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________________ 90] [विपाकसूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्य ५-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स जेटु सीसे जाव सोरियपुरे नयरे उच्चनीयमज्झिमकुले अडमाणे अहापज्जत समुदाणं गहाय सोरियपुरायो नयरानो पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तस्स मच्छंधवाडगस्स अदूरसामतेणं बीइवयमाणे महइमहालियाए मणुस्सपरिसाए मझगयं एग परिसं सुक्कं भक्खं निम्मंसं अद्विचम्मावणद्ध किडिकिडियाभूयं नीलसाडगनियत्थं मच्छकंटएणं गलए अणुलग्गेणं कटाई कलुणाई विस्सराइं उक्कदमाणं अभिक्खणं अभिक्खणं पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकवले य वममाणं पासइ, पासित्ता इमेयारूवे अज्झस्थिए चितिए, कपिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने-'अहो णं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं जाव विहरई' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता जेणेव भगवं महाबोरे तेणेव उवागच्छइ / पुत्वभवपुच्छा जाव वागरणं / ५-~-उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ शिष्य गौतम स्वामी यावत् षष्ठभक्त के पारणे के अवसर पर शौरिकपुर नगर में उच्च, नीच तथा मध्यम-सामान्य घरों में भ्रमण करते हुए यथेष्ट प्राहार लेकर शौरिकपुर नगर से बाहर निकलते हैं। निकल कर उस मच्छीमार मुहल्ले के पास से जाते हुए उन्होंने विशाल जनसमुदाय के बीच एक सूखे, बुभुक्षित (भूखे), मांसरहित व अतिकृश होने के कारण जिसका चमड़ा हड्डियों से चिपटा हुआ है, उठते, बैठते वक्त जिसकी हड्डियां किटिकिटिका-कड़कड़-शब्द कर रही हैं, जो नीला वस्त्र पहने हुए है एवं गले में मत्स्य-कण्टक लगा होने के कारण कष्टात्मक, करुणाजनक एवं दीनतापूर्ण आक्रन्दन कर रहा है, ऐसे पुरुष को देखा / वह खून के कुल्लों, पीव के कुल्लों और कीड़ों के कुल्लों का बारंबार वमन कर रहा था। उसे देख कर गौतम स्वामी के मन में यह संकल्प उत्पन्न हुआ,---अहा ! यह पुरुष पूर्वकृत यावत् अशुभकर्मों के फलस्वरूप नरकतुल्य वेदना का अनुभव करता हुआ समय बिता रहा है ! इस तरह विचार कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पहुंचे यावत् भगवान् से उसके पूर्वभव की पृच्छा की / भगवान् महावीर उत्तर में इस तरह फरमाते हैंपूर्वभव-कथा ६–एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबहीवे दीवे भारहे वासे नंदिपुरे नाम नयरे होत्था। मित्त राया / तस्स णं मित्तस्स रन्नो सिरीए नामं महाणसिए होत्था, अहम्मिए जाव' दुष्पडियाणंदे / ६-हे गौतम ! उस काल एवं उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में नन्दिपुर नाम का प्रसिद्ध नगर था / वहाँ मित्र राजा राज्य करता था। उस मित्र राजा के श्रीद या श्रीयक नाम का एक रसोइया था। वह महाअधर्मी यावत् दुष्प्रत्यानन्द-कठिनाई से प्रसन्न किया जा सकने वाला था। ७--तस्स णं सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिया य बागुरिया य साउणिया य दिन्नभइभत्तवेयणा कल्लाकल्लि बहवे सहमच्छा य जाव 2 पडागाइपडागे य, अए य जाब 3 महिसे य, तित्तिरे य जाव 4 मऊरे य जीवियानो ववरोति, ववरोवेत्ता सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति / 1. तृतीय अ०, मूत्र 4. २-प्रज्ञापना पद 1. ३-सप्तम अ., सूत्र 9. ४-सप्तम अ., सूत्र 9. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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