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________________ कर्मवाद का महत्व भारतीय तत्त्वचिन्तक महर्षियों ने कर्मवाद पर गहराई से अनुचिन्तन किया है। न्याय, सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मोमांसक, बौद्ध और जैन सभी दार्शनिकों ने कर्मवाद के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। केवल दर्शन ही नहीं अपितु धर्म, साहित्य, ज्ञान, विज्ञान और कला आदि पर कर्मवाद की प्रतिच्छाया स्पष्ट रूप से निहारी जा सकती है। विश्व के विशाल मंच पर सर्वत्र विषमता, विविधता, विचित्रता का एकच्छत्र साम्राज्य देखकर प्रबुद्ध विचारकों ने कर्म के अद्भुत सिद्धान्त की गवेषणा की। भारतीय जन-जन के मन को यह धारणा है कि प्राणीमात्र को सुख और दुःख की जो उपलब्धि होती है वह स्वयं के किये गये कर्म का हो प्रतिफल है। कर्म से बंधा हुआ जीव अनादिकाल से नाना गतियों व योनियों में परिभ्रमण कर रहा है। जन्म और मृत्यु का मूल कर्म है और कर्म ही दुःख का सर्जक है / जो जैसा करता है वैसा ही फल को प्राप्त होता है। किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि एक प्राणी अन्य प्राणी के कर्मफल का अधिकारी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी का कम स्वसंबद्ध होता है, पर-सम्बद्ध नहीं। यह सत्य है कि सभी भारतीय दार्शनिकों ने कर्मवाद की संस्थापना में योगदान दिया किन्तु जैन परम्परा में कर्मवाद का जैसा सुव्यवस्थित रूप उपलब्ध है वैसा अन्यत्र नहीं। वैदिक और बौद्ध साहित्य में कर्म सम्बन्धी विचार इतना अल्प है कि उसमें कर्म विषयक कोई महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, जब कि जैन साहित्य में कर्म सम्बन्धी अनेक स्वतन्त्र विशाल ग्रन्थ उपलब्ध हैं। कर्मवाद पर जैन परम्परा में अत्यन्त सूक्ष्म, सुव्यवस्थित और बहुत ही विस्तृत विवेचन किया गया है / यह साधिकार कहा जा सकता है कि कर्म सम्बन्धी साहित्य का जैन साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान है और वह साहित्य 'कर्मशास्त्र' या 'कर्मग्रन्थ' के नाम से विश्रुत है / स्वतन्त्र कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त भी आगम व प्रागमेतर जैनग्रन्थों में यत्र-तत्र कर्म के सम्बन्ध में चर्चाएं उपलब्ध हैं। कर्म सम्बन्धी साहित्य भगवान् महावीर से लेकर आज तक कर्मशास्त्र का जो संकलन-आकलन हुआ है वह बाह्य रूप से तीन विभागों में विभक्त किया जा सकता है-पूर्वात्मक कर्मशास्त्र, पूर्वोद्धृत कर्मशास्त्र और प्राकरणिक कर्मशास्त्र / 24 जैन इतिहास की दृष्टि से चौदह पूर्वो में से आठवाँ पूर्व, जिसे 'कर्मप्रवाद' कहा जाता है, उसमें कर्मविषयक वर्णन था / इसके अतिरिक्त दूसरे पूर्व के एक विभाग का नाम 'कर्मप्राभूत' था और पांचवें पूर्व के एक विभाग का नाम 'कषायप्राभृत था। इनमें भी कर्म सम्बन्धी ही चर्चाएं थीं। आज वे अनपलब्ध हैं किन्तु पूर्व साहित्य में से उदधत कर्मशास्त्र आज भी दोनों ही जैन परम्परामों में उपलब्ध है। सम्प्रदाय भेद होने से नामों में भिन्नता होना स्वाभाविक है। दिगम्बर परम्परा में 'महाकर्मप्रकृति प्राभूत' (षट्खण्डागम) और कषायप्राभूत ये दो ग्रन्थ पूर्व से उद्धृत माने जाते हैं / श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार कर्मप्रकृति, शतक, पंचसंग्रह और सप्ततिका ये चार ग्रन्थ पूर्वोद्धत माने जाते हैं। 23. कर्मग्रन्थ, भाग 1 प्रस्तावना, पृ. 15-16 पं. सुखलालजी [ 15 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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