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________________ नवम अध्ययन : देवदत्ता [ 86 का आदर नहीं करते, यह जानकर एकत्रित हुई और 'अग्नि, शस्त्र या विष के प्रयोग से श्यामा के जीवन का अन्त कर देना ही हमारे लिए श्रेष्ठ है' ऐसा विचार कर वे अवसर की खोज में हैं। जब ऐसा है तो न जाने वे किस कुमौत से मुझे मारें ? ऐसा विचार कर वह श्यामा भीत, त्रस्त, उद्विग्न व भयभीत हो उठी और जहाँ कोपभवन था वहाँ आई। पाकर मानसिक संकल्पों के विफल रहने से मन में निराश होकर प्रात ध्यान करने लगी। ११–तए णं से सोहसेणे राया इमोसे कहाए लद्ध? समाणे जेणेव कोवघरए, जेणेव सामा देवो, तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता सामं देवि प्रोहयमणसंकप्पं जाव पासइ, पासित्ता एवं वयासी-"कि णं तुम देवाण्णुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियासि ?" तए णं सा सामा देवी सोहसेणेण रन्ना एवं वुत्ता समाणी उप्फेणउस्फेणियं सोहसेणं रायं एवं वयासी---'एवं खलु सामो ! मम एगणपंचसवत्तिसयाणं एगण-पंचमाइसयाणं इमोसे कहाए लद्धट्टाणं समाणाणं अन्नमन्नं सदावेंति, सहावित्ता एवं वयासी–एवं खलु सोहसेणे राया सामाए देवीए उरि मुच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववण्णे अम्हं धयानो नो प्राढाइ, नो परिजाणइ, अणाढायमाणे, अपरिजाणमाणे विहरइ, तं सेयं खलु, प्रम्ह सामं देवि अग्गिप्पप्रोगेण वा विसयोगेण वा सत्थप्पनोगेण वा जीवियानो ववरोवित्तए।' एवं संपेहेंति, संपेहित्ता मम अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणोनो विहरंति / तं न नज्जइ णं सामी! ममं केणइ कुमारेण मारिस्संति ति कट्ट. भीया जाव झियामि। ११-तदनन्तर सिंहसेन राजा इस वृत्तान्त से अवगत हुआ और जहाँ कोपगृह था और जहां श्यामादेवी थी वहाँ पर पाया। आकर जिसके मानसिक संकल्प विफल हो गये हैं, जो निराश व चिन्तित हो रही है, ऐसी निस्तेज श्यामादेवी को देखकर कहा-हे देवानुप्रिये ! तू क्यों इस तरह अपहृतमनःसंकल्पा होकर चिन्तित हो रही है ? सिंहसेन राजा के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर दूध के उफान के समान क्रु द्ध हुई अर्थात् क्रोधयुक्त प्रबल वचनों से सिंह राजा के प्रति इस प्रकार बोली हे स्वामिन् ! मेरो एक कम पांच सौ सपत्नियों (सोतों) की एक कम पांच सौ माताएं इस वत्तान्त को (कि आप मुझमें अनुरक्त हैं) जानकर इकट्ठी होकर एक दूसरे को इस प्रकार कहने लगी-महाराज सिंहसेन श्यामादेवी में अत्यन्त आसक्त, गृद्ध, ग्रथित व अध्युपपन्न हुए हमारी कन्यारों का आदर सत्कार नहीं करते हैं। उनका ध्यान भी नहीं रखते हैं। प्रत्युत उनका अनादर व विस्मरण करते हुए समय-यापन कर रहे हैं; इसलिये अब हमारे लिये यही समुचित है कि अग्नि, विष या किसी शस्त्र के प्रयोग से श्यामा का अन्त कर डालें। तदनुसार वे मेरे अन्तर, छिद्र और विवर की प्रतीक्षा करती हुई अवसर देख रही हैं / न जाने मुझे किस कुमौत से मारें! इस कारण भयाक्रान्त हुई मैं कोपभवन में आकर वार्तध्यान कर रही हूँ। १२-तए णं से सोहसेणे साम देवि एवं वयासी-'मा णं तुमं देवाणुप्पिए ! प्रोहयमणसंकप्पा जाव झियाहि / अहं णं तहा जत्तिहामि जहा णं तव नस्थि कत्तो वि सरीरस्स प्रावाहे पवाहे वा भविस्सई त्ति कटु ताहि इटाहि जाव (कंताहि पियाहि मणुण्णाहि मणामाहि वहि) समासासेइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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