________________ मदिरा आदि नशीली वस्तु का उपयोग किया, उन्माद छा गया। यह ज्ञानावरण का विपाकउदय हुआ। यह पुद्गल-परिणमन-हेतुक-विपाक-उदय है / इस तरह विविध हेतुओं से कर्मों का विपाक-उदय होता है / 7 यदि ये हेतु प्राप्त नहीं होते तो कमों का विपाक रूप में उदय नहीं होता। उदय का दूसरा प्रकार है प्रदेशोदय / इसमें कर्म-फल का स्पष्ट अनुभव नहीं होता है / यह कर्मवेदन की अस्पष्टानुभूति वाली दशा है / जो कर्म-बंध होता है वह अवश्य ही भोगा जाता है। गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की भगवन् ! किये हुए पाप-कर्म भोगे बिना नहीं छूटते, क्या ? भगवान् ने समाधान करते हुए कहा-हाँ गौतम ! यह सत्य है। गौतम ने पुनः प्रश्न किया-कैसे, भगवन् ? भगवान् ने उत्तर दिया—गौतम ! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाये हैं-(१) प्रदेश-कर्म और (2) अनुभाग-कर्म / जो प्रदेश-कर्म हैं वे अवश्य ही भोगे जाते हैं तथा जो अनुभाग कर्म हैं वे अनुभाग (विपाक) रूप में कुछ भोगे जाते हैं, कुछ नहीं भोगे जाते / पुरुषार्थ से भाग्य में परिवर्तन हो सकता है। वर्तमान में हम जो पुरुषार्थ करते हैं उसका फल अवश्य ही प्राप्त होता है। भूतकाल को दृष्टि से उसका महत्त्व है भी और नहीं भी है। वर्तमान में किया गया पुरुषार्थ यदि भूतकाल में किये गये पुरुषार्थ से दुर्बल है तो वह भूतकाल के किये गये पुरुषार्थ पर नहीं छा सकता। यदि वर्तमान में किया गया पुरुषार्थ भूतकाल के पुरुषार्थ से प्रबल है तो वह भूतकाल के पुरुषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है। कर्म की केवल बंध और उदय ये दो ही अवस्थाएँ होती तो बद्ध कर्म में परिवर्तन को अवकाश नहीं होता किन्तु अन्य अवस्थाएँ भी हैं (1) अपवर्तना-इससे कम-स्थिति का अल्पीकरण [स्थितिधात और रस का मन्दीकरण (रसघात)] होता है। (2) उद्वर्तना से कम-स्थिति का दीर्धीकरण और रस का तीव्रीकरण होता है। (3) उदीरणा से दीर्घकाल के पश्चात् उदय में आने वाले कर्म शीघ्र-तत्काल उदय में आ जाते हैं। (4) एक कम शुभ होता है और उसका विषाक भी शुभ होता है। एक कर्म शुभ होता है, उसका विपाक अशुभ होता है। एक कम अशुभ होता है उसका विपाक शुभ होता है, एक कर्म अशुभ ता है और उसका विपाक भी अशुभ होता है / जो कर्म शुभ रूप में बंधता है, शुभ रूप में ही उदय में आता है, वह शुभ है और शुभ विपाक वाला है। जो कर्म शुभ रूप में बंधता है, अशुभ रूप में उदय में आता है वह शुभ और अशुभ विपाक वाला है। जो कर्म अशुभ रूप में बंधता है, शुभ रूप 97. प्रज्ञापना 23611293 98, भगवती 1414. वृत्ति [34] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org