________________ 64 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहा–'हे देवानुप्रियो ! शौरिकपुर नगर के त्रिकोण मार्गों व यावत् सामान्य मार्गों पर जाकर ऊँचे शब्दों से इस प्रकार घोषणा करो कि--हे देवानुप्रियो ! शौरिकदत्त के गले में मत्स्य का कांटा फंस गया है, यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक-पुत्र उस मत्स्य-कंटक को निकाल देगा तो, शौरिकदत्त उसे बहुत सा धन देगा।" कौटुम्बिक पुरुषों-अनुचरों ने उसकी आज्ञानुसार सारे नगर में उद्घोषणा कर दी। १३---तए णं ते बहवे बेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुपत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छिय. पुत्ता य इमेयारूवं उग्घोसणं उग्धोसिज्जमाणं निसामेंति, निसामित्ता जेणेव सोरियदत्तस्स गेहे, जेणेव सोरियमच्छंधे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता बहूहिं उप्पत्तियाहि य वेणइयाहिय ऋम्मियाहि य पारिणामियाहि य बुद्धोहिं परिणामेमाणा परिणामेमाणा वमणेहि य सड्डणेहि य, ओवीलणेहि य कवलग्गाहेहि य सल्लुद्धरणे हि विसल्लकरणेहि य इच्छंति सोरियमच्छंधस्स मच्छकंटयं गलामो नीहरित्तए / नो चेव णं संचाएंति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा / तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपत्ता व जाणुया य जाणयपत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपत्ता य जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलामो नोहरित्तए, ताहे संता जाव (तंता परितंता) जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। __ तए णं से सोरियदत्ते मच्छंधे बेज्जपडियारनिविण्णे तेणं महया दुक्खेणं अभिभूए समाणे सुक्के जाव (भुक्खे जाव किमियकवले य वममाणे) विहरइ / एवं खलु गोयमा ! सोरिए पुरापोराणाणं जाव विहरइ। १३-उसके बाद बहुत से वैद्य, वैद्यपुत्र आदि उपर्युक्त उद्घोषणा को सुनते हैं और सुनकर शौरिकदत्त का जहाँ घर था और शौरिक मच्छीमार जहाँ था वहाँ पर आते हैं / आकर बहुत सी औत्पत्तिकी बुद्धि (स्वाभाविक प्रतिभा), वैनयिकी, कामिकी तथा पारिणामिकी बुद्धियों से सम्यक् परिणमन करते (निदानादि को समझते हुए) वमनों, छर्दों (वमन-विशेषों) अवपीड़नों (दबाने) कवलग्राहों (मख की मालिश करने के लिये दाढों के नीचे लकडी का टकडा रखना) शल्योद्धारों (यन्त्र प्रयोग से काटों को निकालना) विशल्य-करणों (औषध के बल से कांटा निकालना) आदि उपचारों से शौरिकदत्त के गले के कांटों को निकालने का तथा पीव को बन्द करने का भरसक प्रयत्न करते हैं परन्तु उसमें वे सफल न हो सके अर्थात् उनसे शौरिकदत्त के गले का कांटा निकाला नहीं जा सका और न पीव व रुधिर बन्द हो सका। तब श्रान्त, तान्त, परितान्त हो अर्थात् निराश व उदास होकर वापिस अपने अपने स्थान पर चले गये। इस तरह वैद्यों के इलाज से निराश हुआ शौरिकदत्त उस महती वेदना को भोगता हुआ सूखकर यावत् अस्थिपिञ्जर मात्र शेष रह गया / वह दुःखपूर्वक समय बिता रहा है / भगवान् फरमाते हैं कि हे गौतम ! इस प्रकार वह शौरिकदत्त अपने पूर्वकृत अत्यन्त अशुभ कर्मों का फल भोग रहा है / शौरिकदत्त का भविष्य १४--'सोरिए णं, भंते ! मच्छंधे इग्रो कालमासे कालं किच्चा कहि गच्छिहिइ ? कहि उववज्जिहिइ ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org