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________________ अंष्टम अध्ययन : शौरिकदत्त अन्ने य से बहवे तित्तिरा य जाव मऊरा य पंजरंसि संनिरुद्धा चिट्ठति / अन्ने य बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेपणा ते बहवे तित्तिरे य जाव मऊरे य जीवंतए चेव निप्पक्खेंति, निष्पक्खेत्ता सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति / / ७-उसके रुपये, पैसे और भोजनादि रूप से वेतन ग्रहण करनेवाले अनेक मात्स्यिकमच्छीमार, वागुरिक-जालों से जीवों को पकड़ने वाले व्याध, शाकुनिक-पक्षिघातक नौकर पुरुष थे ; जो श्लक्ष्णमत्स्यों-कोमल चर्मवाली मछलियों यावत् पताकातिपताकों-मत्स्यविशेषों, तथा अजों (बकरों) यावत् महिषों एवं तित्तिरों यावत् मयूरों का वध करके श्रीद रसोइये को देते थे। अन्य बहुत से तित्तिर यावत् मयूर आदि पक्षी उसके यहाँ पिंजरों में बन्द किये हुए रहते थे। श्रीद रसोइया के अन्य अनेक रुपया, पैसा, भोजनादि के रूप में वेतन लेकर काम करने वाले पुरुष अनेक जोते हुए तित्तरों यावत् मयूरों को पक्ष रहित करके (पंख उखाड़ करके) उसे लाकर दिया करते थे। --तए णं से सिरोए महाणसिए बहूर्ण जलयर-थलयर-खयराणं मसाई कप्पणिकप्पियाई करेइ, तं जहा-सण्हखंडियाणि य वखंडियाणि य दीहखंडियाणि य रहस्सखंडियाणि य हिमपक्काणिय जम्मपक्काणि य बेगपक्काणि धम्मपक्काणि य मारुयपक्काणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिद्वाणि य मामलरसियाणि य मुद्दियारसियाणि य कविदरसियाणि य दालिमरसियाणि य मच्छरसियाणि य तलियाणि य भज्जियाणि य सोल्लियाणि य उवक्खडावेति, उवक्खडावेत्ता अन्ने य बहवे मच्छरसए य एणेज्जरसए य तित्तिररसए य जाव मयूररसए य, अन्नं च विउल हरियसागं उवक्खडावेति, उपक्खडावेत्ता मित्तस्स रन्नो मोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेति / अपणा वि य णं से सिरीए महाणसिए तेसि च बहूहि जाव जलयर-थलयर-खहयरमंसेहि रसएहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भज्जिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च जाइं च सीधुच प्रासाएमाणे वीसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरइ / तए णं से सिरीए महाणसिए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्म समज्जिणित्ता तेत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता काल मासे काल किच्चा छट्ठोए पुढवीए उववन्ने। ८-तदनन्तर वह श्रीद नामक रसोइया अनेक जलचर, स्थलचर व खेचर जीवों के मांसों को लेकर सूक्ष्म खण्ड, वृत्त (गोल) खण्ड, दीर्घ (लम्बे) खण्ड, तथा ह्रस्व (छोटे, छोटे) खण्ड किया करता था। उन खण्डों में से कई एक को बर्फ से पकाता था, कई एक को अलग रख देता जिससे वे खण्ड स्वतः ही पक जाते थे, कई एक को धूप की गर्मी से ब कई एक को हवा के द्वारा पकाता था। कई एक को कृष्ण वर्ण वाले तो कई एक को हिंगुल के जैसे लाल वर्ण वाले किया करता था। वह उन खण्डों को तक्र—छाश से संस्कारित, पामलक-प्रांवले से रस से भावित, द्राक्षारस, कपित्थ तथा अनार के रस से भी संस्कारित करता था एवं मत्स्यरसों से भी भावित किया करता था। तदनन्तर उन मांसखण्डों में से कई एक को तेल से तलता, कई एक को आग पर भूनता एक को शूला-प्रोत-सूल में पिरोकर पकाता था। ___ इसी प्रकार मत्स्यमांसों के रसों को, मृगमांसों के रसों को, तित्तिरमांसों के रसों को यावत् मयरमांसों के रसों को तथा अन्य वहुत से हरे शाकों को तैयार करता था, तैयार करके राजा मित्र के भोजनमंडप में लेजाकर भोजन के समय उन्हें प्रस्तुत करता था। श्रीद रसोइया स्वयं भी अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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