SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय कर्म का अवस्थान-मात्र होता है / अबाधा का अर्थ अन्तर है / बंध और उदय के अन्तर का जो काल है, वह अबाधाकाल है। 3 ___ लम्बे काल और तीव्र अनुभाग वाले कर्म तप आदि साधना के द्वारा विफल बना कर स्वल्प समय में भोग लिए जाते हैं / अात्मा शोघ्र निर्मल हो जाती है। यदि स्वाभाविक रूप से ही कर्म उदय में पाएँ तो अाकस्मिक घटनाओं की सम्भावना एवं तप आदि साधना की प्रयोजकता ही नष्ट हो जाती है, परन्तु अपवर्तना से कर्म की उदीरणा या अप्राप्तकाल उदय होता है / अत: आकस्मिक घटनाओं से कर्म-सिद्धान्त के प्रति सन्देह उत्पन्न नहीं हो सकता / तप आदि साधना की सफलता का भी यही मुख्य कारण है। ___ कर्म का परिपाक और उदय सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी। अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी। किसी बाह्य कारण के अभाव में भी क्रोध-वेदनीय-पुद्गलों के तीव्र विपाक से अपने आप क्रोध आ गया-यह उनका निर्हेतुक उदय है / 4 इसी तरह हास्य' भय, वेद, और कषाय के पुद्गलों का भी उदय होता है / 6 स्वतः उदय में प्राने वाले कर्म के हेतु गतिहेतुक उदय-नरक गति में असाता का तीव्र उदय होता है। इसे गतिहेतुक विपाक कहते हैं। स्थितिहेतुक उदय-मोहकर्म की उत्कृष्टतम स्थिति में मिथ्यात्व मोह का तीव्र उदय होता है। यह स्थितिहेतुक विपाक-उदय है / भवहेतुक उदय-दर्शनावरण (जिसके उदय से नींद आती है) यह सभी संसारी जीवों में होता है तथापि मनुष्य और तिर्यंच दोनों को ही नींद आती है देव, नारक को नहीं। यह भव-हेतुक विपाक उदय है। गति, स्थिति और भव के कारण से कितने ही कर्मों का स्वतः विपाक-उदय हो जाता है। दूसरों द्वारा उदय में प्राने वाले कर्म के हेतु पुद्गलहेतुक उदय-किसी ने पत्थर फेंका, घाव हो गया, असाता का उदय हो पाया। यह दूसरों के द्वारा किया हुआ प्रसात-वेदनीय का पुद्गल-हेतुक विपाक-उदय है / किसी ने अपशब्द कहा, क्रोध आ गया। यह क्रोध-वेदनीय-पुद्गलों का सहेतुक विपाकउदय है। पुद्गल-परिणाम के द्वारा होने वाला उदय-बढ़िया भोजन किया किन्तु न पचने से अजीर्ण हो गया। उससे रोग उत्पन्न हुए / यह असात-वेदनीय का विपाक-उदय है / 93. बाधा-कर्मण उदयः, न बाधा अबाधा-कर्मणो बंधस्योदयस्य चान्तरम् / भगवती 6 / 3 / 236 94. स्थानाङ्ग 4 / 76 वृत्तिः पत्र 182 95. स्थानाङ्ग 96. स्थानाङ्ग 4 / 75-79 [33] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy