________________ 76 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तदनन्तर पाँच धायमाताओं से सार-संभाल किया जाता हुअा नन्दिषेण कुमार वृद्धि को प्राप्त होने लगा। जब वह बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था को प्राप्त हुआ तब युवराज पद से अलंकृत भी हो गया। तत्पश्चात् राज्य और अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त नंदिषेण कुमार श्रीदाम राजा को मारकर स्वयं ही राज्यलक्ष्मी को भोगने एवं प्रजा का पालन करने की इच्छा करने लगा। एतदर्थ कुमार नन्दिषेण श्रीदाम राजा के अनेक अन्तर--अवसर, छिद्र-जिस समय पारिवारिक व्यक्ति नहीं हों, अथवा विरह--कोई भी पास न हो, राजा अकेला ही हो-ऐसे अवसर की प्रतीक्षा करने लगा। पितृवध का दुःसंकल्प ११-तए णं से नन्दिसेणे कुमारे सिरिदामस्स रन्नो अंतरं अलभमाणे अन्नया कयाइ चित्तं अलंकारियं सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं क्यासी—'तुम्हे गं देवाणुप्पिया ! सिरिदामस्स रन्नो सव्वट्ठाणेसु य सव्वभूमीसु य अंतेउरे य दिन्नवियारे सिरिदामस्स रन्नो अभिक्खणं अभिक्खणं अलंकारियं कम्म करेमाणे विहरसि / तं गं तुम देवाणुप्पिया ! सिरिदामस्स रन्नो अलंकारियं कम्मं करेमाणे गोवाए खुरं निवेसेहि। तो णं अहं तुम्हं प्रद्धरज्जयं करिस्सामि / तुम अम्हेहिं सद्धि उरालाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरिस्ससि / ' तए णं से चित्ते अलंकारिए नंबिसेणस्स कुमारस्स एयमट्ठ पडिसुणेइ / ११--तदनन्तर श्रीदाम नरेश के वध का अवसर प्राप्त न होने से कुमार नन्दिषेण ने किसी अन्य समय चित्र नामक अलंकारिक-नाई को बुलाकर इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुम श्रीदाम नरेश के सर्वस्थानों, सर्वभूमिकाओं तथा अन्तःपुर में स्वेच्छापूर्वक आ-जा सकते हो और श्रीदाम नरेश का बारम्बार क्षौरकर्म करते हो / अतः हे देवानुप्रिय ! यदि तुम श्रीदाम नरेश के क्षौरकर्म करने के अवसर पर उसकी गरदन में उस्तरा घुसेड़ दो- इस प्रकार तुम्हारे हाथों नरेश का वध हो जाय तो मैं तुमको आधा राज्य दे दूंगा। तब तुम भी हमारे साथ उदार-प्रधान कामभोगों का उपभोग करते हुए सानन्द समय व्यतीत कर सकोगे। चित्र नामक नाई ने कुमार नन्दिषेण के उक्त कथन को स्वीकार कर लिया। षड्यंत्र विफल : घोर कदर्थना १२--तए णं तस्स चित्तस्स अलंकारियस्स इमेयारूवे जाव (प्रज्झथिए चितिए कप्पिए पत्थिए मणोगए संकप्पे) समुप्पज्जित्था-'जइ णं मम सिरिवामे राया एयमागमेइ, तए णं मम न नज्जइ केणइ असुभेणं कुमारेणं मारिस्सइति / कट्ट, भीए जेणेव सिरिदामे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिरिदामं रायं रहस्सियगं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्त मत्थए अंजलि कट्ट एवं वयासी 'एवं खलु सामी ! नंदिसेणे कुमारे रज्जे य जाव मुच्छिए इच्छइ तुम्मे जीवियानो ववरोवित्ता सयमेव रज्जसिरि कारेमाणे पालेमाणे विहरित्तए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org