________________ 62 [ विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतकन्ध ११–तए णं से सगड़े दारए सुरिसणाए गणियाए गिहाम्रो निच्छुभेमाणे सुरिसणाए गणियाए मच्छिए गिद्ध गढिए अज्झोववण्णे अण्णस्थ कत्थइ सुई च रइं च घिइंच अलभमाणे तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसाणे तट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए सुदरिसणाए गणियाए बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहर। तए णं से सगडे दारए अन्नया कयाइ सुदरिसणाए गणियाए अंतरं लभेइ, लभेत्ता सुदरिसणाए गणियाए गिहं रहसियं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता सुदरिसणाए सद्धि उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। घर से निकाला गया शकट सुदर्शना वेश्या में मूच्छित, गृद्ध, अत्यन्त आसक्त होकर अन्यत्र कहीं भी सुख चैन, रति, शान्ति नहीं पा रहा था। उसका चित्त, मन, लेश्या अध्यवसाय उसी में लीन रहता था। वह सुदर्शना के विषय में ही सोचा करता, उसमें करणों को लगाए रहता, उसी की भावना से भावित रहता। वह उसके पास जाने की ताक में रहता और अवसर देखता रहता था। एक बार उसे अवसर मिल गया। वह सुदर्शना के घर में घुस गया और फिर उसके साथ भोग भोगने लगा। १२-इम च णं सुसेणे अमच्चे पहाए जाव सध्वालंकारविभूसिए मणुस्सवरगुराए परिक्खित्ते जेणेव सदरिसणाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छद, उवागच्छित्ता सगडं दारयं सूदरिसणाए गणियाए सद्धि उरालाई भोग भोगाई भुजमाणं पासइ, पासित्ता प्रासुरुत्ते जाव मिसमिसेमाणे तिवलियं भिडि निडाले साहट्ट सगडं दारयं पुरिसेहि गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता अट्टि जाव(मुट्ठि-जाणु-कोपर-पहार संभग्गमहियं करेइ, करिता प्रवनोडयबन्धणं करेइ, करेत्ता जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागच्छ, उवाग. च्छित्ता करयल जाव एवं वयासी–'एवं खलु सामो! सगडे दारए मम अंते उरंसि प्रवरद्धे / ' तए णं से महचंदे राया सुसेणं अमच्चं एवं क्यासी-'तुमं चेव णं, देवाणुपिया ! सगडस्स दारगस्स दंडवत्तेहि।' तए णं से सुसेणे अमच्चे महचंदेणं रन्ना अब्भणुन्नाए समाणे सगडं दारयं गुदरिसणं च गणियं एएणं विहाणेणं वज्झं प्राणवेइ / तं एवं खलु, गोयमा ! सगडे दारए पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ / १२-इधर एक दिन स्नान करके तथा सर्व अलङ्कारों से विभूषित होकर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित सुसेण मन्त्री सुदर्शना के घर पर आया। आते ही उसने सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए शकट कुमार को देखा / देखकर वह क्रोध के वश लाल-पीला हो, दांत पीसता हुआ मस्तक पर तीन सल वाली भृकुटि चढ़ा लेता है। शकट कुमार को अपने पुरुषों से पकड़वाकर यष्टियों, मुट्ठियों, घुटनों, कोहनियों से उसके शरीर को मथित कर अवकोटकबन्धन से जकड़वा लेता है। तदनन्तर उसे महाराज महचन्द्र के पास ले जाकर दोनों हाथ जोड़कर तथा मस्तक पर दसों नखवाली अञ्जलि करके इस प्रकार निवेदन करता है-'स्वामिन् ! इस शकट कुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org