________________ करते, अत: यह स्पष्ट है कि अन्तिम समय में प्ररूपित कल्याणविपाक पापविपाक के पचपन-पचपन अध्ययन पृथक् हैं / यह विपाक सूत्र नहीं है। / साथ ही यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि समवायांग व नन्दी में विपाक सूत्र की जो परिचय-रेखा प्रस्तुत की गई है जिसमें बीस अध्ययन का उल्लेख है और उसमें जो पदों की संख्या आदि दी गई है उस संख्या से प्रस्तुत वर्तमान आगम की तुलना की जाय तो स्पष्ट है कि उसका बहुत-सा भाग नष्ट हो गया है और उसका आकार अत्यधिक छोटा हो गया है। पर यह स्पष्ट है कि समवायांग के लेखन व देववाचक के नन्दी की रचना करते समय उसका प्राकार वही रहा होगा। उसके पश्चात् उसमें कमी आई होगी। शोधार्थियों के लिए यह विषय अन्वेषणीय है। कर्म-सिद्धान्त जैन-दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है। उस सिद्धान्त का प्रस्तुत आगम में दार्शनिक गहन व गंभीर विश्लेषण न कर उदाहरणों के माध्यम से विषय को प्रतिपादित किया गया है। सांसारिक जीव जो विविध प्रकार के कर्मों का बंध करते हैं उन्हें विपाक की दृष्टि से दो भागों में विभक्त किया गया है—शुभ और अशुभ, पुण्य और पाप, अथवा कुशल और अकुशल / इन दो भेदों का उल्लेख जैनदर्शन,१६ बौद्धदर्शन,१७ सांख्यदर्शन,१८ योगदर्शन,१६ न्यायदर्शन,२० वैशेषिकदर्शन,२१ और उपनिषद् 22 आदि में हुआ है। जिस कर्म के फल को प्राणी अनुकूल अनुभव करता है वह पुण्य है और जिसे प्रतिकूल अनुभव करता है वह पाप है। पुण्य के शुभ फल की तो सभी इच्छा करते हैं किन्तु पाप के फल की कोई इच्छा नहीं करता। फिर भी उसके विपाक से बचा नहीं जा सकता। जीव ने जो कर्म बाँधा है उसे इस जन्म में या आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है / कृतकर्मों का फल भोगे विना प्रात्मा का छुटकारा नहीं हो सकता। प्रस्तुत आगम में पाप और पुण्य को गुरुग्रन्थियों को उदाहरणों के द्वारा सरल रूप से उद्घाटित किया गया है। जिन जीवों ने पूर्वभव में विविध पापकृत्य किये हैं उन्हें आगामी जीवन में दारुण वेदनाएं प्राप्त हुईं। दुःख विपाक में उन्हीं पापकृत्य करने वाले जीवों का वर्णन है / जिन्होंने पूर्व भव में सुकृत किये थे उन्हें भविष्य में सुख उपलब्ध हुआ। 16. तत्त्वार्थसूत्र 6.3.4 17. विशुद्धिमग्गो 1788 18. सांख्यकारिका 44 19. (क) योगसूत्र 2014 (ख) योगभाष्य 2012 20. न्यायमंजरी पृ. 472 21. प्रशस्तपाद पृ. 6371643 22. बृहदारण्यक 3 / 2 / 13 [14] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org