________________ मूल कारण बाह्य नहीं आन्तरिक है। कर्म का सम्बन्ध आन्तरिक कारण से है, बाह्य पदार्थों से नहीं। बाह्य पदार्थों की उत्पत्ति, विनाश और प्राप्ति अपने-अपने कारणों से होती है / हमारे कर्म हमारे तक ही सीमित रहते हैं, सर्वव्यापक नहीं हैं। वे हमारे शरीर और आत्मा से भिन्न अति दूर पदार्थों को किस प्रकार उत्पन्न कर सकते हैं, आकर्षित कर सकते हैं, हम तक पहुंचा सकते हैं, न्यून और अधिक कर सकते हैं, विनष्ट कर सकते हैं, सुरक्षित कर सकते हैं ? ये सभी कार्य अन्य कारणों से होते हैं / सुख-दुःख आदि की अनुभूति में निमित्त, सहायक या उत्तेजक होने के कारण उपचार व परम्परा से बाह्य वस्तुओं को पुण्य-पाप का परिणाम मान लेते हैं। जीव की विविध अवस्थाएं कमजन्य हैं / शरीर, इन्द्रियां, श्वासोच्छवास, मन-वचन आदि जीव की विविध अवस्थाएं कम के कारण हैं। किन्तु पत्नी या पति की प्राप्ति, पुत्र-पुत्री की प्राप्ति, संयोग-वियोग, हानि-लाभ, सुकाल और दुष्काल, प्रकृति-प्रकोप, राज-प्रकोप आदि का कारण उनका अपना होता है। यह ठीक है कि कुछ कार्यों व घटनाओं में हमारा यतकिचित् निमित्त हो सकता है किन्त उनका मूल स्रोत उन्हीं के अन्दर है, हमारे में नहीं। हम प्रिय जन, स्वजन आदि के मिलने को पुण्य कर्म मानते हैं और उनके वियोग को पापफल कहते हैं परन्तु यह मान्यता जैनदर्शन की नहीं है / पिता के पुण्य के उदय से पुत्र पैदा नहीं होता, और पिता के पाप के उदय से पुत्र की मृत्यु नहीं होती। पूत्र के पैदा होने और मरने में उसका अपने कर्मों का उदय है किन्तु पिता का पुण्योदय और पापोदय साक्षात् कारण नहीं है / हाँ, यह सत्य है कि पुत्र पैदा होने के पश्चात् वह जीवित रहता है तो मोहनीय कर्म के कारण पिता को प्रसन्नता हो सकती है और उसके मरने पर दुःख हो सकता है। इस प्रसन्नता और दुःख का कारण पिता का पुण्योदय और पापोदय है और उसका निमित्त पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु है। इस तरह पिता के पुण्योदय और पापोदय से पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु नहीं होती किन्तु पुत्र की उत्पत्ति और मृत्यु पिता के पुण्योदय और पापोदय का निमित्त हो सकती है। इसी तरह अन्यान्य घटनाओं के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। व्यक्ति का कर्मोदय, कर्म क्षय, कर्मोपशम आदि की अपनी एक सीमा है और वह सीमा है उसका शरीर, मन, वचन आदि / उस सीमा को लांघ कर कर्मोदय नहीं होता / सारांश यह है कि अपने से पृथक् सम्पूर्ण पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश उनके अपने कारणों से होते हैं, हमारे कर्म के उदय के कारण से नहीं। उदय उदय का अर्थ काल-मर्यादा का परिवर्तन है। बंधे हुए कर्म-पुद्गल अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं तब उनके निषेक २-कर्म-पुद्गलों को एक काल में उदय होने योग्य रचनाविशेष प्रकट होने लगते हैं वह उदय है / दो प्रकार से कर्म का उदय होता है (1) प्राप्त-काल कर्म का उदय / (2) अप्राप्त-काल कर्म का उदय / कर्म का बंध होते ही उसमें उसी समय विपाक-प्रदान का आरंभ नहीं हो जाता / वह निश्चित अवधि के पश्चात् विपाक देता है। वह बीच की अवधि 'अबाधाकाल' कहलाती है। उस 92. कर्म-निषेको नाम-दलिकस्य अनुभवनाथं रचना-विशेषः -भगवती 6 / 3 / 236 वृत्ति [32] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org