार्य रूप से एक दूसरे से प्रभावित होते हैं किन्तु घड़े और कुभार के सम्बन्ध में यह बात नहीं है / आत्मा कर्मों का केवल निमित्त ही नहीं किन्तु कर्ता और भोक्ता भी है / आत्मा के वैभाविक भावों के कारण पुद्गल-परमाणु उसकी ओर आकर्षित होते हैं / इसलिये वह उनके आकर्षण का निमित्त है / वे परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होकर कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं, इसलिए आत्मा कर्मों का कर्ता है / वैभाविक भावों के रूप में आत्मा को उनका फल भोगना पड़ता है, इसलिए वह कर्मों का भोक्ता भी है। कर्म की मर्यादा जैन-कर्म-सिद्धान्त का यह स्पष्ट अभिमत है कि कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के शरीर, मन और मात्मा से है / व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा की सुनिश्चित सीमा है और वह उसी सीमा में सीमित है। इसी प्रकार कर्म भी उसी सीमा में अपना कार्य करता है / यदि कर्म की सीमा न मानें तो आकाश के समान वह भी सर्वव्यापक हो जायेगा / सत्य तथ्य यह है कि प्रात्मा का स्वदेहपरिमाणत्व भी कर्म के ही कारण है / कर्म के कारण आत्मा देह में प्राबद्ध है तो फिर कम उसे छोड़ कर अन्यत्र कहाँ जा सकता है ? संसारी आत्मा हमेशा किसी न किसी शरीर से बद्ध रहता है और सम्बद्ध कर्म पिण्ड भी उसी शरीर की सीमाओं में सीमित रहता है। प्रश्न है--शरीर की सीमाओं में सीमित कर्म अपनी सीमाओं का परित्याग कर फल दे सकता है ? या व्यक्ति के तन-मन से भिन्न पदार्थों की उत्पत्ति, प्राप्ति व्यय आदि के लिये उत्तरदायी हो सकता है ? जिस क्रिया या घटना-विशेष से किसी व्यक्ति का प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है उसके लिये भी क्या उस व्यक्ति के कर्म को कारण मान सकते हैं ? उत्तर है-जैन-कर्म-साहित्य में कर्म के मुख्य आठ प्रकार बताये हैं। उसमें एक भी प्रकार ऐसा नहीं है, जिसका सम्बन्ध प्रात्मा और शरीर से पथक किसी अन्य पदार्थ से हो / ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म आत्मा के मूलगुण, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का धात करते हैं और वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र कर्म शरीर की विभिन्न अवस्थाओं का निर्माण करते हैं। इस तरह आठों कर्मों का साक्षात् सम्बन्ध प्रात्मा और शरीर के साथ है, अन्य पदार्थों और घटनाओं के साथ नहीं है / परम्परा से प्रात्मा, शरीर-आदि के अतिरिक्त पदार्थों और घटनाओं से भी कर्मों का सम्बन्ध हो सकता है, यदि इस प्रकार सिद्ध हो सके तो। कर्मों का सीधा सम्बन्ध आत्मा और शरीर से है तब प्रश्न उद्बुद्ध होता है कि धन-सम्पत्ति आदि की प्राप्ति को पुण्यजन्य किस कारण से माना जाता है ? उत्तर में निवेदन है कि धन-परिजन आदि से सुख आदि की अनुभूति हो तो शुभ कर्मोदय की निमित्तता के कारण बाह्य पदार्थों को भी उपचार से पुण्यजन्य मान सकते हैं / वस्तुतः पुण्य का कार्य सुख आदि की अनुभूति है, धन आदि की उपलब्धि नहीं / धन आदि के अभाव में भी सुख आदि का अनुभव होता है तो उसे पुण्य या शुभ कर्मों का फल समझना चाहिये / यह सत्य है कि बाह्य पदार्थों के निमित्त बिना भी सुख आदि की अनुभूति हो सकती है / इसी तरह दुःख आदि भी हो सकता है / सुख-दुःख आदि जितनी भी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अनुभूति होती है उसका [31] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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