________________ 92] [ वियाकसूत्र–प्रथम श्रु तस्कन्ध जलचर, स्थलचर एवं खेचर जीवों के मांसों, रसों व हरे शाकों के साथ, जो कि शूलपक्व होते, तले हुए होते, भूने हुए होते थे, छह प्रकार की सुरा आदि का आस्वादनादि करता हुआ काल यापन कर रहा था। तदनन्तर इन्हीं कर्मों को करनेवाला, इन्हीं कर्मों में प्रधानता रखने वाला, इन्हीं का विज्ञान रखनेवाला, तथा इन्हीं पापों को सर्वोत्तम पाचरण मानने वाला वह श्रीद रसोइया अत्यधिक पापकर्मों का उपार्जन कर 33 सौ वर्ष की परम आयु को भोग कर काल मास में काल करके छठे नरक में उत्पन्न हुना। ६-तए णं सा समद्ददत्ता भारिया जायनियावि होत्था / जाया जाया दारगा विणिहायमावज्जति / जहा गंगदत्ताए चिन्ता, पापुच्छणा, प्रोवाइयं, दोहला जाव' दारगं पयाया, जाव 'जम्हा गं अम्हे इमे दारए सोरियस्स जक्खस्स प्रोवाइयलद्ध, तम्हा णं होउ अम्हं दारए सोरियदत्ते नामेणं / तए णं से सोरियदत्ते दारए पंचधाई जाव उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमेत्ते जोवणगमणप्पत्ते यावि होत्था। ९-उस समय वह समुद्रदत्ता भार्या-मृतवत्सा थी। उसके बालक जन्म लेने के साथ ही मर जाया करते थे। उसने गंगदत्ता की ही तरह विचार किया, पति की आज्ञा लेकर, मान्यता मनाई और गर्भवती हुई। दोहद की पूर्ति कर समुद्रदत्त बालक को जन्म दिया। 'शौरिक यक्ष की मनौती मनाने के कारण हमें यह बालक उपलब्ध हुअा है' ऐसा कहकर माता पिता ने उसका नाम 'शौरिकदत्त' रक्खा। तदनन्तर पांच धायमाताओं से परिगृहीत, बाल्यावस्था को त्यागकर विज्ञान की परिपक्व अवस्था से सम्पन्न हो वह शौरिकरदत्त युवावस्था को प्राप्त त हुआ। १०--तए णं से समद्ददत्ते अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते। तए णं से सोरियदत्ते बहि मित्त-नाइ रोयमाणे समदृदत्तस्स नोहरणं करेइ, लोइयाइं मयकिच्चाई करे। अन्नया कयाइ सयमेव मच्छंधमहत्तरगत्तं उघसंपज्जित्ताणं विहर। तए णं से सोरियदारए मच्छंधे जाए, अहम्मिए जावर दुष्पडियाणंदे। १०-तदनन्तर किसी समय समुद्रदत्त कालधर्म को प्राप्त हो गया। रुदन आक्रन्दन व विलाप करते हुए शौरिकदत्त बालक ने अनेक मित्र-ज्ञाति-स्वजन परिजनों के साथ समुद्रदत्त का निस्सरण किया, दाहकर्म व अन्य लौकिक क्रियाएं की। तत्पश्चात् किसी समय वह स्वयं ही मच्छीमारों का मुखिया बन कर रहने लगा। अब वह मच्छीमार हो गया जो महा अधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-अति कठिनाई से प्रसन्न होने वाला था। ११-तए णं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा कल्लाल्लि एगट्टियाहि जउणं महाणइं प्रोगाहेति, प्रोगाहित्ता बहूहिं दहगालणेहि य दहमलणेहि य दहमणेहि य दहमहणेहि य दहवणेहि य दहपवहणेहि य अयंचुलेहि य पंचपुलेहि य मच्छंधलेहि य मच्छपुच्छेहि य जंभाहि य तिसिराहि य भिसिराहि य धिसराहि य विसराहि य हिल्लिरीहि य झिल्लिरीहि य 1. देखिए सप्तम अध्ययन 2. तृतीय अ., सूत्र 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org