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________________ अटष्म अध्ययन : शोरिकदत्त / [ 63 ललिरोहि य जालेहि य गलेहि य कडपासेहि य वक्कबंधेहि य सुत्तबन्धणेहि य वालबन्धणेहि य बहवे सोहमच्छे जाव' पडागाइपडागे य गिण्हति / गेण्हित्ता एगट्ठियारो भरेंति, भरित्ता कूलं गाहेंति, गाहित्ता मच्छखलए करेंति, करित्ता प्रायवंसि दलयंति / अन्न य से बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा प्रायवतत्तएहि मच्छेहि सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य रायमग्गंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरति / अप्पणा वि य णं से सोरियदत्ते बहूहि सोहमच्छेहि जाव पडागाइपडागेहि य सोल्लेहि य भज्जिएहि य तलिएहि य सुरं च महुं च मे रगं च जाई च सीधु च पसण्णं च आसाएमाणे बीसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ। 11 तदनन्तर शौरिकदत्त मच्छीमार ने रुपये, पैसे और भोजनादि का वेतन लेकर काम करने वाले अनेक वेतनभोगी पुरुष रक्खे, जो छोटी नौकाओं के द्वारा यमुना महानदी में प्रवेश करते-घूमते, ह्रद-गलन ह्रद-मलन, ह्रदमर्दन, ह्रद-मन्थन, ह्रदवहन, ह्रद-प्रवहन (ह्रद-जलाशय या झील का नाम है, उसमें मछली प्रादि जीवों को पकड़ने के लिये भ्रमण करना, सरोवर में से जल को निकालना या थूहर आदि के दूध को डालकर जल को दूषित करना, जल का विलोडन करना कि जिससे भयभीत व स्थानभ्रष्ट मत्स्यादि सरलता से पकड़े जा सकें) से, तथा प्रपंचुल, प्रपंपुल, मत्स्यपूच्छ, जम्भा, त्रिसरा, भिसरा, विसरा, द्विसरा, हिल्लिरि, झिल्लिरि, लल्लिरि. जाल. गल. कुटपाश, वल्कबन्ध, सूत्रबन्ध और बालबन्ध (ये सब मत्स्यादिकों को पकड़ने के विविध साधनविशेषों के विशिष्ट नाम हैं) साधनों के द्वारा कोमल मत्स्यों यावत् पताकातिपताक मत्स्य-विशेषों को पकड़ते, पकड़कर उनसे नौकाएं भरते हैं। भरकर नदी के किनारे पर लाते हैं, लाकर बाहर एक स्थल पर ढेर लगा देते हैं / तत्पश्चात् उनको वहाँ धूप में सूखने के लिए रख देते हैं। इसी प्रकार उसके अन्य रुपये, पैसे और भोजनादि लेकर काम करनेवाले वेतनभोगी पुरुष धप से सखे हए उन मत्स्यों के मांसों को शुलाप्रोत कर पकाते, तलते और भूनते तथा उन्हें राजमार्गों में विक्रयार्थ रखकर आजीविका करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। शौरिकदत्त स्वयं भी उन शूलाप्रोत किये हुए, भुने हुए और तले हुए मत्स्यमांसों के साथ विविध प्रकार को सुरा सीधु आदि मदिराओं का सेवन करता हुआ जीवन यापन कर रहा था। १२–तए णं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अन्नया कयाइ ते मच्छसोल्ले य तलिए य भज्जिए य पाहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे यावि होत्था। तए णं से सोरियदत्ते मच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूए समाणे कोडुबिययुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सोरियपुरे नयरे सिंघाडग जाव पहेसु य महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं बयह एवं खलु देवाणप्पिया! सोरियदत्तस्स मच्छकंटए गले लग्गे। तं जो णं इच्छइ वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणुनो वा जाणयपुत्तो वा तेगिच्छितो तेगिच्छियपुत्तो वा सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलामो नीहरित्तए, तस्स णं सोरियदत्ते विउलं प्रत्थसंपयाणं दलयइ।' तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव उग्घोसेंति / १२-तदनन्तर किसी अन्य समय शूल द्वारा पकाये गये, तले गए व भूने गए मत्स्य मांसों का आहार करते समय उस शौरिकदत्त मच्छीमार के गले में मच्छी का कांटा फँस गया। इसके कारण वह महती असाध्य वेदना का अनुभव करने लगा / अत्यन्त दुखो हुए शौरिक ने अपने कौटुम्बिक 1-2. प्रज्ञापनासूत्र, पद 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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